सर, एक साल के बाद, मने जब 16 साल का कवि 17 साल का हो गया है(10 जनवरी को ही हो गया था वैसे), तो इस अंतराल के बीच लिखी अपनी कविताओं में से कुछ आपको पढ़ाना चाहता था...
कि कविता की दुनिया में मैंने अभी अगला कदम रखा कि नहीं... कि कविता को तरतीब देने में अभी कुछ-कुछ सक्षम हुआ हूँ कि नहीं...
परिवार के कुछ लोग कभी-कभी कहते हैं कि 'एक-आध कविता अपनी किसी अख़बार या और किसी पत्रिका में छापने के लिए भेजो ना!' लेकिन मन नहीं करता .. अगर कोई छाप भी दिया तो मुझे अच्छा नहीं लगे...
मैं चाहता हूँ कि पहले अच्छी कविता लिखना आ जाएगा, तब कहीं भेजूंगा...
-तरुण त्रिपाठी
तरुण त्रिपाठी की कविताएं
1.
कोई फ़र्क नहीं पड़ता है यार!
जिस सड़क से कल जा रहे थे
छठ पूजा कर के लोग;
उसी सड़क से आज कोई
अपने बेटे की लाश भी ले जाता है;
और उसी सड़क से
तुम भी तो आती हो
मुझसे मिलने!
तो,
या तो ये कहो
कि चीज़ें तीनो
जुड़ी हैं एक ही सड़क से,
मानो जुड़ी हैं एक-दुसरे से
कि सारी चीज़ें जुड़ी होती है एक-दूसरे से
कि सारा कुछ दरअसल कोई एक ही चीज़ है
जैसे पूरी पृथ्वी आई है
एक ही सूर्य से
या ये कहो
कि सड़क होती है बहुत खुले विचारों की
जो अनेक और अनेक तरह की घटनाओं को
खुद में ही समेटने की क्षमता रखती है
जो चूमती है
संत और हत्यारे
दोनों के पाँव
जैसे पृथ्वी
या फिर मैं...,
जैसे मैं कभी चलूँ इस सड़क पर
तुम्हारे साथ
तुमसे बातें करते हुए।
और अगले दिन
जब वापस जाऊं उस पर
तुम्हारी स्मृतियों के साथ
बातों की गूंज और तुम्हारे निशाँ तलाशते हुए
और मैं देखूं एक कुत्ता भी मरा हुआ
कहीं बीच सड़क,
तो मैं सीधे-सीधे इसे दोहरा चरित्र कहूँगा
सड़क का;
गाली दूंगा उसे गुस्से में!
जैसे पृथ्वी को
कि कोई बला होनी ही क्यों थी!
एक सकारात्मक और अहिंसक लड़ाई हो सकती थी
मेरे और पूजा वाले लोगों के बीच
तुम्हारे प्रति प्रेम और ईश्वर के प्रति प्रेम के बीच
मेरे ख़याल से!
अगर ज़रूरी था कुछ अनर्थ होना।
मगर मेरे ख़याल से...
कोई फ़र्क नहीं पड़ता है यार!
***
हालांकि इतना
मैं भी सोचना पसंद करता हूँ
कि जिस सड़क से कल जा रहे थे
छठ पूजा वाले लोग
उसी सड़क से
तुम भी आती हो
मुझसे मिलने...
***
या जाने दो!
वो सार्वजनिक सड़क है
2.
हे सुनो!
मैं तुमसे प्यार करना चाहता हूँ
लो, मेरा ये दिल रख लो
(चुपके से)
हाँ-हाँ एकदम!
ले जाओ!
क्या?
दाम?
दाम तो अब इस पर तय होगा ना
कि मैं माफ़ कर पाता हूँ
तुम्हारा
मेरा दिल चुराना...
तुम दाम की फ़िक्र मत करो!
नहीं कर पाया
तो तुम्हारा भी चोरी हो जाएगा
(चुपके से)....
3.
मैं इतना सोचता हूँ ना!
कि जो सोचता हूँ
कर नहीं पाता हूँ।
***
वैसे मैं आजकल ये सोच रहा हूँ
कि सोचना बंद कर दूँ
यार, बहुत नुक्सान हो जा रहा है मेरा
सोचने से...
***
और अब ये सोच रहा हूँ
कि कब तक सोचना बंद करने की
खाली सोचता रहूँ!
