- गणेश पाण्डेय
सिया
तुम मेरी प्रिया नहीं हो तो क्या हुआ
उस युग की सिया नहीं हो तो क्या हुआ
कितनी सुघड़ हो सलोनी हो
कितनी अच्छी हो अपनी इस कृशता में
कोई परिधान हो रंग कोई
समय कोई भी
चाँद के सामने हो जैसे कोई
कोमल ऐसी कि छूकर नत हो जल
वाणी से नित चूता है जिसके राब
तुमसे भी प्यारा है सिया तुम्हारा जिया
तुम्हारा यह लव और तुम्हारा यह कुश
मीठा इतना कि पूछो मत
चूम कर देखे कोई उनके रसभरे कपोल
कैसे खिलखिल करते हैं नटखट
जब वे तुम्हें देख मुस्काते हैं
कैसे उनके संग नाचती हो
अपने एकाकी जीवन की रानी तुम
कैसा है यह तुम्हारा मरियल पति
जिसकी मद्धिम से मद्धिम पुकार पर
छोड़छाड़ कर सब द्रुतदौड़ लगाती
कैसे दिनभर खटती हो अपने छोटे से घर में
हजार काम वाली हाथगाड़ी में अकेले जुती
परमेश्वर पति से
खाती हो डाँट कभी तो मार कभी
कभी नमक के लिए तो इस्त्री के लिए कभी
जूते की धूल की तरह झाड़ी जाती हो
हजार बार
दुखी होकर अकेले में रोती हो सिया
जानता हूँ सब जानता हूँ
रोज शाम को पीकर घोड़े पर आना
उस परमेश्वर का
सजधज कर चौखट से टिककर
तुम्हारा लग जाना
आँखों में काजल के नीचे थरथर करती रोज
तुम्हें देखा है
ऐसे ही छिपकर अपने भीतर रहते देखा है।
तुम्हीं कहो
कैसा है यह पति निर्दयी कसाई
जो अपनी परिणीता को रोज डराता है
तुम भी कैसी सिया हो किसकी हो बेटी
कुछ तो बोलो कहाँ रहते हैं माँ-बाप
अवध की हो कि मिथिला की
कि भोजपुरिया
क्यों नहीं आते हैं यहाँ
हँसकर फोन पर क्यों सब अच्छा कहती हो
यह तुम कैसी सिया हो सिया जिसका पति तुम्हें
अपने भीतर के किसी दूसरे बुरे आदमी से बचाता नहीं है
खसी की तरह रोज बाँध कर उसके आगे कर देता है पराये शहर में
एक भली स्त्री की आहत आत्मा को क्षत-विक्षत करने के लिए
किस युग का पति है यह
क्या लंका से आया है
किस ग्रह से आया है बोलो
ढ़ूँढ़ता रहता है तुममें नुक्स पर नुक्स
इसे तुम जैसी सिया पर हाथ उठाते देखता हूँ
दुखी हो जाता हूँ
कैसी सिया हो
तुम्हें फिर हँसते-मुस्कराते हुए
उसके पीछे-पीछे भागते देखता हूँ
यह कैसा जीवन है सिया
इस अग्नि में तुम्हें क्षण-प्रतिक्षण
धू-धू कर जलते हुए देखता हूँ
हाँ देखता हूँ
आज की सिया को देखता हूँ
अपने ही घर में
अपने परमेश्वर की आज्ञा से
अकेले वनवास काटते हुए देखता हूँ
देखता हूँ
समय के माथे से बहते हुए सिंदूर के झरने के नीचे
सोलहसिंगार करके बैठी हुई सिया का अस्थिपंजर देखता हूँ
नहीं चाहिए मुझे इस तरह
किसी स्त्री को पिटते हुए देखने का पैसा
नहीं देखना है मुझे
किसी सिया का इस तरह रोज-रोज आहत होना
दो दिन में
खाली कर दे राक्षस किराये का यह मकान
इससे पहले कि मैं कुछ कर बैठूँ ...
पर जाओगी कहाँ सिया
कहाँ ले जायेगा यह राक्षस तुम्हें
कौन देखेगा तुम्हें इस तरह
तुम्हारा दुख किसे छुएगा...
