शनिवार, 27 दिसंबर 2014

कसौटी पर पक्ष और प्रतिपक्ष

- गणेश पाण्डेय
‘‘भारत रत्नों की आलोचना अच्छी बात है, कीजिए खूब कीजिए, लेकिन उन्हीं वजहों से साहित्य रत्नों की आलोचना न करना बहुत खराब बात है। हद तो यह कि ऐसे ही साहित्य रत्नों की खूब लंबी पूजा की जाती है। यह साहित्य की कैसी प्रगतिशील और जनवादी प्रवृत्ति और जन संस्कृति है भाई?’’ - यह प्रश्न 25 दिसंबर को मेरी वॉल पर एक छोटी-सी जिज्ञासा के रूप में दर्ज है। इस सिलसिले में संयोगवश पुरस्कारों के पक्ष और प्रतिपक्ष को लेकर एक दिलचस्प बातचीत नंद भारद्वाज जी, कर्ण सिंह चौहान जी और मेरे बीच हुई। जाहिर है कि पाठकों के विवेक पर भरोसा है, इसलिए अलग से कोई टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। पाठक स्वयं अपना पक्ष चुन लेंगे या तटस्थ रहकर देखेंगे। एक जरूरी और अर्थपूर्ण संवाद जस का तस यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-
1-नंद भारद्वाज : किसी व्यक्ति के सम्मान की आलोचना करना मैं उचित नहीं समझता, लेकिन चाहे नागरिक सम्मान हो या कला-संस्कृति के क्षेत्र में बेहतर काम करने वाले को पुरस्कार, उसके मूल्यांकन की कसौटी और प्रक्रिया वस्तुपरक, निष्पक्ष और निर्दोष होनी चाहिये। अन्यथा उस सम्मान दिये जाने का कोई महत्व नहीं रह जाता।
2-गणेश पाण्डेय : आपके कथन के इस आशय से पूरी तरह सहमति है कि साहित्य में भी सुधार की बेहद जरूरत है। प्रसंगवश कहना चाहता हूं कि अभी कुछ देर पहले एक मित्र को संदेश के रूप में कहा है कि‘‘ मित्र, सबके सामने आपकी बात काटना उचित नहीं है। इसलिए अलग से इतना ही कि साहित्य के सबसे बड़े पुरस्कार को पानेवाले ने ही उसे आलू का बोरा कहा था, जानते ही होंगे। दूसरी बात यह कि लेखक का सच्चा आनंद महत्वपूर्ण रचने में हैं, पुरस्कार में आनंद की खोज मजबूत लेखक का काम नहीं है। हो सके तो पुरस्कारों के मायाजाल से मुक्त होने की चेष्टा करे। आप मेरे मित्र हैं, कभी नहीं चाहूंगा कि आप कहीं से भी कमजोर दिखें। सादर...’’ इस संदेश से केवल एक वाक्य निकाल लिया है। नंद जी, आप मेरे अग्रज हैं, विनम्रतापूर्वक साहित्य के पुरस्कारों के संदर्भ में कहना चाहूंगा कि पिछले दिनों उम्र में काफी छोटे लेकिन समझदारी में बहुत आगे दिखने वाले युवा कवि शिरीष ने मेरी वॉल के किसी पोस्ट पर कहा था कि ‘‘पुरस्कार शायद रीतिकालीन अवशेष हैं।’’ मैं शिरीष के वाक्य से ‘शायद’ निकालकर शिरीष की पीठ थपथपाना चाहूंगा और किसी का एक शेर याद आ गया है तो उसे भी जरूर कहना चाहूंगा, अनुमति दीजिए - ‘‘हमारे दौर के बच्चे हो गये गंभीर/बुजुर्ग हैं कि अभी तितलियां पकड़ते हैं।’’ जाहिर है कि यह शेर किसी एक वरिष्ठ पर नहीं है, साढ़े निन्यानवे फीसदी लोग हैं जो पुरस्कारों के मायाजाल से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।