अब मुझे सोचना बंद करने के बारे में
सोचना बंद कर देना चाहिए
और बंद कर देना चाहिए अब
सोचना।
***
बात अब ये है कि
कुछ दिनों से मेरा बहुत समय
नहीं सोचने की सोचने में चला जा रहा है।
तो सोच रहा हूँ
कि नहीं सोचना चाहिए मुझे अब
नहीं सोचने के बारे में।
कि बेकार है नहीं सोचने की ज़िद।
कि जैसे नहीं कर पाता हूँ
बाकी सोचे काम,
नहीं संभव है मेरे लिए
ये नहीं सोचने का भी काम करना
यूँ सोच-सोच कर।
कि इतने दिनों से इसी पर ना सोच रहा था
मुझे कोई और रास्ता ढूँढना होगा
और ढूंढ कर
फिर उस पर भी सोचूंगा कुछ दिनों...
हे.. हे..
मैं इतना सोचता हूँ ना!
कि जो सोचता हूँ
कर नहीं पाता हूँ...
****
लेकिन सुनो यार!
ये बहुत ख़तरनाक है
इससे निपटना बहुत ज़रूरी है
नहीं-नहीं! कुछ तो सोचना पड़ेगा!...
सोचना पड़ेगा?
फिर?
ना! ना!
'हे सुनो!
बंद करो ये सोचना-भोचना
चुप!
एकदम चुप!'..
4.
मैं दुखों का
स्वागत करता हूँ
ताकि वो आये
और मैं उसे पकडूँ
जकड़ूँ उसका गला..
उसे निचोड़ कर
निकाल गिराऊँ
उसमें से हर एक तटस्थ अंश।
ताकि गहरे तक महसूस होता हो
केवल दुख।
और बाँध के अंनुभूति की रस्सी से उसे
ले जाऊँ घसीटते हुए
अपनी छाती के फ़र्श पर
अपने दिल के घर से
बुद्धि के बाजार में।
और उसे बेचकर
ख़रीद लूँ कुछ पंक्तियॉ।
अनुभूति की रस्सी बिछाकर
उन्हें रखूं उसी पर
और अंत में खींच कर वो रस्सी
ऊपर में बाँध दूँ।
और बना दूँ उन पंक्तियों का एक गट्ठर
अपनी सहूलियत के लिए।
ताकि ले जा सकूँ उसे सहजता से
अपने दिल के घर में वापस..
या किसी भी और के दिल के घर में..
बिना घिसटे
बुद्धि से ह्रदय तक की राह में।
कि ना रह जाए उस दिल तक पहुँचने से..
जिसे भी बेचूँ मैं ये गट्ठर
इन्हें लेने की महज़
रूचि के दाम पर...
4.
बचे अभी हैं बहुत बरस एक हमारे होने में
आनंद प्रतीक्षा का भी लें मत काटें रोने-धोने में
तुमको ज़ल्दी पा लूंगा तो बौना हो जाएगा प्यार
प्यार जवां होता है यारा एक दूजे को खोने में
कितना समय लगे है वक़्त को काल की घड़ी बदलने में!
कहाँ हमें ये पता चलता कितने पल काटे सोने में!
प्यार की माला बनती है तो हर लम्हा एक मोती है
कुछ उजले कुछ गाढ़े-रंग, सब चहिये इसे पिरोने में
वफ़ा से रोशन होना है तो बाहर-दुनिया घूम लो कुछ
जहाँ बिलखते हो सूरज भि तो ना पहुंचे उस कोने में
मुझमें तुम, मैं तुममें डूबा; प्यार में दोनों डूबे हैं
मज़ा है बस इतनी सी बात में पूरे जहाँ को डुबोने में
प्यास बुझा लूंगा सागर में जब तुम मिलोगे सोचा है
पर तुम आँखों के जल को मत व्यर्थ बहाओ रोने में
सारी दुनिया अपनी थी जब तक हर कदम सचेत रहे
बदल गया घर और शहर इक रात डूब कर सोने में
हँस ही रही थि तो हँसती रहती, मुझ पर क्यूँ ठहरी आँखें
तुम भि ना कितनी तेज हो यारा अपनी पलक भिगोने में
5.
इस बार मनेगी होली तुम बिन
दीवाली भी तुम बिन और
एक-एक दिन भी तो कटेंगे तुम बिन..
बहुत लोग मिलने आयेंगे घर के सारे लोगों से
बच नहीं पाऊँगा मैं तिरे बिन होने वाले रोगों से
रंग भी तुम बिन लागेगा
दीये भी तुम बिन सजेंगे और
हम कहीं अकेले हटेंगे तुम बिन..
