- गणेश पाण्डेय
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चांदी की थाली में झिलमिल मुखड़ा
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थोड़े से
कुछ युवा दिन मिल जाएं
तो हो जाना चाहूंगा बिल्कुल
तुममय स्नेहसिक्त अद्वितीय अनुरक्त
क्या
हो पाऊंगा
तुम-सा कोमल
स्पंदित तरल मधुमय शीतल
सांगीतिक विद्यापति का गान
कहां से लाऊंगा
दीर्घग्रीवा और उसके चहुंओर
काले से भी काले घुंघराले ख़ूब घने
लंबे से भी लंबे स्निग्ध सुवासित केश
छाप पाऊंगा जैसे तुम
आकाश को संध्या की तरह नित
छाप लेती हो कोई राग गाती हो
ब्रह्मांड में
उन्मीलित विस्फारित
पलकों वाली चितवन को केश से
चाहे मृदुल हथेलियों से ढांप पाऊंगा
क्या फिर से
नदी के जल में तैरती
चांदी की थाली में झिलमिल मुखड़ा
गुजरती हुई रेल से देख पाऊंगा
रेल की खिड़की से
रेल की छुक-छुक से भी मीठी आवाज में
तुम्हें पुकार पाऊंगा उसी पुराने पुल से
तुम्हे संबोधित करके
तुम्हारे अधरों पर एक उंगली रखकर
तुम्हारे दोनों कर्णफूल आंखों से छूकर
फिर से
प्रेम कविता लिखना चाहूं तो
चाहकर भी क्या लिख पाऊंगा
तुम्हें पूरा का पूरा नख से शिख तक
तुम्हारी आत्मा से फूटता
भाषा का कलकल करता वह झरना
कहां से लाऊंगा पता नहीं समय का
कितना पानी बह गया होगा
इन खुरदुरी उंगलियों से
असंख्य बेवाई फटे पैरों से दौड़कर
तुम्हारे धवल मसृण द्युतिमान तीव्रगति
शशक जैसे शब्द पकड़ कैसे पाऊंगा
फिर छूट जाऊंगा
तुम्हारे आंचल की छोर से
खुल जाएगी प्रीत की गांठ उसी तरह
जीवन की इस सांझ में
गोधूलि से धुंधले हृदय के आकाश में
आए बिना चली जाओ चली जाओ
मेरे युवा दिनों की तुम।
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आलोचक का कर्तव्य 1
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आलोचक को
पहले अपनी आंख धुलना चाहिए
आलोचक को
फिर अपना चश्मा साफ करना चाहिए
तब रचना को सतह के ऊपर कम
और नीचे से ज्यादा देखना चाहिए
फिर लेखक को उलट-पलट कर
आगे से और पीछे से देखना चाहिए
जुगाड़ी लेखक की किताब हो तो
ठीक से चीर-फाड़ कर देखना चाहिए
कुत्ते की तरह पूंछ हिला-हिला कर
आलोचना कभी नहीं करना चाहिए
आज भी कुछ लोग हैं जिनकी तरह
निडर आलोचना लिखना चाहिए।
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आलोचक का कर्तव्य 2
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चापलूस कवियों को
कान के पास नहीं आने देना चाहिए
और सिर पर चंपी करके हरगिज
खुश करने का मौका नहीं देना चाहिए
साष्टांग दण्डवत वाले कवियों को
चरणरज से काफी दूर रखना चाहिए
देखते रहना चाहिए लेकर जाने न पाएं
कहीं पैर ही उठाकर लेकर न चले जाएं
आलोचक को अपने समय के प्रसिद्ध
कवियों के रथ के आगे-पीछे नहीं चलना
चाहिए चंवर नहीं डुलाना चाहिए
जयकार नहीं करना चाहिए
रथ को गुजर जाने देना चाहिए
धूल बैठ जाने देना चाहिए
फिर उनकी कृतियों को
ईमान की रोशनी में
पढ़ना चाहिए
आलोचक को
कवि की नौकरी नहीं
अपना काम करना चाहिए
अपने लिखे पर अपने अंगूठे का
निशान लगाना चाहिए
आलोचक को
नचनिया कवियों की भीड़ में
खुद नचनिया आलोचक नहीं होना चाहिए
आलोचना को अपने साहित्य समय का
मनोरंजन नहीं संग्राम समझना चाहिए।
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आलोचक का कर्तव्य 3
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आलोचक को
मठों का कुत्ता नहीं बनना चाहिए
साहित्य के भ्रष्ट किले और गढ़
तोड़ना चाहिए
आलोचक को
साहित्य को पुरस्कार के वायरस से
बचाना चाहिए दूर करना चाहिए
लिखने से पहले बीस सेकेंड
साबुन से हाथ जरूर धुलना चाहिए
आलोचक को
फरमाइश पर कुछ भी
लिखने से बचना चाहिए
लिखे बिना जिंदा न रह पाओ
तो अपनी बेचैनी कहो
आलोचकों के लिए
सबसे जरूरी बात यह है
कि हिंदी के बागी लेखकों के साथ