3- कर्ण सिंह चौहान : नंद भाई, जिसे आप “वस्तुगत”, “निष्पक्ष” और “निर्दोष” कह रहे हैं वह असल में एक विचारधारा या पक्ष के हिसाब से वस्तुगत, निष्पक्ष और निर्दोष है कोई सर्वमान्य, सार्वभौम सत्य नहीं । विचार के अपने आधारों पर कोई संघी अपने निर्णयों को वही सब करार देगा जो आपके मानक हैं । और विचार से बंधे लोग भी ऐसा ही करेंगे ।
    दरअसल जब कोई विचार दृष्टि प्रदान करने की बजाय धारा या वाद बन हम पर राज करने लगता है तो हम उससे जुड़े पूर्वाग्रहों को एकमात्र सत्य मानने लगते हैं और दूसरे को निंदनीय । फिर हम न कुछ देखते हैं, न सुनते हैं, न कहते हैं, बस विचार से बंधे समूह की समझ को दुहराते मात्र हैं । यह खेल हमने लंबे समय तक खेला है ।

4-नंद भारद्वाज : आदरणीय कर्णसिंह जी और गणेश जी, आप दोनों की बात से सिद्धान्त रूप से सहमत होते हुए भी मैं इस बात को नहीं समझ पा रहा हूं कि इस प्रक्रिया में नामित होने वाले लेखक की क्या भूमिका रह जाती है, सिवाय इसके कि वह ऐसी परिस्थिति बने तो अपनी ओर से इन्कार कर दे। (मैं उन लोगों की बात नहीं कर रहा जो सम्मान या पुरस्कार अपने पक्ष में करवाने के लिए जोड़-तोड़ करते हैं), इससे न सार्वजनिक मद से विभिन्न राजकीय या स्वयंसेवी संस्थानों द्वारा दिये जाने वाले पुरस्कारों की प्रक्रिया बंद होगी और न इस बुराई का ही अंत। सम्मान या पुरस्कार के माध्यम से लेखक और कलाकार को सार्वजनिक जीवन में जो पहचान, प्रचार या आम पाठकों तक पहुंच बनती है, उस पर जरूर असर पड़ेगा। क्योंकि यह किसी एक देश या समाज की बनाई प्रक्रिया नहीं है, दुनिया भर के बड़े लेखकों से भी हमारी वाकफियत तभी बनती है जब किसी बड़े पुरस्कार या सम्मान से वे व्यापक चर्चा में आते हैं, वर्तमान समय में ऐसे लोग अपवाद स्वरूप ही हमारी जानकारी में आ पाते हैं, जो किसी सम्मान या पुरस्कार के माध्यम से नहीं, बल्कि अपने काम के माध्यम से चर्चा का वह स्तर प्राप्त कर पाते हैं। हालांकि उनके चर्चित होने के इतर सकारात्मक या नकारात्मक कारण हो सकते है। मेरी अपनी धारणा यही है कि लेखक को सम्मान पुरस्कार से दूर रहने की सलाह देने की बजाय ऐसे प्रावधानों पर रोक लगाने का प्रयत्न अवश्य किया जाना चाहिये जो इस बुराई की जड़ में हैं। ज्यादा बेहतर है कि साहित्य अकादमी या जो भी संस्थान हैं, उन्हें यह सलाह दी जाए कि वे अपनी यह रुग्ण प्रक्रिया बंद करें और उस सार्वजनिक धन को किसी रचनात्मक कार्य में लगाने के बारे में विचार करें। केवल अपनी जगह बैठकर सदाशय अपेक्षाएं करने से शायद ही इस स्थिति में कोई परिवर्तन संभव हो पाए। यही नहीं, अगर मौजूदा प्रक्रिया में भी जो गलत या अनैतिक हो रहा है, उस पर पूरे तथ्यों के साथ खुलकर लिखें, उन संस्थानों में अपना विरोध दर्ज कराएं और जरूंरत हो तो न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से भी इस तरह की प्रक्रियाओं पर रोक लगाने का प्रयास करें। यह भी जरूरी है कि सम्मान पुरस्कार की यह प्रक्रिया सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में बंद होनी चाहिये, तभी समाज से इस ’बुराई’ का अंत संभव हो शायद।
