-गणेश पाण्डेय
काफी कुछ कह चुका हँू, फिर भी लगता है कि कुछ नहीं कहा है या कुछ सुना ही नहीं गया है। स्वमुख जैसे मेरा है, उसी तरह आँख और कान तो दूसरों का है, दिमाग तो खैर पक्का अपना-अपना होता है। इसीलिए दो दूनी चार को दो दूनी पाँच कहने वाले पैदा हुए। राजनीति ही नहीं, साहित्य में भी उच्चकोटि के उदाहरण मिल जायेंगे। एक कहेगा वाम अच्छा है तो दूसरा झट कहेगा कि नहीं जी देखो, उसमें ये नुक्स हैं,दूसरा कहेगा कि अजी दायाँ बाजू मजबूत है तो दूसरा कहेगा कि हटो तुम्हारे बाजू की हड्डी में अनगिन फ्रैक्चर है जी। एक कहेगा हमारी पार्टी इतनी साल पुरानी है तो दूसरा कहेगा कि सड़ गयी है तुम्हारी पार्टी। एक कहेगा कि देखो जी देश की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है, दूसरा कहेगा कि विकास जरूरी है। आशय यह कि सबके अपने-अपने विचार और निष्ठाएँ हैं। किसी को भ्रष्टाचार सूट करता है तो वह क्यों ईमान वाला बनेगा ? किसी को पुरस्कारपथ साहित्य का राजपथ या मुक्तिपथ (?) लगता है तो वह क्यों पुरस्कार की माया से बाहर निकलेगा ? साहित्य का दृश्य बड़ी निराशा पैदा करता है। जब लेखक बेईमानी के रास्ते को तजने के लिए तैयार नहीं होंगे तो भला राजनीति वाले क्यों तैयार होंगे ? जैसे राजनीति और पत्रकारिता वगैरह की प्रतिष्ठा पहले सेवा या मिशन के रूप में थी और अब सब व्यवसाय हो गया है, साहित्य भी राजनीति और पत्रकारिता के पीछे चलने वाली मशाल (?) हो गयी है। जब सार यही है तो ज्यादा माथापच्ची क्यों ? जाओ भाई तुम पुरस्कार का रास्ता पकड़ो, मुझे या जो भी चाहे उसे अपनी पगडण्डी ही भली, लेकिन क्या करूँ इस एफबी का, जहाँ इसके बारे में चर्चा-कुचर्चा जारी है।
एक कवि के नाम पर एक नये पुरस्कार की घोषणा जल्दी ही हुई है और संयोग या दुर्योग कहें कि विमल जी ने अपने स्टेटस में पुरस्कारों का विरोध करते हुए रचना पर बल देने की बात कही है। बात तो बुरी नहीं, पर युवा लेखक अशोक पाण्डेय ने इसे वेणुगोपाल के नाम पर शुरू होने वाले पुरस्कार से जोड़कर तीव्र प्रतिक्रियाएँ दी हैं, जिन्हें मैं दुर्भावनापूर्ण तो नहीं लेकिन युवकोचित नाराजगी जरूर कहूँगा। दुर्भावनापूर्ण इसलिए नहीं कहूँगा कि उस स्टेटस को हाल में शुरू किये गये पुरस्कार से जोड़कर देख लिया गया है। उस स्टेटस में किसी लेखक का नाम नहीं था, यदि ऐसा होता तो क्या मैं कुछ नोट्स लगाता ? यह तो विमल कुमार ज्यादा बेहतर बता सकते हैं कि उनका स्टेटस अनिल जनविजय की घोषणा से जुड़ा है या नहीं। विमल जी ने उसे लक्ष्य करके ऐसा कुछ कहा होगा, ऐसा होना तो नहीं चाहिए, लेकिन ऐसा कुछ है तो निश्चय ही उचित नहीं है। कोई भी पुरस्कार बुरा तब होता है, जब उसे धंधा बना दिया जाता है, जो अभी शुरू होने जा रहा हो उसके बारे में बुरा कहना तो दूर, बुरा सोचना भी उचित नहीं है। पुरस्कारों के विरोध में गुस्सा इस बात पर उतना नहीं है कि ये दिये क्यों जाते हैं या किसी का सम्मान क्यों किया जाता है, बल्कि गुस्सा इस बात पर है कि ये काजल की कोठरी में तब्दील क्यों हो चुके हैं ? देखने में यह भी आ रहा है कि कई बार खराब लेखकों को पुरस्कार देने के बाद किसी अपेक्षाकृत अच्छे लेखक को पुरस्कार देकर पुरस्कार का सम्मान बचाया जाता है। पहले नकलीनाथ को दिया जाता है, बाद में असलीनाथ को। यहां अशोक ने एक दूसरा पक्ष उपस्थित करके अपनी नाराजगी दर्ज की है और ध्यान खींचा है। जहां तक अनिल जनविजय की घोषणा की बात है, उसके बारे में यह विदित है कि चयन समिति के सारे नाम लेखकों के हैं। उसमें कौन लेखक नहीं है ? लीलाधर मंडलोई, राजेश जोशी, अनिल जनविजय से लेकर अशोक पाण्डेय तक, सब लेखक हैं भाई। विमल कमार यदि वेणुगोपाल पुरस्कार पर कुछ नहीं कह रहे थे तो उन्हें बहस की जगह सीधे अशोक से यह कह कर शुरू में ही अलग हो जाना चाहिए था कि उनकी मंशा यह नहीं थी।
