-गणेश पाण्डेय
मित्रो, उदय जी एक दिन एक पत्रिका में छपे एक चित्र के आधार पर ब्राह्मणवाद (ब्राह्मणों) पर बहुत नाराज थे। मैंने उनके स्टेटस पर एक छोटी-सी टीप में कहा-‘ मुझे सिर्फ ब्राह्मणवाद के बारे में कहना है। साहित्य में ब्राह्मणवाद सिक्के का एक पहलू है और ठाकुरवाद दूसरा पहलू, दोनों के बिना हिन्दी का सिक्का चलता ही नहीं, बल्कि सच तो यह कि इस सिक्के का एक तीसरा भी पहलू है जिसे कायस्थवाद भी कहते हैं। इधर कुछ और जातियाँ हैं, जिनके गुट दिखते हैं। गौर करने पर कई और पहलू निकल आयेंगे। साहित्य के भ्रष्टाचार के महासागर में सभी जातियों की भ्रष्ट नदियां पहुँचती हैं। दृश्य तो ऐसे भी होते हैं, अपनी ही जाति का लेखक अपनी ही जाति के लेखक का विरोध करता है, दूसरी जाति के लेखक को प्रमोट करता है, सवाल यह कि साहित्य में यह प्रमोशन और पुरस्कार का भ्रष्टाचार क्यों ? बेशक आप ब्राह्मणवाद का विरोध अपने तईं कीजिए, लेकिन क्या ही अच्छा हो कि इसे आप व्यापक साहित्य-सत्तावाद के विरोध से जोड़ दें। मुझे पूरा विश्वास है कि आप भी ऐसा ही सोचते होंगे।’ इस टीप को उदय जी ने पसंद नहीं किया, जबकि छः मित्रों ने उसे पसंद किया।
आज फिर उनके स्टेटस पर अपनी तमाम कृतियों के अनुवाद के विवरण के साथ मोहनदास के जर्मन अनुवाद को श्रेष्ठ अनुवाद के रूप में चयनित होने की खबर है। यहाँ तक भी खराब नहीं। हालांकि यह प्रश्न तो बनता ही है कि इस वजह से उदय जी अपने को किन-किन लेखकों से बड़े लेखक के रूप में देखना चाहते हैं ? क्या प्रेमचंद से लेकर विनोक कुमार शुक्ल तक को अपने से छोटे कथाकार के रूप में देखना चाहते हैं ? शायद वे ऐसा नहीं चाहते होंगे ? ‘मोहनदास’ को तो मैंने भी पढ़ा है। उसका अनुवाद नहीं हुआ तो क्या उसका कोई मूल्य नहीं रहता ? क्या वह अनुवाद होने मात्र से अच्छी कृति है ? वह बहुत अच्छी कृति है तो क्या हमारे समय लिखी गयी दूसरी कथाकृतियाँ उससे अच्छी नहीं हैं ? उदय जी अच्छा लिखते हैं, जितना अच्छा लिखते हैं, उतना पढ़े भी जाते हैं, लेकिन क्या केवल उदय जी ने ही साहित्य में संघर्ष किया है, दूसरों ने नहीं ? केवल उनका ही विरोध हुआ है, दूसरों का नहीं ? उन्होंने आज अपने उसी स्टेटस में किसी ब्राह्मणवादी लेखक और उसके गुमाश्तों को लक्ष्य करके लिखा है कि ‘अब हिंदी का घनघोर ब्राह्मणवादी लेखक और उसके लंपट गुमाश्ते जितना भी ‘हेट-कैंपेन’ चलाएँ, अपना तो एक रोयां भी नहीं हिलता।’
मित्रो, दो-तीन बातें हैं। पहली बात तो यह कि उदय जी का संघर्ष यदि दिल्ली में न रहकर गोरखपुर या अपने गृहजनपद इत्यादि राजधानी से दूर किसी छोटे शहर में रहकर किया गया होता तो उन्हें जितने विकल्प मिले, पत्रिकाएँ और प्रकाशक निकट मिले और बहुत से सहयोगी लेखक मिले, क्या यह सब उन्हें मिल पाता ? यह कोई आरोप नहीं है। सिर्फ एक जिज्ञासा है। आशय यह कि सिर्फ उनका ही संघर्ष, बाकी का साहित्य में नौकाविहार नहीं है। यह ठीक बात है कि अधिकांश लेखक किसी न किसी मठाधीश की गोद में बैठकर अपनी अधिकांश यात्रा पूरी करते हैं। मुझे उदय जी के बारे में अधिक कुछ भी पता नहीं है। किसने-किसने उन्हें एक अच्छा लेखक बनाने में उनकी मदद की ? किसी ने मदद की भी या नहीं ? कई लेखक ऐसे अभागे हैं, जिनका विरोध दूसरी जाति के लोगों ने कम खुद उनकी जाति के लोगों ने अधिक किया है। उदय जी का विरोध कोई ब्राह्मण करता है, यह खबर नहीं बनती, खबर तब बनती जब ‘‘सभी’’ ठाकुर लेखक विरोध करते ? साहित्य में उदाहरण ऐसे भी हैं कि ब्राह्मणों ने ही ब्राह्मण लेखक का तीव्र विरोध किया। गुरुओं ने अपने ही बच्चे का कत्ल किया-
‘पहला बाण
जो मारा मुख पर
आँख से निकला पानी।
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल सें शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फववारा छूटा।
खीजे गुरु
मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।’
