- गणेश पाण्डेय
सोने की चिड़िया
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यह
इस देश की विशेषता है
इसे बुरे लोगों ने ही अच्छा बनाया है
अंग्रेजों ने कितना विकास किया
रेल छापाखाना टेलीफोन स्कूल कालेज
ओह तमाम नयी-नयी चीज़ें लेकर आए
उन बुरे लोगों के जाने के बाद
दूसरे लोग आए जो हमारे अपने थे
उनसे किसी भी मामले में कम न थे
बड़े-बड़े कल-कारखाने
चौड़ी-चौड़ी सड़कें तमाम हवाईअड्डे
जमींदारी ख़त्म खेतों की हदबंदी
रुपया कमाने की कोई पाबंदी नहीं
और राममंदिर का ताला भी खुलवाया
ढहाने वालों ने गुम्बद भी ढ़हाया
हमारे अपने लोगों ने कितनी सुंदरता से
सरकार चलाया और किस सरकार ने
दंगा और क़त्लेआम नहीं कराया
विकास तो अंग्रेजों से कम नहीं हुआ
राजनीति में बुरे लोग नहीं होते
तो लोगों को न तन ढकने के लिए
एक जोड़ा वस्त्र मिलता
न जीने के लिए मुट्ठीभर अन्न
यह सब इसी देश में संभव है
कि बुरे लोगों से जनता किस तरह
अच्छा काम कराती है
बुरे लोग ही
इस देश को आगे और अच्छा बनाएंगे
बस इस सरकार के जाने की देर है
आने वाले प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री
इस देश और प्रदेश को
सोने की चिड़िया बनाने के लिए
जादू की छड़ी लेकर तैयार बैठे हैं
वह सोने की चिड़िया
कितनी ऊँचाई पर उड़ेगी
जनता के हाथ आएगी या नहीं
यह सब एक मामूली कवि
कैसे बता सकता है!
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पेशा
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जैसे
दाएँ हाथ का अपना पेशा है
उसी तरह बाएँ हाथ का भी अपना पेशा है
राजनीति करने वाले ही नहीं
साहित्य में अनीति करने वाले भी
इसी पेशे में हैं।
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पार्टी
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ओह
सिर्फ़ अमुक पार्टी बुरी है
चरित्रहीन है क्रूर है हत्यारी है
तो इसे इसके चुनने वालों समेत
ले जाओ जंगल में छोड़ आओ
जाओ जल्दी करो मैं मना नहीं करता
अमुक पार्टी ही
सच्चरित्र है पवित्र है परोपकारी है
जनतारिणी है मोक्षदायिनी है
ईश्वर की गोद से उतरी पार्टी है तो इसे
अगले चुनाव में सरकार में लाने के लिए
रूठे हुए लोगों को जंगल से बुलाओ
गला फाड़- फाड़कर पुकारो-चिल्लाओ
उन्हें मनाओ न मानें
तो उनकी मर्जी की पार्टी बनाओ
मैं भर्ती होने के लिए तैयार बैठा हूँ।
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राजनीतिक रोटियाँ
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किसी वयस्क लोकतंत्र में
कोई आंदोलन हो प्रदर्शन हो अनशन हो
उसमें पूरी शुचिता तो होती ही होगी
भला किसी जन आन्दोलन में राजनीतिक पार्टियां
अपनी रोटी क्यों सेंकना चाहेंगी
अपने महान भारत में तो
बिल्कुल नहीं!
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अकाट्य सत्य
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नहीं-नहीं
न्याय मूल्य सिद्धांत आदर्श वगैरह की
बात करने वाले बेईमान नहीं हो सकते हैं
यह हमारे समय का अकाट्य सत्य है
क्यों साहित्य-प्रवर विचार-श्रेष्ठ आचार्य
बोलो शिष्यो बोलो
बोलो अनुकरणकर्ताओ
अलबत्ता हाँ-हाँ पक्का
बेईमान तो इन पर शक करने वाले होंगे
क्यों साहित्य-राजन!
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वैचारिक शत्रुता
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शत्रुता
और राजनीतिक विवेक में
क्या फ़र्क है जानते हो वत्स
विवेक
किसी भी व्यक्ति और दल के
गुण-दोष की बिना किसी भेदभाव के
पहचान करता है
इन्हें देखो
शूकर नहीं हमारे समय के लेखक हैं
वैचारिक शत्रुता में कर क्या रहे हैं
शत्रु के नाश के लिए गंदा खा रहे हैं।
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ऐतिहासिक विदाई
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राजनीति
और साहित्य से
आदर्शों की विदाई
कब से शुरू हुई
और कब पूरी हुई
प्रक्रिया
कुछ याद है आपको
आचार्यप्रवर विचारप्रमुख
साहित्य-राजन!
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हमारे बच्चे
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महान विचार भी
आदर्शों की शवयात्रा में
अपने कंधे सौंप चुके हैं
अब ये
अपने हथियार
और अपने विचारों का बोझ
रखेंगे कहाँ
बेचारे विचार
धूल में मिल जाएंगे
ऐसे खो जाएंगे कि फिर
सदियाँ ढूँढती रह जाएंगी
हमारी पीढियां हमारी नस्लें
ओह हमारे बच्चे कैसे जिएंगे।
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भय
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ओह
इतना भय तो
मृत्युदण्ड में भी नहीं होता होगा
जितना
आज हिन्दी के लेखकों में है
वे अपनी मर्जी का लघुकार्य भी
नहीं कर सकते हैं
अपनी मर्जी का
लिखना और बोलना तो दूर
वे धारा के विरुद्ध छींक तक नहीं सकते हैं
जनमुक्ति का भार
और विचार का प्रभार
इन्हीं के सिर पर है
ये पैदा हुए ही हैं
एक सुरक्षित और जोखिममुक्त
गिरोह में रहने के लिए
ये देश के लिए जीने की
बात तो करते हैं लेकिन जी नहीं पाते हैं
इनके भय का नगाड़ा इनके पिछवाड़े
बजता रहता है बजता ही रहता है।
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हाथी के पैरों से कुचल दी जाएंगी
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मेरे
राजनीतिक विचार
अपने समय के लेखकों से
रत्तीभर भी मेल नहीं खाते हैं
शायद
उन्हें भय है कि विचार की जगह
विवेक चुनेंगे तो उनके भविष्य को
गोली मार दी जाएगी
उन्हें भय है
कि उनकी कविताएँ
अपने समय के आलोचकों के
हाथी जैसे पैरों से कुचल दी जाएंगी
भला ऐसे लेखकों के विचारों से
किसी स्वाधीन लेखक के विचार
कैसे मेल खा सकते हैं।
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