-गणेश पाण्डेय
एकबार मेरे एक शिक्षक ने जो सिर्फ कहने के लिए शिक्षक थे और शिक्षक होने का पैसा पाते थे, लेकिन असल में एक लेखक थे और ईश्वर और महत्वाकांक्षा इत्यादि की कृपा से अभी हैं और लेखक तो खैर जो हैं सो हैं ही, पर उससे पाया काफी कुछ और दिया कुछ भी नहीं, लेकिन इससे क्या होता है, बहुत से लोग देते हैं कम और लेते हैं बहुत ज्यादा। मुक्तिबोध ने कहा ही है, लेकिन छोड़िए मुक्तिबोध को, हर जगह उनका नाम नहीं लेना चाहिए। कम से कम बहुत खराब लोगों के साथ तो कतई नहीं। मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि मैं जिस शिक्षक का जिक्र कर रहा हूँ, वह कोई खराब हैं। आप को समझना है तो समझिए, मैं सिर्फ अपनी बात कहूँगा, वह भी उनकी बात से। एक बार उन्होंने कहा था कि निराला की सब कविताएँ अच्छी नहीं हैं, मुझे उनकी यह बात ठीक लगी, फिर उन्होंने जोड़ा कि उनके पास कुल 13 कविताएँ अच्छी हैं, मुझे कुछ-कुछ विस्मय हुआ कि भला कैसे 13 ? 12 या 11 क्यों नहीं ? यह भी उन्होंने नहीं कहा कि कुछ ही कविताएँ अव्छी हैं। एकदम से कहा 13, जैसे तय कर दिया तो मैंने कुछ नहीं कहा, बस उनका मुँह देखता रहा। उन्होंने देखा कि मैं उनका मुँह देख रहा हूँ तो फिर कहा-‘‘मेरे पास अभी 10 अच्छी कविताएँ हैं।’’ मैंने मन ही मन गोविंद को याद किया और कहा, क्षमा करना गोविंद, मुझे पहली बार गुरु के साथ शरारत सूझी। मैंने वहीं सबके सामने कहा-‘‘ आप 3 अच्छी कविताएँ और लिखकर धड़ाक से निराला क्यों नहीं हो जाते ? वे मेरा मुँह देखने लगे। मैंने देखा कि वे मेरा मुँह देख रहे हैं, फिर भी मैंने कुछ और नहीं कहा। कई सहकर्मी बैठे हुए थे, इसलिए बात हँसी में इधर-उधर हो गयी, लेकिन सच कहूँ तो वह बात आज तक मेरी स्मृति में जस की तस बसी हुई है। इसलिए कि गुरु का यहाँ तक कहना सही था कि निराला की सभी कविताएँ बहुत अच्छी नहीं हैं। सच तो यह कि मैंने खुद अनुभव किया कि सिर्फ उनकी ही नहीं, कई बड़े कवियों की कुछ बहुत अच्छी और अविस्मरणीय कविताओं की भी सभी पंक्तियाँ एक जैसी मूल्यवान नहीं हैं। कुछ कमजोर भी हैं। जैसे किसी सुंदरी के लंबे घने काले बालों में एकाध सफेद दिख जाएँ तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता, वैसी ही कुछ पूरी या आधी कमजोर पंक्तियाँ किसी अच्छी और एकाधिक मार्मिक अंशों वाली कविता के प्रभाव को कम नहीं कर पाती। उसका मूल्य कम नहीं होता। यह मेरा सोचना है। मेरे वे शिक्षक क्या सोचते हैं, वे जानें या उनके अनुयायी जानें।
किस्सा कोताह यह कि सभी कवियों की सभी कविताएँ एक जैसी अच्छी या खराब नहीं होती हैं। आप सौ पांच सौ हजार कविताओं से गुजरेंगे तो कुछ तो बहुत अच्छी हो सकती हैं, कुछ कम अच्छी, कुछ औसत भी होंगी ही। मैं जिस जरूरी बात को आपसे कहने के लिए इतनी लंबी भूमिका बना रहा हूँ, दरअसल वह सिर्फ एक पंक्ति में अँट जाएगी। एक बहुत छोटी-सी पंक्ति में। एक औसत से भी कम कविता में कोई बड़ी बात मिल सकती है। हमेशा आग ही आग लिखने वाले कवियों की कुछ कविताओं में आप काफी राख भी पा सकते हैं कहीं-कहीं, उसी तरह हमेशा कविता में राख लिखने वाले कवियों में कहीं-कहीं राख में दबी हुई बहुत मूल्यवान चिंगारी पा सकते हैं आप। यह देखने वाले पर निर्भर करता है कि उसकी कविता को देखने की तैयारी और खासतौर से ईमानदारी कैसी है ?
