शनिवार, 6 मार्च 2021

एक बूढ़े की प्रेमकथा

- गणेश पाण्डेय

बुढ़ापे में
जब-जब थाली धुलता हूँ
तो देखता रहता हूँ उसमें
प्रियतमा का झिलमिल मुख

आटा गूँथता हूँ
तो लगता है किसी 
कमनीय देह को छू रहा हूँ
किसी की हथेलियाँ
मेरी हथेलियों से खेल रही हैं

रोटी बेलता हूँ
तो लोई बनाने से बेलने
और तवे पर रखने तक
किसी की चूड़ियाँ संग-संग
बजती हैं बजती रहती हैं

गर्म तवा
उँगलियों से छूभर जाए
तो लगता है कि किसी के
तप्त होंठ हैं
बेध्यानी में प्रायः छू जाता है

सब्जी काटता हूँ
तो अक्सर चाकू की धार से
छू जाती हैं उँगलियाँ
लगता है किसी की आँखों को
छू लिया है

जब 
रोटी और सब्जी
लेकर खाने बैठता हूँ
तो झर-झर बहने लगती हैं 
दो बूढ़ी आँखें
तुम्हे सामने देखकर

ऐसा क्यों होता है
मेरी परिणीता मेरी मीता
मेरी कुसुमलता 
चाहे जीवन में 
लाख बेकदरी की हो
अब तुम्हारे बिना एक पल
रहा नहीं जाता है

कब आओगी
अब जब भी आओगी
बर्तन मैं धुलूँगा रोटी मैं बनाऊँगा
तुम्हारी वेणी चाँदनी के फूलों से
मैं सजाऊँगा।











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