- गणेश पाण्डेय
किसी शव को कफन की क्या जरूरत हैै ? दूसरा सवाल यह कि शव खुद यह तय करता है कि उसे कितना और कौन-सा कफन चाहिए ? तीसरा सवाल यह कि क्या उसके घरवाले या रिश्तेदार यह तय करते हैं ? चौथा सवाल यह कि क्या कि कुछ लोगों का समूह या कोई वृहत्तर मूर्त या अमूर्त समाज यह तय करता है ? पांचवां सवाल कि समाज नाम की किस काल की संस्था ने कफन का मौजूदा रूप तय किया है ? छठा सवाल यह कि स्त्री और पुरुष दोनों के कफन एक जैसे क्यों तय किये गये ? सातवां सवाल यह कि हिंदू धर्माचार्यों का कारनामा है यह सब कि कुछ और ?
दरअसल यह सब जो कह रहा हूं वह नहीं कहना है। यह तो बस ऐसे ही सुविधा के लिए कह रहा हूं। कहना यह कि हम अंगरखा हमेशा अपनी पसंद का पहनते हैं या कभी-कभी घरवालों की पसंद का भी ? बचपन में तो शायद सब मां-पिता, दादा-दादी, बुआ-दीदी, नाना-नानी,मामा-मामी आदि की पसंद का पहनते हैं ? क्यों ? हां-हां भाई क्यों ? उस समय विचार का कोई संकट क्यों नहीं पैदा होता है ? आधुनिकता या प्रगतिशीलता खतरे में क्यों नहीं क्यों नहीं होती है ? उस समय भी यह खतरा नहीं दिखता है, जब कोई बच्चा आग छूने की जिद करता है ?
स्कूल-कालेज में वहां का प्रशासन यूनीफार्म क्यों तय करता है ? सेना या पुलिस आदि की वर्दी क्यों तय की गयी है ? किसी समाज ने तय किया है ? किसी धर्माचार्य ने तय किया है ? हमारे यहां नेताजी लोगों की वर्दी खद्दर का कुर्ता-पाजामा क्यों है ? किसने तय किया है ? संविधान में कुछ ऐसा है ? गांधी जी की कोई वसीयत है ? मुसलमान स्त्री बुर्का क्यों पहनती हैं ? हिंदू दुल्हन घूंघट क्यों काढ़ती हैं ? किसी-किसी दफ्तर में खास तरह की टाई क्यों लगाते हैं ? अदालतों में जज साहब और वकील साहब काला लबादा क्यों पहनते हैं ? उफ., ये फेहरिश्त तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है और मैं अपनी बात शुरू ही नहीं कर पा रहा हूं। शायद मैं कहना चाहता हूं कि कपड़ा अपनी पसंद का पहनने की आजादी हो ? शायद मैं यह नहीं कहना चाहता हूं कि कपड़ा अपनी पसंद का पहनने की आजादी हो ? शायद मैं यह कहना चाहता हूं कि अपनी पसंद का कपड़ा पहनने की आजादी हो लेकिन यह आजादी एक तरफा न हो ? कि कोई चाहे तो कपड़ा पहने और न चाहे तो कपड़ा ही न पहने और सड़क पर ऐसे ही घूमे ?
