-गणेश पाण्डेय
पाँड़े जी, कुछ लेखक बड़े सयंमी होते हैं। कुछ भी खाते-पीते हैं तो बड़े संयम से। क्या नुकसान करेगा, क्या फायदा और क्या मजा देगा। कुछ लेखक सबकुछ बेहिसाब करते हैं। मैं ऐसे कई लेखकों को जानता हूँ जो और सब तो हिसाब से खाते-पीते और करते हैं, लेकिन प्याज बेहिसाब खाते हैं और दारू बेहिसाब पीते हैं। प्याज तो इतना कि दारू से भी ज्यादा भभका छोड़े, उसके बास से पास तो क्या एक हाथ के फासले पर भी बैठना दूभर हो जाए।
आप भी ऐसे तमाम लेखकों को जानते होंगे, क्यों पाँड़े जी। मेरे हमजाद, मेरे हम प्याला, मेरे हम निवाला और मेरे हमपाद। एक जादो जी अर्थात बड़े जादो जी तो ‘पाद’ पर भी कुछ कवितानुमा कविताएं लिख चुके हैं। अब वह स्वर्गवासी हो चुके हैं। अच्छा ही हुआ कि उन्हें हिन्दी के नरक से आखिर छुट्टी मिल गयी। यह अलग बात है कि उन्होंने साहित्य के इस नरक को सुरा ‘इत्यादि’ से सुंदर बनाने की भरपूर कोशिश की। आदमी तो आदमी पशु-पक्षियों तक की मदद ली और की। बाहर हंस की फोटो लगाकर भांति-भांति के मनुष्यों और पशु-पक्षियों से बाकायदा कथापाठ कराया। अब वे रहे नही, लेकिन साहित्य के ऐसे बाबाओं की याद तो तब-तब आएगी, जब-जब कोई आशा या कोई राम पकड़े जाएंगे या चैनलों पर जिनका गुणगान होगा। आप तो जानते ही हैं पाँड़े जी कि मैं किसी की बुराई नहीं करता, हाँ सच ही बुरा हो तो कहने से इन्कार नहीं करता हूँ। जैसे अधिक प्याज खाने को साहित्य के एक तबके के कुछ लेखकों में अधिक देखता हूँ तो अपने को कुछ कहने से रोक नही पाता हूँ। जैसे इस वक्त।
पाँड़े जी, आपको पता है या नहीं कि रायपुर में भाजपा सरकार की देखरेख में कोई साहित्य महोत्सव चल रहा है, जिसमें विनोद जी, नरेश जी इत्यादि तमाम लेखक शामिल हुए हैं और मंगलेश जी केदार जी इत्यादि नहीं शामिल हुए हैं। हाँ-हाँ इतना तो आपको पता है ही, लेकिन क्या यह पता है कि छोटे जादो जी समेत कुछ लोग जी बहुत खफा हैं कि फलाना-ढ़माका वहां गये क्यों ? उन लोगों ने उस कार्यक्रम का उनकी तरह बहिष्कार क्यों नहीं किया ? मुझे बड़ी हँसी आयी पांड़े जी, मेरी दृष्टि में सभी राजनीतिक दल बुनियादी रूप से एक जैसे हैं। सबको कुछ भी करके सत्ता चाहिए। फिर कौन पार्टी बुरी और कौन अच्छी ? सारा मामला उन्नीस-बीस का है। साहित्य में भी शीर्ष पर कमोबेश यही स्थिति है। आखिर यह अधिक प्याज खाने वाले लोग सिर्फ प्याज ही खाते रहते हैं या कुछ ढ़ंग का भी सोचते हैं ? आप ही बताइए कि किसी कार्यक्रम में सिर्फ चले जाने से कोई लेखक छोटा हो जाएगा या बेईमान हो जाएगा या साहित्य का हत्यारा हो जाएगा ? और किसी कार्यक्रम में न जाने या उसका बहिष्कार करने मात्र से वह हिन्दी का भला लेखक हो जाएगा , बड़ा लेखक हो जाएगा ? हिन्दी का राजा बेटा हो जाएगा ? ईमानदार लेखक हो जाएगा ? साहित्य में साफ-सुथरा हो जाएगा ? अपने समय के या बाद के लेखकों के साथ न्याय करने वाला लेखक हो जाएगा ? क्या बहिष्कार करने से वह साहित्य में साजिश करना और पुरस्कार के लिए नाक रगड़ना बंद कर देगा ?