5-गणेश पाण्डेय : नंद भारद्वाज जी, देखें - नोट : पुरस्कार के सच से मुँह न चुराएँ, विरोध करें 
6-नंद भारद्वाज : गणेश जी, आपकी ये सभी पोस्ट मैं पढ़ चुका हूं और इनमें मेरे सवालों के जवाब नहीं हैं। आप मेरी टिप्पणी को अपनी पोस्ट से मिलान करके देख सकते हैं। आप कहेंगे तो मै अपने सवालों को फिर से सूत्रबद्ध कर सकता हूं।
7-कर्ण सिंह चौहान : नंद भाई, प्रयोजन तो लेखक बिरादरी को सचेत करने का ही है । संस्थाओं और संस्थानों के बारे में अक्सर सवाल किए जाते ही रहते हैं पर वे ऊपर के आदेशों पर काम करते हैं । “दुनिया भर में ऐसा होता रहा है” यह उसकी सततता का कोई तर्क नहीं हो सकता । जो भी गलत चल रहा है, भले ही सदियों से, उसका विरोध कर उसे बदलना तो जरूरी है । यह पूरी तरह सही नहीं है कि पुरस्कारों के कारण ही लेखक या अन्य दुनिया में पहचान बनाते हैं । सच्चाई यह है कि बहुत से लेखक जब अपनी पहचान बना चुके होते हैं तो ये संस्थान और अकादमियां पुरस्कार दे उनका इश्तेमाल करती हैं अधिकांश जोड़-तोड़ के पुरस्कारों को विश्वसनीय बनाने के लिए । यह भी पूरी तरह सच नहीं है कि पुरस्कारों के पीछे लेखकों की कोई भूमिका नहीं होती । पर्दे के पीछे की दंद-फंद को तो सब जानते ही हैं, ये जो अपने पर चर्चा कराने के लगातार प्रायोजन चलते हैं- सभा-गोष्ठियों के माध्यम से, लेखों के माध्यम से, पत्रिकाओं के विशेषांकों के माध्यम से-वे भी इसी के अंग है । जहां तक अभियान चलाने वालों की सफलता का सवाल है, अब उसके बारे में तो कौन गारंटी दे सकता है । सब लोग आवाज ही उठा सकते हैं । हर चीज सफल हो जाती तो समाज और देश वह नहीं रहता जो है ।
8-गणेश पाण्डेय : नंद भाई साहब, हम लोग तो उन्हीं बेईमानों की बात कर रहे हैं, जिनके लिए आप खुद कह रहे हैं कि ‘‘ मैं उन लोगों की बात नहीं कर रहा जो सम्मान या पुरस्कार अपने पक्ष में करवाने के लिए जोड़-तोड़ करते हैं।’’ सारी बातचीत और चिंता तो इन्हीं साढ़े निन्यानवे फीसदी लोगों को ध्यान में रखकर की जा रही है। जब मैं यह कह रहा हूं कि “अ“ ने चयनकर्ता के रूप में “ब“ को एक कथित बड़ा पुरस्कार दिया और ब ने अपनी संस्था से अ को एक दूसरा कथित बड़ा पुरस्कार दिया। लोग हैं कि अ की महानता के गीत गा रहे हैं, इसमें कोई साहित्यिक भ्रष्टाचार नहीं दिखता है। क्या पता बिना कुछ पता किये, महानता का कोरस गा रहे हों। जाहिर