- गणेश पाण्डेय
1
विश्वविद्यालय
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इक्कीसवीं सदी है बाबू
नेकी की नहीं बदी की सदी है बाबू
बदी के अनेक रूप और रंग हैं बाबू
ऐसे विश्वविद्यालयों को पैदाकर
मुश्किल में फंस गया है देश बाबू
विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में
नेकी की बातें ठूंस-ठूंस कर भरी हुई है
लेकिन आचार्य उसे अपने छलबल से
पढ़ने-पढ़ाने से बाहर जाने ही नहीं देते
विद्यार्थियों को जीवन में उतारने ही नहीं देते
हौदा जी आचार्य हाथी जी आचार्य
चूहा जी आचार्य और क्रांतिकारी जी आचार्य
विद्यार्थियों को जोर-जोर से डांटते हुए कहते हैं
कि यह जीवन में शामिल करने की चीज नहीं है
सिर्फ कंठस्थकर कापी पर लिखने
और ज्यादा नंबर पाने की चीज है
नंबर लो और अपने घर जाओ गधो
वे विद्यार्थियों को गधे की जगह
घोड़ा ऊंट शेर बनाना ही नहीं चाहते
उन्हें अच्छा मनुष्य बनाने के बारे में
वे सौ जन्म तक सोचना ही नहीं चाहते
वे हिंसामुक्त असमानतामुक्त समाज की बात
कक्षाओं में कर तो सकते हैं पर ऐसा हो
दिल से चाह नहीं सकते
वे मोमबत्ती जलाने का नाटक तो कर सकते हैं
पर अपने भीतर बदी से लड़ने के लिए
एक चिंगारी पैदा नहीं कर सकते हैं
क्या दुनियाभर के आचार्य
नेकी को बदी की तरह पढ़ाते हैं
मोटी-मोटी पोथियों की आड़ में
विद्यार्थियों से अपना जीवन छिपाते है
क्या हो गया है इस देश के आचार्यों को
इस देश के विश्वविद्यालयों को
समाज को सुंदर बनाने की प्रविधि के केंद्र की जगह
फूल जैसे बच्चों को पत्थर बनाकर निकालने की जगह
किन लोगों ने बनाया है कौन हैं पहले उन्हें ठीक करो।
2
कुलपति
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मुझे
कुलपति नहीं होना था जिस गाँव नहीं जाना था
उस रास्ते पर कोई डग रखना तो दूर उसे देखा तकनहीं
मुझे तो अपने अनुशासन में कुछ टूटा-फूटा काम करना था
और जो पहले से टूटा-फूटा था और उसकी मरम्मत का
जो काम पहले से बाक़ी चला आ रहा था
बस उसी को करना था किया भी
वे जो सूक्ष्म खोपड़ी के अतिविकट नितंबी आचार्य थे
उन्हें ले-देकर कुलपति बनने का काम करना था
जिन्होंने अपने आत्मवृत्त में छींकने से लेकर
मीआदी बुख़ार होने तक का वृत्तांत लिख रखा था
अपने अनुशासन का अ अक्षर तक ठीक से नहीं लिख रखा था
उनके पास कुछ भी ठीक से करने के लिए वक़्त कहाँ था
उन्हें तो कुलपतियों को नहाने के बाद तौलिया पहनाने से लेकर
रात में बिस्तर की सिलवटें ठीक करने तक का काम
पूरी मुस्तैदी के साथ करना था
कुलपति बेचारा अकेले खुले में ठीक से पाद तक नहीं सकता था
ये सूँघते हुए वहाँ भी पहुँच जाते थे
ऐसी बात नहीं कि कुलपतियों को यह सब ठीक नहीं लगता था
यह सब उनके जीवन का अभिन्न था इन्हीं सीढ़ियों से चढ़कर
कुलपति बनना होता था
कुलपति होते ही अलबत्ता एक अतिरिक्त दुम निकल आती थी
कुछ और भी अतिरिक्त हो जाता था
कुछ कुलपति अपवाद होते थे कहिए कि भूलवश होते थे
कुलाधिपतियों से दुर्घटनावश हो जाते रहे होंगे
ऐसे कुलपति सब जान जाते थे कि विद्या की दुनिया में
कौन-सा आचार्य किस कोटि का है
किससे लिपिकीय कार्य लेना है, किससे परीक्षा का काम
किसे चम्मच और काँटे की तरह इस्तेमाल करना है
और किसका हृदय से सम्मान करना है
अक्सर छात्रों-शोधछात्रों और स्ववित्तपोषित महाविद्यालय के
प्राध्यापकों के हित के लिए विभागाध्यक्षों से
मेरी लड़ाई होती रहती थी एक दिन लड़ाई
हाथापाई में बदल गयी
विभागाध्यक्ष कुलपति की आँख के तारे थे
पहुँच गये अपने कुलपति के पास अकेले में रोना-धोना किया
और लौट आए मन ही मन मगन हांेकर अब पेशी होगी
कल होगी परसों होगी शायद फोन पर होगी
लेकिन कुछ हुआ ही नहीं काफी दिनों बाद
कुलपति मिले मैंने ख़ुद ही चर्चा की तो मासूम -सा जवाब दिया
उसी दिन मेरे पास आए थे लेकिन मैंने आपसे तो कुछ भी नहीं कहा
ऐसे कुलपति कम होते हैं जिनके पास अपने कान होते हैं
