- गणेश पाण्डेय
साहित्य के इस राज्य में
दूध और दही की नदियां अनगिनत
सुदर्शन पुरुष और सुंदर स्त्रियाँ असंख्य
वृद्ध, अधेड़, युवा और किशोरों की जगमग दुनिया का ओर-छोर नहीं
कोई कभी रोता नहीं कोई कभी सोता नहीं
सब हृष्ट-पुष्ट कोई रोग-शोक नहीं
ऐसा स्वास्थ्य ऐसा मेल-मिलाप ऐसी संगत ऐसी लय
किसी अन्य राज्य में नहीं
कोई निराश नहीं
जिधर देखिए सुंदर आशा ही आशा
भव्य मंचों की असमाप्त श्रृंखला
स्वर्णजड़ित पत्र-पत्रिकाएँ
देवतुल्य सुपाद्य संपादक प्रवर
आगे-पीछे परियों का मेला
और यशःप्रार्थी कवियों के नतशीश
जय-जयकार जय-जयकार
भारतीय संस्कृति से भी ऊंची हिन्दी की साहित्य संस्कृति
सब देवता सब सद्पुरुष
सब उजले-धुले सुवासित पाद्य असुवासित अतिप्रकाशित रत्नजड़ित मुकुटधारी
हिन्दी साहित्य के इस राज्य में
कहने को भी एक दशानन नहीं
सब स्वयंराम थे
सबके पास विद्या-कला-साहित्य का मणिकांचन योग था
दर्प के हिमालय से निकलती तीव्रवेगमयी हहराती विचारधारा थी सबके पास
सब कवि थे सब कथाकार सब नखदंतहीन सुंदर आलोचक थे
एक से एक बली-महाबली-महामहाबली
धज ऐसी कि रावण भी लज्जित हो
कर्म ऐसे कि इतिहास में न अँटें
सब था इनके पास
तीनों लोक का ऐश्वर्य था
सुंदर सुखशय्या प्रीतिकर भोजन और अनेक प्रकार के रसपान
अप्सराएँ इंद्रलोक से ज्यादा
सबकी बारी थी छोटे-बड़े सिंहासनो पर बैठने की
सब उसी प्रतीक्षा में अनन्तकाल से एक पैर पर खड़े थे
एक पैर से चलते थे एक पैर पर खाते थे एक पैर से पीते थे एक पैर से आँख मारते थे
एक पैर से अप्सराएँ स्वागत करती थीं एक पैर से मनुहार
ये लेखक इस सदी के इस राज्य के पूर्णकालिक एकपैरीय लेखक थे
इन लेखकों के पास ढंग से जरा-सा खड़ा हो पाने के लिए
दूसरा पैर था ही नहीं
कोई कहता
सबके एक-एक पैर ताजमहल बनाने वालों की तरह काटकर प्रधान आलोचक ने रख लिए
कोई कहता कि सबके एक-एक पैर अफसर-कवि ने किसी संग्रहालय में चुनवा दिया
कोई कहता कि सुंदर कविताएं लिखने वाले एक कृशकाय कवि ने सबके एक-एक पैर
अस्पतालों में सस्ते में बेचकर अकेले सारी असली महुआ वाली कच्ची एक पैर से पी लिया
कोई कहता उपप्रधान आलोचक ने अपने और दूसरे लेखक संगठनों के साथ मिलकर
गांव पर भूसे के मंडीले में सारे एक पैरों को रखवा दिया कि वक्त पर सिर्फ उनके काम आये
जितने मुँह उससे अधिक बातें
छोटे सुकुल कसम खाकर कहते थे कि इस दौर के सारे लेखक पैदाइशी तौर पर एक पैरीय थे।
साहित्य के इस राज्य में
दूध और दही की नदियां अनगिनत
सुदर्शन पुरुष और सुंदर स्त्रियाँ असंख्य
वृद्ध, अधेड़, युवा और किशोरों की जगमग दुनिया का ओर-छोर नहीं
कोई कभी रोता नहीं कोई कभी सोता नहीं
सब हृष्ट-पुष्ट कोई रोग-शोक नहीं
ऐसा स्वास्थ्य ऐसा मेल-मिलाप ऐसी संगत ऐसी लय
किसी अन्य राज्य में नहीं
कोई निराश नहीं
जिधर देखिए सुंदर आशा ही आशा
भव्य मंचों की असमाप्त श्रृंखला
स्वर्णजड़ित पत्र-पत्रिकाएँ
देवतुल्य सुपाद्य संपादक प्रवर
आगे-पीछे परियों का मेला
और यशःप्रार्थी कवियों के नतशीश
जय-जयकार जय-जयकार
भारतीय संस्कृति से भी ऊंची हिन्दी की साहित्य संस्कृति
सब देवता सब सद्पुरुष
सब उजले-धुले सुवासित पाद्य असुवासित अतिप्रकाशित रत्नजड़ित मुकुटधारी
हिन्दी साहित्य के इस राज्य में
कहने को भी एक दशानन नहीं
सब स्वयंराम थे
सबके पास विद्या-कला-साहित्य का मणिकांचन योग था
दर्प के हिमालय से निकलती तीव्रवेगमयी हहराती विचारधारा थी सबके पास
सब कवि थे सब कथाकार सब नखदंतहीन सुंदर आलोचक थे
एक से एक बली-महाबली-महामहाबली
धज ऐसी कि रावण भी लज्जित हो
कर्म ऐसे कि इतिहास में न अँटें
सब था इनके पास
तीनों लोक का ऐश्वर्य था
सुंदर सुखशय्या प्रीतिकर भोजन और अनेक प्रकार के रसपान