ये आधा डूबा घट कैसे जल पूरा भर कर पायेगा
उल्लास कोई इस दुखी ह्रदय में कैसे घर कर पायेगा
सावन भी तुम बिन आयेगा
बरसात भी तुम बिन होगी और
हम बूंद-बूंद में बटेंगे तुम बिन..
ख़ुशी के मौकों में सब पर मैं बोझ सा, ताने खाऊँगा
वो चाँद भी घूरेगा शब की तन्हाई में जब जाऊँगा
पूनम भी तुम बिन छायेगी
उजलेगी तुम बिन चाँदनी और
हम वहीं रात भर डटेंगे तुम बिन..
ये हरियाली से भरे बाग इस बार तो बागी होएंगे
मतलब नहिं तेरी यादों से, अपनी मस्ती में खोएंगे
सो बहार भी तुम बिन आएगी
पंक्षी, तितली भी तुम बिन और
हम रो-रो उनसे पटेंगे तुम बिन..
एक और कविता थी.. अभी बहुत, मने पूरा तो नहीं लिखा हूँ... लेकिन जितना है उतना ही दे रहा हूँ छोटा सा...-
6.
रात भर सोया नहीं हूँ
नहीं रे! रोया नहीं हूँ
जाग कर एक गीत लिक्खा
हाँ! किसी का प्रीत लिक्खा
भावना को बांधना था
सुबह जा कर जीत लिक्खा
अब बहुत आनंद उर में
ना!-ना! कुछ खोया नहीं हूँ..
रात भर सोया नहीं हूँ
नहीं रे! रोया नहीं हूँ.
कि कविता की दुनिया में मैंने अभी अगला कदम रखा कि नहीं... कि कविता को तरतीब देने में अभी कुछ-कुछ सक्षम हुआ हूँ कि नहीं...
परिवार के कुछ लोग कभी-कभी कहते हैं कि 'एक-आध कविता अपनी किसी अख़बार या और किसी पत्रिका में छापने के लिए भेजो ना!' लेकिन मन नहीं करता .. अगर कोई छाप भी दिया तो मुझे अच्छा नहीं लगे...
मैं चाहता हूँ कि पहले अच्छी कविता लिखना आ जाएगा, तब कहीं भेजूंगा...
-तरुण त्रिपाठी
तरुण त्रिपाठी की कविताएं
1.
कोई फ़र्क नहीं पड़ता है यार!
जिस सड़क से कल जा रहे थे
छठ पूजा कर के लोग;
उसी सड़क से आज कोई
अपने बेटे की लाश भी ले जाता है;
और उसी सड़क से
तुम भी तो आती हो
मुझसे मिलने!
तो,
या तो ये कहो
कि चीज़ें तीनो
जुड़ी हैं एक ही सड़क से,
मानो जुड़ी हैं एक-दुसरे से
कि सारी चीज़ें जुड़ी होती है एक-दूसरे से
कि सारा कुछ दरअसल कोई एक ही चीज़ है
जैसे पूरी पृथ्वी आई है
एक ही सूर्य से
या ये कहो
कि सड़क होती है बहुत खुले विचारों की
जो अनेक और अनेक तरह की घटनाओं को
खुद में ही समेटने की क्षमता रखती है
जो चूमती है
संत और हत्यारे
दोनों के पाँव
जैसे पृथ्वी
या फिर मैं...,
जैसे मैं कभी चलूँ इस सड़क पर
तुम्हारे साथ
तुमसे बातें करते हुए।
और अगले दिन
जब वापस जाऊं उस पर
तुम्हारी स्मृतियों के साथ
बातों की गूंज और तुम्हारे निशाँ तलाशते हुए
और मैं देखूं एक कुत्ता भी मरा हुआ
कहीं बीच सड़क,
तो मैं सीधे-सीधे इसे दोहरा चरित्र कहूँगा
सड़क का;
गाली दूंगा उसे गुस्से में!
जैसे पृथ्वी को
कि कोई बला होनी ही क्यों थी!
एक सकारात्मक और अहिंसक लड़ाई हो सकती थी
मेरे और पूजा वाले लोगों के बीच
तुम्हारे प्रति प्रेम और ईश्वर के प्रति प्रेम के बीच
मेरे ख़याल से!
अगर ज़रूरी था कुछ अनर्थ होना।
मगर मेरे ख़याल से...
कोई फ़र्क नहीं पड़ता है यार!
