दि.5अक्तू.2019, इलाहाबाद।
प्रियवर गणेश पांडे जी,
कुशल से होंगे। हालांकि यह कहना भी अब मात्र एक औपचारिक मुहावरा बनकर रह गया है। जो भी व्यथित और जरा भी संवेदनशील है, वह बाहर से भले ही सकुशल दिखे, मन से तो हमेशा बेचैन और द्वंद्वग्रस्त ही रहता है। स्थितियां ही कुछ ऐसी हैं। जो दुनियादार हैं, वे स्थितियों में खुद को ढालकर अपने मन को समझा लेते हैं, अवसर के मुताबिक राह पकड़ लेते हैं। लेकिन जो स्थितियों की भयावहता, अमानवीयता, असहिष्णुता के बारे में सोचे बिना नहीं रह पाते-प्रायः उनकी नियति होती है - अकेलापन।
आपको वर्षों से लिखते-पढ़ते देख रहा हूं। इधर थोड़ा-बहुत ह्वाट्सएप, फेसबुक जैसे माध्यमों से थोड़ी-बहुत वाकफियत हो गयी है। फेसबुक पर भी आपकी चिंताओं से परिचित होता रहता हूं। आपकी चिंताओं में अपने को भी शामिल पाता हूं। अपने-अपने अकेलेपन के अंधेरे में, यह शामिल-पन का भाव कभी-कभी उम्मीद के जुगनुओं की तरह जग-मगा उठता है। कुछ साथी - कहीं भी हों, कितनी भी दूर- पर हैं तो, जो अब भी सोचने और महसूस करने की क्षमता बचाकर रखे हुए हैं। यह भी हम-आप जैसों के रचनात्मक सहारे के लिए कम बड़ी बात नहीं है।
आपने 2 अक्टूबर वाली पोस्ट में लिखा-‘ साहित्य में अंधेरा फैलाने वाले, आज गांधी पर प्रकाश डालेंगे!‘ यह विडम्बना यों तो मात्र साहित्य की नहीं, राजनीति-समाज-चिंतन वगैरह सभी क्षेत्रों की है, लेकिन आपने साहित्य का उल्लेख किया तो इसका मर्म मैं समझ सकता हूं। निराला ने ‘सरोज-स्मृति‘ में लिखा- ‘ मैं कवि हूं, पाया है प्रकाश! ‘ यह कोई व्यक्तिगत दंभ नहीं था। यह कवि होने या साहित्यकार होने की सबसे सारगर्भित परिभाषा थी। कवि होना गहरे अर्थो में ‘प्रकाश प्राप्त‘ होना है। प्रेमचंद ने भी राजनीति से नहीं, साहित्य से ही ज्यादा आशा की थी-‘साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल है।‘ लेकिन आज ‘प्रकाश‘ और ‘मशाल‘ जैसे शब्दों को हमारे तथाकथित कवि और साहित्यकार ही अर्थहीन करते जा रहे हैं। राजनीति ने तो पहले ही इन शब्छों को मात्र चुनाव-चिह्न जैसा कुछ बनाकर रख दिया है। राजनीति में तो अंधेरा ही सर्वत्र अट्टहास कर रहा है। इस अट्टहास को ही प्रकाश की तरह बिखेरा जा रहा है। इस अट्टहास की चकाचौंध में प्रकाश का इतना भ्रम है कि आंखें चौंधियां जाती हैं। देखने की क्षमता ही जाती रहती है। और आपने इस विडम्बना की ओर ठीक ही इशारा किया है, गांधी के हवाले से। जिनको कुछ नहीं दिखता, वे ही सबकुछ देख लेने की डींग हांकते हैं। अंधता इतनी दंभी कि गांधी जैसा पुरुष-जो खुद अपनी आंखों से देखने पर विश्वास करता था, जिसने सत्य का प्रकाश पाने के लिए ‘सत्य का प्रयोग‘ करने की ठानी थी- उस पर अंधता प्रकाश डालने का दावा करती है।
मैंने कभी लिखा था,‘साहित्य एक प्रकार का रचनात्मक हठ है कि मनुष्य को सबसे पहले और सबसे आखिर तक सिर्फ मनुष्य के रूप में ही पहचाना जाए, न फरिश्ते के रूप में, न राक्षस के रूप में, न देवता के रूप में, न सिर्फ साधु या शैतान के रूप में।‘
गांधी को क्या मनुष्य के रूप में सचमुच हम अभी तक पहचान सके हैं? हमने मूर्तियां बना दीं, न्यायालयों और सरकारी दफ्तरों में उनके फोटो टांग दिए। इन सब रूपों में आज गांधी आज कितने दयनीय हो उठे हैं कि उन्हीं की फोटो के नीचे बैठे अधिकारीगण कैसे-कैसे स्वार्थ-लिप्सा भरे कारनामों को अंजाम दे रहे हैं।