कुछ दिन रहो लेखक किसे कहते हैं
देखो फिर आलोचना लिखो।
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मनुष्य
-------
ये राजपाट
धरा का धरा रह जाएगा
सारा विज्ञान और विचार
किसी काम नहीं आएगा
दुनियाभर के धर्माचार्यों
दार्शनिकों और लेखकों से
कुछ नहीं हो पाएगा
जब मनुष्य के भीतर का
मनुष्य ही मर जाएगा।
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पिद्दी लेखकों का मेला
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अपने वक़्त के
हिंदी के सभी लेखकों की जाति
उलट-पलट कर देख चुका हूं
बहुत थोड़े से लेखक हैं
गिने-चुने हैं जिन्हें गिनता हूं
जिनकी इज़्ज़त करता हूं
बाक़ी सब के सब
नाम-इनाम के नाबदान में
बहने वाले हिंदी के कीड़े-मकोड़े हैं
लेखिकाओं के बारे में
कोई सख़्त टिप्पणी नहीं करूंगा
कम अच्छी हों तो भी बहन मानूंगा
भाई होने के नाते जरूर कहूंगा
ख़ुद को ठीक करना कुतर्क मत करना
साहित्य को सिंगार-पटार मत समझना
आज हिंदी में
पिद्दी लेखकों का मेला है जिसे देखो
अमर होने का खिलौना ख़रीद रहा है
अबे कुछ करके जाना चाहता है
तो बूढ़ी दादी हिंदी के लिए लोहे का
चिमटा ख़रीद
आख़रि मैं भी तो एक दिन
हिंदी के कार्यकर्ता के रूप में जाऊंगा
देखो मुझमें रत्तीभर यशेषणा है कहीं।
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हाथी और बच्चा 1
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बच्चा
बड़ी मेहनत से
हाथी पर बैठा था
उसे हाथी से
बल और छलपूर्वक
उतार दिया गया
बच्चा
रूठकर
गधे पर बैठ गया
तो बच्चा
फासिस्ट हो गया
और हाथी से उतारने वाले
घुटे-घुटाए दो बूढ़े पक्के
मार्क्सवादी हो गये!
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हाथी और बच्चा 2
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हाथी से
उतार दिए गये बच्चे को
क्या करना चाहिए था
हाथी के पैर के नीचे
लेट जाना चाहिए था
हाथी के पीछे-पीछे
जीवनभर
ताली बजाना चाहिए था
या बुड्ढों को मरते दम तक
राजनीति में ऐयाशी
करने देना चाहिए था
या गधे पर बैठकर
जनता के पास जाना चाहिए था
राजनीति के गधों का अहंकार
तोड़ना चाहिए था
या हाथी से
उतार दिए गये बच्चे को
फासिस्ट कहने वालों को
हिंदी का गधा कहना चाहिए था।
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हाथी और बच्चा 3
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हाथी से उतारे गये
बच्चे को मत कोसो
अक्ल है तो महल को
कुतर-कुतर कर
जर्जर बनाने वाले
पचहत्तर के
चूहों को देखो
महल को बचाना है
तो मदहोश रानी को
युवराज और राजकुमारी के
कारनामों को देखो
अपने हाथ से अपना महल
ढहाने वालों को देखो
भाग्यशाली हो
क्रांतिकारियो अपनी आंख से
व्यावहारिक राजनीति में
अपना पक्ष ढहते हुए देख रहे हो
और कुछ नहीं कर पा रहे हो
राजघराना मदहोश है
और तुम उस पर फिदा हो
काश पहले गाली-गलौज
और चिल्लाना छोड़कर
अपने राजनीतिक मोर्चे को
मजबूत कर पाते।
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हाथी और बच्चा 4
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हाथी से
उतार दिया गया बच्चा
राजनीति का ज्योतिरादित्य है
हिंदी का कोई लेखक नहीं
हिंदी के
असंख्य ज्योतिरादित्य
नित आलोचकों संपादकों
अकादमियों के अध्यक्षों
पुरस्कारप्रदाताओं मठाधीशों
और विभागाध्यक्षों का
पृष्ठप्रक्षालन करते-करते
हाथी के पीछे-पीछे ताली बजाते
हो-हो करते नाचते-गाते
अंत में दांत चियारकर
मर जाते हैं
राजनीति की दुनिया में
जोखिम है संघर्ष है साहस है
साहित्य की दुनिया में दिल्ली से
गोरखपुर तक सब लिबलिब है
हां हां लिबलिब है लिबलिब है।
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हाथी और बच्चा 5