***
हालांकि इतना
मैं भी सोचना पसंद करता हूँ
कि जिस सड़क से कल जा रहे थे
छठ पूजा वाले लोग
उसी सड़क से
तुम भी आती हो
मुझसे मिलने...
***
या जाने दो!
वो सार्वजनिक सड़क है
2.
हे सुनो!
मैं तुमसे प्यार करना चाहता हूँ
लो, मेरा ये दिल रख लो
(चुपके से)
हाँ-हाँ एकदम!
ले जाओ!
क्या?
दाम?
दाम तो अब इस पर तय होगा ना
कि मैं माफ़ कर पाता हूँ
तुम्हारा
मेरा दिल चुराना...
तुम दाम की फ़िक्र मत करो!
नहीं कर पाया
तो तुम्हारा भी चोरी हो जाएगा
(चुपके से)....
3.
मैं इतना सोचता हूँ ना!
कि जो सोचता हूँ
कर नहीं पाता हूँ।
***
वैसे मैं आजकल ये सोच रहा हूँ
कि सोचना बंद कर दूँ
यार, बहुत नुक्सान हो जा रहा है मेरा
सोचने से...
***
और अब ये सोच रहा हूँ
कि कब तक सोचना बंद करने की
खाली सोचता रहूँ!
अब मुझे सोचना बंद करने के बारे में
सोचना बंद कर देना चाहिए
और बंद कर देना चाहिए अब
सोचना।
***
बात अब ये है कि
कुछ दिनों से मेरा बहुत समय
नहीं सोचने की सोचने में चला जा रहा है।
तो सोच रहा हूँ
कि नहीं सोचना चाहिए मुझे अब
नहीं सोचने के बारे में।
कि बेकार है नहीं सोचने की ज़िद।
कि जैसे नहीं कर पाता हूँ
बाकी सोचे काम,
नहीं संभव है मेरे लिए
ये नहीं सोचने का भी काम करना
यूँ सोच-सोच कर।
कि इतने दिनों से इसी पर ना सोच रहा था
मुझे कोई और रास्ता ढूँढना होगा
और ढूंढ कर
फिर उस पर भी सोचूंगा कुछ दिनों...
हे.. हे..
मैं इतना सोचता हूँ ना!
कि जो सोचता हूँ
कर नहीं पाता हूँ...
****
लेकिन सुनो यार!
ये बहुत ख़तरनाक है
इससे निपटना बहुत ज़रूरी है
नहीं-नहीं! कुछ तो सोचना पड़ेगा!...
सोचना पड़ेगा?
फिर?
ना! ना!
'हे सुनो!
बंद करो ये सोचना-भोचना
चुप!
एकदम चुप!'..
4.
मैं दुखों का
स्वागत करता हूँ
ताकि वो आये
और मैं उसे पकडूँ
जकड़ूँ उसका गला..
उसे निचोड़ कर
निकाल गिराऊँ
उसमें से हर एक तटस्थ अंश।
ताकि गहरे तक महसूस होता हो
केवल दुख।
और बाँध के अंनुभूति की रस्सी से उसे
ले जाऊँ घसीटते हुए
अपनी छाती के फ़र्श पर
अपने दिल के घर से
बुद्धि के बाजार में।
और उसे बेचकर
ख़रीद लूँ कुछ पंक्तियॉ।
अनुभूति की रस्सी बिछाकर
उन्हें रखूं उसी पर
और अंत में खींच कर वो रस्सी
ऊपर में बाँध दूँ।
और बना दूँ उन पंक्तियों का एक गट्ठर
अपनी सहूलियत के लिए।
ताकि ले जा सकूँ उसे सहजता से
अपने दिल के घर में वापस..
या किसी भी और के दिल के घर में..
बिना घिसटे
बुद्धि से ह्रदय तक की राह में।
कि ना रह जाए उस दिल तक पहुँचने से..
जिसे भी बेचूँ मैं ये गट्ठर
इन्हें लेने की महज़
रूचि के दाम पर...
4.
बचे अभी हैं बहुत बरस एक हमारे होने में
आनंद प्रतीक्षा का भी लें मत काटें रोने-धोने में
तुमको ज़ल्दी पा लूंगा तो बौना हो जाएगा प्यार
प्यार जवां होता है यारा एक दूजे को खोने में
कितना समय लगे है वक़्त को काल की घड़ी बदलने में!
कहाँ हमें ये पता चलता कितने पल काटे सोने में!
