शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

अख़बारनामा-2

              गणेश पाण्डेय 



सचमुच हिंदुस्तान गोरखपुर ने जिस तरह प्रतिदिन खाँची भर फोटो छापना शुरू किया है, उसे देखकर तो यही लगता है कि हो हो हिंदुस्तान में अच्छी खबरों को लिखने वाले या खबरो को अच्छी तरह लिखने वाले पत्रकारों का टोटा हो गया है। या अवकाश पर चले गये हों अच्छे पत्रकार। वैसे अच्छी खबरें लिखना भी सबके वश की बात नहीं। ठीक वैसे ही जैसे अच्छी कविता लिखना सबके वश की बात नहीं। लेकिन अच्छी लिखी ही नहीं जाती, अच्छा संपादक या स्थानीय डेस्क प्रभारी अपने पत्रकारों से वैसे ही अच्छी खबरें लिखवाते हैं, जैसे गैरी गुरु शुरू में अपने प्रदर्शन से सबसे खराब टीम लगने वाली टीम इण्डिया को चैम्पियन बनाते हैं। जैसे बडे संपादक साहित्य में अपने समय के अच्छे लेखकों के निर्माण में भूमिका निभाते हैं। हिंदुस्तान गोरखपुर के स्थानीय संपादक तो भले हैं और उन्हें अच्छा अनुभव भी है। फिर यह सब हो कैसे रहा है ? या कोई रणनीतिक निर्णय है, जिसमें बदलाव उनके वश में नहीं। बहरहाल, मैं अन्दर की बात जानता नहीं। सो बाहर से जो देख रहा हूँ और अनुभव कर रहा हूँ, वही कह रहा हूँ। अभी चार अप्रैल को भारत की जीत पर अड़तालीस फोटो छापने के अति उत्साह के बारे में अखबारनामा-1 में कह चुका हूँ। फिर सात अप्रैल के पेज दो पर अन्ना हजारे के साथ कोई बीस लोगों की फोटो और उनके सूक्ष्म वक्तव्य हैं। जिसे देखकर यह लगता है कि अन्ना हजारे के साथ यह लोग हैं, बाकी लोग अन्ना हजारे के साथ नहीं हैं। यह भी प्रतीत होता है कि अन्ना हजारे को बाकी पाठक इनके फोटो के बिना तो पहचान पायेंगे और उनके बारे में जान पायेंगे कि वे कर क्या रहे हैं ? या कुछ कर रहे हैं। युवा पाठकों के बारे में नहीं जानता पर वयस्क और प्रौढ़ पाठकों का ध्यान शायद सिर्फ अन्ना हजारे की फोटो पर जायेगा और बाकी छोटे-छोटे टिकुली जैसे फोटो पर तो नजर जायेगी और उन वक्तव्यों को कोई पढ़ने की जहमत उठायेगा। वह क्यों ऐसा करे ? फोटो की माला और वक्तव्यों की झड़ी से सामान्य पाठक के ज्ञान और समझ और विश्लेषण के तरीके में क्या फर्क आयेगा या कोई सूचना या विश्वास या भावना पुष्ट होने में क्या मदद मिल पायेगी। फिर वही साधारण पाठक, अति साधारण पाठक या लोकतंत्र का प्रतिनिधि जन अखबार के ऐसे पन्नों से क्या सीखने और समझने जा रहा है ? फोटो की यह माला रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह दिखती है। जिसमें खिड़कियों से सट कर बैठे हुए लोग आँखों के सामने से गुजर जाते हैं और चेहरा याद नहीं रह जाता। बहरहाल फोटो छापें, यह तो ठीक बात है, लेकिन इतना छाप दें कि आँखों को अपच हो जाय। पूर्वांचल के पाठक खबरों को समझ नहीं पायेंगे, यदि किसी ऐसे निष्कर्ष पर हिंदुस्तान के पत्रकार मित्र पहुंच गये हों और अब उन्हें सिर्फ फोटो-सोटो से ही अखबार का प्रेमी बनाया जा सकता है तो मुझे कुछ नहीं कहना है। हिंदुस्तान ने किसी नई फोटोनीति को अपनी रणनीति में शामिल कर लिया हो तो भी कुछ नहीं कहना है। फोटो-सोटो को लेकर दूसरे अखबारों में भी दिक्कतें हैं। पर जहाँ उम्मीद सबसे ज्यादा हो, कहने की जरूरत और मतलब भी वहीं सबसे ज्यादा है। अन्ना हजारे के अभियान के प्रति यदि जन भावनाओं को तीव्र बनाने में सहयोग करना है या उसकी अभिव्यक्ति के लिए अखबार में भरपूर जगह और महत्व देना है तो उस अभियान के समर्थन में स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर होने वाली गतिविधियों , प्रदर्शन , धरना , हस्ताक्षर अभियान तथा अन्य बौद्धिक और लोकतांत्रिक कार्यक्रमों की बेहतर कवरेज करके हिंदुस्तान गोरखपुर जिम्मेदार और प्रभावशाली पत्रकारिता का उदाहरण और आदर्श उपस्थित कर सकता है। सच तो यह कि उत्साही साथियों से बनी हिंदुस्तान टीम के लिए यह सब करना कतई कोई मुश्किल काम नहीं है। अच्छी बात यह कि हिंदुस्तान गोरखपुर के आठ अप्रैल के पहले और खासतौर से दूसरे पेज पर अन्ना हजारे से जुड़ी खबरों को ढ़ंग से बल्कि कहें कि वयस्क ढ़ंग से दी गयी हैं। अच्छी और निर्दोष पत्रकारिता के उदाहरण के रूप में ऐसे संपादन और रिपोर्टिंग को देख सकते हैं। भाई हिुदुस्तान गोरखपुर जब आपके पास सब है , तो बेहतर को इसी तरह तरजीह दें।
-गणेश पाण्डेय संपादक- यात्रा साहित्यिक पत्रिका।

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