अपनी जुबान और अपना दिमाग होता है
नही ंतो ज़्यादार कुलपति अक़्ल से पैदल और कान के कच्चे होते हैं
चमचाप्रिय सेवाप्रिय मालप्रिय होते हैं
जब कुलपति बनना करोड़ों का खेल हो जाए
देकर बनो लेकर फूलकर कुप्पा बनो फिर दो बनो लो
ऐसे देश को रसातल में जाने से कौन रोक सकता है
जब मंत्री और कुलपति दोनों एक जैसे लुटेरे हों
एक बीमार देश यह कैसे तय कर सकता है
कि उसे लुटेरा कुलपति चाहिए या कुल की उन्नति करने वाला
कुलपति।
3
विभागाध्यक्ष
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मुझे
विभागाध्यक्ष होना ही नहीं था
इसलिए कभी किसी दंदफंद वाले के पीछे
चलना ही नहीं था
उन लोगों को होना था
इसलिए उन लोगों ने
विभागाध्यक्ष होकर भी कम उम्र के
अपने विषय के फिसड्डी आचार्य
शिक्षक नेताओं के पीछे चलने में
अपनी भलाई समझी सब निरापद हो
अध्यक्षता ठीक से चलती रहे
कुलपति की डांट से बचे रहें
उनके लिए नाचना और पादना बुरा नहीं था
जीवन में इस मूल्यवान अवसर को
गँवा देना बुरा था
अपनी संततियों को कैसे बताते
जीवन में प्राध्यापक होकर उपाचार्य होकर
आचार्य होकर विभागाध्यक्ष होकर
क्या बड़ा किया
और मुझ गधे के पास
इन फिजूल कामों के लिए वक़्त कहाँ था
मैं हिंदी का बेटा था मुझे भला
उसकी सेवा से छुट्टी कहाँ थी
उसी के लिए जीना था उसी के लिए
दिनरात लड़ना था उसी के लिए मरना
मुझे तो पता ही नहीं कि प्राध्यापक होने के बाद
हिंदी ने कब मेरे जीवन में दर्शन की जगह ले ली
कब उसने मेरी उँगली को जोर से पकड़ ली
और मैं माँ-माँ कहते हुए उसकी पीछे चल पड़ा
असल में हम
अपनी रुचि का जो काम
अच्छे से कर सकते थे हमने वही किया
भला इससे ज्यादा अच्छा
और क्या कर सकते थे।
4
प्राध्यापक
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नयी सदी के
प्राध्यापक भी पूरी तरह
प्राथमिक अध्यापक बन चुके थे
सरकार ने नहीं
उन्होंने ख़ुद ही ख़ुद को
अपने अनुशासन में कुछ बड़ा करने की जगह
शिक्षणेतर कार्यों के एक विशाल भाड़ में झोंक दिया था
कुलपति
और विभागाध्यक्ष ने
ख़ुद नहीं कहा कि पढ़ाने की जगह उनकी खुशामद करो
फिर भी उन्होंने ख़ुद ही ख़ुद को उन्नत किस्म की चंपी करने के
पाठ्यक्रमेतर सैद्धांतिक और प्रायोगिक कार्य में
निष्ठापूर्वक लगा दिया था
ज़ाहिर है ऐसे में प्राध्यापक
उससे भी कम पढ़ाने लगे थे
जितना किताबों में लिखा हुआ था
असल में हाथ मैले न हो जाएं
इसलिए किताबों को कम से कम छूते थे
बच्चों के सामने अपना जीवन
किताब की तरह खोलकर कभी सीखा ही नहीं
सीखते भी तो वरिष्ठ डस्टर से उसे मिटा देते
समय बहुत दूसरा ख़ुद को बचाना
ख़ुद को अंतरिक्ष में बचाने जैसा था
और हिंदी की दुनिया में किसे इतना आता था
एक बिल्कुल अलग दुनिया थी
अलग तरह के कुलपति थे विभागाध्यक्ष अलग तरह के
प्राध्यापकों ने ख़ुद ही ख़ुद को उनके अनुकूल ढाल लिया था
और वातानुकूलित प्राध्यापक बन गये थे।
5
शिक्षाविद
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सरकारें कैसे-कैसे नमूनों को
शिक्षाविद चेयरमैन कुलपति बनाने लगीं थीं
जब शिक्षामंत्री ही नमूनों के सरदार हों
तो फिर नमूनों की सरकार में अचरज कैसा
इनसे कोई सख़्ती से पूछ ले तो हवा निकल जाए
तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है और है तो कहाँ है
तुम्हारे ज्ञान का विज्ञान का उद्देश्य क्या है कहाँ है
तुम्हारे पाठ्यक्रम का उद्देश्य क्या है दिख क्यों नहीं रहा है
तुम्हारे आचार्य का उद्देश्य क्या है तुम्हारा आचार्य कर क्या रहा है
तुम्हारे छात्र का उद्देश्य क्या है कर क्या रहा है
तुम्हारे विश्वविद्यालय का उद्देश्य क्या है विघ्वविद्यालय कहाँ खड़ा है
तुम्हारे शिक्षाविद होने का उद्देश्य क्या है तुम लोग कर क्या करे हो।
यथार्थ की बानगी से लवरेज कविता
जवाब देंहटाएंयथार्थ चित्रण।
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