अप्सराएँ इंद्रलोक से ज्यादा
सबकी बारी थी छोटे-बड़े सिंहासनो पर बैठने की
सब उसी प्रतीक्षा में अनन्तकाल से एक पैर पर खड़े थे
एक पैर से चलते थे एक पैर पर खाते थे एक पैर से पीते थे एक पैर से आँख मारते थे
एक पैर से अप्सराएँ स्वागत करती थीं एक पैर से मनुहार
ये लेखक इस सदी के इस राज्य के पूर्णकालिक एकपैरीय लेखक थे
इन लेखकों के पास ढंग से जरा-सा खड़ा हो पाने के लिए
दूसरा पैर था ही नहीं
कोई कहता
सबके एक-एक पैर ताजमहल बनाने वालों की तरह काटकर प्रधान आलोचक ने रख लिए
कोई कहता कि सबके एक-एक पैर अफसर-कवि ने किसी संग्रहालय में चुनवा दिया
कोई कहता कि सुंदर कविताएं लिखने वाले एक कृशकाय कवि ने सबके एक-एक पैर
अस्पतालों में सस्ते में बेचकर अकेले सारी असली महुआ वाली कच्ची एक पैर से पी लिया
कोई कहता उपप्रधान आलोचक ने अपने और दूसरे लेखक संगठनों के साथ मिलकर
गांव पर भूसे के मंडीले में सारे एक पैरों को रखवा दिया कि वक्त पर सिर्फ उनके काम आये
जितने मुँह उससे अधिक बातें
छोटे सुकुल कसम खाकर कहते थे कि इस दौर के सारे लेखक पैदाइशी तौर पर एक पैरीय थे।
बहुत दिनों बाद एक वरिष्ठ कवि की एक बेहतरीन कविता पढ़ने को मिली। पूरी कविता कथात्मक शैली का अन्यतम नमूना है। कवि गणेश पांडे जी ने कविता *साहित्य के इस राज्य में * में जिस तेवर और भंगिमा में कविता में विद्या-कला और साहित्य के ऐश्वर्य और वैभव-विलास का चित्र उकेरा है , उससे हमें रीतिकालीन कवियों की दशा-दिशा को भलीभांति समझने में मदद मिल सकती है। दिनानुदिन उत्तर-आधुनिक होते समय में कमोवेश परिदृश्य वही है । अधिकतर लेखक एक पैर के अर्थात लंगड़े हो चुके हैं । आलोचक भी मानसिक रूप से अपंग- दिव्यांग ।
जवाब देंहटाएंकविता के पहले अर्धांश में लाक्षणिक शैली में साहित्य के जीवन-जगत की मार्मिक अभिव्यंजना हुई है , जबकि उत्तरांश में लेख़क, आलोचक और लेखकीय संगठनो की माकूल छवि रची गई है।कविता अपने लय और संगति में जितनी अनूठी और धारदार है , उतनी ही अपनी प्रभावान्विति में सक्षम । समाज और साहित्य की यथास्थिति का प्रतिबिम्बन यहाँ पूरी जीवंतता और बेबाकी से हुआ है , जो जितनी सत्य है ,उतनी ही व्यंग्यात्मक । जितनी अमिधात्मक है , उतनी ही लक्षणायुक्त भी।कविता में आज के आलोचकीय परिदृश्य का भी बहुत सधे हुए अंदाज में कविताई हुई है। इस विषय पर लेख की जगह कविता एक निपुण कवि ही लिख सकता है। कथात्मक शिल्प में जब विष्णु खरे और अशोक वाजपेयी जैसे कवि कविता करते हैं तो उनके लद्धड़ , बोझिल गद्य से पाठक ऊब जाता है। खरे जी की कविता *ABANDONED * और वाजपेयी जी कविता *शब्द रस प्रिया * को पढ़ लीजिए । वहाँ न ध्वन्यात्मकता है, न लय , न प्रगीतात्मकता। कविता में हर हाल में कवितापन हो, इसका नमूना है यह कविता जो उन कविताओं से बहुत बेहतर और बहुपठनीय है। यहाँ शब्दों की *जगलरी* नहीं, उसका आलोक है। साहित्य के युगीन अंतर्विरोधों का भावलोक है, उसकी हो रही दुर्दशा का सच्चा प्रदर्श है। गणेश पांडे जी को इस महत्वपूर्ण कविता के लिए अनेकश:बधाईयाँ।
इस कविता में अद्भुत धार और तंज है। आज के साहित्य-समय से मुठभेड़ करती इसकी लयात्मकता इसे बेहद महत्वपूर्ण और पठनीय बनाती है।
जवाब देंहटाएंबेहद अर्थपूर्ण कविता है। विडम्बना को सामने लाती है। आज के लेखकीय व्यक्तित्व के दोहरेपन पर ऐसा तंज शायद ही देखने को मिले। कविता का शिल्प अद्भुत रूप से सुगठित है।
जवाब देंहटाएंअद्भुत तेवर की कविता है।एक आह्वान अपने दौर के कवियों,साहित्यकारों के लिए।एक गहरा व्यंग्य और दर्द है इन कविताओं में गणेश पाण्डेय जी को इस कविता के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएं