सोमवार, 30 मार्च 2020

पृथ्वी पर काली छाया

-गणेश पाण्डेय

पृथ्वी पर
एक विशाल काली छाया
उतर आयी है पास और पास
बरगद पर पीपल पर
मंदिर पर मस्जिद पर चर्च पर
ऊंची-ऊंची 
बहुमंजिली इमारतों से लेकर
फुटपाथ की गुमटियों पर
झोपड़ियों पर
वायुयान पर साइकिल पर
मिसाइल पर फाउंटेन पेन पर
माल पर सब्जी की दुकान पर
नाई के सैलून पर आटाचक्की पर

अमरीका पर 
इटली पर स्पेन पर जर्मनी पर
ईरान पर पाकिस्तान पर 
दिल्ली पर कोलकाता पर
मुंबई पर श्रीनगर पर
राजस्थान पर मध्यप्रदेश पर
उत्तर प्रदेश पर बिहार पर
नेपाल पर बांग्लादेश पर
चीन पर जापान पर
देश पर विदेश पर
धरती पर आकाश पर

काली से भी काली छाया
महा से भी महा काली छाया
बूढ़े अधेड़ जवान बच्चे 
स्त्री पुरुष किन्नर सब पर
छायी है यह अनाहूत
अप्रिय अवांछित 
छाया

कोई जादू है इसके पास
सबको फांस लिया अपने पाश में
काला जादू है किसी जादूगर का
जादूगर अदृश्य है छाया दृश्य है
अनुभवजन्य है

कोई जानकार 
माथे का ताप देखकर बता सकता है
छाया अमुक शरीर के भीतर है
उतर रही है छाया उसके गले से 
उसके फेफड़े में शनैः शनैः
हवाईअड्डे पर रेल्वे स्टेशन पर
बस अड्डे पर गायिका के बड्डे पर
अस्पताल की सफेद चादर पर
मिट्टी के फर्श पर संगमरमर पर
छाया का साम्राज्य है
यह छाया जितनी प्रकट है
उतना राज़ है काला जादू है

कोई कहता है 
शी जिनपिंग का कालाजादू है
वुहान से निकलती है यह प्रेतछाया
पूरी दुनिया पर छा जाती है
बीजिंग शंघाई को छोड़ देती है
आख़रि शी उसका कौन है
शी कहता है यह कालाजादू
डोनाल्ड ट्रंप का है
पूरी दुनिया हलकान है
इन दोनों की शरारतों से

दुनिया बंद है
किसी शहर और मुहल्ले की तरह
एक छोटी-गुमटी की तरह
माचिस की डिबिया की तरह बंद
एक विश्वव्यापी कर्फ़्यू है इमरजेंसी है
भय की एक पूरी दुनिया है
पता नहीं यह काली छाया 
कहां-कहां अपने विशाल पग धरेगी
कहां-कहां कोमल उंगलिया फिराएगी
महासुंदरी के घने लंबे केशों में
उसके रक्ताभ कपोलों पर अधरों पर
किस सुंदरी के प्राणप्रिय पतिदेव को
सहसा कहीं से खींचकर
अपने तम के पाश में सुला लेगी
अपने अरूप रूप से बेसुधकर
किसी सुगंध की तरह उसके सांसों में
बस जाएगी 

किसी पिता को 
राशन चाहे सब्जी की दुकान पर
पकड़ लेगी कोई भी रूपधर
चाहे बालरूप धरकर 
चलती चली आएगी उंगली पकड़कर
किसी के घर
किसी के भाई की मोटरसाइकिल पर
बैठकर चाहे उसकी कलाई पर 
राखी की तरह चिपक कर
बेटी हो या बहन पत्नी हो या मां
कोई उसे अपनी आंखों से 
देख नहीं पाएगी मति मारी जाएगी
निश्चिंत हो जाएगी 
उसे पता ही नहीं चलेगा 
कि थैले के ऊपर गोभी पर मूली पर
मिठाई के डिब्बे पर बर्फी पर बैठकर
कौन आ गया है उसके घर
किसी को मालूम नहीं
किसी समारोह में किसी भीड़ में
किसी जुटान में किसी के संग
कब किसकी देह से कूदकर
बैठ जाएगी किस पर

आधा दृश्य और आधा अदृश्य
इस काली छाया को कभी 
चश्मा लगाकर भी 
कोई देख नहीं पाएगा
कभी नंगी आंखों से आप से आप 
कोई छाया आसपास दिख जाएगी
चलती-फिरती नाचती
कानों के पास भनभनाती