प्यार की माला बनती है तो हर लम्हा एक मोती है
कुछ उजले कुछ गाढ़े-रंग, सब चहिये इसे पिरोने में
वफ़ा से रोशन होना है तो बाहर-दुनिया घूम लो कुछ
जहाँ बिलखते हो सूरज भि तो ना पहुंचे उस कोने में
मुझमें तुम, मैं तुममें डूबा; प्यार में दोनों डूबे हैं
मज़ा है बस इतनी सी बात में पूरे जहाँ को डुबोने में
प्यास बुझा लूंगा सागर में जब तुम मिलोगे सोचा है
पर तुम आँखों के जल को मत व्यर्थ बहाओ रोने में
सारी दुनिया अपनी थी जब तक हर कदम सचेत रहे
बदल गया घर और शहर इक रात डूब कर सोने में
हँस ही रही थि तो हँसती रहती, मुझ पर क्यूँ ठहरी आँखें
तुम भि ना कितनी तेज हो यारा अपनी पलक भिगोने में
5.
इस बार मनेगी होली तुम बिन
दीवाली भी तुम बिन और
एक-एक दिन भी तो कटेंगे तुम बिन..
बहुत लोग मिलने आयेंगे घर के सारे लोगों से
बच नहीं पाऊँगा मैं तिरे बिन होने वाले रोगों से
रंग भी तुम बिन लागेगा
दीये भी तुम बिन सजेंगे और
हम कहीं अकेले हटेंगे तुम बिन..
ये आधा डूबा घट कैसे जल पूरा भर कर पायेगा
उल्लास कोई इस दुखी ह्रदय में कैसे घर कर पायेगा
सावन भी तुम बिन आयेगा
बरसात भी तुम बिन होगी और
हम बूंद-बूंद में बटेंगे तुम बिन..
ख़ुशी के मौकों में सब पर मैं बोझ सा, ताने खाऊँगा
वो चाँद भी घूरेगा शब की तन्हाई में जब जाऊँगा
पूनम भी तुम बिन छायेगी
उजलेगी तुम बिन चाँदनी और
हम वहीं रात भर डटेंगे तुम बिन..
ये हरियाली से भरे बाग इस बार तो बागी होएंगे
मतलब नहिं तेरी यादों से, अपनी मस्ती में खोएंगे
सो बहार भी तुम बिन आएगी
पंक्षी, तितली भी तुम बिन और
हम रो-रो उनसे पटेंगे तुम बिन..
एक और कविता थी.. अभी बहुत, मने पूरा तो नहीं लिखा हूँ... लेकिन जितना है उतना ही दे रहा हूँ छोटा सा...-
6.
रात भर सोया नहीं हूँ
नहीं रे! रोया नहीं हूँ
जाग कर एक गीत लिक्खा
हाँ! किसी का प्रीत लिक्खा
भावना को बांधना था
सुबह जा कर जीत लिक्खा
अब बहुत आनंद उर में
ना!-ना! कुछ खोया नहीं हूँ..
रात भर सोया नहीं हूँ
नहीं रे! रोया नहीं हूँ.
बेहतरीन कवितायेँ उज्जवल भविष्य का संकेत हैं
जवाब देंहटाएंतरुण मेरा छोटा भाई है । और इसका अपने उम्र के लिखने वालों में राष्ट्रीय स्तर पर कोई तोड़ नही है । मै दावा करता हूँ । बहुत बहुत मंगलकामना बाबू :)
जवाब देंहटाएंओह!.. बहुत सारा शुक्रिया... शुक्रिया .. भैया!!
हटाएंतरुण जी आप The tarun बनने को अग्रसर है।
जवाब देंहटाएंएक सक्रिय प्रतिक्रियावादी होने के लिहाज से मैं भी लिखता हूँ लेकिन आपको पढ़ने की ललक थोड़ी ज्यादे होती है।
आपका ही सहपाठी हूँ पूरब के ऑक्सफ़ोर्ड से लेकिन कभी मिलें नही!
ओह! बहुत धन्यवाद भैया जी!
हटाएंपूरब के ऑक्सफोर्ड पर तो मुझे भी मिलने की उत्सुकता हो गई है..🙂
तरुण जी आप The tarun बनने को अग्रसर है।
जवाब देंहटाएंएक सक्रिय प्रतिक्रियावादी होने के लिहाज से मैं भी लिखता हूँ लेकिन आपको पढ़ने की ललक थोड़ी ज्यादे होती है।
आपका ही सहपाठी हूँ पूरब के ऑक्सफ़ोर्ड से लेकिन कभी मिलें नही!