मौलिकता के बारे में कुछ मौलिक बातें
-गणेश पाण्डेय
जहाँ तक समझ पाया हूँ, साहित्य में मौलिकता कोई जादू नहीं है। तमाम लोग मौलिकता को कोई जादू, कोई अद्भुत, कोई अदेखा, अजाना संसार समझते हैं, जिसका दशमलव शून्य शून्य शून्य शून्य एक प्रतिशत भी कहीं कुछ वुजूद न हो, आशय यह कि मौलिकता के बारे में या उसका विरोध करते समय ऐसे मौलिक विचार देते हुए लोग डरा ही देते हैं। ऐसे मौलिकता विरोधी सबसे पहले कहेंगे कि भाई आपको या आपके काम को मौलिक तब मानेंगे जब आप इन-इन शर्तों को पूरा करते हों। वे पहले यह भी कह सकते हैं कि सिद्ध कीजिए कि आप अपने माता-पिता की मौलिक संतान हैं। वे यह भी शर्त जोड़ेंगे कि आपकी नाक, आपकी आँखे, आपके ओंठ इत्यादि कुछ भी आपके पिता-माता से हरगिज-हरगिज नहीं मिलना चाहिए। इतना ही नहीं , वे यह भी कहेंगे कि आपके पिता-माता का उनके माता-पिता और उनके के उनके और उनके भी उनके से सुई की नोंक के बराबर कुछ भी नहीं मिलना चाहिए। ये मौलिकताविरोधी कहेंगे तो यह भी कि आपको सबसे पहले एक दुनिया खुद बनानी चाहिए, फिर अपने लिए एक माता-पिता खुद पैदा करना चाहिए और उसके बाद उन माता-पिता से खुद पैदा होना चाहिए। वे कहेंगे या कहते हैं कि यह सब कीजिए या भूल जाइये कि मौलिकता भी कोई चीज है और साहित्य की धरती पर है। असल में वे मौलिकता के पक्षधर नहीं, उसके विरोधी होते हैं। विरोधी इसलिए होते हैं कि उनके पास कोई ढ़ंग की या मौलिक कृति नहीं होती है, होती तो वे मौलिकता की बुराई आँख मूँद कर नहीं करते। जहाँ तक मैं मौलिकता को थोड़ा-बहुत समझ पाया हूँ, इसका आशय यह नहीं है कि आप पहले खुद हिंदी जैसी एक भाषा और देवनागरी जैसी एक लिपि पैदा कीजिए, खुद कागज पैदा कीजिए, खुद कलम पैदा कीजिए, खुद रोशनाई पैदा कीजिए और फिर ठाट से आराम कुर्सी पर बैठकर कविता, कहानी या आलोचना इत्यादि लिखिए। मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि साहित्य में मौलिकता का अर्थ किसी कृति का उल्था या छायाप्रति या अनुकृति न होना है। जब हर पढ़ी-लिखी या अपढ़ माँ का हर बच्चा मौलिक होता है, उसका चेहरा-मोहरा, उसका स्वभाव इत्यादि बहुत कुछ अलग होता है। यहाँ तक कि कोई बच्चा लड़का-कोई बच्चा लड़की होती है। क्या बच्चे की मौलिकता तब मानी जाएगी जब एक शेरनी आदमी का बच्चा, खरगोश का बच्चा, गधे का बच्चा, पेड़ का बच्चा, फूल का बच्चा, सब एक साथ अलग-अलग पैदा करे ? अरे भाई इतनी कड़ी शर्त मौलिकता की न बनाइए, उसे नहीं मानना है, तो मत मानिए। कौन आपको रोक रहा है कि आप पश्चिम की नकल न करें ? कौन आपको मना कर रहा है कि उस नकल से कथा साहित्य या कविता या आलोचना में कमाल मत कीजिए ? किसी के रोकने से साहित्य में धंधा बंद हो रहा है ? संसद की तरह साहित्य की अकादमियों में दागी लोग नहीं पहुँच रहे हैं ? यह समय साहित्य में निर्लज्जता के महोत्सव का समय है। आप भी उत्सव मना सकते हैं। हाँ, जो लोग मौलिक रचना चाहते हैं, उनके हौसले को कम न कीजिए। असल में रचना लेखक का तब तक एक बेहद निजीकर्म है, जब तक वह किसी कृति को रचकर उसे प्रकाशित नहीं रकता। जब यह उसका निजी कर्म है तो जाहिर है कि उसकी छाप उस पर जरूर दिखेगी। एक बिटिया दुकान से दूध, शक्कर, चाय की पत्ती लाने के बावजूद अपने घर में पहले पड़ी इलायची डाल कर जब चाय बनाती है तो उसकी चाय का स्वाद कुछ अलग होता है। अरे भाई, यही तो है मौलिकता। अब वह बिटिया पहले चीनी मिल खोले, चाय का बागान खरीदे, भैंस पाले और खुद दुहे और गैस के चूल्हे का फिर से आविष्कार करे तब जो चाय बनाएगी वह मौलिक होगा ? अरे भाई फिर तो और कुछ मौलिक हो या न हो आपका दिमाग जरूर मौलिक होगा, किसी खास पत्थर से बना हुआ। रामचरित मानस के कई दोहों को भी उल्था कहा जाता है, क्या मानस की चमक उससे कम हुई ? इसे नोट ही बनाए रखना चाहता हूँ, इसलिए एक-दो बातें और। मौलिकता का अर्थ मेरी दृष्टि में सिर्फ और सिर्फ नया करना है। आप किसी कृति में क्या नया करते हैं ? यह नवता ही मौलिकता है। नवता की असमाप्त श्रृंखला ही मौलिकता की यात्रा है। एक चोर की उँगलियों की छाप भी जब गिलास और दरवाजे की हैंडिल पर पड़ जाती है तो एक लेखक की कृति में उसकी कोई छाप क्यों नहीं दिखनी चाहिए ? यह छाप ही मौलिकता है। अमौलिकता की बात करना नासमझी ही नहीं साहित्य की सबसे बड़ी बेईमानी भी है। असल में इधर संपादको और आलोचकों ने काफी कुछ जाली नोट चलाया है, इसलिए असली नोट से उन्हें परहेज है। साहब जब आप असली नोट लेना पसंद करते हैं तो जाली रचना और आलोचना क्यों पसंद करेंगे ? क्या कीजिएगा, जैसे जाली नोट की पहचान सबको नहीं होती है, उसी तरह साहित्य में जाली नोट पकड़ने का चलन कम है। बड़ी मुश्किल यह कि पाठक हैरान है कि वह पुरस्कृत कवियों और कृतियों को जाली समझे कैसे ? क्या यह देखने की तनिक भी जरूरत नहीं है कि आज का हिंदी साहित्य कहीं जाली की प्रतिष्ठा का साहित्य तो नहीं है ? ये लेखक, संपादक, आलोचक अमौलिकता का इस्तेमाल कहीं साहित्य में चोर दरवाजे की तरह तो नहीं कर रहे हैं ?
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