- गणेश पाण्डेय
कोई सेवक मुल्क लूटता है कोई सूबा और कोई शहर
कोई सोना लूटता है कोई हीरे-जवाहरात कोई कुछ
मैं चाहता हूँ अपने पसीने की इतनी कीमत
जिससे खरीद सकूँ अपने बच्चों के खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने के लिए
कुछ चीजें और थोड़ी-सी खुशियां
इससे ज्यादा कामयाबी और नसीब नहीं चाहिए मुझे
नहीं चाहिए मुझे दूसरे के मुँह का निवाला और दूसरे के हिस्से का प्यार
नहीं चाहिए मुझे मेरे पड़ोसी के पैरों के नीचे की जमीन
मुझे अपने छप्पर के लिए सिर्फ उसका हाथ चाहिए
उसका साथ चाहिए
नहीं चाहिए मुझे जरायम की काली दुनिया की अकूत कमाई
अपनी गरीबी के उजाले में अपनी आत्मा को तृप्त करना आता है मुझे
अपने बच्चों को अँधेरे के राक्षस से बचाना आता है मुझे
उनकी आँखों में सच्चाई और संघर्ष के सपने बसाना आता है मुझे
बस यह जरा-सा बुरा वक है लड़ लूँ इससे
फिर कर लूँगा सब आता है मुझे
बस यह जरा-सा बुरा है वक्त बिल्कुल जरा-सा
और कितने हैं हमलोग इतने सारे लोग।
(यात्रा 12)
कोई सेवक मुल्क लूटता है कोई सूबा और कोई शहर
कोई सोना लूटता है कोई हीरे-जवाहरात कोई कुछ
मैं चाहता हूँ अपने पसीने की इतनी कीमत
जिससे खरीद सकूँ अपने बच्चों के खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने के लिए
कुछ चीजें और थोड़ी-सी खुशियां
इससे ज्यादा कामयाबी और नसीब नहीं चाहिए मुझे
नहीं चाहिए मुझे दूसरे के मुँह का निवाला और दूसरे के हिस्से का प्यार
नहीं चाहिए मुझे मेरे पड़ोसी के पैरों के नीचे की जमीन
मुझे अपने छप्पर के लिए सिर्फ उसका हाथ चाहिए
उसका साथ चाहिए
नहीं चाहिए मुझे जरायम की काली दुनिया की अकूत कमाई
अपनी गरीबी के उजाले में अपनी आत्मा को तृप्त करना आता है मुझे
अपने बच्चों को अँधेरे के राक्षस से बचाना आता है मुझे
उनकी आँखों में सच्चाई और संघर्ष के सपने बसाना आता है मुझे
बस यह जरा-सा बुरा वक है लड़ लूँ इससे
फिर कर लूँगा सब आता है मुझे
बस यह जरा-सा बुरा है वक्त बिल्कुल जरा-सा
और कितने हैं हमलोग इतने सारे लोग।
(यात्रा 12)
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