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मैं भी कभी
साहित्य में बच्चा था
मुझे भी इसी गोरखपुर में
कान पकड़कर हाथी से
उतार दिया गया था
फिर भी उतार दिया जाना
मेरे लिए रत्तीभर बुरा नहीं था
रंज का सवाल ही नहीं पैदा होता था
बुरा तो तब लगा गुस्सा तो तब आया
जब मेरी जगह मेरे सामने ही
हिंदी की हाथी पर
हिंदी के सचमुच के गधों को
बैठा दिया गया था
मैंने कुछ नहीं कहा
कहा भी तो खुद से सिर्फ इतना
कि छोड़ो गधों की पार्टी को
और आगे बढ़ो
अपने वक्त के
किसी ऊंट की तरफ नहीं देखा
किसी घोड़े की तरफ नहीं देखा
हिंदी के किसी गधे की तरफ देखने का
कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था
हिंदी के किसी चूहे से भी नहीं कहा
कि मेरा तो नाम ही गणेश है मुझे
अपनी पीठ पर बैठा लो
खुद पर भरोसा किया
अपनी भुजाओं पर भरोसा किया
अपने पैरों पर भरोसा किया
और चल पड़ा हिंदी के बीहड़ में
चलता रहा चलता रहा
तमाम साल चलता रहा
पैदल
इतना आगे निकल आया हूं
कि पीछे मुड़कर देखने पर
न किसी का हाथी दिखता है
न हाथी पर बैठा हुआ
कोई शख्स दिखता है।
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दोस्त 1
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वह
मेरा दोस्त है
और मेरे दुश्मन का
ज़रख़रीद ग़ुलाम है
ओह
मेरे ईश्वर
इस जीवन में मुझे
क्या-क्या देखना पड़ेगा।
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दोस्त 2
---------
मेरा
एक दोस्त
कामयाब दलाल है
उसके पास काफी सम्पत्ति है
फिर भी
वह मेरी ज़मीन को
गिद्ध की तरह नोच-नोच कर
खा जाना चाहता है।
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दोस्त 3
--------
मेरे
कुछ दोस्त कवि हैं
कुछ कथाकार हैं कुछ आलोचक
शुरू में
सब साथ थे प्यार करते थे
आना-जाना मिलना-जुलना था
जैसे ही मैं एक साथ
तीनों हुआ मुझमें सींग निकल आए
और वे सींग से दूर रहने लगे हैं।
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दोस्त 4
---------
मेरे
कुछ दोस्त
बहुत से बहुत भोले हैं
कोई भी कुछ भी
उनके कान में कहभर दे
वे कान में कही गयी हर बात को
आंखों देखी समझ लेते हैं
मेरे
ये लोकल दोस्त
लोकल ट्रेन से भी लोकल हैं
बिछी हुई पटरियों पर
दौड़ते रहने के अलावा कुछ और
कर ही नहीं सकते।
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दोस्त 5
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होली में
आज एक-एक कर
दोस्तों की याद आ रही है
असल में
मेरे जितने भी दोस्त हैं
हैं और नहीं हैं
कह सकते हैं
सबके सब मित्रता की खोल में
डरे हुए लोग हैं
कह सकते हैं
केंचुए हैं लोमड़ी हैं
दोस्त नहीं किसी के जासूस हैं
मेरे दोस्त
तब भी वही थे आज भी वही हैं
तब तरह-तरह के रंग पोत लेते थे
अब उनके सारे रंग उतर चुके हैं।
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झूठ बोलना छोड़ दो
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न मंचों पर
कविता पढ़ने के लिए
जुगाड़ करो
न कभी इनाम के लिए
नाक रगड़ो न क़ुबूल करो
सब ठीक हो जाएगा
तुम्हारी
दुआ क़ुबूल हो जाएगी
वतन ख़ुशहाल हो जाएगा
तंगनज़री दूर हो जाएगी
बस
तुम सुधर जाओ
आदमी बन जाओ
गैंग-फैंग से
फ़ौरन से पेश्तर
नौ दो ग्यारह हो जाओ
झूठ बोलना छोड़ दो तो
ये नेता-फेता चुटकियों में
सुधर जाएंगे।
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गलत कबीर थे कि तुम हो
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पूरब और पश्चिम
चाहे उत्तर और दक्षिण
दंगे में दोनों तरफ से पत्थर
क्यों चलते हैं
आखिर
एक तरफ से पत्थर
और दूसरी तरफ से लाल गुलाब
क्यों नहीं चलते
हद है
खून के प्यासे दोनों तरफ हैं
बस शुरू होने की देर है
एक शुरू होगा तो दूसरा
आप से आप शुरू हो जाएगा
जहर