गांधी को इस दयनीयता से क्या सिर्फ उन पर कविताएं लिखकर उबारा जा सकता है? है कोई ‘प्रकाश प्राप्त‘ कवि जो उनकी इस दयनीयता को सवमुच देख सके? महसूस कर सके? गांधी का अनुसरण करने-कराने का उपदेश देने वाले हर क्षेत्र में हैं। साहित्य में भी। पर गांधी बेचारे ऐसे अनुसरणकर्ताओं से बचने के लिए छिपते-छिपाते, टाट वाले बोरे में अपना चेहरा ढके चुपचाप मुकित्बोध की कविता में चले गए हैं।
सच पूछिए तो अब ‘अनुसरण‘ या ‘अनुयायी‘ जैसे शब्द पाखंड का पर्याय हो गए हैं। कोई किसी का अनुसरण नहीं करना करना चाहता है, सिर्फ अपने-आपके सिवा। अब अनुयायी होना नहीं, पिछलग्गू होना फिर भी कुछ अर्थवान शब्द है। पिछलग्गू ऐसे व्यक्तियों का, जो लाभ पहुंचाने की स्थिति में हों। थोड़ी ख्याति मिल जाए, पुरस्कार या उपाधि मिल जाय-बस इतना ही अभीष्ट है। आज के लेखक की महत्वाकांक्षाएं भी बड़ी क्षुद्र हैं। वह अपनी क्षुद्रता में अमर होना चाहता है।
ऐसी अमरता को हम-आप क्यों चाहें? क्योंकि हमारे लिए तो यह जीते जी मर जाने के समान है। ऐसे में तो अच्छा है, कबीर की तरह रहें-मेरो मन लागा ठाठ फकीरी में! हम साहित्य के फकीर बने रह सकें, यही कामना हमारे लिए ठीक है।
अभी इतना ही।
हां, इतना और कि ज्यादा शिकायती होने में वक्त जाया न करें। हर स्थिति में जितना रचनात्मक हो सकें, रहें।
आपकी सक्रियता और सार्थक चिंताओं में आपका सहभागी-
राजेंद्र कुमार
प्रियवर गणेश पांडे जी,
कुशल से होंगे। हालांकि यह कहना भी अब मात्र एक औपचारिक मुहावरा बनकर रह गया है। जो भी व्यथित और जरा भी संवेदनशील है, वह बाहर से भले ही सकुशल दिखे, मन से तो हमेशा बेचैन और द्वंद्वग्रस्त ही रहता है। स्थितियां ही कुछ ऐसी हैं। जो दुनियादार हैं, वे स्थितियों में खुद को ढालकर अपने मन को समझा लेते हैं, अवसर के मुताबिक राह पकड़ लेते हैं। लेकिन जो स्थितियों की भयावहता, अमानवीयता, असहिष्णुता के बारे में सोचे बिना नहीं रह पाते-प्रायः उनकी नियति होती है - अकेलापन।
आपको वर्षों से लिखते-पढ़ते देख रहा हूं। इधर थोड़ा-बहुत ह्वाट्सएप, फेसबुक जैसे माध्यमों से थोड़ी-बहुत वाकफियत हो गयी है। फेसबुक पर भी आपकी चिंताओं से परिचित होता रहता हूं। आपकी चिंताओं में अपने को भी शामिल पाता हूं। अपने-अपने अकेलेपन के अंधेरे में, यह शामिल-पन का भाव कभी-कभी उम्मीद के जुगनुओं की तरह जग-मगा उठता है। कुछ साथी - कहीं भी हों, कितनी भी दूर- पर हैं तो, जो अब भी सोचने और महसूस करने की क्षमता बचाकर रखे हुए हैं। यह भी हम-आप जैसों के रचनात्मक सहारे के लिए कम बड़ी बात नहीं है।