जाहिर है कि मैं उदाहरण ढ़ूँढ़ने के लिए दूसरे देश में नहीं जाऊँगा। जाता भी यदि मेरा काम इस उदाहरण से नहीं चलता। कोई बीस साल पहले मैं भी चालीस का था और भरा हुआ था, कहने के लिए ही सही, सही और अपना रास्ता ढ़ूँढ़ रहा था। यह कविता उन्हीं दिनों की है और एकबार फिर कह दूँ कि ‘बहुत साधारण’ कविता है, इसकी सिलाई का धागा कमजोर हो सकता है, कपड़ा काटने का हुनर बहुत मामूली हो सकता है, इसके बटन-सटन और इस्त्री करने में भी गड़बड़ हो सकती है, इसका कपड़ा हुजूर भले रेशम का न हो, लेकिन इसे बुनने में तमाम छोटे कवियों की तरह मैंने अपना पसीना ही नहीं, दो-चार बूंद खून भी बहाया है। मेरे जैसे तमाम कवियों के पास क्या है और क्या नहीं, कविता से भी अच्छी आँख उसे देखने के लिए चाहिए हुजूर। आपके पास तो होगी ही, क्यों ? या आप उसे ही देखेंगे और उतना ही देखेंगे, जिसे राजधानी के य खास आपके उस्ताद या गॉडफादर कहेंगे ? कभी-कभी न चाहते हुए भी मुझे अपनी ही कविता को उदाहरण के रूप में रखना पड़ता है। कितना कठिन होता है कि एक कवि खराब कविता के उदाहरण के रूप में अपनी ही किसी कविता को सामने रखे-
एक अफवाह है दिल्ली
कोई तो होगा मेरे जैसा
जो कह सके शपथपूर्वक
चालीस पार किया
गया नहीं दिल्ली
नई कि पुरानी
देखा नहीं कनाट प्लेस
बहादुरशाह जफर मार्ग
चाँदनी चौक, मेहरौली
अलकनंदा, दरियागंज
मुझे अक्सर लगा
एक डर है दिल्ली
किसी शहर का नाम नहीं
जो फूत्कार करता है
लेखकों की जीभ पर
हृदय के किसी अंधकार में
जब-जब बताते रहे एजेंट सगर्व
दिल्ली दरबार के किस्से
लेखकों की जुटान के ब्योरे
कैसे बँटती हैं रेवड़ियाँ
और पुरस्कार
हाय! सुनता रहा किस्सों में
कैसे मचलते हैं नये कवि
किसी उस्ताद की कानी उँगली से
एक डिठौने के लिए
और नाचते हैं कैसे आज के किस्सागो
किसी दरियाई भालू के आगे
उसकी एक फूँक के लिए
निछावर करने को आतुर
अपना सब कुछ
बेशक होता रहा हाँका
कुल देश में कि खैर नहीं
मार दिये जाएंगे वे
जो जाएंगे नहीं
दिल्ली
मैं हँसता रहा
कि दिल्ली से
दिल्ली के लिए उड़ायी गयी
एक अफवाह है दिल्ली
देखो तो
बचा हुआ है गणेश पाण्डेय
गोरखपुर में साबुत।
पहले तो यह साफ कर दूं कि दिल्ली सिर्फ किसी शहर का नाम नहीं है, इधर लंबे समय से साहित्य की दुनिया में साहित्य की सत्ता के केंद्र का प्रतीक है। बीस साल पहले का वह गोरखपुर भी आज चाहे किसी वजह से साहित्य के छोटे केंद्र का शिविर जैसा कुछ लोगों के लिए बन गया हो, लेकिन मेरे लिए उस वक्त साहित्य के जन की बस्ती का प्र्रतीक था ही, आज भी है। मेरी दृष्टि में दिल्ली को छोड़कर बाकी जगहें भी कमोबेश गोरखपुर जैसी ही हैं। मैंने ऊपर कहा है कि यह कविता सिर्फ एक उदाहरण है। अच्छी कविता का उदाहरण नहीं, बल्कि खराब कविता का अच्छा उदाहरण होने के साथ, मौजूदा प्रसंग को मजबूत करने के लिए एक छोटा-सा नमूना भी है, बस। इस खराब कविता के जरिये सिर्फ इस सवाल से टकराना है कि आज के चालीसपार भी क्या उतने ही बेवकूफ हैं, जितना इस कविता में वर्णित है या उन्होंने चालीस की उम्र