रविवार, 14 मई 2017

कवि की पोशाक

- गणेश पाण्डेय


हाथी को दिक्कत नहीं होती है
घोड़े को दिक्कत नहीं होती है
गधे को दिक्कत नहीं होती है
आदमी कपड़ा क्यों पहनता है

इस शहर के कवियों को
दिक्कत होती है कि एक कवि
उनकी तरह कपड़ा क्यों नहीं पहनता है
उनकी तरह उठता-बैठता क्यों नहीं है
महाजनों के पीछे-पीछे चलता क्यों नहीं है

क्यों एक कवि शेष कवियों की तरह रहे
बाकी कवि जी लोग ही 
आखिर उस अकेले कवि की तरह 
क्यों नहीं रहते!

जरूरी नहीं 
कि वह गीतों में फर्जी क्रांति लिखे
कविता में जमीनी लड़ाई भी तो कर सकता है

कवि जी लोग 
आप परेशान क्यों होते हैं
वह धोती नहीं पहनना चाहता है
विनम्रता का नाटक नहीं करना चाहता है
तो आपको समस्या क्यों है

वह पतलून नहीं पहनना चाहता है
वह चापलूस नहीं बनना चाहता है
तो आप बेचैन क्यों हैं 

वह 
चूड़ीदार पाजामा नहीं पहनना चाहता है
बहुत पेंचदार जीवन नहीं जीना चाहता है
एक सीधी सरल रेखा खींचना चाहता है

सलवार-समीज नहीं पहनना चाहता है
जंग के मैदान से 
आधी रात में भागना नहीं चाहता है
तो आपको एतराज क्यों है

वह युद्ध की पोशाक में रहना चाहता है
साहित्य अकादमी को उड़ा देना चाहता है
कविता के लिए जमाने से लड़ना चाहता है
आखिरी सांस तक
तो आपको जूड़ीताप क्यों है

उसका इस शहर में होना 
और अलग पोशाक में होना
आखिर आपको 
हरगिज-हरगिज बर्दाश्त क्यों नहीं है

वह क्यों आपकी पोशाक में रहे
वह क्यों आपकी तरह चोटी बनाए
वह क्यों आपकी तरह श्रृंगार करे
आप वजह तो बताएं 

क्यों नहीं पसंद है आप लोगों को
उसकी प्रिय पोशाक 

कवि जी लोग 
कुछ तो बताएं साफ-साफ
आखिर चाहते क्या हैं आप लोग
एक अकेला कवि साहित्य के इस अरण्य में
शेर की तरह घूमे नंग-धड़ंग।



                            






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