पाँड़े जी, मैं किसी को बुरा नहीं कह रहा हूँ। सिर्फ यह कह रहा हूँ कि कोई कहीं जाने से न छोटा हो जाता है और न जाने से बड़ा नहीं हो जाता है। सिर्फ इस तरह की बातों पर अपना टूटा-फूटा विचार रख रहा हूँ, बस। मैं अपने शहर के एक सम्मान के कार्यक्रमों में लंबे समय से नहीं जाता तो नहीं जाता, लेकिन कभी प्रचार नहीं करता कि मैं नहीं जाता। अरे भाई मैं उसे अच्छा नहीं समझता हूँ तो नहीं जाता हूँ, बात खतम। जो लोग उसमें जाते हैं या उसकी समिति में हैं और उसमें बने रहना चाहते हैं तो बने रहें, बात खतम। उसमें न जाने से मैं महान नहीं हो जाता हँ और जो लोग उसमें हैं, उसमें रहने की वजह से महान या छोटे नही हो जाते हैं, बात खतम। यह साहित्य का भ्रम है। एक लेखक अच्छा लिखने और एक अच्छा साहित्यिक जीवन जीने से बड़ा होता है। अच्छा लिखना निश्चय ही लेखक के अच्छे जीवन से जुड़ा है। अच्छा जीवन पुरस्कार और चर्चा इत्यादि के लिए मत्था टेकना नहीं होता है। स्वाभिमान और संघर्ष की धरती पर लेखक के जीवन की फसल लहलहाती है। साहित्य की सत्ताओं की धोती साफ करेंगे, पाजामा इस्त्री करेंगे और किसी पार्टी-सार्टी के आयोजन में न जाने को ही साहित्य का बड़ा काम कहेंगे ? प्रतिरोध कहेंगे ? पहले हिन्दी के हजारों संभावनाशील लेखकों की हत्या करने वाले आलोचकों और संपादकों से लड़िए, यह ईमानदार लेखक होने की पहली शर्त है, फिर उसके बाद निर्दोष आदिवासियों की हत्याओं के खिलाफ बोलिए, तब अच्छा लगेगा और आप तब ईमानदार लेखक लगेंगे। नहीं तो आपका सारा प्रतिरोध नाटक है।
पाँड़े जी आप ही बताइए कि किसी कार्यक्रम में जाने से नरेश जी जितने बड़े या छोटे हैं उससे भी छोटे लेखक हो जाएंगे और नहीं जाएंगे तो उससे बड़े लेखक हो जाएंगे ? सड़क बनाने के धंधे में कितना पत्थर तोड़ा जाता है और कितना ईमान, कौन नहीं जानता है ? मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि किसी भी लेखक की निंदा की जाय। दुख तब होता है, जब छोटे-छोटे पुरस्कारों के लिए विकल होते और फिर पाने के बाद इतराते हुए देखता हूं। ऐसे उत्सवों में शामिल होते और खुद भी पुरस्कार की कतार में खड़े जादो जी जैसे तमाम लोगों को देखता हूं तो दुख होता है।
मेरे कहने का मतलब यह कि एक लेखक में निडरता और ईमान बुनियादी चीजें हैं जो बाद में नहीं अर्जित की जाती हैं, यह लेखक के जीन में शामिल होती हैं। ऐसे आयोजनों के बहिष्कार की घोषणाएं करने के बावजूद एक लेखक जब तक साहित्य की भ्रष्ट सत्ताओं और दरबारों का बहिष्कार नहीं करता, उसकर विरोध नहीं करता, हिन्दी का डरपोक लेखक बना रहता है। ऐसे लेखक न हिन्दी के काम के होते हैं और न अपने समाज के। विनोद कुमार शुक्ल के अंचल का आयोजन है, कई स्थानीय दबाव हो सकते हैं। मैं स्थानीय दबाव को नहीं मानता, यह अलग बात है। उनकी दूसरी कोई दिककत हो सकती हैं। इसलिए जाना उस वक्त बुरा कहते कि जब वह वहां के मुख्यमंत्री के सामने भाजपा में शामिल होते। सिर्फ वहां जाने की वजह से शुक्ल जी दिल्ली के किस कवि से छोटे हो जाते हैं ? ऐसा नहीं है भाई। कईबार स्थानीय विवशताएँ भी जाने के लिए विवश कर देती हैं। हिन्दी के इस वक्त के सबसे बड़े आलोचक ने न जाने कितना ऐसा कुछ किया है ? आज इस बात के लिए उनका विरोध करने वालों में से कौन ऐसा है जिसने किसी समय उनका आशीर्वाद नहीं लिया है ?