में चालीस से ज्यादा बार दिल्ली की परिक्रमा की है ? यह उन कवियों का अपमान कतई नहीं है, हाँ उनकी चतुराई जरूर हो सकती है। कबीर कह सकते थे कि हमन को होशियारी क्या, आज के बहुत से कवि होशियारी के मामले में कबीर से बहुत आगे। इतना आगे कि एक मिनट में सौ कबीर को बेचकर खा जाएँ। एकबार फिर साफ कर दूँ कि चालीस पार और चालीस के करीब और उससे छोटे सभी कवि हरगिज ऐसे नहीं हैं। कुछ ही होते हैं, जो माहौल को खराब करते हैं। बहुत थोड़े से होते हैं। बाकी तो सीधे-सादे लोग होते हैं। मैं सबूत के बिना कोई बात करने से बचता हूँ। सबूत हैं कोई कोई आठ सौ कविताएँ, जो इस अपने समय के पिछड़े कवि के कहने पर उसके पास आयी हैं। जिन कवियों की कविताएँ इन आठ सौ से कुछ अधिक कविताओं में शामिल नहीं हैं, उनकी कविताओं को फालतू या खराब कहने की नासमझी नहीं करूंगा। यह उनकी कविता का अपमान होगा। हाँ उन्हें बहुत होशियार कवि जरूर कहूँगा। होशियार आदमी कभी जोखिम नहीं उठाता है। साहित्य में तो कतई नहीं। नाम और इनाम की गारंटी वह पहले चाहता है, न्याय और अन्याय जाय भाड़ में। आज का होशियार कवि नाम-इनाम समेत कई चीजों में फँसा हुआ है। फलाना जी के पास यह पुरस्कार है, इसलिए उन्हें साध कर रखना है तो उनकी जिससे नहीं पटती उससे दूर रहो। फलाना जी नाराज न हो जाएँ इसलिए फलाना जी से दूर रहो। अरे भाई कैसे कवि हो कि दो कौड़ी के इनाम के लिए डेढ़ कौड़ी के फलाना जी के साथ रहते हो। भाड़ में जाएँ तुम्हारे फलाना जी, तुम कविता के साथ क्यों नहीं रहते ? कविता की बेहतरी से बड़ा कोई एजेंडा किसी कवि के जीवन में कोई मायने रखता है ? यदि ऐसा है तो वह सच्चा कवि नहीं, बना हुआ कवि है। कविता का सौदागर है। पीतल को सोना बनाकर बेचने वाला ठग। जैसे वह ठग पकड़ लिया जाता है, कविता के ठग भी धर लिए जाते हैं। जैसे पुलिस में कुछ लोग भ्रष्ट होते हैं, शिक्षा में भ्रष्ट होते हैं, आलोचक और संपादक भी भ्रष्ट हो सकते हैं और पकड़े जा सकते हैं। कहना बहुत जरूरी है कि इधर कविता और आलोचना मे दिल्लीराग बहुत बढ़-चढ़कर बोल रहा है। बड़ी पत्रिकाएँ हो या छोटी, सब मूल्य और विवेक की जगह होशियारी से निकल रही हैं। साहित्यिक पत्रिकाएँ मंच के मँहगे लेकिन कविता की दृष्टि से बहुत सस्ते गलेबाज कवियों के साक्षात्कार छापने लगें तो समझो कि पत्रकारिता की देह से जरूरी हड्डी पूरी की पूरी गल गयी, सब बहुत थुलथुल और लिजलिजा है। यह किसी पत्रिका को लज्जित करने के लिए नहीं कर रहा हूँ, आगे के लिए आगाह कर रहा हूँ कि आज तो संपादक ऐसी चूक कर रहे हैं, कल को आलोचक इससे चार कदम आगे बढ़ जाएंगे। अभी आलोचना में जो थोड़ा-बहुत बचा हुआ है वह भी खत्म हो जाएगा। मित्रो, इतना और इस तरह कहना नहीं था, बस अस्सीपार से लेकर बिल्कुल नये, पचहत्तर से एक-दो अधिक कवियों को धन्यवाद कहना है कि उन्होंने अपनी बहुत अच्छी कविताएँ मेरे पास भेजीं, आभारी हूँ इस विश्वास के लिए। किसी कविता का कम अच्छी या टूटा-फूटा होना कवि का अपराध नहीं है, लेकिन किसी कवि का ‘बहुत’ कलाबाज होना बुराई जरूर है। कला के बिना कविता की कल्पना नहीं की जा सकती है, लेकिन सिर्फ कला को कविता नहीं कह सकते।