निश्चय ही उदय जी का भी विरोध हुआ होगा, संभव है कि गुरुओं ने भी किया हो, समकालीन लेखकों ने किया हो। जाहिर है कि प्रतिभाओं का विरोध तो होता ही है। विरोध में ही कुंदन और निखरता है। भारतेुंदु के बारे में रामविलास जी का कथन है- ‘भारतेंदु का विरोध दोनों ओर से हुआ-सरकार की ओर से और समाज के प्रगतिविरोधियों की ओर से भी। लेकिन जितना ही विरोध हुआ उतना ही हरिश्चंद्र का वीरभाव कुंदन की तरह और निखर उठा।...तीन शताब्दी पहले जैसे काशी के पुरोहितवर्ग ने तुलसीदास को कष्ट दिया था, उसी तरह हिन्दी साहित्य के नये अभ्युदय-काल में उसने भारतेंदु को लोक-बहिष्कृत किया था। जिस तरह तुलसीदास ने ‘‘धूत कहौ अवधूम कहौ रजपूत कहौ जुलहा कहौ कोऊ’’ लिखकर दुष्ट विरोधियों को मुँहतोड़ जवाब दिया था, उसी तरह भारतेंदु ने घोषणा की थी कि वे विरोधी कीड़़ों के सिर पर पाँव रखकर आगे निकल जायेंगे।’- रामविलास शर्मा का यह कथन पिछले दिनों गोरखपुर में एक व्याख्यान देते समय तक मेरे जेहन में गूँजता रहा। जाहिर है कि पहले के और बाद के और कई कवि भी याद आये। याद तो आज का पूरा हिन्दी समाज आया। यह प्रश्न बेचैन करता रहा है कि ‘आज के सभी कथित बड़े कवि’ लोक-बहिष्कृत तो हुए ही नहीं, बल्कि लोक-पूजित हैं। पुरस्कृत तो इतने की पुरस्कार भी शर्मा जाये। आश्चर्य यह कि उनका तनिक भी विरोध नहीं हुआ। चक्कर क्या है ? क्या इतिहास में कुछ गड़बड़ है या हमारे समय में ? कहीं ऐसा तो नहीं काशी की तरह कुछ और भी शहर हमारे समय में हैं ? यह मानने के लिए मन नहीं कर रहा है कि हमारे समय में कुछ कवि लोक-बहिष्कृत या उपेक्षित नहीं होंगे या आगे नहीं होंगे। इसलिए उदय जी हों या कोई भी जी, यदि प्रतिभा है तो विरोध तो होगा ही भाई। विरोध का विरोध छोटे दायरे में रहकर नहीं किया जा सकता। जरूरी है कि हम अपने विरोध को व्यापक बनाएँ। उन सभी लेखकों के लिए लड़ें जो आज कहीं किसी शहर में तन्हां है। अकेले लड़ रहे हैं। हिन्दी के फिसड्डियों की फौज से टकरायें। हिन्दी के लुटेरे आज देश भर की अकादमियों को लूट रहे हैं, जिनमें दिल्ली की अकादमी भी शामिल है, विरोध को वहाँ तक ले जाना चाहिए। साहित्य की अकादमियों में और उनके आयोजनों में अपात्रों का मेला लग रहा है।
दूसरी बात यह कि रोयां वाली बात जंची नहीं। रोयेंदार लेखक क्या सिर्फ उदय जी ही हैं ? और भी लेखक हैं जो रोयेंदार हैं। जिनका रोयां दूसरे हिला नहीं पाते, पर वे अपना रोयां दिखाते नहीं। कुछ चीजें छिपा कर रखने के लिए होती हैं। यह कहने की बात नहीं है भाई। अपना काम करना जरूरी है, अच्छा लिखिये और विरोध की आग को दूर तक ले जाइए। तीसरी बात यह कि यह तय कर लेना चाहिए कि आप अपने समय में सबसे अच्छा लिखना चाहते हैं या सबसे बड़ा दिखना चाहते हैं या सबसे ज्यादा पुरस्कार चाहते हैं ? सबसे ज्यादा और बड़ा पुरस्कार पाने के लिए अच्छा लिखना कतई जरूरी नहीं है, होता तो मेरे या आपके आसपास के लोग उन पुरस्कारों को नहीं पाते। क्या यह बड़ी बात नहीं कि आपकी किताबों को लोग पढ़ते हैं ? यह काफी नहीं ? कहना जरूरी है, इसलिए विनमंतापूर्वक कुछ कहा है। किसी का दिल दुखाना उद्देश्य नहीं है। मोहनदास को मैंने भी पढ़ा और पसंद किया है, पर क्या मेरे जैसे असंख्य पाठको का पढ़ना महत्वपूर्ण नहीं है, सिर्फ उसका अनुवाद इत्यादि महत्वपूर्ण है ? उदयजी निश्चत रूप से मुझसे बड़े लेखक हैं, मेरी कोई बात पसंद न आयी हो तो माफ करेंगे।
उदय प्रकाश जी के उल्लेखित स्टेट्स में उनका रोना उनके लेखक को छोटा करता है.. आप ने इस बहाने बहुत ही महत्त्वपूर्ण बातें की है और उनके बारे में विस्तार से हिन्दी के सच्चे- ईमानदार लेखकों- आलोचकों को आपस में संवाद कर शुध्दिकरण अभियान -आंदोलन (गंगा की तरह नहीं कि शुध्दिकरण के नाम पर भी भ्रष्टाचार किया जाए) पर विचार करना चाहिए महज़ ’अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे।’ जुमलों से ही पार नहीं पड़नेवाली आत्ममुग्धता और अवसरवादी लाभों- स्वार्थों का मोह त्याग अपने भीतर कुछ कर दिखाने का भी साहस -ज़ज़्बा पैदा करना होगा
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