- गणेश पाण्डेय
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ओ ईश्वर
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ओ ! ईश्वर तुम कहीं हो
और कुछ करते-धरते हो
तो मुझे फिर
मनुष्य मत बनाना
मेरे बिना रुकता हो
दुनिया का सहज प्रवाह
ख़तरे में हो तुम्हारी नौकरी
चाहे गिरती हो सरकार
तो मुझे
हिन्दू मत बनाना
मुसलमान मत बनाना
तुम्हारी गर्दन पर हो
किसी की तलवार
किसी का त्रिशूल
तो बना लेना मुझे
मुसलमान
चाहे हिन्दू
देना हृष्ट-पुष्ट शरीर
त्रिपुंडधारी भव्य ललाट
दमकता हुआ चेहरा
और घुटनों को चूमती हुई
नूरानी दाढ़ी
बस
एक कृपा करना
ओ ईश्वर !
मेरे सिर में
भूसा भर देना, लीद भर देना
मस्जिद भर देना, मंदिर भर देना
गंडे-ताबीज भर देना, कुछ भी भर देना
दिमाग मत भरना
मुझे कबीर मत बनाना
मुझे नजीर मत बनाना
मत बनाना मुझे
आधा हिन्दू
आधा मुसलमान ।
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गाय का जीवन
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वे गुस्से में थे बहुत
कुछ तो पहली बार इतने गुस्से में थे
यह सब
उस गाय के जीवन को लेकर हुआ
जिसे वे खूँटे बाँधकर रखते थे
और थोड़ी-सी हरियाली के एवज में
छीन लिया करते थे जिसके बछड़े का
सारा दूध
और वे जिन्हें नसीब नहीं हुई
कभी कोई गाय, चाटने भर का दूध
वे भी मरने-मारने को तैयार थे
कितना सात्त्विक था उनका क्रोध
कैसी बस्ती थी
कैसे धर्मात्मा थे, जिनके लिए कभी
गाय के जीवन से बड़ा हुआ ही नहीं
मनुष्य के जीवन का प्रश्न ।
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गुरु सीरीज
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गुरु-1/
जब मुझे गुरु ने डसा
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न रोया
न दर्द हुआ, न कोई निशान
न रक्त बहा, न सफेद हुआ
जब मुझे गुरु ने डसा।
इस तरह
मैं पहली परीक्षा पास हुआ।
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गुरु-2/
जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया
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मैं तनिक भी विचलित नहीं हुआ
न पसीना छूटा, न लड़खड़ाए मेरे पैर
सब कुछ सामान्य था मेरे लिए
जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया
और बनाया किसी खुशामदी को अपना
प्रधान शिष्य।
बस इतना हुआ मुझसे
कि मैं बहुत जोर से हँसा।
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गुरु-3/
गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा
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चलो अच्छा हुआ
न मुद्रा, न वस्त्र, न अन्न
न अँगूठा, न कलेजा, न गर्दन
गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा
मैं खुश हुआ।
सहसा लिया मुझसे सभाकक्ष में
मेरे गुरु ने दिया हुआ शब्द।
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गुरु-4/
जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा
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कोई पत्ता नहीं खड़का
मंद-मंद मुस्काते रहे पवन
आसमान के कारिंदों ने
लंबी छुट्टी पर भेज दिया मेघों को
जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा।
अद्भुत यह, कि
पृथ्वी पर भी नहीं आयी कोई खरोंच।
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गुरु-5/
गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
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गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम
कबीर तो बहुत छोटा रहेगा
कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ
गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में।
पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु
एक टुकड़ा मोदक थमाया
और बोले-
फिसड्डी हैं ये सारे नाम
तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।
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गुरु-6/
कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान
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सुंदर केश थे गुरु जी के
चौड़ा ललाट, आँखें भारी
लंबी नाक, रक्ताभ अधर
उस पर गज भर की जुबान।
गजब का प्रभामण्डल था
कद-काठी, चाल-ढ़ाल
सब दुरुस्त।
जो छिप कर देखा किसी दिन
कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान।
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गुरु - 7/
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं
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कैसे हो सकता था
कि जो गुरु के गण थे, नागफनी थे
जड़ थे कितने कार्यकुशल थे।
आगे रहते थे, निकट थे इतने
जैसे स्वर्ण कुण्डल, त्योंरियाँ, हाथ।
क्या खतरा था उन्हें मुझसे