एक बुजुर्ग के कानों में
काली छाया की यह गूंज बढ़ते-बढ़ते 
पृथ्वी के महासन्नाटे को चीरती हुई
विस्फोट में बदल जाती है
पूरे ब्रह्माण्ड में यह आवाज़ 
बादलों 
और बिजली की गड़गड़ाहट की तरह
गरज उठती है- कोरोना कोरोना कोरोना
सूर्य-चंद्र और दूसरे ग्रह-उपग्रह
सब चकित सारे देवी-देवता स्तब्ध
ओह पृथ्वी महासंकट में है 

किसी के पास नहीं है कोई उपाय
पृथ्वी के किसी धर्म किसी ग्रंथ 
किसी के पास नहीं है 
विपदा का दूर करने का कोई मंत्र
सारे मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारे बंद
बड़े-बड़े धर्माचार्यों के फूले हैं
हाथ-पांव

दिन हो रात हो सब एक जैसा है
टीवी के एक-एक चैनल पर
एक-एक एंकर के लिपे-पुते चेहरे पर 
काली छाया की एक मोटी परत है
महिलाओं एंकर की लिपिस्टिक 
होती है लाल और दिखती है काली 
और काजल पर काली छाया की छाया है
टीवी के सामने बैठे बूढ़े 
समाचार नहीं मृत्यु देखते हैं 
पृथ्वी पर महामृत्यु का नंगानाच देखते हैं
हर चीज में
चील की तरह मंडराती काली छाया देखते है

पूरी दुनिया 
एक विशाल शवगृह में बदल गयी है
मृत्यु का एक महाठंडाघर जिसमें
बैठकर यह काली छाया खाएगी
एक-एक शव नोच-नोच कर

दुनिया के किसी दारोगा के पास
इतनी हिम्मत नहीं होगी कि उससे पूछे
यह क्या कर रही है काली बुढ़िया
अभी और कितने शव चाहिए तुझे

कह दो 
कह दो कह दो दुनिया से कह दो
कोई नहीं है अब यहां महाशक्ति
सब मिट्टी के खिलौने हैं
पुतले हैं पुतलें सारे एंटीमिसाइल
नहीं है कोई लड़ाकू जहाज और टैंक
जो रोक सके काली छाया की आंधी

बच्चो और युवाओ
इस समय पृथ्वी पर सबसे भयभीत हैं बूढ़े
इसलिए नहीं कि काली छाया को
पके हुए देह बहुत प्रिय है
उन्हें खा जाएगी
उन्हें डर है कि उनके बहाने
उनका घर देख लेगी 
उनके बच्चों को देख लेगी

बूढ़े 
बहुत से बहुत डरे हुए हैं बच्चो
वे अपने नन्हे-नन्हे पोतों को
उठाकर गोद में नहीं ले रहे हैं
दिल बहुत मचलता है 
उनके नन्हें होंठ चूम नहीं पा रहे हैं
इसलिए कि काली छाया उनकी खोज में
तमाम समुद्र तमाम आकाश को छानकर
एक कर रही है

एक दादी है
जरा-सा छींक आ जाए तो इस उम्र में
पूरे घर में पोंछा लगाने लगती है
बच्चों को खुद से दूर भगाने लगती है
काम वाली बाई को हटा दिया है
दूध लेने बाहर नहीं जाती है
अपने बूढ़े को भी बिस्तर पर
दूसरी करवट सोने के लिए कहती है

यह कैसी काली छाया है
अभी खाएगी कितने घर
कब जाएगी अपने देश अपने घर
कहां है इसका घर 
क्या वुहान है इसका घर
जहां भी हो इसका घर
जाए अपने घर
दादी कहती है चाहे अपने
शी जिनपिंग के सिर पर 
चाहे किसी समुद्र में फाट पड़े

टीवी तो नहीं फटती है 
लेकिन टीवी के सामने बैठे बुजुर्गों का
रोज़-रोज़ कलेजा फट रहा है
जो बच्चे घर पर हैं उनके लिए भी
जो बाहर हैं उनके लिए तो और भी
बड़ी बिटिया किस हाल में होगी
छोटी कैसे होगी
सबकी बेटियां और बेटे कैसे होंगे

देश बंद है 
जहाज बंद है रेल बंद है
आना-जाना सब बंद है फिर भी
कुछ मज़दूर हैं मजबूर हैं 
जिनके पास कोई ठिकाना नहीं
चल पड़े सब पैदल अपने घर
अपने गांव
शायद गांव की गोद बचा ले उन्हें
इस काली छाया से

सरकारें जाग रही हैं 
खजाने की तोप का मुंह पूरा खोलकर
खाकी वर्दी 
और सफेदपोशाक की फौज बनाकर
सड़कों और अस्पतालों में
काली छाया से 
सफेद तरीके से रोज लड़ रही हैं
ये तो काली छाया है छद्मयुद्ध कर रही है
छिप-छिपकर पीछे से 
किसी का भी कालर पकड़कर खीच ले रही है
दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर चला रही है
धोखा देकर किसी भी देश में किसी भी राज्य में 
किसी भी घर में घुस जा रही है

