गणेश पाण्डेय
हिंदुस्तान अच्छा अख़बार है। हिंदुस्तान पहले से अच्छा अख़बार था। अब और अच्छा अख़बार है। हिंदुस्तान गोरखपुर ने दैनिक जागरण को कड़ी चुनौती दी है। परिणाम सामने है। हिंदुस्तान ने गोरखपुर की जनता अर्थात पाठकों का दिल जीता है। गोरखपुर के अख़बारों की रंगीन दुनिया का एक नायाब चेहरा बन कर उभरा है। लेकिन इस रंगीन चाँद के चेहरे पर कुछ काले-काले धब्बे भी दिख रहे हैं। ये धब्बे अगर दैनिक जागरण या दूसरे अख़बारों की बुरी नजरों से बचाने के लिए हिंदुस्तान के स्थानीय पत्रकारों द्वारा जान-बूझ कर खुद ही लगाये जा रहे हों तो मुझे कुछ नहीं कहना है। यदि जानबूझ कर नहीं लगाये जा रहे हों तो एक छोटेमोटे पूर्व पत्रकार की हैसियत से कुछ निवेदन करना चाहूँगा। इसलिए भी कि मेरे कुछ अच्छे मित्र भी इन अख़बारों में हैं और मुझे उनके मान-सम्मान की थोड़ी-बहुत चिंता है। अभी गोरखपुर हिंदुस्तान का चार अप्रैल का चौथा पेज मेरे सामने है। उसमें क्रिकेट में भारत की जीत पर कोई अड़तालीस नामी-गिरामी लोगों की फोटो और उनकी प्रतिक्रिया छपी है। मैने दिल्ली का उसी दिन का अखबार तो नहीं देखा है पर वहाँ के पत्रकारों पर भरोसा है कि शायद अड़तालीस ऐसे लोगों की फोटो और प्रतिक्रिया वहाँ नहीं होगी। शायद ही वहाँ किसी हिन्दू और मुसलमान धर्माचार्य कk वक्तव्य क्रिकेट पर नहीं होगा। यदि होगा तो यही तकलीफ दिल्ली के मित्रों से भी होगी। बहरहाल मैं गोरखपुर की बात कर रहा था। जिसकी शुरुआत ही गोरखपीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ और मुफ्ती वलीउल्लाह और विशप थामस थिरुतिमट्टम से है। उसके बाद हर मर्ज की दवा समझी जाने वाले कमिश्नर और जिलीधिकारी हैं। अड़तालीस लोगों की इस रंगीन दुनिया में इसमें खिलाड़ी कोटे से भी फकत चार नाम हैं। इसमें कोई विश्वविद्यालय का पदाधिकारी है तो कोई सरकारी विभाग का प्रमुख वगैरह। कोई चिकित्सक है तो कोई नगर का धनाढ्य वर्ग का प्रतिनिधि। कुछ वकील भी हैं। पर अख़बार के अपने मुवक्किलों अर्थात साधारण पाठकों अर्थात जनता नहीं है। कहीं हिंदुस्तान गोरखपुर ने जनता की परिभाषा तो नहीं बदल दी है। जिसकी मासिक आय साठ हजार रुपये से कम होगी, वह जनता नहीं होगी। जनता सिर्फ वही होगी, जिसकी फोटो हिंदुस्तान में छपेगी। अर्थात जनता सम्पन्न जिलाधिकारी होंगे, अनका अर्दली नहीं। क्योंकि उनके अर्दली की फोटो हिंदुस्तान गोरखपुर ने नहीं छाप कर भारतीय लोकतंत्र में आज की तारीख में जनता का अर्थ बदल दिया है। यह सब इस दर्द के साथ कह रहा हूँ कि उन अड़तालीस वी. आई.