तो दोनों तरफ के दिमागों में
कूट-कूटकर भरा गया है
तुम्हीं बताओ कबीर गलत थे
कि तुम गलत हो।
---------
शिक्षक
---------
एक कक्षा में
अगर दो गुट हों
तो दोनों बदमाशी करते हैं
एक शिक्षक
दोनों पर नजर रखता है
सब पर नजर रखता है
वक्त आने पर
दोनों को मुर्गा बनाता है
कभी अलग-अलग
कभी साथ-साथ
कबीर की तरह
दोनों की पीठ पर
ईंट पर ईंट भी रखता है
आज
एक लेखक को भी
यही सब करना होता है
लेकिन वह कर नहीं पाता है
बेचारा
कभी पार्टी की
तो कभी लेखकसंघ की
ईंट ढोता है।
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दंगाई
-------
दंगाई
आमतौर पर
आदमी नहीं होता है
किसी गैंग का आदमी होता है
किसी पार्टी का कारकुन होता है
उसकी पीठ पर किसी का हाथ होता है
सात चूहे खाकर
एक से एक पार्टियां
बिल्ली की तरह छुपी होती हैं
पर्दे की आड़ में
वहीं से मुहैया कराती हैं
गंदे से गंदे विचार बंदूक पेट्रोल वगैरह
लेखक सब जानते- बूझते हुए
इन्हीं पार्टियों की चाकरी करते हैं
एक को दंगाई कहते हैं दूसरे को
अल्ला मियां की गाय
इस तरह तो
भारत कभी दंगामुक्त नहीं होगा
क्या राजनीति ने दोनों तरफ
दंगाई सांड़ पैदा नहीं किये हैं
तो क्या ये दंगाई आसमान से
फाट पड़े हैं।
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काश
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लेखकों को चाहिए
हाथ जोड़कर सभी पार्टियों से
नत मस्तक होकर विनती करें
हे पार्टियो
अब बस करें
देश को एक जून खाकर
एक चुल्लू पानी पीकर
टूटी-फूटी खाट पर चैन से सोने दें
अपना खेत-खलिहान
मेहनत-मजदूरी करने दें
नंग-धड़ंग बच्चों प्यार करने दें
एक जोड़ी कपड़े में इज्जत से
बिटिया को विदा करने दे
हे पार्टियो
जनता को ईश्वर-अल्ला
हिंदू-मुसलमान के नाम पर
मारकाट में न फंसाएं
देखना
कहीं तुम्हारी सत्ता की भूख
जनता तो जनता
देश को न खा जाए
काश
देश के लिजलिजे लेखक
इतनी-सी सीधी-सादी बात को
समझ पाएं और उठ जाएं।
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बेचारे थोड़े से लोग
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ज्यादातर लोग
कट्टर सेकुलर हैं
उनकी आंखें दिनरात
सिर्फ फासिस्ट देखती हैं
ज्यादातर लोग
कट्टर फासिस्ट हैं
उनकी आंखें दिनरात
सिर्फ सेकुलर देखती हैं
बेचारे
थोड़े से लोग हैं क्या करें
उनकी आंखें दिनरात
दोनों को देखती हैं।
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विडम्बना
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इसे
न गाकर हराया जा सकता है
न सड़क बंद कर हराया जा सकता है
न विश्वविद्यालयों और गोष्ठियों में
गालियां देकर हराया जा सकता है
जो भी कुर्सी पर बैठता है
उसकी चमड़ी मोटी हो जाती है
न इसे साबुन धुल सकती हैं
न कलाई पर राखी बांधकर
इसे हराया जा सकता है
बहनो
और बच्चो और बच्चों के चच्चो
इसे सिर्फ चुनाव में हराया जा सकता है
और यह काम बहुत मुश्किल है
जो तुम्हे़ पीछे से
साथ देने की बात करते हैं
और सामने नहीं आते
उन्हें तुम्हारी नहीं अपनी पड़ी है
अपनी कुर्सी की पड़ी है
और उनके पीछे सीबीआई
और दूसरी एजेंसियां पड़ी हैं
सबको कुर्सी चाहिए
सबको प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री बनना है
दस एमपी वाला बीस वाला
जब पीएम बनना चाहेगा तो भला
पचास वाला क्यों नहीं चाहेगा
इस देश में बड़े बदलाव के रास्ते का
असल रोड़ा यही है
तुम्हारा धरना
तुम्हारी आत्मा और ईमान का धरना है
तुम्हारे वक़ार का सत्याग्रह है
इस देश से तुम्हारी मोहब्बत का
अफ़साना है
अपनी मांओं-बहनों से कहने के लिए
उनके पोशीदा आंसुओं को पोछने के लिए
मेरे पास कुछ नहीं है कुछ नहीं
इस वक़्त न मेरे पास कोई रूमाल है
न कोई टूटा-फूटा शब्द
यह कैसी विडम्बना है।
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चांदी की थाली में झिलमिल मुखड़ा
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थोड़े से
कुछ युवा दिन मिल जाएं
तो हो जाना चाहूंगा बिल्कुल
तुममय स्नेहसिक्त अद्वितीय अनुरक्त
क्या
हो पाऊंगा
तुम-सा कोमल
स्पंदित तरल मधुमय शीतल
सांगीतिक विद्यापति का गान
कहां से लाऊंगा
दीर्घग्रीवा और उसके चहुंओर
काले से भी काले घुंघराले ख़ूब घने
लंबे से भी लंबे स्निग्ध सुवासित केश
छाप पाऊंगा जैसे तुम
आकाश को संध्या की तरह नित
छाप लेती हो कोई राग गाती हो
ब्रह्मांड में
उन्मीलित विस्फारित
पलकों वाली चितवन को केश से
चाहे मृदुल हथेलियों से ढांप पाऊंगा
क्या फिर से
नदी के जल में तैरती
चांदी की थाली में झिलमिल मुखड़ा
गुजरती हुई रेल से देख पाऊंगा
रेल की खिड़की से
रेल की छुक-छुक से भी मीठी आवाज में
तुम्हें पुकार पाऊंगा उसी पुराने पुल से
तुम्हे संबोधित करके
तुम्हारे अधरों पर एक उंगली रखकर
तुम्हारे दोनों कर्णफूल आंखों से छूकर
फिर से
प्रेम कविता लिखना चाहूं तो
चाहकर भी क्या लिख पाऊंगा
तुम्हें पूरा का पूरा नख से शिख तक
तुम्हारी आत्मा से फूटता
भाषा का कलकल करता वह झरना
कहां से लाऊंगा पता नहीं समय का
कितना पानी बह गया होगा
इन खुरदुरी उंगलियों से
असंख्य बेवाई फटे पैरों से दौड़कर
तुम्हारे धवल मसृण द्युतिमान तीव्रगति
शशक जैसे शब्द पकड़ कैसे पाऊंगा
फिर छूट जाऊंगा
तुम्हारे आंचल की छोर से
खुल जाएगी प्रीत की गांठ उसी तरह
जीवन की इस सांझ में
गोधूलि से धुंधले हृदय के आकाश में
आए बिना चली जाओ चली जाओ
मेरे युवा दिनों की तुम।
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आलोचक का कर्तव्य 1
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आलोचक को
पहले अपनी आंख धुलना चाहिए
आलोचक को
फिर अपना चश्मा साफ करना चाहिए
तब रचना को सतह के ऊपर कम
और नीचे से ज्यादा देखना चाहिए
फिर लेखक को उलट-पलट कर
आगे से और पीछे से देखना चाहिए
जुगाड़ी लेखक की किताब हो तो
ठीक से चीर-फाड़ कर देखना चाहिए
कुत्ते की तरह पूंछ हिला-हिला कर
आलोचना कभी नहीं करना चाहिए
आज भी कुछ लोग हैं जिनकी तरह
निडर आलोचना लिखना चाहिए।
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आलोचक का कर्तव्य 2
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चापलूस कवियों को
कान के पास नहीं आने देना चाहिए
और सिर पर चंपी करके हरगिज
खुश करने का मौका नहीं देना चाहिए
साष्टांग दण्डवत वाले कवियों को
चरणरज से काफी दूर रखना चाहिए
देखते रहना चाहिए लेकर जाने न पाएं
कहीं पैर ही उठाकर लेकर न चले जाएं
आलोचक को अपने समय के प्रसिद्ध
कवियों के रथ के आगे-पीछे नहीं चलना
चाहिए चंवर नहीं डुलाना चाहिए
जयकार नहीं करना चाहिए
रथ को गुजर जाने देना चाहिए
धूल बैठ जाने देना चाहिए
फिर उनकी कृतियों को
ईमान की रोशनी में
पढ़ना चाहिए
आलोचक को
कवि की नौकरी नहीं
अपना काम करना चाहिए
अपने लिखे पर अपने अंगूठे का
निशान लगाना चाहिए
आलोचक को
नचनिया कवियों की भीड़ में
खुद नचनिया आलोचक नहीं होना चाहिए
आलोचना को अपने साहित्य समय का
मनोरंजन नहीं संग्राम समझना चाहिए।
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आलोचक का कर्तव्य 3
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आलोचक को
मठों का कुत्ता नहीं बनना चाहिए
साहित्य के भ्रष्ट किले और गढ़
तोड़ना चाहिए
आलोचक को
साहित्य को पुरस्कार के वायरस से
बचाना चाहिए दूर करना चाहिए
लिखने से पहले बीस सेकेंड
साबुन से हाथ जरूर धुलना चाहिए
आलोचक को
फरमाइश पर कुछ भी
लिखने से बचना चाहिए
लिखे बिना जिंदा न रह पाओ
तो अपनी बेचैनी कहो
आलोचकों के लिए
सबसे जरूरी बात यह है
कि हिंदी के बागी लेखकों के साथ
कुछ दिन रहो लेखक किसे कहते हैं
देखो फिर आलोचना लिखो।
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मनुष्य
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ये राजपाट
धरा का धरा रह जाएगा
सारा विज्ञान और विचार
किसी काम नहीं आएगा
दुनियाभर के धर्माचार्यों
दार्शनिकों और लेखकों से
कुछ नहीं हो पाएगा
जब मनुष्य के भीतर का
मनुष्य ही मर जाएगा।
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पिद्दी लेखकों का मेला
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अपने वक़्त के
हिंदी के सभी लेखकों की जाति
उलट-पलट कर देख चुका हूं
बहुत थोड़े से लेखक हैं
गिने-चुने हैं जिन्हें गिनता हूं
जिनकी इज़्ज़त करता हूं
बाक़ी सब के सब
नाम-इनाम के नाबदान में
बहने वाले हिंदी के कीड़े-मकोड़े हैं
लेखिकाओं के बारे में
कोई सख़्त टिप्पणी नहीं करूंगा
कम अच्छी हों तो भी बहन मानूंगा
भाई होने के नाते जरूर कहूंगा
ख़ुद को ठीक करना कुतर्क मत करना
साहित्य को सिंगार-पटार मत समझना
आज हिंदी में
पिद्दी लेखकों का मेला है जिसे देखो
अमर होने का खिलौना ख़रीद रहा है
अबे कुछ करके जाना चाहता है
तो बूढ़ी दादी हिंदी के लिए लोहे का
चिमटा ख़रीद
आख़रि मैं भी तो एक दिन
हिंदी के कार्यकर्ता के रूप में जाऊंगा
देखो मुझमें रत्तीभर यशेषणा है कहीं।
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हाथी और बच्चा 1
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बच्चा
बड़ी मेहनत से
हाथी पर बैठा था
उसे हाथी से
बल और छलपूर्वक
उतार दिया गया
बच्चा
रूठकर
गधे पर बैठ गया
तो बच्चा
फासिस्ट हो गया
और हाथी से उतारने वाले
घुटे-घुटाए दो बूढ़े पक्के
मार्क्सवादी हो गये!
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हाथी और बच्चा 2
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हाथी से
उतार दिए गये बच्चे को
क्या करना चाहिए था
हाथी के पैर के नीचे
लेट जाना चाहिए था
हाथी के पीछे-पीछे
जीवनभर
ताली बजाना चाहिए था
या बुड्ढों को मरते दम तक
राजनीति में ऐयाशी
करने देना चाहिए था
या गधे पर बैठकर
जनता के पास जाना चाहिए था
राजनीति के गधों का अहंकार
तोड़ना चाहिए था
या हाथी से
उतार दिए गये बच्चे को
फासिस्ट कहने वालों को
हिंदी का गधा कहना चाहिए था।
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हाथी और बच्चा 3
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हाथी से उतारे गये
बच्चे को मत कोसो
अक्ल है तो महल को
कुतर-कुतर कर
जर्जर बनाने वाले
पचहत्तर के
चूहों को देखो
महल को बचाना है
तो मदहोश रानी को
युवराज और राजकुमारी के
कारनामों को देखो
अपने हाथ से अपना महल
ढहाने वालों को देखो
भाग्यशाली हो
क्रांतिकारियो अपनी आंख से
व्यावहारिक राजनीति में
अपना पक्ष ढहते हुए देख रहे हो
और कुछ नहीं कर पा रहे हो
राजघराना मदहोश है
और तुम उस पर फिदा हो
काश पहले गाली-गलौज
और चिल्लाना छोड़कर
अपने राजनीतिक मोर्चे को
मजबूत कर पाते।
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हाथी और बच्चा 4
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हाथी से
उतार दिया गया बच्चा
राजनीति का ज्योतिरादित्य है
हिंदी का कोई लेखक नहीं
हिंदी के
असंख्य ज्योतिरादित्य
नित आलोचकों संपादकों
अकादमियों के अध्यक्षों
पुरस्कारप्रदाताओं मठाधीशों
और विभागाध्यक्षों का
पृष्ठप्रक्षालन करते-करते
हाथी के पीछे-पीछे ताली बजाते
हो-हो करते नाचते-गाते
अंत में दांत चियारकर
मर जाते हैं
राजनीति की दुनिया में
जोखिम है संघर्ष है साहस है
साहित्य की दुनिया में दिल्ली से
गोरखपुर तक सब लिबलिब है
हां हां लिबलिब है लिबलिब है।
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हाथी और बच्चा 5
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मैं भी कभी