ऐसे उपक्रम के बीच कविता के दृश्य पर ऐसे चतुर या अलग से कुछ बड़ा पाने की उम्मीद में लगे हुए कवि गिनती के ही सही इक्का-दुक्का दिख सकते हैं, जो कविता की साधारण पंचायत या मुक्त जुटान में बैठने पर अपनी हेठी समझ सकते हैं या अन्य कारणों से संकोचवश तमाम साधारण कवियों के साथ कविता की चटाई पर बैठना जिन्हें पसंद नहीं हो सकता है, ऐसे अभिजन कवि के लिए शायद मेरी छोटी-सी कुटिया में उपयुक्त जगह भी नहीं है। ऐसे कवि मित्रों को अधिकार है कि वे पुरस्कार और प्रतिष्ठा इत्यादि के लिए अकादमी इत्यादि से पुरस्कृत और बहुप्रतिष्ठित कवि या बड़े आलोचक या संपादक के संग रहें। उन्हें हक है कि वे अपनी कविताएँ साहित्य के बड़े कुलीन जनों के पास ले जाएँ। राजधानी में तो बहुत हैं। बड़ी-बड़ी पत्रिकाएँ भी वहाँ हैं। जो उन्हीं की तरह लेकिन कविता के तनिक बड़े कुलीन जन हों, कविता के अभिजन। जहाँ कविता की छोटी-सी पंचायत लगी हो, मेल-मिलाप और जन की चटाई बिछी हो, वहाँ शामिल न होकर अपनी अच्छी कविता को कैद करके रखना मेरी दृष्टि में साहित्यिक जुर्म है, चाहे वह अच्छी कविता किसी साधु की हो या किसी युवा कवि की या किसी चोर की। जो लोग अच्छी कविता साहित्य के राजा-महाराजा या सामंत को दिखाने के लिए लिखते हैं, वे कविता का आभूषण बनाने वाले सोनार तो हो सकते हैं, लेकिन कविता के सच्चे पाठकों के लिए जन की कविता की खुरपी, हँसिया, कुदाल बनाने वाले लोहार नहीं हो सकते हैं।
अंत में इतना और कि दस-दस कविताएँ माँगते-माँगते आठ सौ से अधिक कविताएँ हो गयीं। एक छोटी-सी पत्रिका के दरवाजे पर आठ सौ कविताओं की बारात देखकर चकित हूँ। कोशिश करूँगा कि इन कविताओं से उनका हाल-चाल पूछूँ। अच्छी कविता के सामने शीश झुकाऊँ तो कम अच्छी से भी हाथ मिलाऊँ। एक निश्चित समय के भीतर यह सब करना तनिक मुश्किल होगा, फिर भी उम्मीद है कि जितना सोचा है, हो जाएगा। इस बात के लिए बहुत खुश हूँ कि मैं सीधे-सादे कवियों की अच्छी कविताओं के संग बुरा बर्ताव करने वाले किसी अहंकारी कवि के साथ नहीं हूँ। विस्मय यह कि इतने भले और सीधे-सादे सहज और ताकतवर कवि बड़ी संख्या में अभी बचे हुए हैं, मैं जिनके साथ हूँ। कई हैं जिनमें काफी शक्ति है, अपनी पीढ़ी के चतुर कवियों के गुरूर को आईना दिखाने की भी शक्ति है, जिनके पास शक्ति तनिक कम भी है उनके पास कविता का ईमान बहुत है, जीवन का नमक तो भरपूर है। जो बिल्कुल नये कवि हैं जाहिर है कि उनमें कविता से प्रेम बहुत है। यात्रा के लिए अपनी कविताएँ भेजने वाले सभी कवियों से एकबार फिर कहना चाहता हूँ, धन्यवाद कवियो कविता की लाज रखने के लिए।