मैं मानता हूँ कि एक लेखक को विचार के स्तर पर बुरे लोगों और बुरे संगठनों और राजनीतिक पार्टियों से दूर रहना चाहिए, साथ ही यह भी मानता हूँ कि लेखकों को साहित्य के बुरे संगठनों, समूहों और अच्छे विचारों के नाम पर साहित्य का धंधा करने वालों से भी दूर रहना चाहिए। यह अच्छा होता कि विनोद कुमार शुक्ल जैसे तमाम लेखक उस आयोजन से दूर रहते, लेकिन ऐसा हो नहीं सका तो इसे स्थानीयता के भारी दबाव के रूप में भी देखा जा सकता है। हाँ, जरूरी बात यह कि जो नहीं गये वे सिर्फ न जाने की वजह से हिंदी के अच्छे लेखक नहीं हैं और जाकर विनोद कुमार शुक्ल बुरे लेखक नहीं हो जाते। विनोद कुमार शुक्ल जैसे जाने वालों में लेखकों में कुछ अच्छाई भी हो सकती है तो न जाने वाले लेखकों में कुछ ‘दूसरे तरह की बुराई’ हो सकती है। कई और नाम हैं जो वहां गये। उनके बारे में अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं। जो-जो वहां नहीं गये उनके बारे में भी अलग से कुछ और कहने की जरूरत नहीं है। किसी का भी कुछ ढ़का-छिपा नहीं है। हां, वहां जाने वालों का विरोध करने वालों में कुछ भले और मासूम लोग भी हैं। सवाल सिर्फ ऐसे आयोजनों में न जाने को साहित्य के लिए वीरगति का दर्जा और सम्मान देने वालों से है कि भाई क्या यही साहित्य का जरूरी विरोध है ? उनसे विनम्रतापूर्वक जानना चाहता हूं क्या साहित्य के लिए किसी बड़ी लड़ाई की जरूरत नहीं है ? यदि है तो आप उस लड़ाई के लिए क्या कर रहे हैं या क्या सोचते हैं ?
पांड़े जी, आप तो जानते ही है कि मैंने अपने विभाग के चाय क्लब का बहिष्कार दस-पन्द्रह वर्षों से कर रखा है, पर किसी से कहा कभी नहीं कि साहित्य के बुरे लोगों से कितना दूर रहता हूँ। अपने को किस तरह बचाकर रखता हूँ। जरूरी नहीं कि सब लेखक ऐसा कर पायें। भीतर से इतने दृढ़ हों। कई बार मित्रों के लिए कुछ लोगों को ऐसे भी निर्णय लेने पड़ते हैं। पाँड़े जी आप तो सब जानते हैं कि यहाँ मेरे शहर में साहित्य के बुरे लोगों की फौज किस तरह साहित्य के एक स्थानीय और अब बाहर का भी डॉन के साथ मेरे खिलाफ होती है, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता। अपना काम करता हूं। बिना किसी लेखक संगठन या गुट के। अपने समय की साहित्य की भ्रष्ट सत्ता से लड़ता रहता हूं। बावजूद इसके कि अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति। निराला याद आते हैं। इस तरह की शक्तियाँ पानी के बुलबुले की तरह की तरह होती हैं, जिन्हें थोड़े से वक्त के बाद खुद खत्म हो जाना होता है। इसलिए ऐसी शक्तियों की पूजा साहित्य में राम नहीं करते हैं, रावण ही उपयुक्त होते हैं। साहित्य में रावण एक नहीं, हजार होते हैं। कभी नहीं मरते। हर स्वाभिमानी लेखक को इनके बाणों के सामने अपना सीना करना ही होता है। आप तो यह भी जानते हैं कि साहित्य के रावण किसी भी विचारधारा या गुट या संगठन से जुड़े लोग हो सकते हैं। एक बात कान में बताऊँ पाँड़े जी कि जमाना बड़ा खराब है अरे राम के नाम पर बने संगठनें में भी रावण हो सकते हैं। देखिए तो, लेकिन खुद हमारे भीतर बैठे और हम पर हुक्म चलाते रावण का क्या करें ?
आपका हमजाद - छोटे सुकुल।
धारदार
जवाब देंहटाएंवैचारिकता के नाम पर राजनीतिक पार्टियों से नज़दीकी रखी जाए और 'अ' विचार के नाम पर 'ब' पार्टी से सारे दुनियावी फ़ायदे लिए जाएं तो कैसा रहेगा?
जवाब देंहटाएंबोलती हुई बात ।
जवाब देंहटाएंबेबाक़ और अपनी तरह का व्यंग्यात्मक पर सच्चा लेखन आप जैसे बेबाक़ लेखक ही कर सकते हैं । मज़ा आगया पढ़कर । प्याज़ की ख़ुश्बू या दब्बू दूर तक जाएगी ।
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