(यात्रा 12)
सिया
तुम मेरी प्रिया नहीं हो तो क्या हुआ
उस युग की सिया नहीं हो तो क्या हुआ
कितनी सुघड़ हो सलोनी हो
कितनी अच्छी हो अपनी इस कृशता में
कोई परिधान हो रंग कोई
समय कोई भी
चाँद के सामने हो जैसे कोई
कोमल ऐसी कि छूकर नत हो जल
वाणी से नित चूता है जिसके राब
तुमसे भी प्यारा है सिया तुम्हारा जिया
तुम्हारा यह लव और तुम्हारा यह कुश
मीठा इतना कि पूछो मत
चूम कर देखे कोई उनके रसभरे कपोल
कैसे खिलखिल करते हैं नटखट
जब वे तुम्हें देख मुस्काते हैं
कैसे उनके संग नाचती हो
अपने एकाकी जीवन की रानी तुम
कैसा है यह तुम्हारा मरियल पति
जिसकी मद्धिम से मद्धिम पुकार पर
छोड़छाड़ कर सब द्रुतदौड़ लगाती
कैसे दिनभर खटती हो अपने छोटे से घर में
हजार काम वाली हाथगाड़ी में अकेले जुती
परमेश्वर पति से
खाती हो डाँट कभी तो मार कभी
कभी नमक के लिए तो इस्त्री के लिए कभी
जूते की धूल की तरह झाड़ी जाती हो
हजार बार
दुखी होकर अकेले में रोती हो सिया
जानता हूँ सब जानता हूँ
रोज शाम को पीकर घोड़े पर आना
उस परमेश्वर का
सजधज कर चौखट से टिककर
तुम्हारा लग जाना
आँखों में काजल के नीचे थरथर करती रोज
तुम्हें देखा है
ऐसे ही छिपकर अपने भीतर रहते देखा है।
तुम्हीं कहो
कैसा है यह पति निर्दयी कसाई
जो अपनी परिणीता को रोज डराता है
तुम भी कैसी सिया हो किसकी हो बेटी
कुछ तो बोलो कहाँ रहते हैं माँ-बाप
अवध की हो कि मिथिला की
कि भोजपुरिया
क्यों नहीं आते हैं यहाँ
हँसकर फोन पर क्यों सब अच्छा कहती हो
यह तुम कैसी सिया हो सिया जिसका पति तुम्हें
अपने भीतर के किसी दूसरे बुरे आदमी से बचाता नहीं है
खसी की तरह रोज बाँध कर उसके आगे कर देता है पराये शहर में
एक भली स्त्री की आहत आत्मा को क्षत-विक्षत करने के लिए
किस युग का पति है यह
क्या लंका से आया है
किस ग्रह से आया है बोलो
ढ़ूँढ़ता रहता है तुममें नुक्स पर नुक्स
इसे तुम जैसी सिया पर हाथ उठाते देखता हूँ
दुखी हो जाता हूँ
कैसी सिया हो
तुम्हें फिर हँसते-मुस्कराते हुए
उसके पीछे-पीछे भागते देखता हूँ
यह कैसा जीवन है सिया
इस अग्नि में तुम्हें क्षण-प्रतिक्षण
धू-धू कर जलते हुए देखता हूँ
हाँ देखता हूँ
आज की सिया को देखता हूँ
अपने ही घर में
अपने परमेश्वर की आज्ञा से
अकेले वनवास काटते हुए देखता हूँ
देखता हूँ
समय के माथे से बहते हुए सिंदूर के झरने के नीचे
सोलहसिंगार करके बैठी हुई सिया का अस्थिपंजर देखता हूँ
नहीं चाहिए मुझे इस तरह
किसी स्त्री को पिटते हुए देखने का पैसा
नहीं देखना है मुझे
किसी सिया का इस तरह रोज-रोज आहत होना
दो दिन में
खाली कर दे राक्षस किराये का यह मकान
इससे पहले कि मैं कुछ कर बैठूँ ...
पर जाओगी कहाँ सिया
कहाँ ले जायेगा यह राक्षस तुम्हें
कौन देखेगा तुम्हें इस तरह
तुम्हारा दुख किसे छुएगा...
(यात्रा 12)
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