है कि ये हिन्दी के लाल हैं, कुछ भी कर सकते हैं। हिन्दी के किसी भी लेखक को नोबेल भी मिल जाय तो उसे भी कम से कम एक बार संदेह की दृष्टि से देखना चाहिए। मेरा संकेत साफ है। आज शीर्ष पर दिखने वाला कौन पुरस्कृत है, जिसने प्रयत्नपूर्वक पुरस्कार प्राप्त नहीं किया है। बाकायदा लेन-देन होता है। नाम लेकर किसी को लज्जित करना प्रयोजन नहीं है, सिर्फ प्रंवृत्ति पर चोट करना है। रहा सवाल पुरस्कार से लेखक की स्वीकार्यता का तो यह तर्क बहुत कमजोर इस अर्थ में है कि हिन्दी के महान लेखक प्रायः अपुरस्कृत ही रहे हैं। बहुत पीछे मत जाइए। मुक्तिबोध का नाम काफी है। हो सकता है कि आप कहें कि केदार जी को हजारों पुरस्कार मिले हैं इसलिए वह मुक्तिबोध से अधिक शक्तिशाली लेखक हैं ? नाम सिर्फ उदाहरण के लिए दिया है, किसी का अनादर नहीं हैं। दूसरी बात यह कि आज हिन्दी में ‘‘हजारों’’ पुरस्कार हैं और ‘‘शुद्ध’’ पाठक ‘‘एक’’ भी नहीं। पुरस्करों में इतनी ही ताकत है तो हिन्दी के पाठक वर्ग का निर्माण और पठनीयता की संस्कृति का उन्नयन क्यों नहीं हो सका ? केवल लिखने वाले, आलोचना करने वाले, कक्षाओं में डिग्री के लिए पढ़ने वाले व्यापक पाठक वर्ग का विकल्प नहीं हैं। कहानी जैसी विधाएं तो इकका-दुक्का दूसरे तरह के लोग भी पढ़ लेते हैं, साहित्य की सत्ता के शीर्ष पर बैठे आलोचकों ने भी आलोचना की पठनीयता पर एक भी काम नहीं किया, उल्टे अपनी पत्रिका में ठस, अपठनीय गद्य लेख के रूप में छापा। आशय यह कि पुरस्कार पाठक समाज का विस्तार नहीं करते हैं, कृतियां करती हैं। पुरस्कार तो ठस उपन्यासों को दिये गये, जब कि कथा की पहली शर्त ही पठनीयता है। पुरस्कार लेखकों में सिर्फ एक नशे की तरह काम करता है कि मैं तो अब अमर हो गया। जैसे नशे के खिलाफ अभियान जरूरी होता है, उसी तरह आज इसके खिलाफ जरूरी है। लेखक पैदा होते ही दिलली भागता है, पाठक बढ़ाने के लिए या कविता और कहानी में महत्वपूर्ण करने के लिए ? जाहिर है कि वह मठाधीशों के चरणरज के लिए भागता है। मैंने यह सवाल भी उठाया था कि एक वर्ष में केवल एक ही किताब या कविता या लेखक महत्वपूर्ण होता है ? आखिर, यह नासमझी क्यों भाई ? लंबा हो जा रहा है, इसलिए अंत में आपकी ओर से एक बात कहूंगा। यह कि ‘‘मुकुट’’ और ‘‘राज्याभिषेक’’ वाले पुरस्कारों का बंद होना हमारे समय के हिन्दी साहित्य की विश्वसनीयता और पठनीयता और साहित्यिक शुचिता के लिए बेहद जरूरी है, हां, लेखकों के सम्मान के लिए उनके अपने जनपद में सबसे पहले सच्ची प्रतिष्ठा हो, विश्वविजय के लिए न निकलें, इस सम्मान के लिए किसी आत्मीय की ओर से ओढ़ाया गया ‘‘सिर्फ’’ ‘‘एक’’ ‘‘शाल’’, ‘‘श्रीफल’’, ‘‘एक’’ ‘‘माला’’ काफी है। ये अकादमी, ये ढ़कदमी, ये पीठ, ये पेट, इन्हें पेटेंट कराना जरूरी नहीं हैं। आपको जयपुर में आपके मुहल्ले में एक छोटे से मंच पर ‘सिर्फ’’ ‘‘एक’’ ‘‘शाल’’, ‘‘श्रीफल’’, ‘‘एक’’ ‘‘माला’’ काफी है।