तनिक भी दक्ष नहीं था मैं
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं।
क्यों रोकते थे वे मुझे कुछ कहने से
जरूर हुई होगी कोई असुविधा
इसी तरह वैशम्पायन के गुरुकुल में
याज्ञवल्क्य से।
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गुरु-8/
खूब मिले गुरु भाई
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खूब मिले गुरु भाई
सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल
कुछ भी हो जाने के लिए
मेरे विरुद्ध।
बात सिर्फ इतनी-सी थी
कि मैं कवि था भरा हुआ
कि टूट रहा था मुझसे
कोई नियम
कि लिखना चाहता था मैं
नियम के लिए नियम।
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गुरु-9/
खीजे गुरु
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पहला बाण
जो मारा मुख पर
आंख से निकला पानी।
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल से शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फव्वारा छूटा।
खीजे गुरु
मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।
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गुरु-10 /
सद्गुरु का पता
------------------
अच्छा लगता था पाठशाला में
कबीर को पढ़ते हुए
अच्छा लगता था जीवन में
कबीर को ढूँढ़ते हुए
अच्छा लगता था सपने में
कबीर से पूछते हुए
सद्गुरु का पता।
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ऋण है मुझ पर
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उस खेत का, उस बीज का
उस धूप का, उस पानी का
उस किसान का ऋण है
मुझ पर
उस हवा का, उस जगह का
उस चौखट का, उस छत का
उस दुलार का ऋण है
मुझ पर
उस छड़ी का, उस किताब का
उस पाठशाला का, उस विचार का
उस गुरु का ऋण है
मुझ पर
उस चरण का, उस आशिष का
उस मोतीचूर का, उस हृदय का
उस बुआ का ऋण है
मुझ पर
उस भाई का, उस मित्र का
उस साथ का, उस चाह का
उस अपनत्व का ऋण है
मुझ पर
उस चितवन का, उस स्पर्श का
उस गंध का , उस स्मृति का
उस प्यार का ऋण है
मुझ पर
उस शत्रु का, उस वरिष्ठ का
उस घात का, उस कायर का
उस नाग का ऋण है
मुझ पर
उस आक्रोश का, उस ललकार का
उस साहस का, उस दर्प का
उस रक्त का ऋण है
मुझ पर
उस धारा का, उस यकीन का
उस शक्ति का, उस पृथ्वी का
उस अभिन्न संगिनी का ऋण है
मुझ पर
कोई देखे कितना सुख है
अपने होने की खोज में
कितनी तृप्त है मेरी आत्मा
अपनी इस अतिशय दरिद्रता में।
---------------------------------
तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री
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देखो तो कितना सलोना है दस बरस का लड़का
अखबार लहराते हुए हवा से बात करता है किस तरह
हर सुबह करतब दिखाता है लड़का
अपने से अधिक उम्र की साइकिल पर।
देखो तो छूकर कितनी नन्ही-नन्ही हैं उँगलियाँ
हाथ की रेखाएँ पढ़ो, क्या लिखा है
जिनसे बाँटता है संसद में प्रधानमंत्री की घोषणाएँ
और दुनियाभर की खबरें।
देखो तो पुतलियाँ नचाते हुए लड़का
किस तरह देखता देखता है घरों को
सुनो तो कितना सुरीला है लड़के का कंठ
मुर्गे की तरह बाँग देता हुआ-‘पेपर’।
तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री,
अखबार बाँटता हुआ दस बरस का लड़का
बहुत अच्छा, बहुत प्यारा
अभी-अभी इधर से निकला है हवा में लहराते हुए
राष्ट्रपति का अभिभाषण।
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यह देश जो हमारा है
----------------------
कितना दम है मान्यवर
आपकी बूढ़ी हड्डियों में
अभी और आगे ले जाएँगे आप
इस देश को
कितना भरोसा है आप पर
कितना बोझ है आपकी आत्मा पर
माननीय प्रधानमंत्री जी
कितने दृढ़-प्रतिज्ञ हैं आप
आखिरी साँस तक ले जाएँगे अपने संग
इस देश को अभी और कितनी दूर ।
यह देश जो हमारा है
और हमसे दूर होता जा रहा है ।
---------
यह देश
---------
यह देश मेरा भी है
यह देश आपका भी है
एक मत मेरे पास है
एक मत आपके पास भी है
एक अरब आपके पास है
एक सौ मेरे पास है
यह देश आपको प्यारा है
मुझको भी जान से प्यारा है
एक छोटी-सी जिज्ञासा है
मान्यवर, यह देश
कितना आपका है कितना हमारा है ।
-------------------------
एक अफवाह है दिल्ली
-------------------------
कोई तो होगा मेरे जैसा
जो कह सके शपथपूर्वक
चालीस पार किया
गया नहीं दिल्ली
नई कि पुरानी
देखा नहीं कनाट प्लेस
बहादुरशाह जफर मार्ग
चाँदनी चौक, मेहरौली
अलकनंदा, दरियागंज
मुझे अक्सर लगा
एक डर है दिल्ली
किसी शहर का नाम नहीं
जो फूत्कार करता है
लेखकों की जीभ पर
हृदय के किसी अंधकार में
जब-जब बताते रहे एजेंट सगर्व
दिल्ली दरबार के किस्से
लेखकों की जुटान के ब्योरे
कैसे बँटती हैं रेवड़ियाँ
और पुरस्कार
हाय! सुनता रहा किस्सों में
कैसे मचलते हैं नये कवि
किसी उस्ताद की कानी उँगली से
एक डिठौने के लिए