पी. जनता में एक भी गांधी जी और लोहिया की जनता नहीं है। हिंदुस्तान गोरखपुर ने अपने शहर कार्यालय के सामने आते-जाते रिक्शा वाले भाई और टेम्पो चालक और ठेले पर जूस बेचने वाले से क्रिकेट पर बात करना गवारा नहीं समझा। सचमुच क्या क्रिकेट अब भी सिर्फ सभ्य अर्थात सम्पन्न लोगों का खेल रह गया है ? फिर क्यों सब्जीवाला भाई ठेले वाला भाई या मजदूर तबका भी भारत-भारत कभी-कभार बोल लेता है। कौन जीता कौन हारा पूछ लेता है। अखबार में क्यों नहीं उसका चेहरा ? सबसे नजदीकी हाकर भाई तक का एक फोटो नहीं है। अखबार के कार्यालयों में ये कैसे अमीरों की फोटो खींचने वाले कैमरे और साहब जैसे पत्रकार लोग आ गये हैं ? कैमरा तब भी था जब मैं जागरण में था। आज दूसरे कैमरे और पत्रकार आ गये हैं। तब यहाँ पत्रकारों में महेश अश्क होते थे। एक हर्षवर्धन बस्ती वाले होते थे। उस समय कई पत्रकार ऐसे थे जिन्हें यह मालूम था कि किस विषय पर किसी महत्व मिलना चाहिए और किसे नहीं। महेश अश्क को यह मालूम था कि शहर में सबसे अच्छी कविता कौन लिखता है या किसका गद्य सबसे अच्छा है। आज गोरखपुर के हिंदुस्तान में किस पत्रकार को मालूम है ? कोई एक आगे बढ़कर बताए। साहित्य के समाचारों को देखने वाले लोग भयंकर नासमझी के शिकार हैं। जो साहित्य में महाभ्रष्ट है उसे महान समझकर उसकी पूजा करते हैं। पुरस्कार को श्रेष्ठता का पैमाना मानते हैं। हिंदी में कालजयी कवियों और लेखकों को कोई पुरस्कार नहीं मिला था। वे पुरस्कारों से नहीं अपनी रचनाओं से जाने जाते है। आज किसी पत्रकार में रचना को देखने की न तो तमीज है और न किसी स्वाभिमानी लेखक को पहचानने का विवेक। बहरहाल बात क्रिकेट तक ही सीमित रहे तो बेहतर। अखबारों ने भी चूंकि व्यवसाय कर रखा है , इसलिए खबरों में भी वही दृष्टि हो तो आश्चर्य नहीं। लेकिन मेरे भाई अखबार सिर्फ अमीर लोग ही नहीं खरीदते। कम आय वर्ग के लोग भी अखबार खरीदते हंोगे। इसलिए जब जनता की महफिल सजाइए तो उसमें असली जनता की भी कम से कम आधी तस्वीर तो दीजिए हुजूर। नही ंतो फोटो के साथ यह परिचय भी छापिए कि यह जनता की तस्वीर नही। जनता का चेहरा खो गया है। जनता को देखने वाले पत्रकारों का लोप हो गया है। ये पत्रकार वे पत्रकार नहीं रहे जो जनता के लिए जीते थे जनता के साथ रहते थे। जनता के लिए लड़ते थे। ये सच रचते हैं। जो छापते हैं उसे सच मानते हैं और उसे ही सच मानने के लिए मजबूर करते हैं। असल में इनका सारा जोर अब रंग पर है। बस रंग आये सच आये न आये। यह एक भयानक सच्चाई है कि क्रिकेट का एक मजबूत और अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र है। अर्थशास्त्र ही नहीं, राजनीतिशास्त्र भी है। भारत-पाक का मौजूदा संवाद उदाहरण है। ऐसे में पत्रकार मित्र भी फोटो-सोटो और वक्तव्य-सक्तव्य छापने में थोड़ी-बहुत राजनीति कर ले रहे हों तो हंगामा खड़ा करने की कोई बात नहीं है। आपकी क्या राय है ?
गणेश पाण्डेय: संपादक-यात्रा साहित्यिक पत्रिका
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