9-नंद भारद्वाज : गणेश जी, इस मसले पर इतनी खुलासा बात होने के बावजूद मेरी चिन्ता तो उन जेनुइन लेखकों को लेकर ही है, जो इस तरह की अनैतिक प्रक्रियाओं से कतई संबंधित नही होते और संयोग से इस परिस्थिति में आ जाते हैं, उनके लिए आपकी क्या राय है? इसी क्रम में अगर इन बिन्दुओं पर सिलसिलेवार बता सकें, तो बात और स्पष्ट हो सकेगी - 1- इस प्रक्रिया में नामित होने वाले उस लेखक की क्या भूमिका रह जाती है, जिसने न पुरस्कार के लिए आवेदन किया, न किसी से समर्थन लिया और न उस निर्णय में उसकी कोई दिलचस्पी रही। उसके लिए तो यही रास्ता बचा न कि वह ऐसी परिस्थिति बने तो अपनी ओर से इन्कार कर दे। 2- यह किसी एक देश या समाज की बनाई प्रक्रिया नहीं है, दुनिया भर के बड़े लेखकों से हमारी वाकफियत तभी बनती है जब किसी बड़े पुरस्कार या सम्मान के माध्यम से वे व्यापक चर्चा में आते हैं। 3 - लेखक को सम्मान पुरस्कार से दूर रहने की सलाह देने की बजाय ऐसे प्रावधानों पर रोक लगाने का प्रयत्न क्यों न किये जाएं, जो इस बुराई की जड़ में हैं। 4 - केवल अपनी जगह बैठकर सदाशय अपेक्षाएं करने से शायद ही इस स्थिति में कोई परिवर्तन संभव हो पाए। अगर मौजूदा प्रक्रिया में जो गलत या अनैतिक हो रहा है, उस पर पूरे तथ्यों के साथ खुलकर क्यों न लिखा जाय और क्यों न उन संस्थानों में अपना विरोध दर्ज कराएं जो अनैतिक गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं। लोकतांत्रिक तरीके से संगठित विरोध करें और जरूंरत हो तो न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से भी इस तरह की प्रक्रियाओं पर रोक लगाने का प्रयास करें। 5 - यह भी जरूरी है कि सम्मान पुरस्कार की यह प्रक्रिया सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में बंद होनी चाहिये।
10-गणेश पाण्डेय : नंद भाई साहब, आपकी बात के संदर्भ में काफी कुछ कह चुका दूं। गौर करें। पुरस्कारों पर मैंने पहले भी काफी कुछ कहा है। अध्यात्मिक मुक्ति, सामाजिक मुक्ति, राजनीतिक मुक्ति के बाद साहित्यिक मुक्ति की बात की है। कुछ और कहूंगा, बाकी सब पहले कह चुका हूं। 1- मुक्ति चाहने पर मिलती है, कोई मुक्ति न चाहे तो सात जन्मों तक गुलाम बना रह सकता है। 2-दूसरी बात कुछ स्वाभिमानी लेखक नहीं होते तो इन पंक्तियों को लिखने वा या कर्ण सिंह चौहान इत्यादि लेखक मित्र कहां से आते ? 3-आखिर कहने वाले ने नोबेल पुरस्कार तक को आलू का बोरा क्यों कहा ? क्या वाकई उनका दिमाग फिर गया था या सच कहा ? या हम लोगों का सोचने का मामला कुछ गड़बड़ा गया है कि अच्छे विकल्प की बात कर रहे ? 