एकबार मेरे एक शिक्षक ने जो सिर्फ कहने के लिए शिक्षक थे और शिक्षक होने का पैसा पाते थे, लेकिन असल में एक लेखक थे और ईश्वर और महत्वाकांक्षा इत्यादि की कृपा से अभी हैं और लेखक तो खैर जो हैं सो हैं ही, पर उससे पाया काफी कुछ और दिया कुछ भी नहीं, लेकिन इससे क्या होता है, बहुत से लोग देते हैं कम और लेते हैं बहुत ज्यादा। मुक्तिबोध ने कहा ही है, लेकिन छोड़िए मुक्तिबोध को, हर जगह उनका नाम नहीं लेना चाहिए। कम से कम बहुत खराब लोगों के साथ तो कतई नहीं। मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि मैं जिस शिक्षक का जिक्र कर रहा हूँ, वह कोई खराब हैं। आप को समझना है तो समझिए, मैं सिर्फ अपनी बात कहूँगा, वह भी उनकी बात से। एक बार उन्होंने कहा था कि निराला की सब कविताएँ अच्छी नहीं हैं, मुझे उनकी यह बात ठीक लगी, फिर उन्होंने जोड़ा कि उनके पास कुल 13 कविताएँ अच्छी हैं, मुझे कुछ-कुछ विस्मय हुआ कि भला कैसे 13 ? 12 या 11 क्यों नहीं ? यह भी उन्होंने नहीं कहा कि कुछ ही कविताएँ अव्छी हैं। एकदम से कहा 13, जैसे तय कर दिया तो मैंने कुछ नहीं कहा, बस उनका मुँह देखता रहा। उन्होंने देखा कि मैं उनका मुँह देख रहा हूँ तो फिर कहा-‘‘मेरे पास अभी 10 अच्छी कविताएँ हैं।’’ मैंने मन ही मन गोविंद को याद किया और कहा, क्षमा करना गोविंद, मुझे पहली बार गुरु के साथ शरारत सूझी। मैंने वहीं सबके सामने कहा-‘‘ आप 3 अच्छी कविताएँ और लिखकर धड़ाक से निराला क्यों नहीं हो जाते ? वे मेरा मुँह देखने लगे। मैंने देखा कि वे मेरा मुँह देख रहे हैं, फिर भी मैंने कुछ और नहीं कहा। कई सहकर्मी बैठे हुए थे, इसलिए बात हँसी में इधर-उधर हो गयी, लेकिन सच कहूँ तो वह बात आज तक मेरी स्मृति में जस की तस बसी हुई है। इसलिए कि गुरु का यहाँ तक कहना सही था कि निराला की सभी कविताएँ बहुत अच्छी नहीं हैं। सच तो यह कि मैंने खुद अनुभव किया कि सिर्फ उनकी ही नहीं, कई बड़े कवियों की कुछ बहुत अच्छी और अविस्मरणीय कविताओं की भी सभी पंक्तियाँ एक जैसी मूल्यवान नहीं हैं। कुछ कमजोर भी हैं। जैसे किसी सुंदरी के लंबे घने काले बालों में एकाध सफेद दिख जाएँ तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता, वैसी ही कुछ पूरी या आधी कमजोर पंक्तियाँ किसी अच्छी और एकाधिक मार्मिक अंशों वाली कविता के प्रभाव को कम नहीं कर पाती। उसका मूल्य कम नहीं होता। यह मेरा सोचना है। मेरे वे शिक्षक क्या सोचते हैं, वे जानें या उनके अनुयायी जानें।
किस्सा कोताह यह कि सभी कवियों की सभी कविताएँ एक जैसी अच्छी या खराब नहीं होती हैं। आप सौ पांच सौ हजार कविताओं से गुजरेंगे तो कुछ तो बहुत अच्छी हो सकती हैं, कुछ कम अच्छी, कुछ औसत भी होंगी ही। मैं जिस जरूरी बात को आपसे कहने के लिए इतनी लंबी भूमिका बना रहा हूँ, दरअसल वह सिर्फ एक पंक्ति में अँट जाएगी। एक बहुत छोटी-सी पंक्ति में। एक औसत से भी कम कविता में कोई बड़ी बात मिल सकती है। हमेशा आग ही आग लिखने वाले कवियों की कुछ कविताओं में आप काफी राख भी पा सकते हैं कहीं-कहीं, उसी तरह हमेशा कविता में राख लिखने वाले कवियों में कहीं-कहीं राख में दबी हुई बहुत मूल्यवान चिंगारी पा सकते हैं आप। यह देखने वाले पर निर्भर करता है कि उसकी कविता को देखने की तैयारी और खासतौर से ईमानदारी कैसी है ?