शायद मैं यह कहना चाहता हूं कि अपनी पसंद का कपड़ा पहनने की आजादी तो हो लेकिन कितना कम कपड़ा पहनें या कितना अधिक कपड़ा पहनंे इस पर देशभर में एक कपड़ा विमर्श शुरू किया जाय ? कपड़ा भी कविकर्म का जरूरी हिस्सा है। कई कविताओं में सौंदर्य को अधखुला रखने की बात की गयी है। कुछ खुला हो, कुछ ढ़ंका हो ? क्या पुरुष अपना बदन अधिक खोल कर चलते है ? क्या वे सीने के बाल दिखाते हुए घूमते हैं ? क्या फिल्म के हीरो भी बाहर अपनी बॉडी का प्रदर्शन करते हैं ? या सिर्फ फिल्मों में ही ऐसा करते हैं ? कहना तो यह भी चाहता हूं कि वे फिल्मों में ऐसा क्यों करते हैं ? कौन है जो उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करता है ? या पैसे के लिए ऐसा करते हैं ? कौन हैं जिनसे उन्हें इस काम के लिए पैसे मिलते हैं ? फिल्म में स्त्ऱी-पुरुष सभी कलाकार पैसे के लिए ऐसा क्यों कर रहे हैं ? यह भी एक बड़ा सवाल है ? फिल्म ही नहीं, विज्ञापन और पत्रकारिता, क्या सब इस पैसे के धंधे में शामिल नहीं हैं ? हैं, हैं सौ फीसदी हैं। तो शायद मैं कह रहा था कि कौन है जो तय करेगा कि कैसी फिल्में बनें ? कैसे धारावाहिक टीवी पर आयें ? कैसे विज्ञापन हों ? अखबारों पर या टीवी पर अश्लील चित्र या विज्ञापन न दिखें ? सरकार का क्या काम है ? सरकार की क्या जरूरत है ? साहित्य क्यों हो ? बुद्धिजीवी और लेखक जी लोग नित्य विचारक या छींकवादी विमर्शकार क्यों हों ? बात-बेबात मिनट-मिनट पर असंख्य बेवकूफियां ? काम की बात क्यों नहीं ? पहले पुलिस ही सही होगी नेताजी बाद में सही होंगे ? नेताजी ही पहले सही होगे, लेखक जी बाद में सही होगे ? पत्रकार जी भी लेखक जी लोंगे के साथ ही होते हैं। लेखक जी भ्रष्टाचार करें तो सब चुप ? पत्रकार जी भ्रष्टाचार करें तो सब चुप ? नेताजी और पुलिस जी पर भिड़ जायेंगे सब ? पुलिस भी जनता की सुरक्षा के लिए है या नेताओं की सुरक्षा के लिए ? इस देश में पूंजीवाद से कम बड़ा खतरा वी.आई.पी वाद है ? वी.आई.पी. पूंजीवाद के दांत, आंख, कान और नाक नहीं हैं ? इनकी सुरक्षा के भारी-भरकम इंतजाम के खिलाफ बुद्धिजीवी और लेखक कब बोलेंगे ? बहरहाल मैं शायद कुछ और कह रहा था। क्या कह रहा था....जरा याद दिलाइएगा....
हां, शायद मैं कपड़ा विमर्श पर कुछ कह रहा था... शायद कपड़ा विमर्श कर रहा था... नहीं-नहीं, विमर्श तो नित्य विचारक करते हैं। मैं तो सिर्फ अपनी बात कह रहा था। हां, सवालों की कतार में या कह लें कि जाम में फंसा हुआ हूं...कौन तय करेगा कि हम क्या पहने और क्या न पहने ? हम खुद या हमारे मां-बाप या हमारे शुभेच्छु ? कपड़ा तो कपड़ा साहब रंग तक तय कर दिये जाते हैं कि आप लाल रंग कर इस्तेमाल नहीं करेंगी...
‘वे जानते और मानते थे, बेशक
तमाम मुल्कों की बागडोर संभाल सकती थीं
औरतें
फतह कर सकती थीं सागरमाथा
लिख सकती थीं अच्छी कविताएँ
सोच सकती थीं दुनिया के बारे में
खूब,
एक अपने बारे में नहीं।
यही ऊपर का हुक्म था
ऐसा ही वे सोचते, जानते और मानते थे।
वे जानते और मानते थे, अच्छा नहीं होता
औरतों का इस तरह रंगों से मेलजोल।
क्रूर प्रतिबंध और नियम की धार से
वे खुरच देना चाहते थे
औरतों के शरीर से
पहनावे और उनके जीवन से
लाल, हरे, पीले, नारंगी जैसे
चटकीले रंग।
वे थे तो बड़े ताकतवर
बहुत कुछ कर सकते थे
बैठे-बैठे कुछ भी बदल सकते थे
अच्छे खासे आदमी को भेंड़
और भेंड़ को आदमी कर सकते थे।
बस शरीर के भीतर का रंग नहीं बदल सकते थे
वह, जो बहता चला आया था
शुरू से उन औरतों के शरीर में
उसी तरह लाल चटक। ’
(यह दुनिया-2)
सवाल यह है कि ऐसा करने वाले या ऐसा चाहने वाले क्रूर और धर्मांध लोगों के अज्ञान का विकल्प क्या है ? क्या पहनावे की बंदिश का जवाब कुछ भी न पहनना या शरीर के उभार वाले हिस्सों को दिखाने वाले तंग कपड़े पहनना है ? क्या अज्ञान, अप्रगतिशीलता और अवैज्ञानिकता का विकल्प फैशन है ? फैशन, क्या विज्ञान और क्रांति है ? फैशन क्या अश्लीलता है ? अश्लीलता क्या आधुनिक विचार है ? आधुनिकता और वैज्ञानिकता क्या अंगरखे से तय होने वाली चीज है ? पुलिस की वर्दी में शर्ट और पैंट पहन कर मोटरसाइकिल चलाती हुई बेटियों में अश्लीलता क्यों नहीं दिखती है ? जींस पहनना भी उस समय बुरा नहीं लगता है, जब वह तंग नहीं होता है। लेकिन तंग जींस या ऐसा कोई भी कपड़ा बस जरा-सा ढ़ीला करके बनवाने से हमारी आधुनिकता खतरे में पड़ जायेगी ? हम सोलहवीं सदी में पहुंच जायेंगे ? अज्ञानियों और धर्मांध लोगों का जवाब आंख मूंद कर देना कतई बुद्धिमानी नहीं है। गांधी आश्रम के कपड़े पर कहीं- कहीं गांधी जी के हवाले से लिखा होता था कि ‘‘खादी वस्त्र नहीं विचार है’’ क्या आज उसके जवाब में हम कह सकते हैं कि तंग कपड़े वस्त्र नहीं, विचार हैं ? गांधी जी कम कपड़े पहनते थे तो क्या आज बच्चों को यह जानने की जरूरत नहीं है कि वे ऐसा किसी फैशन की वजह से करते थे या इस विचार की वजह से कि शेष भारतीयों को भी तन ढ़कने के लिए वस्त्र मिले ? क्या आज कम कपड़ा पहनने या भद्दा लगने वाला कपड़ा पहनने का चलन किसी फैशन इत्यादि की वजह से है या देश और समाज से जुड़े किसी अच्छे विचार की वजह से ? क्या यह देखने की जरूरत नहीं है कि इसमें कोई अज्ञान या कुविचार तो नहीं है ? बातें काफी की जा सकती हैं। पर यहां न तो किसी का दिल दुखाना उद्देश्य है न किसी को छोटा बनाना। पर यह कहना चाहता हूँ कि बातें जो भी सामने हों उनका तर्कसंगत विश्लेषण जरूर करना चाहिए। तर्क ही वह पथ है जो हमें अधिक आधुनिक, अधिक प्रगतिशील बनाता है। अंत में कहना चाहूँगा कि बच्चों के कपड़ों पर बेशक बात कीजिए, पर जरा इस लोकतंत्र के कपड़ों पर भी गौर करें और देखें कि कहीं लोकतंत्र के शरीर पर कोई कपड़ा है या नहीं ? क्या इस तंत्र को चलाने वालों ने इसे पूरा अश्लील नहीं बना दिया है ? यह नहीं कहूँगा कि इस बात पर विचार करें कि ऐसे लोकतंत्र को अंगरखे की जरूरत ज्यादा है या कफन की ? काश, कफन कहानी कोई फिर से लिखता !