4-क्या आप दावे के साथ कह सकते हैं कि कई शीर्ष पुरस्कार आज की तारीख में लेन-देन पर आधारित नहीं हैं ? 5-यदि पुरस्कारों में शक्ति है तो पाने के बाद लेखक में या खुद दूसरे लेखकों में अच्छा लिखने की चुनौती क्यों नहीं पैदा करते हैं ? 6-क्या आप दावे के साथ कह सकते हैं कि बड़ी अकादमियों में अच्छा काम न करने वाले लेखकों या अलेखकों का प्रवेश नहीं होता है ? 7- क्या आप यह कह सकते हैं कि स्वाभिमानी और निडर लेखकों का प्रतिशत हिंदी में आज ज्यादा है ? 8- क्या आप मानते हैं कि वाकई पुरस्कारों ने लेखकों की कीर्ति को उचित ही फैलाया है ? 9- क्या आप मानते हैं कि पुरस्कारों के खत्म हो जाने से हिंदी साहित्य खत्म हो जाएगा ? 10-क्या आप मानते हैं कि भक्तिकाल के महान कवियों ने छिपाकर पुरस्कार लिया था, तब महत्वपूर्ण रचा था ?11-क्या आज के पुरस्कृत कबीर, निराला और मुक्तिबोध के सतर का काम कर चुके हैं या कर देंगे ? कौन करेंगे ? नाम लेना उचित है ? 12-केदार जी को इतने अधिक पुरस्कार मिले हैं इसलिए क्या जनमानस को उन्हें तुलसी, सूर, कबीर इत्यादि से बड़ा कवि मान लेना चाहिए ? नाम नहीं लेना चाहता था, मजबूरी में लिया है। 13-अंग्रेजों के जमाने की रायबहादुरी और आज के पुरस्कृत लेखकों की साहित्यिक बहादुरी में क्या फर्क देखते हैं ? अंत में मेरा मानना यह है कि बच्चा बड़ों को नशा करते देखता है तो देखते-देखते नशा करना सीख जाता है ? एक उदाहरण देने का मन है, जब मेरी विश्वविद्याय मे नौकरी लगी तो मैंने तम्बाकू-पान छोड़ने का निर्णय लिया और तुरत छोड़ दिया। लगभग28-29 वर्ष हुए, अब तक सलामत हूं और कलम की धार आप देखते ही हैं। आशय यह कि पुरस्कार के नशे को तज देने के बाद लेखक और अच्छा करेगा। आदर सहित...
11-नंद भारद्वाज : आभार गणेश जी, आपकी तमाम चिन्ताओं और खुलासों के बावजूद मेरी बात अब भी वहीं है कि उन सामान्य सच्चे लेखकों के बीच पुरस्कारों या सम्मानों के कारण पैदा होने वाले विकार और संस्थानों में जड़ कर गई उस बुराई को कैसे खत्म किया जाय। महान् लेखक तो हमेशा से ही इन संस्थाओं और प्रक्रियाओं से उूपर रहे हैं, उनका समय भी अलग था, हमारी समस्या तो आज का समय है। चलिये, सभी लेखकों-कलाकारों और सजग लोगों को इस पर और विचार करने दें, शायद कोई सर्वमान्य हल निकल आए।
12-गणेश पाण्डेय : नंद भाई साहब, आप यह बहुत अच्छी बात कह रहे हैं कि इन समस्याओं पर अब खुलकर बात हो, शायद साहित्य की तमाम समस्याओं को दूर करने के लिए कोई आमराय बने।
      ( इस पोस्ट को कई मित्रों ने पसंद किया और पुरस्कार को हमारे समय के साहित्य की एक बड़ी समस्या के रूप में देखा।)

3 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक व सामयिक विमर्श।
