मंगलवार, 8 नवंबर 2016

सलाम वालेकुम

- गणेश पाण्डेय

सब साहिबान को सलाम
जो मुझे छोड़ने आये थे सिवान तक
उन भाइयों को सलाम जो अड्डे तक आये थे
मेरी छोटी-छोटी चीजों को लेकर।

उन चच्चा को खासतौर से सलाम
जिन्होंने मेरा टिकट कटाया था
और कुछ छुट्टे दिये थे वक्त पर काम आने के लिए।

बचपन के उन साथियों को सलाम
जिन्होंने हाथ हिलाया था
और जिन्होंने हाथ नहीं हिलाया था।

अम्मी को सलाम
जिन्होंने ऐन वक्त पर गर्म लोटे से
मेरा पाजामा इस्त्री किया था और जल गयी थी
जिनकी कोई उँगली।

आपा को सलाम
जिनके पुअे मीठे थे खूब और काफी थे
उस कहकशाँ तक पहुँचे मेरा सलाम
जो मुझे कुछ दे न सकी थी
खिड़की की दरार से सलाम के सिवा।

उस याद को सलाम
जिसने जिन्दा किया मुझे कई बार
उस वतन को सलाम
जो मुझे छोड़कर भी मुझसे छूट नहीं पाया।

रास्ते की तमाम जगहों और उन लोगो को सलाम
जिन्होंने बैठने के लिए जगह दी
और जिन्होंने दुश्वारियाँ खड़ी कीं
उस वक्त को सलाम
जिसने मुझे मार-मार कर सिखाया यहाँ
किसी आदमी को रिश्तों से नहीं
उसकी फितरत से जानो।

ऐ जिन्दगी तुझे सलाम
जो किसी काम के वास्ते तूने चुना
किसी गरीब को। 

(‘जल में’ से)






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