साहित्य में बच्चा था
मुझे भी इसी गोरखपुर में
कान पकड़कर हाथी से
उतार दिया गया था
फिर भी उतार दिया जाना
मेरे लिए रत्तीभर बुरा नहीं था
रंज का सवाल ही नहीं पैदा होता था
बुरा तो तब लगा गुस्सा तो तब आया
जब मेरी जगह मेरे सामने ही
हिंदी की हाथी पर
हिंदी के सचमुच के गधों को
बैठा दिया गया था
मैंने कुछ नहीं कहा
कहा भी तो खुद से सिर्फ इतना
कि छोड़ो गधों की पार्टी को
और आगे बढ़ो
अपने वक्त के
किसी ऊंट की तरफ नहीं देखा
किसी घोड़े की तरफ नहीं देखा
हिंदी के किसी गधे की तरफ देखने का
कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था
हिंदी के किसी चूहे से भी नहीं कहा
कि मेरा तो नाम ही गणेश है मुझे
अपनी पीठ पर बैठा लो
खुद पर भरोसा किया
अपनी भुजाओं पर भरोसा किया
अपने पैरों पर भरोसा किया
और चल पड़ा हिंदी के बीहड़ में
चलता रहा चलता रहा
तमाम साल चलता रहा
पैदल
इतना आगे निकल आया हूं
कि पीछे मुड़कर देखने पर
न किसी का हाथी दिखता है
न हाथी पर बैठा हुआ
कोई शख्स दिखता है।
--------
दोस्त 1
---------
वह
मेरा दोस्त है
और मेरे दुश्मन का
ज़रख़रीद ग़ुलाम है
ओह
मेरे ईश्वर
इस जीवन में मुझे
क्या-क्या देखना पड़ेगा।
---------
दोस्त 2
---------
मेरा
एक दोस्त
कामयाब दलाल है
उसके पास काफी सम्पत्ति है
फिर भी
वह मेरी ज़मीन को
गिद्ध की तरह नोच-नोच कर
खा जाना चाहता है।
--------
दोस्त 3
--------
मेरे
कुछ दोस्त कवि हैं
कुछ कथाकार हैं कुछ आलोचक
शुरू में
सब साथ थे प्यार करते थे
आना-जाना मिलना-जुलना था
जैसे ही मैं एक साथ
तीनों हुआ मुझमें सींग निकल आए
और वे सींग से दूर रहने लगे हैं।
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दोस्त 4
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मेरे
कुछ दोस्त
बहुत से बहुत भोले हैं
कोई भी कुछ भी
उनके कान में कहभर दे
वे कान में कही गयी हर बात को
आंखों देखी समझ लेते हैं
मेरे
ये लोकल दोस्त
लोकल ट्रेन से भी लोकल हैं
बिछी हुई पटरियों पर
दौड़ते रहने के अलावा कुछ और
कर ही नहीं सकते।
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दोस्त 5
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होली में
आज एक-एक कर
दोस्तों की याद आ रही है
असल में
मेरे जितने भी दोस्त हैं
हैं और नहीं हैं
कह सकते हैं
सबके सब मित्रता की खोल में
डरे हुए लोग हैं
कह सकते हैं
केंचुए हैं लोमड़ी हैं
दोस्त नहीं किसी के जासूस हैं
मेरे दोस्त
तब भी वही थे आज भी वही हैं
तब तरह-तरह के रंग पोत लेते थे
अब उनके सारे रंग उतर चुके हैं।
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झूठ बोलना छोड़ दो
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न मंचों पर
कविता पढ़ने के लिए
जुगाड़ करो
न कभी इनाम के लिए
नाक रगड़ो न क़ुबूल करो
सब ठीक हो जाएगा
तुम्हारी
दुआ क़ुबूल हो जाएगी
वतन ख़ुशहाल हो जाएगा
तंगनज़री दूर हो जाएगी
बस
तुम सुधर जाओ
आदमी बन जाओ
गैंग-फैंग से
फ़ौरन से पेश्तर
नौ दो ग्यारह हो जाओ
झूठ बोलना छोड़ दो तो
ये नेता-फेता चुटकियों में
सुधर जाएंगे।
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गलत कबीर थे कि तुम हो
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पूरब और पश्चिम
चाहे उत्तर और दक्षिण
दंगे में दोनों तरफ से पत्थर
क्यों चलते हैं
आखिर
एक तरफ से पत्थर
और दूसरी तरफ से लाल गुलाब
क्यों नहीं चलते
हद है
खून के प्यासे दोनों तरफ हैं
बस शुरू होने की देर है
एक शुरू होगा तो दूसरा
आप से आप शुरू हो जाएगा
जहर
तो दोनों तरफ के दिमागों में
कूट-कूटकर भरा गया है
तुम्हीं बताओ कबीर गलत थे
कि तुम गलत हो।
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शिक्षक