और
नाचते हैं कैसे आज के किस्सागो
किसी दरियाई भालू के आगे
उसकी एक फूँक के लिए
निछावर करने को आतुर
अपना सब कुछ
बेशक होता रहा हाँका
कुल देश में कि खैर नहीं
मार दिये जायेंगे वे
जो जायेंगे नहीं
दिल्ली
मैं हँसता रहा
कि दिल्ली से
दिल्ली के लिए उड़ायी गयी
एक अफवाह है दिल्ली
देखो तो
बचा हुआ है गणेश पाण्डेय
गोरखपुर में साबूत।
-----------------------
ख़ुश है गणेश पाण्डेय
-----------------------
चलो माना
सब कुछ दिल्ली में
गोरखपुर को क्या
कवियों के मीनार
क़ुतुब से बड़े
आलोचकों के फाटक
जैसे इण्डिया गेट
साहित्य
संपादकों के क़िले
लाल-पीले
क़ाबा-काशी
अख़बारों के लेनिनग्राद
सब दिल्ली में
तो क्या
ख़ुश है गणेश पाण्डेय
गोरखपुर में।
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वहां मैं नहीं जा रहा था
------------------------
उस भागती हुई बस में निश्चिंत थे सब
अपने-अपने ठिकाने को लेकर
कुछ स्कूली लड़के थे खेल की मस्ती में डूबे हुए
कुछ किसान थे जो बाजार जा रहे थे ऊँघते हुए
अपने साथ प्याज का गट्ठर लिए
कुछ मारवाड़िनें थीं
बनीं-ठनीं इतनी कि हाय
दुनिया भर की खुशबू लिए
अपने पश्मीने में बंद
जैसे कभी अस्वस्थ हो ही नहीं सकती थीं
थोड़े से बुजुर्गवार थे जो खास रहे थे लगातार
अपने गमछे और कनटोप कसे हुए
मैं था शशि सिंघानिया की याद में दंदाया
और मेरे बाजू में वह थी जो वह नहीं थी।
गांव थे, बाजार थे आते-जाते
धरती थी लगातार नाचती
प्रयाण और पहुंच के बीच
बस के शीशे के बाहर
सरसों के कुछ फूल खिले थे।
वह जो थी
नई नई औरत हुई औरत
उसकी आंखों में था शीत-वसंत
चमकते हुए दांत थे उसके, ताजे सेव से दबे हुए
थिरकती हुई मुस्कान थी बेतहाशा उसके पास
आदिम गंध से लैस थी उसकी देह
नहीं था तो उसके पास कोई कार्डिगन
बड़े जतन से छिपाए हुए थी
फिर भी आंचल के नीचे कुछ
बार-बार
सर्द हवाएं थीं शीशे को चीरती हुई
और साल का पहला हफ्ता था
कंपकंपी छोड़ता हुआ उसके आगे
वह नई औरत मेरे बाजू से सटी हुई
कहीं जा रही थी
जाहिर है कि वहां मैं नहीं जा रहा था।
-----------------------
दरअसल वे पिछड़े थे
-----------------------
जिनके पास पीने भर का साफ पानी नहीं था
जिनके पास दो जून का मनचाहा अनाज नहीं था
जिनके पास मुर्दे की तरह लेटने भर की जगह नहीं थी
जिनके पास नियम में छेद करने का कोई औजार नहीं था
जिनके पास जीने भर का कुछ भी नहीं था
जिनका कभी किसी संसद में आना जाना नहीं था
जिनके लिए किसी भी तरह का बाजार
एक लंबी और अंतहीन दौड़ का डरावना सपना था
सबसे खराब बात यह कि जिनके पास
कोई खतरनाक शब्द नहीं था
दरअसल वे पिछड़े थे।
वे पिछड़े थे कि उनके प्रतिनिधि तनिक भी नहीं पिछले थे।
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पूरे शरीर से
-------------
कई बार पसीजती हैं हथेलियां
कहना चाहती हैं कि बस
मुझे विदा करो
कई बार दृश्य के विरुद्ध
उद्यत होती हैं
आंखें
कई बार उठते हैं हाथ
कि पूरा चाहिए अपना
राज्य
कई बार
बाजार से लौटकर
सीधे लाम पर जाना चाहते हैं
पैर
कई बार मचलता है मेरा दिल
और पूरे शरीर से होती है
बम होने की इच्छा।
------------------
उठा है मेरा हाथ
------------------
मैं जहां हूं
खड़ा हूं अपनी जगह
उठा है मेरा हाथ
रुको पवन
मेरे हिस्से की हवा कहां है
बताओ सूर्य
किसे दिया है मेरा प्रकाश
कहां हो
वरुण कब से प्यासी है मेरी आत्मा
सुनो विश्वकर्मा
मेरी कुदाल कल तक मिल जानी चाहिए
मुझे जाना है संसद कोड़ने।
--------------
यह दुनिया 1
--------------
वे किन्हीं ग्रहों और नक्षत्रों से नहीं आए थे
जिनसे रूपाकार हुए, कहीं और से नहीं लाए थे
उन्नत बीज अधिक उपजाऊ धरती
मीठा-मीठा पानी ठंडी-ठंडी हवा
और निरंतर जलने वाली आग
वे बेहद निष्ठावान और कर्मठ लोग थे
जो चलाना चाहते थे इतनी बड़ी दुनिया को
कुछ पूज्य पोथियों से।
और यह दुनिया
एक बहुधंधी दुनिया थी, जो थी
कुछ-कुछ संवेदनशील कुछ काठ की
कुछ-कुछ प्रेम की तो बहुत कुछ मारकाट की।
एक दुनियादार मां थी यह दुनिया जो सबकी थी
झरनों की तो पहाड़ों की, खेतों की तो कारखानों की
कुछ-कुछ कवियों की तो बहुत कुछ ढोंगियों की
कुछ-कुछ बैल की तरह जुते हुए किसानों की
तो कुछ भूखे-नंगे फटे हाल किसानों की
कुछ-कुछ अन्याय के विरुद्ध संघर्षरत नौजवानों की
तो बहुत कुछ नोट की तरह
दुनिया को अपनी जेब में ठूंसने वाले हत्यारों की।
पोछना चाहती थी सब के आंसू और गुस्सा
यह दुनिया, जो बिल्कुल अकेली थी
असंख्य दुनिया ओं की मां होते हुए
महाविध्वंस, अनंत विस्फोट
और हत्यारों की क्रूरतम अट्टहास के बीच
जो कहते थे
दुनिया का निचोड़ हैं उनकी किताबें
उन्हीं की मुट्ठी में बंद हैं
धरती और मनुष्य और समाज के
सभी ग्रह और नक्षत्र और चक्र।
वे कहना चाहते थे और कहते थे।
और वे भी जो कहते थे
जीवन कोई पदार्थ नहीं है
और भूख की चौहद्दी में
रोटी के अलावा कुछ और भी होता है
थोड़ी-सी चैन की नींद थोड़े से सपने
एक अदद खुली हुई खिड़की, किसी का प्यार
और थोड़ी सी ताजा हवा।
चले गए वे।
और वे भी गए जो चूर थे दर्प से
कांख में दबे हुए ईश्वर महान की पोथी
और जो कहते थे दुनिया की भलाई के लिए
खास उनके पास उतरी हैं पवित्र आसमानी किताबें
और जो बेचैन थे, किसी भी तरह
दुनिया पर लागू करने के लिए
अपने नियम और विश्वास।
वे सब
किन्हीं ग्रहों और नक्षत्रों की ओर नहीं गए
यहीं कहीं किसी घाट की राख में
किसी दरख्त की छाया में
कहीं भी धरती के पेट में
विलीन हुए इस तरह अचानक।
वे
जो कुछ जानते थे
और बहुत कुछ नहीं जानते थे-
सभी पोथियों की मां है यह दुनिया
जो जीना जानती अपने ढंग से
और मरना चाहती है अपनी उम्र
वे नहीं जानते थे।
वे नहीं जानते हैं।
--------------
यह दुनिया 2
--------------
वे कोई देवदूत जैसे थे
कुछ कुछ हुक्काम जैसे थे
तो कुछ-कुछ लुटेरे जैसे
कुछ-कुछ हातिमताई जैसे थे
तो बहुत कुछ आतमतायी जैसे।
वे क्या थे और क्या नहीं थे
वे जो जानते थे उतना ही सच मानते थे
वे जो भी थे
और जहां भी थे
जिस वक्त भी थे
दुनिया के किसी भी कोने से
फरमान जारी कर सकते थे।
वे जानते और मानते थे, बेशक
तमाम मुल्कों की बागडोर संभाल सकती थीं
औरतें
फतह कर सकती थीं सागरमाथा
लिख सकती थीं अच्छी कविताएं
सोच सकती थीं दुनिया के बारे में
खूब
एक अपने बारे में नहीं।
यही ऊपर का हुक्म था
ऐसा ही वे सोचते जानते और मानते थे
वे जानते और मानते थे, अच्छा नहीं होता
औरतों का इस तरह रंगों से मेलजोल।
क्रूर प्रतिबंध और नियम की धार से
वे खुरच देना चाहते थे
औरतों के शरीर से
पहनावे और उनके जीवन से
लाल हरे पीले नारंगी जैसे
चटकीले रंग।
वे थे तो बड़े ताकतवर
बहुत कुछ कर सकते थे
बैठे-बैठे कुछ भी बदल सकते थे
अच्छे खासे आदमी को भेड़
और भेड़ को आदमी कर सकते थे।
बस शरीर के भीतर का रंग नहीं बदल सकते थे
वह, जो बहता चला आया था
शुरू से उन औरतों के शरीर में
उसी तरह लाल चटक।
दरअसल वे
किन्हीं उसूलों के बड़े पाबंद थे
बड़े भोले लोग थे
कुछ-कुछ हिंदुस्तानियों जैसे थे
नहीं-नहीं, पाकिस्तानियों जैसे थे
नहीं-नहीं ईरानियों जैसे थे
नहीं-नहीं तुर्कियों जैसे थे
नहीं नहीं ...
वे थे तो इसी दुनिया के।
-------------
छोड़ो भारत
-------------
क्यों तने हो
आसमान के सामने
इतना
इतराते क्यों हो
झूमते हो किस बात पर
जीभर हवाओं के संग
क्यों लेते हो इतनी अंगड़ाइयां
जुलाई की झमाझम बरसात में
सोचते हुए कि सारा जहां तुम्हारा
ओ गोरे चिट्टे यूकिलिप्टस
किस काम के हो तुम
खूब खाते हो खूब पीते हो
क्या करते हो दूसरों के लिए
ओ खुदगर्ज साहबजादे
जरा अमरूद को देखो
कैसे झपट्टा मारती हैं
ये बड़ी-बड़ी लड़कियां
आम को देखो
कैसे मचल उठते हैं लाल
और इस नीम को देखो
कैसे बतियाते हैं बूढ़े इसके नीचे
दोतों में फंसे सुख-दुख
गुलजार घरों को देखो
चौखट देखो खिडत्रकियां देखो
ये शीशम ये सागौन
ये अपना काला-कलूटा
जामुन देखो
देख सको तो सबसे पहले
छप्पर में खुंसी हुई
लाठी देखो
मैं कहता हूं हट जाओ
हट जाओ मेरे सामने से
ओ गोरे चिट्टे यूकिलिप्टस
छोड़ो भारत
छोड़ो सृजन-संसार।
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अटा पड़ा था दुख का हाट
----------------------------
देखा वे जल्दी में थे
उन्हें जाना था बाजार खरीदने
थैले थे दोनों हाथों में
दुख की भुजाएं, छाती और नितंब
सब उपलब्ध थे वाजिब दामों पर
अटा पड़ा था दुख का हाट
कोई-कोई सस्ते में बेच रहा था दुख
बिल्कुल मुफ्त
कुछ तो लौट रहे थे हंसी ठट्ठा करते हुए
सिर पर लादे दुख का गट्ठर
कुछ थे
जो मस्ती में थे जीवन पर गीत गाते हुए
मना रहे थे दुख पर्व
दिखी एक सुंदरी मंदस्मित
जिसकी वेणी में गुंथा हुआ था अंतहीन दुख
एक नृत्यांगना दिखी अपनी विद्या में लीन
इसकी गति से फूट रहा था दुख-प्रपात
और जब कार से उतरा तो देखा
एक रूप गर्विता स्त्री ने ढंग से छिपा रखा था
अपनी चितवन में कंटीला दुख
मैं जल्दी में था मित्रो
मुझे बुद्ध पर भाषण के लिए जाना था।
000
(प्रथम संग्रह ‘अटा पड़ा था दुख का हाट’
प्रथम संस्करण 1996/ प्रत्यूष प्रकाशन, गोरखपुर)
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ओ ईश्वर
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ओ ! ईश्वर तुम कहीं हो
और कुछ करते-धरते हो
तो मुझे फिर
मनुष्य मत बनाना
मेरे बिना रुकता हो
दुनिया का सहज प्रवाह
ख़तरे में हो तुम्हारी नौकरी
चाहे गिरती हो सरकार
तो मुझे
हिन्दू मत बनाना
मुसलमान मत बनाना
तुम्हारी गर्दन पर हो
किसी की तलवार
किसी का त्रिशूल
तो बना लेना मुझे
मुसलमान
चाहे हिन्दू
देना हृष्ट-पुष्ट शरीर
त्रिपुंडधारी भव्य ललाट
दमकता हुआ चेहरा
और घुटनों को चूमती हुई
नूरानी दाढ़ी
बस
एक कृपा करना
ओ ईश्वर !
मेरे सिर में
भूसा भर देना, लीद भर देना
मस्जिद भर देना, मंदिर भर देना
गंडे-ताबीज भर देना, कुछ भी भर देना
दिमाग मत भरना
मुझे कबीर मत बनाना
मुझे नजीर मत बनाना
मत बनाना मुझे
आधा हिन्दू
आधा मुसलमान ।
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गाय का जीवन
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वे गुस्से में थे बहुत
कुछ तो पहली बार इतने गुस्से में थे
यह सब
उस गाय के जीवन को लेकर हुआ
जिसे वे खूँटे बाँधकर रखते थे
और थोड़ी-सी हरियाली के एवज में
छीन लिया करते थे जिसके बछड़े का
सारा दूध
और वे जिन्हें नसीब नहीं हुई
कभी कोई गाय, चाटने भर का दूध
वे भी मरने-मारने को तैयार थे
कितना सात्त्विक था उनका क्रोध
कैसी बस्ती थी
कैसे धर्मात्मा थे, जिनके लिए कभी
गाय के जीवन से बड़ा हुआ ही नहीं
मनुष्य के जीवन का प्रश्न ।
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गुरु सीरीज
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गुरु-1/
जब मुझे गुरु ने डसा
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न रोया
न दर्द हुआ, न कोई निशान
न रक्त बहा, न सफेद हुआ
जब मुझे गुरु ने डसा।
इस तरह
मैं पहली परीक्षा पास हुआ।
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गुरु-2/
जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया
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मैं तनिक भी विचलित नहीं हुआ
न पसीना छूटा, न लड़खड़ाए मेरे पैर
सब कुछ सामान्य था मेरे लिए
जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया
और बनाया किसी खुशामदी को अपना
प्रधान शिष्य।
बस इतना हुआ मुझसे
कि मैं बहुत जोर से हँसा।
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गुरु-3/
गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा
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चलो अच्छा हुआ
न मुद्रा, न वस्त्र, न अन्न
न अँगूठा, न कलेजा, न गर्दन
गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा
मैं खुश हुआ।
सहसा लिया मुझसे सभाकक्ष में
मेरे गुरु ने दिया हुआ शब्द।
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गुरु-4/
जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा
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कोई पत्ता नहीं खड़का
मंद-मंद मुस्काते रहे पवन
आसमान के कारिंदों ने
लंबी छुट्टी पर भेज दिया मेघों को
जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा।
अद्भुत यह, कि
पृथ्वी पर भी नहीं आयी कोई खरोंच।
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गुरु-5/
गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
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गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम
कबीर तो बहुत छोटा रहेगा
कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ
गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में।
पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु
एक टुकड़ा मोदक थमाया
और बोले-
फिसड्डी हैं ये सारे नाम
तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।
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गुरु-6/
कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान
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सुंदर केश थे गुरु जी के
चौड़ा ललाट, आँखें भारी
लंबी नाक, रक्ताभ अधर
उस पर गज भर की जुबान।
गजब का प्रभामण्डल था
कद-काठी, चाल-ढ़ाल
सब दुरुस्त।
जो छिप कर देखा किसी दिन
कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान।
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गुरु - 7/
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं
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कैसे हो सकता था
कि जो गुरु के गण थे, नागफनी थे
जड़ थे कितने कार्यकुशल थे।
आगे रहते थे, निकट थे इतने
जैसे स्वर्ण कुण्डल, त्योंरियाँ, हाथ।
क्या खतरा था उन्हें मुझसे
तनिक भी दक्ष नहीं था मैं
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं।
क्यों रोकते थे वे मुझे कुछ कहने से
जरूर हुई होगी कोई असुविधा
इसी तरह वैशम्पायन के गुरुकुल में
याज्ञवल्क्य से।
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गुरु-8/
खूब मिले गुरु भाई
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खूब मिले गुरु भाई
सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल
कुछ भी हो जाने के लिए
मेरे विरुद्ध।
बात सिर्फ इतनी-सी थी
कि मैं कवि था भरा हुआ