    आपने एक जगह मूल चिन्ता रेखांकित की है जिस ओर मैं भी लगातार इंगित करता रहा हूँ। ऐसे पुरस्कार क्या किसी लेखक और स्वयं की साख कायम कर पाएँगे जब लेखक को पाठक ही न पहचानें। मैं नंद जी की इस बात से भी सहमत नहीं जो उन्होंने पुरस्कारों के औचित्य पर कही कि पुरस्कार मिलने की खबर से देश-दुनिया का लेखक चर्च में आ जाता है। ये अच्छी बात है या विडम्बना कि कोई भी संस्था किसी भी गुमनाम को पुरस्कृत कर दे तो और हम गद्गदायमान हो जाएँ कि चलो, हिन्दी को एक लेखक और मिला और हम उसे जान कर धन्य हुए।

    ऐसी ही भावना के चलते आज लिटफेस्ट के बहाने साहित्य पर्यटन हो रहा है। नामी एंकर, एक्टर, वकील, लेखक के रूप में शोभायमान होते हैं और हम उन्हें नमन करते हैं, फोटो खिंचवाते हैं। कृति अगर कोई हुई तो उस पर ऑटोग्राफ लेकर उसे ड्राइंगरूप में सजा देते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में पाठक तो कहीं नहीं। ऐसे आयोजनों के दर्शकों की जितनी संख्य होती है उतने पाठक भी किसी कृति को मिल जाएँ तो बहुत है।

    आज साहित्य, आम आदमी से कट गया है। साहित्य और पाठक का रिश्ता खत्म है। पाठक दरअसल लेखक ही है। रचनाकार, सिर्फ सृजनकर्मियों के लिए सृजनकर रहे हैं। वे चाहे आलोचक हों या न हों। ऐसे में पुरस्कारों का मिलना और बँटना निश्चित ही आनुष्ठानिक होगा। कोई भी अनुष्ठान लोकतान्त्रिक नहीं हो सकता, ये तय है। तब पुरस्कार भी विवादित होंगे ही।

    जवाब देंहटाएं
  2. यह भी एक अर्थहीन बहस सी ही है.
    बहसें चलती रहेंगी, विवाद होते रहेंगे, लोग प्रसन्नता से पुरस्कृत होते रहेंगे :)

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी इस बात से सहमत नहीं हूं कि पुरस्कार समाप्त नहीं किए जा सकते हैं। पूरा सच यह नहीं है कि समाप्त नहीं किए जा सकते हैं, बल्कि यह है कि आज समाप्त नहीं किए जा सकते हैं। कल समाप्त नहीं होंगे, यह हम अभी से कैसे कह सकते हैं? सती प्रथा, बाल विवाह प्रथा, सिर पर रखकर मैला ढोने की प्रथा, लड़कियों को लड़कों से हीन समझने की प्रथा, डेढ़ हाथ का घूंघट रखने जैसी तमाम कुरीतियां खत्म हुई हैं। तुरत नहीं खत्म हो गयी हैं। गुलामी 1857 में ही खत्म नहीं हो गयी थी। वक्त लगा। पूंजीवाद का नाश नहीं हो पाया है, लेकिन पूंजीवाद के नाश का स्वप्न भी खत्म नहीं हो गया है। दुनिया नहीं बदली है, लेकिन दुनिया को बदलने की कोशिशें खत्म नहीं हो गयी हैं। आशय यह कि हिन्दी में सिर पर रखकर मैला ढोने जैसी पुरस्कार-प्रथा भी खत्म होगी। सौ साल में हो या पांच सौ साल में या हजार साल में। बुरी प्रथाएं खत्म होती ही हैं। जैसे अंग्रेजों के दलाल आजादी को नहीं रोक पाये, उसी तरह पुरस्कारों के दलाल भी बहुत दिनों तक हिन्दी के लेखकों को दास नहीं बनाए रख सकते हैं। होगी, लेखकों की साहित्यिक मुक्ति होगी, पुरस्कारों का नाश जरूर होगा।

      हटाएं