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एक कक्षा में
अगर दो गुट हों
तो दोनों बदमाशी करते हैं
एक शिक्षक
दोनों पर नजर रखता है
सब पर नजर रखता है
वक्त आने पर
दोनों को मुर्गा बनाता है
कभी अलग-अलग
कभी साथ-साथ
कबीर की तरह
दोनों की पीठ पर
ईंट पर ईंट भी रखता है
आज
एक लेखक को भी
यही सब करना होता है
लेकिन वह कर नहीं पाता है
बेचारा
कभी पार्टी की
तो कभी लेखकसंघ की
ईंट ढोता है।
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दंगाई
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दंगाई
आमतौर पर
आदमी नहीं होता है
किसी गैंग का आदमी होता है
किसी पार्टी का कारकुन होता है
उसकी पीठ पर किसी का हाथ होता है
सात चूहे खाकर
एक से एक पार्टियां
बिल्ली की तरह छुपी होती हैं
पर्दे की आड़ में
वहीं से मुहैया कराती हैं
गंदे से गंदे विचार बंदूक पेट्रोल वगैरह
लेखक सब जानते- बूझते हुए
इन्हीं पार्टियों की चाकरी करते हैं
एक को दंगाई कहते हैं दूसरे को
अल्ला मियां की गाय
इस तरह तो
भारत कभी दंगामुक्त नहीं होगा
क्या राजनीति ने दोनों तरफ
दंगाई सांड़ पैदा नहीं किये हैं
तो क्या ये दंगाई आसमान से
फाट पड़े हैं।
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काश
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लेखकों को चाहिए
हाथ जोड़कर सभी पार्टियों से
नत मस्तक होकर विनती करें
हे पार्टियो
अब बस करें
देश को एक जून खाकर
एक चुल्लू पानी पीकर
टूटी-फूटी खाट पर चैन से सोने दें
अपना खेत-खलिहान
मेहनत-मजदूरी करने दें
नंग-धड़ंग बच्चों प्यार करने दें
एक जोड़ी कपड़े में इज्जत से
बिटिया को विदा करने दे
हे पार्टियो
जनता को ईश्वर-अल्ला
हिंदू-मुसलमान के नाम पर
मारकाट में न फंसाएं
देखना
कहीं तुम्हारी सत्ता की भूख
जनता तो जनता
देश को न खा जाए
काश
देश के लिजलिजे लेखक
इतनी-सी सीधी-सादी बात को
समझ पाएं और उठ जाएं।
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बेचारे थोड़े से लोग
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ज्यादातर लोग
कट्टर सेकुलर हैं
उनकी आंखें दिनरात
सिर्फ फासिस्ट देखती हैं
ज्यादातर लोग
कट्टर फासिस्ट हैं
उनकी आंखें दिनरात
सिर्फ सेकुलर देखती हैं
बेचारे
थोड़े से लोग हैं क्या करें
उनकी आंखें दिनरात
दोनों को देखती हैं।
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विडम्बना
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इसे
न गाकर हराया जा सकता है
न सड़क बंद कर हराया जा सकता है
न विश्वविद्यालयों और गोष्ठियों में
गालियां देकर हराया जा सकता है
जो भी कुर्सी पर बैठता है
उसकी चमड़ी मोटी हो जाती है
न इसे साबुन धुल सकती हैं
न कलाई पर राखी बांधकर
इसे हराया जा सकता है
बहनो
और बच्चो और बच्चों के चच्चो
इसे सिर्फ चुनाव में हराया जा सकता है
और यह काम बहुत मुश्किल है
जो तुम्हे़ पीछे से
साथ देने की बात करते हैं
और सामने नहीं आते
उन्हें तुम्हारी नहीं अपनी पड़ी है
अपनी कुर्सी की पड़ी है
और उनके पीछे सीबीआई
और दूसरी एजेंसियां पड़ी हैं
सबको कुर्सी चाहिए
सबको प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री बनना है
दस एमपी वाला बीस वाला
जब पीएम बनना चाहेगा तो भला
पचास वाला क्यों नहीं चाहेगा
इस देश में बड़े बदलाव के रास्ते का
असल रोड़ा यही है
तुम्हारा धरना
तुम्हारी आत्मा और ईमान का धरना है
तुम्हारे वक़ार का सत्याग्रह है
इस देश से तुम्हारी मोहब्बत का
अफ़साना है
अपनी मांओं-बहनों से कहने के लिए
उनके पोशीदा आंसुओं को पोछने के लिए
मेरे पास कुछ नहीं है कुछ नहीं
इस वक़्त न मेरे पास कोई रूमाल है
न कोई टूटा-फूटा शब्द
यह कैसी विडम्बना है।
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