कि टूट रहा था मुझसे
कोई नियम
कि लिखना चाहता था मैं
नियम के लिए नियम।
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गुरु-9/
खीजे गुरु
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पहला बाण
जो मारा मुख पर
आंख से निकला पानी।
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल से शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फव्वारा छूटा।
खीजे गुरु
मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।
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गुरु-10 /
सद्गुरु का पता
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अच्छा लगता था पाठशाला में
कबीर को पढ़ते हुए
अच्छा लगता था जीवन में
कबीर को ढूँढ़ते हुए
अच्छा लगता था सपने में
कबीर से पूछते हुए
सद्गुरु का पता।
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ऋण है मुझ पर
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उस खेत का, उस बीज का
उस धूप का, उस पानी का
उस किसान का ऋण है
मुझ पर
उस हवा का, उस जगह का
उस चौखट का, उस छत का
उस दुलार का ऋण है
मुझ पर
उस छड़ी का, उस किताब का
उस पाठशाला का, उस विचार का
उस गुरु का ऋण है
मुझ पर
उस चरण का, उस आशिष का
उस मोतीचूर का, उस हृदय का
उस बुआ का ऋण है
मुझ पर
उस भाई का, उस मित्र का
उस साथ का, उस चाह का
उस अपनत्व का ऋण है
मुझ पर
उस चितवन का, उस स्पर्श का
उस गंध का , उस स्मृति का
उस प्यार का ऋण है
मुझ पर
उस शत्रु का, उस वरिष्ठ का
उस घात का, उस कायर का
उस नाग का ऋण है
मुझ पर
उस आक्रोश का, उस ललकार का
उस साहस का, उस दर्प का
उस रक्त का ऋण है
मुझ पर
उस धारा का, उस यकीन का
उस शक्ति का, उस पृथ्वी का
उस अभिन्न संगिनी का ऋण है
मुझ पर
कोई देखे कितना सुख है
अपने होने की खोज में
कितनी तृप्त है मेरी आत्मा
अपनी इस अतिशय दरिद्रता में।
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तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री
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देखो तो कितना सलोना है दस बरस का लड़का
अखबार लहराते हुए हवा से बात करता है किस तरह
हर सुबह करतब दिखाता है लड़का
अपने से अधिक उम्र की साइकिल पर।
देखो तो छूकर कितनी नन्ही-नन्ही हैं उँगलियाँ
हाथ की रेखाएँ पढ़ो, क्या लिखा है
जिनसे बाँटता है संसद में प्रधानमंत्री की घोषणाएँ
और दुनियाभर की खबरें।
देखो तो पुतलियाँ नचाते हुए लड़का
किस तरह देखता देखता है घरों को
सुनो तो कितना सुरीला है लड़के का कंठ
मुर्गे की तरह बाँग देता हुआ-‘पेपर’।
तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री,
अखबार बाँटता हुआ दस बरस का लड़का
बहुत अच्छा, बहुत प्यारा
अभी-अभी इधर से निकला है हवा में लहराते हुए
राष्ट्रपति का अभिभाषण।
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यह देश जो हमारा है
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कितना दम है मान्यवर
आपकी बूढ़ी हड्डियों में
अभी और आगे ले जाएँगे आप
इस देश को
कितना भरोसा है आप पर
कितना बोझ है आपकी आत्मा पर
माननीय प्रधानमंत्री जी
कितने दृढ़-प्रतिज्ञ हैं आप
आखिरी साँस तक ले जाएँगे अपने संग
इस देश को अभी और कितनी दूर ।
यह देश जो हमारा है
और हमसे दूर होता जा रहा है ।
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यह देश
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यह देश मेरा भी है
यह देश आपका भी है
एक मत मेरे पास है
एक मत आपके पास भी है
एक अरब आपके पास है
एक सौ मेरे पास है
यह देश आपको प्यारा है
मुझको भी जान से प्यारा है
एक छोटी-सी जिज्ञासा है
मान्यवर, यह देश
कितना आपका है कितना हमारा है ।
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एक अफवाह है दिल्ली
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कोई तो होगा मेरे जैसा
जो कह सके शपथपूर्वक
चालीस पार किया
गया नहीं दिल्ली
नई कि पुरानी
देखा नहीं कनाट प्लेस
बहादुरशाह जफर मार्ग
चाँदनी चौक, मेहरौली
अलकनंदा, दरियागंज
मुझे अक्सर लगा
एक डर है दिल्ली
किसी शहर का नाम नहीं
जो फूत्कार करता है
लेखकों की जीभ पर
हृदय के किसी अंधकार में
जब-जब बताते रहे एजेंट सगर्व
दिल्ली दरबार के किस्से
लेखकों की जुटान के ब्योरे
कैसे बँटती हैं रेवड़ियाँ
और पुरस्कार
हाय! सुनता रहा किस्सों में
कैसे मचलते हैं नये कवि
किसी उस्ताद की कानी उँगली से
एक डिठौने के लिए
और
नाचते हैं कैसे आज के किस्सागो
किसी दरियाई भालू के आगे
उसकी एक फूँक के लिए
निछावर करने को आतुर
अपना सब कुछ
बेशक होता रहा हाँका
कुल देश में कि खैर नहीं
मार दिये जायेंगे वे