जाहिर है कि मैं उदाहरण ढ़ूँढ़ने के लिए दूसरे देश में नहीं जाऊँगा। जाता भी यदि मेरा काम इस उदाहरण से नहीं चलता। कोई बीस साल पहले मैं भी चालीस का था और भरा हुआ था, कहने के लिए ही सही, सही और अपना रास्ता ढ़ूँढ़ रहा था। यह कविता उन्हीं दिनों की है और एकबार फिर कह दूँ कि ‘बहुत साधारण’ कविता है, इसकी सिलाई का धागा कमजोर हो सकता है, कपड़ा काटने का हुनर बहुत मामूली हो सकता है, इसके बटन-सटन और इस्त्री करने में भी गड़बड़ हो सकती है, इसका कपड़ा हुजूर भले रेशम का न हो, लेकिन इसे बुनने में तमाम छोटे कवियों की तरह मैंने अपना पसीना ही नहीं, दो-चार बूंद खून भी बहाया है। मेरे जैसे तमाम कवियों के पास क्या है और क्या नहीं, कविता से भी अच्छी आँख उसे देखने के लिए चाहिए हुजूर। आपके पास तो होगी ही, क्यों ? या आप उसे ही देखेंगे और उतना ही देखेंगे, जिसे राजधानी के य खास आपके उस्ताद या गॉडफादर कहेंगे ? कभी-कभी न चाहते हुए भी मुझे अपनी ही कविता को उदाहरण के रूप में रखना पड़ता है। कितना कठिन होता है कि एक कवि खराब कविता के उदाहरण के रूप में अपनी ही किसी कविता को सामने रखे-
एक अफवाह है दिल्ली
कोई तो होगा मेरे जैसा
जो कह सके शपथपूर्वक
चालीस पार किया
गया नहीं दिल्ली
नई कि पुरानी
देखा नहीं कनाट प्लेस
बहादुरशाह जफर मार्ग
चाँदनी चौक, मेहरौली
अलकनंदा, दरियागंज
मुझे अक्सर लगा
एक डर है दिल्ली
किसी शहर का नाम नहीं
जो फूत्कार करता है
लेखकों की जीभ पर
हृदय के किसी अंधकार में
जब-जब बताते रहे एजेंट सगर्व
दिल्ली दरबार के किस्से
लेखकों की जुटान के ब्योरे
कैसे बँटती हैं रेवड़ियाँ
और पुरस्कार
हाय! सुनता रहा किस्सों में
कैसे मचलते हैं नये कवि
किसी उस्ताद की कानी उँगली से
एक डिठौने के लिए
और नाचते हैं कैसे आज के किस्सागो
किसी दरियाई भालू के आगे
उसकी एक फूँक के लिए
निछावर करने को आतुर
अपना सब कुछ
बेशक होता रहा हाँका
कुल देश में कि खैर नहीं
मार दिये जाएंगे वे
जो जाएंगे नहीं
दिल्ली
मैं हँसता रहा
कि दिल्ली से
दिल्ली के लिए उड़ायी गयी
एक अफवाह है दिल्ली
देखो तो
बचा हुआ है गणेश पाण्डेय
गोरखपुर में साबुत।
पहले तो यह साफ कर दूं कि दिल्ली सिर्फ किसी शहर का नाम नहीं है, इधर लंबे समय से साहित्य की दुनिया में साहित्य की सत्ता के केंद्र का प्रतीक है। बीस साल पहले का वह गोरखपुर भी आज चाहे किसी वजह से साहित्य के छोटे केंद्र का शिविर जैसा कुछ लोगों के लिए बन गया हो, लेकिन मेरे लिए उस वक्त साहित्य के जन की बस्ती का प्र्रतीक था ही, आज भी है। मेरी दृष्टि में दिल्ली को छोड़कर बाकी जगहें भी कमोबेश गोरखपुर जैसी ही हैं। मैंने ऊपर कहा है कि यह कविता सिर्फ एक उदाहरण है। अच्छी कविता का उदाहरण नहीं, बल्कि खराब कविता का अच्छा उदाहरण होने के साथ, मौजूदा प्रसंग को मजबूत करने के लिए एक छोटा-सा नमूना भी है, बस। इस खराब कविता के जरिये सिर्फ इस सवाल से टकराना है कि आज के चालीसपार भी क्या उतने ही बेवकूफ हैं, जितना इस कविता में वर्णित है