शनिवार, 22 अप्रैल 2023

आपा के नाम ख़त तथा अन्य कविताएँ

- गणेश पाण्डेय

इब्राहीम भाई 
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खेत थोड़े से थे लेकिन उसका काम 
इब्राहीम भाई जैसे शख़्स देखते थे 
मुसलमान होकर भी इसलिए देखते थे
कि गाँव-जवार में उनकी जोड़ का
कोई ईमान वाला नहीं था कोई हिन्दू
उतना अच्छा रहा होता तो हमारे लिए 
खेती को लेकर इब्राहीम भाई की हर बात 
पत्थर की लकीर क्यों होती
बाबूजी जाते समय क्यों कहते
इब्राहीम भाई को भाई समझना।


ईदी
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काफ़ी समय से एसी की सर्विसिंग का काम 
अफ़रोज़ भाई देखते हैं आज आख़रि जुमा था
मैंने कहा था कि ईद के बाद करा दीजिएगा
नातिन आयी है जानकर उन्होंने दो नौजवान 
मिस्त्रियों को थोड़ी देर में भेज दिया
सर्विसिंग के बाद जब वे नौजवान जाने लगे तो
मज़दूरी के बाद ईदी कहकर कुछ रुपये दिए
ईदी के नाम पर उनकी आँखों में जो चमक
और चेहरे पर जो ख़ुशी आयी अनमोल थी
अनमोल थी अनमोल थी। 


चच्ची
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किशोर जीवन से ईद पर
चच्ची के हाथ की सेवइयाँ खाता रहा
दूसरे दिनों में भी चच्ची के हाथ का 
हम कुछ भी खा लेते थे उनकी बेटी मुझे
भाई समझती थी और उसके भाई को मैं भाई
वह था भी भाईचारे के काबिल 
हिन्दुओं के साथ होली खेलता था साथ रहता था
उसके पिता कम्युनिस्ट थे यह उसके वुजूद में था
चच्ची अब नहीं हैं वह आज भी है उसी तरह
अब वहाँ कम जा पाता हूँ कम मिल पाता हूँ।


रोजन चच्चा
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रोजन किन्नर थे
रोजन को हम चच्चा कहते थे उनकी झोपड़ी
हमारे घर से थोड़ी दूर पर थी जब मिलते
पूछते का हो बेटा हम कहते ठीक है चच्चा
कभी दुकान पर चाय पी रहे होते तो पूछते
चाय पी बो हम कहते बाद में चच्चा
जब हमारे हाथ पैर में मोच आ जाए
चच्चा घर आकर मालिश से ठीक कर देते
हमें बुख़ार हो तो वेदनानिग्रह रस दे जाते
वे किन्नर नहीं हम बच्चों के चच्चा थे।


आपा के नाम ख़त
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आपा 
अस्सलाम अलैकुम
नर्सिंगहोम से मैं भी अपनी बेटी को लेकर आ गया हूं
आप भी इक़रा को लेकर बख़ैरियत घर पहुंच चुकी होंगी
इक़रा भी मुझे अपनी बेटी जैसी प्यारी लगी
अब कैसी है
आपा 
हमारे पास पैसे थे 
हम बच्चों के लिए बेहतर कर सकते थे
जिनके पास पैसे नहीं थे
कोई सरकार उनके लिए ऐसा नहीं करती
हिन्दू-मुसलमान के नाम पर मुफ़्त में ऐसा इलाज नहीं होता
ठीक है कि डाक्टर हेली-मेली थे पांच हज़ार छोड़ दिया
वर्ना हिन्दू चाहे मुसलमान होने पर
एक कप चाय तो मुफ़्त मिलती नहीं
आपा 
आप कितनी अच्छी हैं
आपने इक़रा के लिए थर्मस में रखा दूध
आधी रात में मेरी बिटिया के लिए पेश किया
शुक्रिया
आपा
मेरी कोई दिदिया होती तो बिल्कुल आप जैसी होती
क्या पता पिछले जनम में मैं आपका भाईजान रहा होऊं
हो सकता है कि आप मेरी दिदिया रही हों
आपा 
सच कहूं तो मैं
मज़हब की किताब कम पढ़ता हूं
ज़िन्दगी की ज़्यादा
मुझे 
ज़्यादा पता नहीं 
कि मज़हब की किताबें पहले पैदा हुईं या इंसान
कुछ-कुछ तो पता है 
कि ज़िन्दगी की किताब ही 
धरती की सबसे पुरानी और सबसे प्यारी किताब है
आपा
आज आप यह ख़त खोलेंगी तो हैरान होंगी
खुश भी बहुत होंगी वालेकुम अस्सलाम कहेंगी
शुक्रिया कहना जरूरी था बस
भाईजान को भी शुक्रिया जरूर कहिएगा
पहला निवाला मुंह में लेने से पहले पूछने के लिए
आपा अख़ीर में
बड़ों के लिए दुआएं 
बच्चों के लिए बहुत-बहुत प्यार
और आप दोनों के लिए तहेदिल से प्यार
इक़रा के निक़ाह में 
इंशाअल्लाह हम ज़रूर शामिल होंगे।


सलाम 
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सब साहिबान को सलाम
जो मुझे छोड़ने आए थे सिवान तक
उन भाइयों को सलाम जो अड्डे तक आए थे
मेरी छोटी-छोटी चीज़ों को लेकर ।
उन चच्चा को ख़ासतौर से सलाम
जिन्होंने मेरा टिकट कटाया था
और कुछ छुट्टे दिए थे वक़्त पर काम आने के लिए।
बचपन के उन साथियों को सलाम
जिन्होंने हाथ हिलाया था
और जिन्होंने हाथ नहीं हिलाया था ।
अम्मी को सलाम
जिन्होंने ऐन वक़्त पर गर्म लोटे से
मेरा पाजामा इस्त्री किया था और जल गई थी
जिनकी कोई उँगली ।
आपा को सलाम
जिनके पुए मीठे थे ख़ूब और काफ़ी थे
उस कहकशाँ तक पहुँचे मेरा सलाम
जो मुझे कुछ दे न सकी थी
खिड़की की दरार से सलाम के सिवा ।
उस याद को सलाम
जिसने ज़िन्दा किया मुझे कई बार
उस वतन को सलाम
जो मुझे छोड़कर भी मुझसे छूट नहीं पाया ।
रास्ते की तमाम जगहों और उन लोंगो को सलाम
जिन्होंने बैठने के लिए जगह दी
और जिन्होंने दुश्वारियाँ खड़ी कीं
उस वक़्त को सलाम
जिसने मुझे मार-मार कर सिखाया यहाँ
किसी आदमी को रिश्तों से नहीं
उसकी फ़ितरत से जानो ।
ऐ ज़िंदगी तुझे सलाम
जो किसी काम के वास्ते तूने चुना
किसी ग़रीब को ।







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