जो जायेंगे नहीं
दिल्ली
मैं हँसता रहा
कि दिल्ली से
दिल्ली के लिए उड़ायी गयी
एक अफवाह है दिल्ली
देखो तो
बचा हुआ है गणेश पाण्डेय
गोरखपुर में साबूत।
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ख़ुश है गणेश पाण्डेय
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चलो माना
सब कुछ दिल्ली में
गोरखपुर को क्या
कवियों के मीनार
क़ुतुब से बड़े
आलोचकों के फाटक
जैसे इण्डिया गेट
साहित्य
संपादकों के क़िले
लाल-पीले
क़ाबा-काशी
अख़बारों के लेनिनग्राद
सब दिल्ली में
तो क्या
ख़ुश है गणेश पाण्डेय
गोरखपुर में।
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वहां मैं नहीं जा रहा था
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उस भागती हुई बस में निश्चिंत थे सब
अपने-अपने ठिकाने को लेकर
कुछ स्कूली लड़के थे खेल की मस्ती में डूबे हुए
कुछ किसान थे जो बाजार जा रहे थे ऊँघते हुए
अपने साथ प्याज का गट्ठर लिए
कुछ मारवाड़िनें थीं
बनीं-ठनीं इतनी कि हाय
दुनिया भर की खुशबू लिए
अपने पश्मीने में बंद
जैसे कभी अस्वस्थ हो ही नहीं सकती थीं
थोड़े से बुजुर्गवार थे जो खास रहे थे लगातार
अपने गमछे और कनटोप कसे हुए
मैं था शशि सिंघानिया की याद में दंदाया
और मेरे बाजू में वह थी जो वह नहीं थी।
गांव थे, बाजार थे आते-जाते
धरती थी लगातार नाचती
प्रयाण और पहुंच के बीच
बस के शीशे के बाहर
सरसों के कुछ फूल खिले थे।
वह जो थी
नई नई औरत हुई औरत
उसकी आंखों में था शीत-वसंत
चमकते हुए दांत थे उसके, ताजे सेव से दबे हुए
थिरकती हुई मुस्कान थी बेतहाशा उसके पास
आदिम गंध से लैस थी उसकी देह
नहीं था तो उसके पास कोई कार्डिगन
बड़े जतन से छिपाए हुए थी
फिर भी आंचल के नीचे कुछ
बार-बार
सर्द हवाएं थीं शीशे को चीरती हुई
और साल का पहला हफ्ता था
कंपकंपी छोड़ता हुआ उसके आगे
वह नई औरत मेरे बाजू से सटी हुई
कहीं जा रही थी
जाहिर है कि वहां मैं नहीं जा रहा था।
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दरअसल वे पिछड़े थे
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जिनके पास पीने भर का साफ पानी नहीं था
जिनके पास दो जून का मनचाहा अनाज नहीं था
जिनके पास मुर्दे की तरह लेटने भर की जगह नहीं थी
जिनके पास नियम में छेद करने का कोई औजार नहीं था
जिनके पास जीने भर का कुछ भी नहीं था
जिनका कभी किसी संसद में आना जाना नहीं था
जिनके लिए किसी भी तरह का बाजार
एक लंबी और अंतहीन दौड़ का डरावना सपना था
सबसे खराब बात यह कि जिनके पास
कोई खतरनाक शब्द नहीं था
दरअसल वे पिछड़े थे।
वे पिछड़े थे कि उनके प्रतिनिधि तनिक भी नहीं पिछले थे।
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पूरे शरीर से
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कई बार पसीजती हैं हथेलियां
कहना चाहती हैं कि बस
मुझे विदा करो
कई बार दृश्य के विरुद्ध
उद्यत होती हैं
आंखें
कई बार उठते हैं हाथ
कि पूरा चाहिए अपना
राज्य
कई बार
बाजार से लौटकर
सीधे लाम पर जाना चाहते हैं
पैर
कई बार मचलता है मेरा दिल
और पूरे शरीर से होती है
बम होने की इच्छा।
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उठा है मेरा हाथ
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मैं जहां हूं
खड़ा हूं अपनी जगह
उठा है मेरा हाथ
रुको पवन
मेरे हिस्से की हवा कहां है
बताओ सूर्य
किसे दिया है मेरा प्रकाश
कहां हो
वरुण कब से प्यासी है मेरी आत्मा
सुनो विश्वकर्मा
मेरी कुदाल कल तक मिल जानी चाहिए
मुझे जाना है संसद कोड़ने।
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यह दुनिया 1
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वे किन्हीं ग्रहों और नक्षत्रों से नहीं आए थे
जिनसे रूपाकार हुए, कहीं और से नहीं लाए थे
उन्नत बीज अधिक उपजाऊ धरती
मीठा-मीठा पानी ठंडी-ठंडी हवा
और निरंतर जलने वाली आग
वे बेहद निष्ठावान और कर्मठ लोग थे
जो चलाना चाहते थे इतनी बड़ी दुनिया को
कुछ पूज्य पोथियों से।
और यह दुनिया
एक बहुधंधी दुनिया थी, जो थी
कुछ-कुछ संवेदनशील कुछ काठ की
कुछ-कुछ प्रेम की तो बहुत कुछ मारकाट की।
एक दुनियादार मां थी यह दुनिया जो सबकी थी
झरनों की तो पहाड़ों की, खेतों की तो कारखानों की
कुछ-कुछ कवियों की तो बहुत कुछ ढोंगियों की
कुछ-कुछ बैल की तरह जुते हुए किसानों की
तो कुछ भूखे-नंगे फटे हाल किसानों की
कुछ-कुछ अन्याय के विरुद्ध संघर्षरत नौजवानों की
तो बहुत कुछ नोट की तरह
दुनिया को अपनी जेब में ठूंसने वाले हत्यारों की।
पोछना चाहती थी सब के आंसू और गुस्सा
यह दुनिया, जो बिल्कुल अकेली थी
असंख्य दुनिया ओं की मां होते हुए
महाविध्वंस, अनंत विस्फोट
और हत्यारों की क्रूरतम अट्टहास के बीच