या उन्होंने चालीस की उम्र में चालीस से ज्यादा बार दिल्ली की परिक्रमा की है ? यह उन कवियों का अपमान कतई नहीं है, हाँ उनकी चतुराई जरूर हो सकती है। कबीर कह सकते थे कि हमन को होशियारी क्या, आज के बहुत से कवि होशियारी के मामले में कबीर से बहुत आगे। इतना आगे कि एक मिनट में सौ कबीर को बेचकर खा जाएँ। एकबार फिर साफ कर दूँ कि चालीस पार और चालीस के करीब और उससे छोटे सभी कवि हरगिज ऐसे नहीं हैं। कुछ ही होते हैं, जो माहौल को खराब करते हैं। बहुत थोड़े से होते हैं। बाकी तो सीधे-सादे लोग होते हैं। मैं सबूत के बिना कोई बात करने से बचता हूँ। सबूत हैं कोई कोई आठ सौ कविताएँ, जो इस अपने समय के पिछड़े कवि के कहने पर उसके पास आयी हैं। जिन कवियों की कविताएँ इन आठ सौ से कुछ अधिक कविताओं में शामिल नहीं हैं, उनकी कविताओं को फालतू या खराब कहने की नासमझी नहीं करूंगा। यह उनकी कविता का अपमान होगा। हाँ उन्हें बहुत होशियार कवि जरूर कहूँगा। होशियार आदमी कभी जोखिम नहीं उठाता है। साहित्य में तो कतई नहीं। नाम और इनाम की गारंटी वह पहले चाहता है, न्याय और अन्याय जाय भाड़ में। आज का होशियार कवि नाम-इनाम समेत कई चीजों में फँसा हुआ है। फलाना जी के पास यह पुरस्कार है, इसलिए उन्हें साध कर रखना है तो उनकी जिससे नहीं पटती उससे दूर रहो। फलाना जी नाराज न हो जाएँ इसलिए फलाना जी से दूर रहो। अरे भाई कैसे कवि हो कि दो कौड़ी के इनाम के लिए डेढ़ कौड़ी के फलाना जी के साथ रहते हो। भाड़ में जाएँ तुम्हारे फलाना जी, तुम कविता के साथ क्यों नहीं रहते ? कविता की बेहतरी से बड़ा कोई एजेंडा किसी कवि के जीवन में कोई मायने रखता है ? यदि ऐसा है तो वह सच्चा कवि नहीं, बना हुआ कवि है। कविता का सौदागर है। पीतल को सोना बनाकर बेचने वाला ठग। जैसे वह ठग पकड़ लिया जाता है, कविता के ठग भी धर लिए जाते हैं। जैसे पुलिस में कुछ लोग भ्रष्ट होते हैं, शिक्षा में भ्रष्ट होते हैं, आलोचक और संपादक भी भ्रष्ट हो सकते हैं और पकड़े जा सकते हैं। कहना बहुत जरूरी है कि इधर कविता और आलोचना मे दिल्लीराग बहुत बढ़-चढ़कर बोल रहा है। बड़ी पत्रिकाएँ हो या छोटी, सब मूल्य और विवेक की जगह होशियारी से निकल रही हैं। साहित्यिक पत्रिकाएँ मंच के मँहगे लेकिन कविता की दृष्टि से बहुत सस्ते गलेबाज कवियों के साक्षात्कार छापने लगें तो समझो कि पत्रकारिता की देह से जरूरी हड्डी पूरी की पूरी गल गयी, सब बहुत थुलथुल और लिजलिजा है। यह किसी पत्रिका को लज्जित करने के लिए नहीं कर रहा हूँ, आगे के लिए आगाह कर रहा हूँ कि आज तो संपादक ऐसी चूक कर रहे हैं, कल को आलोचक इससे चार कदम आगे बढ़ जाएंगे। अभी आलोचना में जो थोड़ा-बहुत बचा हुआ है वह भी खत्म हो जाएगा। मित्रो, इतना और इस तरह कहना नहीं था, बस अस्सीपार से लेकर बिल्कुल नये, पचहत्तर से एक-दो अधिक कवियों को धन्यवाद कहना है कि उन्होंने अपनी बहुत अच्छी कविताएँ मेरे पास भेजीं, आभारी हूँ इस विश्वास के लिए। किसी कविता का कम अच्छी या टूटा-फूटा होना कवि का अपराध नहीं है, लेकिन किसी कवि का ‘बहुत’ कलाबाज होना बुराई जरूर है। कला के बिना कविता की कल्पना नहीं की जा सकती है, लेकिन सिर्फ कला को कविता नहीं कह सकते।