जहाँ तक मैं जानता हूँ, विमल जी अशोक से उम्र में बड़े हैं, कवि भी अशोक से छोटे नहीं है। यहाँ बात साफ कर दूँ कि हमारे समय में छोटा-बड़ा जैसा कुछ विभाजन मुझे नहीं दिखता है, कई बार अपने समय में जिन्हें बड़ा कवि कह दिया जाता है, उनकी कविताएँ हरगिज बड़ी कविताएँ नहीं होती हैं। यह दूसरी बात है। विमल जी हों या कोई गोबर गणेश हों या कोई बुरे से बुरा आदमी, वह पुरस्कारों का विरोध करता है तो उसकी आवाज को चुप करा देना सही विकल्प नहीं है। अच्छा विकल्प तो यह हो सकता कि अपने पुरस्कार को सचमुच साहित्य की राजनीति से मुक्त करके एक आदर्श पुरस्कार के रूप में प्रतिष्ठित करने की कोशिश की जाय। यह काम अशोक जैसे ऊर्जावान लेखक नहीं करेंगे तो क्या चुके हुए लेखक करेंगे ? जरूरी यह है कि अशोक को अब प्रकाशन की तरह पुरस्कार के क्षेत्र में भी जरूरी हस्तक्षेप करना चाहिए। पुरस्कार को मिसाल बनाने के बड़े काम में लग जाना चाहिए। इस काम में खतरा कम नहीं है। यह काम तब संभव होगा, जब हम अपने निकट के मित्रो का चुनाव भी सावधानीपूर्वक करें। विमल ने यदि लक्ष्य करके कहा हो तो भी उनकी बात का जवाब अपने काम से देना ज्यादा अच्छा होगा। समय दूसरा है। पुरस्कार के काम लगे लोगों के लिए अपना सम्मान बचाना बहुत मुश्किल है। इसलिए यदि पुरस्कारवाद के पक्ष में रहना है तो उठने वाली उँगलियों का अनुभव पहले ही कर लेना चाहिए। यह समय पुरस्कारवाद और गैरपुरस्कारवाद के बीच चुनाव का भी है। गौर करने की बात है कि पुरस्कार के तट पर वाम और दक्षिण, सब साथ-साथ दूषित जल ग्रहण करते हैं।
हाँ, यह कहना भी जरूरी है कि कई पुरस्कार लेने के बाद पुरस्कारों के खिलाफ बोलने पर ऐसी दिक्कत आती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि एक बार पुरस्कार लेने के बाद आजीवन पुरस्कार का मैला ढ़ोने के लिए कोई अनुबंध कर लिया गया। यह अलग बात है कि मुझे साठ के करीब पहुँच कर भी अब तक किसी लखटकिया या कौड़ी-सौडी के पुरस्कार-वुरस्कार के दर्शन नहीं हुए। सच तो यह कि स्वप्न में भी पुरस्कार के दर्शन नहीं हुए। हुए होते तो क्या जो थोड़ी-बहुत आग मुझमें कभी-कभी दिख जाती है, रह पाती ? कह नहीं सकता कि तब क्या होता ! शायद अच्छा हुआ कि लेखक जीवन की शुरुआती ठोकर ने मेरा रास्ता बदलकर रख दिया। क्या कोई साठ के आसपास आकर क्या सचमुच अपना रास्ता बदल पाएगा ? क्या जिस लेखक को पुरस्कार नहीं मिला वह घटिया लेखक होता है ? आज की तारीख में जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला है, उनकी कविताएँ पुरस्कार पाने वाले कवियों से खराब हैं ? ऐसे कई कवि मिल जायेंगे। बहरहाल यह दूसरी बात है। पहली बात यह कि पुरस्कारों का विरोध क्यों ? वजह साफ है, बेईमानी ही नहीं साहित्यिक दासता भी। समूची पृथ्वी से दासता का नाश चाहने वालों में इस दासता से मुक्ति की आकांक्षा क्यों नहीं ? मेरा तो एक लेख ही है ‘साहित्यक मुक्ति का प्रश्न उर्फ इस पापागार में स्वागत है संतो’। सच तो यह कि कुछ दिनों के लिए गद्य से दूर रहना चाहता हूँ, पर हो कहाँ पाता है। एक सचमुच के बडे़ कवि कह गये हैं कि गद्य जीवन संग्राम की भाषा है। फिर भी मेरा मानना है कि पुरस्कारों ने रचना और आलोचना की भलाई कम और दोनों का कबड़ा बहुत-बहुत किया है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि कुछ-कुछ स्वदेशी आंदोलन की तरह पुरस्कारों का बहिष्कार हो या कम से कम पुरस्कारों के भ्रष्टाचार का विरोध तो जरूर हो। अंत में संत कविता की इस पंक्ति से अपनी बात खत्म करूँगा- मारु मारु स्रपनी निरमल जलि पैठी (मारौ मारौ स्रपनी निरमल जल पैठी )।
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