आपने 2 अक्टूबर वाली पोस्ट में लिखा-‘ साहित्य में अंधेरा फैलाने वाले, आज गांधी पर प्रकाश डालेंगे!‘ यह विडम्बना यों तो मात्र साहित्य की नहीं, राजनीति-समाज-चिंतन वगैरह सभी क्षेत्रों की है, लेकिन आपने साहित्य का उल्लेख किया तो इसका मर्म मैं समझ सकता हूं। निराला ने ‘सरोज-स्मृति‘ में लिखा- ‘ मैं कवि हूं, पाया है प्रकाश! ‘ यह कोई व्यक्तिगत दंभ नहीं था। यह कवि होने या साहित्यकार होने की सबसे सारगर्भित परिभाषा थी। कवि होना गहरे अर्थो में ‘प्रकाश प्राप्त‘ होना है। प्रेमचंद ने भी राजनीति से नहीं, साहित्य से ही ज्यादा आशा की थी-‘साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल है।‘ लेकिन आज ‘प्रकाश‘ और ‘मशाल‘ जैसे शब्दों को हमारे तथाकथित कवि और साहित्यकार ही अर्थहीन करते जा रहे हैं। राजनीति ने तो पहले ही इन शब्छों को मात्र चुनाव-चिह्न जैसा कुछ बनाकर रख दिया है। राजनीति में तो अंधेरा ही सर्वत्र अट्टहास कर रहा है। इस अट्टहास को ही प्रकाश की तरह बिखेरा जा रहा है। इस अट्टहास की चकाचौंध में प्रकाश का इतना भ्रम है कि आंखें चौंधियां जाती हैं। देखने की क्षमता ही जाती रहती है। और आपने इस विडम्बना की ओर ठीक ही इशारा किया है, गांधी के हवाले से। जिनको कुछ नहीं दिखता, वे ही सबकुछ देख लेने की डींग हांकते हैं। अंधता इतनी दंभी कि गांधी जैसा पुरुष-जो खुद अपनी आंखों से देखने पर विश्वास करता था, जिसने सत्य का प्रकाश पाने के लिए ‘सत्य का प्रयोग‘ करने की ठानी थी- उस पर अंधता प्रकाश डालने का दावा करती है।
मैंने कभी लिखा था,‘साहित्य एक प्रकार का रचनात्मक हठ है कि मनुष्य को सबसे पहले और सबसे आखिर तक सिर्फ मनुष्य के रूप में ही पहचाना जाए, न फरिश्ते के रूप में, न राक्षस के रूप में, न देवता के रूप में, न सिर्फ साधु या शैतान के रूप में।‘
गांधी को क्या मनुष्य के रूप में सचमुच हम अभी तक पहचान सके हैं? हमने मूर्तियां बना दीं, न्यायालयों और सरकारी दफ्तरों में उनके फोटो टांग दिए। इन सब रूपों में आज गांधी आज कितने दयनीय हो उठे हैं कि उन्हीं की फोटो के नीचे बैठे अधिकारीगण कैसे-कैसे स्वार्थ-लिप्सा भरे कारनामों को अंजाम दे रहे हैं।
गांधी को इस दयनीयता से क्या सिर्फ उन पर कविताएं लिखकर उबारा जा सकता है? है कोई ‘प्रकाश प्राप्त‘ कवि जो उनकी इस दयनीयता को सवमुच देख सके? महसूस कर सके? गांधी का अनुसरण करने-कराने का उपदेश देने वाले हर क्षेत्र में हैं। साहित्य में भी। पर गांधी बेचारे ऐसे अनुसरणकर्ताओं से बचने के लिए छिपते-छिपाते, टाट वाले बोरे में अपना चेहरा ढके चुपचाप मुकित्बोध की कविता में चले गए हैं।
सच पूछिए तो अब ‘अनुसरण‘ या ‘अनुयायी‘ जैसे शब्द पाखंड का पर्याय हो गए हैं। कोई किसी का अनुसरण नहीं करना करना चाहता है, सिर्फ अपने-आपके सिवा। अब अनुयायी होना नहीं, पिछलग्गू होना फिर भी कुछ अर्थवान शब्द है। पिछलग्गू ऐसे व्यक्तियों का, जो लाभ पहुंचाने की स्थिति में हों। थोड़ी ख्याति मिल जाए, पुरस्कार या उपाधि मिल जाय-बस इतना ही अभीष्ट है। आज के लेखक की महत्वाकांक्षाएं भी बड़ी क्षुद्र हैं। वह अपनी क्षुद्रता में अमर होना चाहता है।
ऐसी अमरता को हम-आप क्यों चाहें? क्योंकि हमारे लिए तो यह जीते जी मर जाने के समान है। ऐसे में तो अच्छा है, कबीर की तरह रहें-मेरो मन लागा ठाठ फकीरी में! हम साहित्य के फकीर बने रह सकें, यही कामना हमारे लिए ठीक है।
अभी इतना ही।
हां, इतना और कि ज्यादा शिकायती होने में वक्त जाया न करें। हर स्थिति में जितना रचनात्मक हो सकें, रहें।
आपकी सक्रियता और सार्थक चिंताओं में आपका सहभागी-
राजेंद्र कुमार
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