ऐसे उपक्रम के बीच कविता के दृश्य पर ऐसे चतुर या अलग से कुछ बड़ा पाने की उम्मीद में लगे हुए कवि गिनती के ही सही इक्का-दुक्का दिख सकते हैं, जो कविता की साधारण पंचायत या मुक्त जुटान में बैठने पर अपनी हेठी समझ सकते हैं या अन्य कारणों से संकोचवश तमाम साधारण कवियों के साथ कविता की चटाई पर बैठना जिन्हें पसंद नहीं हो सकता है, ऐसे अभिजन कवि के लिए शायद मेरी छोटी-सी कुटिया में उपयुक्त जगह भी नहीं है। ऐसे कवि मित्रों को अधिकार है कि वे पुरस्कार और प्रतिष्ठा इत्यादि के लिए अकादमी इत्यादि से पुरस्कृत और बहुप्रतिष्ठित कवि या बड़े आलोचक या संपादक के संग रहें। उन्हें हक है कि वे अपनी कविताएँ साहित्य के बड़े कुलीन जनों के पास ले जाएँ। राजधानी में तो बहुत हैं। बड़ी-बड़ी पत्रिकाएँ भी वहाँ हैं। जो उन्हीं की तरह लेकिन कविता के तनिक बड़े कुलीन जन हों, कविता के अभिजन। जहाँ कविता की छोटी-सी पंचायत लगी हो, मेल-मिलाप और जन की चटाई बिछी हो, वहाँ शामिल न होकर अपनी अच्छी कविता को कैद करके रखना मेरी दृष्टि में साहित्यिक जुर्म है, चाहे वह अच्छी कविता किसी साधु की हो या किसी युवा कवि की या किसी चोर की। जो लोग अच्छी कविता साहित्य के राजा-महाराजा या सामंत को दिखाने के लिए लिखते हैं, वे कविता का आभूषण बनाने वाले सोनार तो हो सकते हैं, लेकिन कविता के सच्चे पाठकों के लिए जन की कविता की खुरपी, हँसिया, कुदाल बनाने वाले लोहार नहीं हो सकते हैं।
अंत में इतना और कि दस-दस कविताएँ माँगते-माँगते आठ सौ से अधिक कविताएँ हो गयीं। एक छोटी-सी पत्रिका के दरवाजे पर आठ सौ कविताओं की बारात देखकर चकित हूँ। कोशिश करूँगा कि इन कविताओं से उनका हाल-चाल पूछूँ। अच्छी कविता के सामने शीश झुकाऊँ तो कम अच्छी से भी हाथ मिलाऊँ। एक निश्चित समय के भीतर यह सब करना तनिक मुश्किल होगा, फिर भी उम्मीद है कि जितना सोचा है, हो जाएगा। इस बात के लिए बहुत खुश हूँ कि मैं सीधे-सादे कवियों की अच्छी कविताओं के संग बुरा बर्ताव करने वाले किसी अहंकारी कवि के साथ नहीं हूँ। विस्मय यह कि इतने भले और सीधे-सादे सहज और ताकतवर कवि बड़ी संख्या में अभी बचे हुए हैं, मैं जिनके साथ हूँ। कई हैं जिनमें काफी शक्ति है, अपनी पीढ़ी के चतुर कवियों के गुरूर को आईना दिखाने की भी शक्ति है, जिनके पास शक्ति तनिक कम भी है उनके पास कविता का ईमान बहुत है, जीवन का नमक तो भरपूर है। जो बिल्कुल नये कवि हैं जाहिर है कि उनमें कविता से प्रेम बहुत है। यात्रा के लिए अपनी कविताएँ भेजने वाले सभी कवियों से एकबार फिर कहना चाहता हूँ, धन्यवाद कवियो कविता की लाज रखने के लिए।
दिल्ली से
जवाब देंहटाएंदिल्ली के लिए उड़ायी गयी
एक अफवाह है दिल्ली
झन्नाटेदार आलेख , सच है कि हिम्मत और हौसला भीतर की ईमानदारी से ही आता है .......