शनिवार, 14 जनवरी 2017

जासूस छोड़ जाऊँगा

- गणेश पाण्डेय

छोड़कर जाऊँगा
तो अपने सबसे अच्छे जासूस छोड़ जाऊँगा हरामजादो
नाम और इनाम जैसी दो कौड़ी की चीजें होतीं
तो उन्हें भी अपनी लंगोट में छिपाकर नहीं ले जाता लो
अपनी बेशकीमती आँखें छोड़ जाऊँगा बिजली के खम्भे पर
लट्टू की तरह लटकाकर
यह देखने के लिए कि मेरे जाने बाद कब तक करते हैं साजिश
अपनी भाषा, अपने साहित्य और अपने उस समाज के खिलाफ
जिसने पैदा किया इतने अच्छे उन जैसे हिन्दी के हरामजादे
अपने कान छोड़ जाऊँगा चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस की छतरी पर
जहाँ से सुनायी देती रहेंगी चीखें, भिड़न्त और रोने की आवाजें
एक गरीब लेखक की कातर पुकार जरूर सुनायी देंगी
सुनायी देगा किसी के कत्ल के बाद कातिलों का अट्टहास

मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे 
मेरे सबसे भेरोसेमंद जासूसों को भी मेरे साथ मेरी चिता पर जला दें
फालतू कागज-पत्तर चाहे कबाड़-सबाड़ समझकर

एक सेंकेंड के लिए भी बिना डरे और बिना रुके चलने वाली
सच और निडरता की सखी
अपनी सबसे प्यारी जुबान छोड़ जाऊँगा खून से तरबतर
पूरे शहर का चक्कर लगाते रहने के लिए दिनरात
अपना लहजा अपनी बारूद अपने विचार छोड़ जाऊँगा हरामजादो
हाँ अपने हाथ भी छोड़ जाऊँगा डालकर निकालने के लिए
आगे-पीछे छिपाकर रखे गये हजार-हजार के कड़क नोट
जो उन्हें मिलते ही रहते हैं हिंदी की किड़नी के धंधे में

मर रहा है हिन्दीप्रदेश ऐसे ही रहा तो एक दिन मर जाएगा
हिंदी के लाडलों का भविष्य
फिर भी नहीं मरेंगे हिंदी के ये खूँख्वार हत्यारे
जब तक नहीं मरेगा इनका डॉन
जब तक बमबारी नहीं होगी इनके ठिकानों पर
तब तक नहीं खिलेंगे इस अंचल में नन्हे-नन्हे चाँदनी के फूल
अचिरावती तब तक नहीं धुलेगी अपने मटमैले केश
तब तक नहीं तोड़ेगी अपने बेटों के लिए निर्जलाव्रत
तब तक नहीं बनेगा हिन्दी का बच्चा
देश के ताज और तख्त का वारिस
तब तक नहीं बनेगा फिर से हिंदी का बेटा
फटकार कर सच बोलने वाला नन्हा कबीर 

मेरे बेटो
मेरे मरने के बाद एक दिन ये भी मरेंगे
पर मेरी तरह कहाँ मरेंगे मृत्युशय्या पर अपनी ललकार के साथ
किसी गली में किसी श्वानमुद्रा में मरेंगे ये मुँहबाये।

(यात्रा 12 से)







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