एक 
पैंतालीस और चालीस साल का
बेहद ख़ूबसूरत जोड़ा
काली छाया की गिरफ्त में
नाउम्मीद होकर
सबके सामने 
पृथ्वी का श्रेष्ठ चुंबन ले रहा है
अपने जीवन को चूम रहा है
अपने प्रेम को चूम रहा है
पृथ्वी को चूम रहा है

एक 
साठ साल का बुज़ुर्ग
काली छाया की मृत्युकारा से 
पांच मिनट का पेरोल लेकर 
अपने घर के गेट के सामने 
कांच की दीवार के उस पार
अपने भरे-पूरे परिवार को
निहार रहा है

छाया का 
न कोई धर्म है न ईमान
अभी-अभी इस क्रूर छाया ने 
एक अड़तीस साल के युवा को 
खींचकर अपना आहार बना लिया है
जिसकी बीवी रात के भोजन पर 
उसकी प्रतीक्षा कर रही है
और उसकी नन्ही बच्ची 
इंतजार करते-करते सो गयी है
जबकि छाया को ऐसा नहीं करना था
उस युवा के बुजुर्ग पिता कभी भी
छाया का भोजन बनने के लिए
प्रस्तुत थे

एक स्त्री
अपनी चूड़िया तोड़ रही है
अपना सिर दीवार पर मार रही है
अटूट विलाप कर रही है
पर्वत रो रहे हैं नदियां आंसू बहा रही हैं
फूले हुए सुर्ख़ गुलमोहर 
और पीले अमलतास रो रहे हैं
गुलाब असमय अपनी टहनियों से
मुरझाकर गिर रहे हैं

प्रकृति रो रही है
काली छाया हंस रही है
डायनासोर की तरह पृथ्वी को 
रौंद रही है
दर्प में चूर निर्वस्त्र हो रही है 
वीभत्स हो रही है
कई राजाओं महाराजाओं
और राष्ट्रध्यक्षों के सिर पर पैर रखकर
अहंकार में नाच रही है
यह विहसना ठीक नहीं है छाया
पृथ्वी से यह क्रूरता ठीक नहीं है छाया
मनुष्य से यह शत्रुता ठीक नहीं है छाया

यह एक ऐसा युद्ध है
सभी देशों की सरकारें एक साथ जाग रही हैं
और इस काली छाया के नाश के लिए 
सारा विश्व एक है 
घर-घर में
जितना भय है उससे ज़्यादा रोष है
दुनियाभर की असंख्य मांएं विकल हैं
दुनियाभर के असंख्य पिताओं के सीने में आग है

दुनियाभर के असंख्य बेटे 
कुछ सोच रहे होंगे कुछ कर रहे होंगे
यह काली छाया आज है कल नहीं रहेगी
नहीं रहेगी नहीं रहेगी नहीं रहेगी
पृथ्वी रहेगी पृथ्वी मां है सबकी
इसी धरती के असंख्य लाल जुटे होंगे
अपनी मां को बचाने के काम में जी-जान से
कोई दौड़कर बांस काट रहा होगा
कोई बंदूक में गोली भर रहा होगा
कोई म्यान से तलवार निकाल रहा होगा
कोई काली छाया का झोंटा पकड़ने के लिए
अपनी भुजाओं को तैयार कर रहा होगा
कोई काली छाया को वश में करने के लिए
किसी प्रयोगशाला में कोई प्रयोग कर रहा होगा।




9 टिप्‍पणियां:

  1. अद्भुत कविता है... कोरोना जैसा ही विस्तार जिसने जीवन के किसी भी क्षेत्र को नहीं बख्शा है.. पर एक संयत और ईमानदार कोशिश कि इस एल्बम में वे सारे चित्र संजो लिए जाएँ जो हमारे आस पास बिखरे हैं। लम्बी कविता इतनी पठनीयता लिए होगी.. नहीं सोचा था। साधुवाद।

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  2. इस काली छाया के प्रेत की उपस्थिति कहाँ-कहाँ हो सकती है,कहाँ-कहाँ जा सकती है,किसे-किसे अपने शिंकजे में जकड़ सकती है इसका आपने जिस तरह विस्तृत अपनी रचना में उतारा है, वह स्वागतयोग्य है,लंबी होकर भी रचना सारगर्भित है।
    डॉ सुषमा गजापुरे

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  3. कोरोना के आतंक और मनुष्य की जिजीविषा का जीवन्त चित्रण !

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  4. अकसर लोग कहते हैं कि लम्बी कविता ऊब पैदा करती है मगर इस कविता ने तो बांध ही लिया। बधाई

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  5. कोरोना काल की काली छाया के वैश्विक आतंक की व्यापकता को कविता में समेटने की कोशिश हुई है।

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