जो कहते थे
दुनिया का निचोड़ हैं उनकी किताबें
उन्हीं की मुट्ठी में बंद हैं
धरती और मनुष्य और समाज के
सभी ग्रह और नक्षत्र और चक्र।
वे कहना चाहते थे और कहते थे।
और वे भी जो कहते थे
जीवन कोई पदार्थ नहीं है
और भूख की चौहद्दी में
रोटी के अलावा कुछ और भी होता है
थोड़ी-सी चैन की नींद थोड़े से सपने
एक अदद खुली हुई खिड़की, किसी का प्यार
और थोड़ी सी ताजा हवा।
चले गए वे।
और वे भी गए जो चूर थे दर्प से
कांख में दबे हुए ईश्वर महान की पोथी
और जो कहते थे दुनिया की भलाई के लिए
खास उनके पास उतरी हैं पवित्र आसमानी किताबें
और जो बेचैन थे, किसी भी तरह
दुनिया पर लागू करने के लिए
अपने नियम और विश्वास।
वे सब
किन्हीं ग्रहों और नक्षत्रों की ओर नहीं गए
यहीं कहीं किसी घाट की राख में
किसी दरख्त की छाया में
कहीं भी धरती के पेट में
विलीन हुए इस तरह अचानक।
वे
जो कुछ जानते थे
और बहुत कुछ नहीं जानते थे-
सभी पोथियों की मां है यह दुनिया
जो जीना जानती अपने ढंग से
और मरना चाहती है अपनी उम्र
वे नहीं जानते थे।
वे नहीं जानते हैं।
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यह दुनिया 2
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वे कोई देवदूत जैसे थे
कुछ कुछ हुक्काम जैसे थे
तो कुछ-कुछ लुटेरे जैसे
कुछ-कुछ हातिमताई जैसे थे
तो बहुत कुछ आतमतायी जैसे।
वे क्या थे और क्या नहीं थे
वे जो जानते थे उतना ही सच मानते थे
वे जो भी थे
और जहां भी थे
जिस वक्त भी थे
दुनिया के किसी भी कोने से
फरमान जारी कर सकते थे।
वे जानते और मानते थे, बेशक
तमाम मुल्कों की बागडोर संभाल सकती थीं
औरतें
फतह कर सकती थीं सागरमाथा
लिख सकती थीं अच्छी कविताएं
सोच सकती थीं दुनिया के बारे में
खूब
एक अपने बारे में नहीं।
यही ऊपर का हुक्म था
ऐसा ही वे सोचते जानते और मानते थे
वे जानते और मानते थे, अच्छा नहीं होता
औरतों का इस तरह रंगों से मेलजोल।
क्रूर प्रतिबंध और नियम की धार से
वे खुरच देना चाहते थे
औरतों के शरीर से
पहनावे और उनके जीवन से
लाल हरे पीले नारंगी जैसे
चटकीले रंग।
वे थे तो बड़े ताकतवर
बहुत कुछ कर सकते थे
बैठे-बैठे कुछ भी बदल सकते थे
अच्छे खासे आदमी को भेड़
और भेड़ को आदमी कर सकते थे।
बस शरीर के भीतर का रंग नहीं बदल सकते थे
वह, जो बहता चला आया था
शुरू से उन औरतों के शरीर में
उसी तरह लाल चटक।
दरअसल वे
किन्हीं उसूलों के बड़े पाबंद थे
बड़े भोले लोग थे
कुछ-कुछ हिंदुस्तानियों जैसे थे
नहीं-नहीं, पाकिस्तानियों जैसे थे
नहीं-नहीं ईरानियों जैसे थे
नहीं-नहीं तुर्कियों जैसे थे
नहीं नहीं ...
वे थे तो इसी दुनिया के।
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छोड़ो भारत
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क्यों तने हो
आसमान के सामने
इतना
इतराते क्यों हो
झूमते हो किस बात पर
जीभर हवाओं के संग
क्यों लेते हो इतनी अंगड़ाइयां
जुलाई की झमाझम बरसात में
सोचते हुए कि सारा जहां तुम्हारा
ओ गोरे चिट्टे यूकिलिप्टस
किस काम के हो तुम
खूब खाते हो खूब पीते हो
क्या करते हो दूसरों के लिए
ओ खुदगर्ज साहबजादे
जरा अमरूद को देखो
कैसे झपट्टा मारती हैं
ये बड़ी-बड़ी लड़कियां
आम को देखो
कैसे मचल उठते हैं लाल
और इस नीम को देखो
कैसे बतियाते हैं बूढ़े इसके नीचे
दोतों में फंसे सुख-दुख
गुलजार घरों को देखो
चौखट देखो खिडत्रकियां देखो
ये शीशम ये सागौन
ये अपना काला-कलूटा
जामुन देखो
देख सको तो सबसे पहले
छप्पर में खुंसी हुई
लाठी देखो
मैं कहता हूं हट जाओ
हट जाओ मेरे सामने से
ओ गोरे चिट्टे यूकिलिप्टस
छोड़ो भारत
छोड़ो सृजन-संसार।
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अटा पड़ा था दुख का हाट
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देखा वे जल्दी में थे
उन्हें जाना था बाजार खरीदने
थैले थे दोनों हाथों में
दुख की भुजाएं, छाती और नितंब
सब उपलब्ध थे वाजिब दामों पर
अटा पड़ा था दुख का हाट
कोई-कोई सस्ते में बेच रहा था दुख
बिल्कुल मुफ्त
कुछ तो लौट रहे थे हंसी ठट्ठा करते हुए
सिर पर लादे दुख का गट्ठर
कुछ थे
जो मस्ती में थे जीवन पर गीत गाते हुए
मना रहे थे दुख पर्व
दिखी एक सुंदरी मंदस्मित
जिसकी वेणी में गुंथा हुआ था अंतहीन दुख
एक नृत्यांगना दिखी अपनी विद्या में लीन
इसकी गति से फूट रहा था दुख-प्रपात
और जब कार से उतरा तो देखा
एक रूप गर्विता स्त्री ने ढंग से छिपा रखा था
अपनी चितवन में कंटीला दुख
मैं जल्दी में था मित्रो
मुझे बुद्ध पर भाषण के लिए जाना था।
000
(प्रथम संग्रह ‘अटा पड़ा था दुख का हाट’
प्रथम संस्करण 1996/ प्रत्यूष प्रकाशन, गोरखपुर)
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