किसी शव को कफन की क्या जरूरत हैै ? दूसरा सवाल यह कि शव खुद यह तय करता है कि उसे कितना और कौन-सा कफन चाहिए ? तीसरा सवाल यह कि क्या उसके घरवाले या रिश्तेदार यह तय करते हैं ? चौथा सवाल यह कि क्या कि कुछ लोगों का समूह या कोई वृहत्तर मूर्त या अमूर्त समाज यह तय करता है ? पांचवां सवाल कि समाज नाम की किस काल की संस्था ने कफन का मौजूदा रूप तय किया है ? छठा सवाल यह कि स्त्री और पुरुष दोनों के कफन एक जैसे क्यों तय किये गये ? सातवां सवाल यह कि हिंदू धर्माचार्यों का कारनामा है यह सब कि कुछ और ?
दरअसल यह सब जो कह रहा हूं वह नहीं कहना है। यह तो बस ऐसे ही सुविधा के लिए कह रहा हूं। कहना यह कि हम अंगरखा हमेशा अपनी पसंद का पहनते हैं या कभी-कभी घरवालों की पसंद का भी ? बचपन में तो शायद सब मां-पिता, दादा-दादी, बुआ-दीदी, नाना-नानी,मामा-मामी आदि की पसंद का पहनते हैं ? क्यों ? हां-हां भाई क्यों ? उस समय विचार का कोई संकट क्यों नहीं पैदा होता है ? आधुनिकता या प्रगतिशीलता खतरे में क्यों नहीं क्यों नहीं होती है ? उस समय भी यह खतरा नहीं दिखता है, जब कोई बच्चा आग छूने की जिद करता है ?
स्कूल-कालेज में वहां का प्रशासन यूनीफार्म क्यों तय करता है ? सेना या पुलिस आदि की वर्दी क्यों तय की गयी है ? किसी समाज ने तय किया है ? किसी धर्माचार्य ने तय किया है ? हमारे यहां नेताजी लोगों की वर्दी खद्दर का कुर्ता-पाजामा क्यों है ? किसने तय किया है ? संविधान में कुछ ऐसा है ? गांधी जी की कोई वसीयत है ? मुसलमान स्त्री बुर्का क्यों पहनती हैं ? हिंदू दुल्हन घूंघट क्यों काढ़ती हैं ? किसी-किसी दफ्तर में खास तरह की टाई क्यों लगाते हैं ? अदालतों में जज साहब और वकील साहब काला लबादा क्यों पहनते हैं ? उफ., ये फेहरिश्त तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है और मैं अपनी बात शुरू ही नहीं कर पा रहा हूं। शायद मैं कहना चाहता हूं कि कपड़ा अपनी पसंद का पहनने की आजादी हो ? शायद मैं यह नहीं कहना चाहता हूं कि कपड़ा अपनी पसंद का पहनने की आजादी हो ? शायद मैं यह कहना चाहता हूं कि अपनी पसंद का कपड़ा पहनने की आजादी हो लेकिन यह आजादी एक तरफा न हो ? कि कोई चाहे तो कपड़ा पहने और न चाहे तो कपड़ा ही न पहने और सड़क पर ऐसे ही घूमे ?
शायद मैं यह कहना चाहता हूं कि अपनी पसंद का कपड़ा पहनने की आजादी तो हो लेकिन कितना कम कपड़ा पहनें या कितना अधिक कपड़ा पहनंे इस पर देशभर में एक कपड़ा विमर्श शुरू किया जाय ? कपड़ा भी कविकर्म का जरूरी हिस्सा है। कई कविताओं में सौंदर्य को अधखुला रखने की बात की गयी है। कुछ खुला हो, कुछ ढ़ंका हो ? क्या पुरुष अपना बदन अधिक खोल कर चलते है ? क्या वे सीने के बाल दिखाते हुए घूमते हैं ? क्या फिल्म के हीरो भी बाहर अपनी बॉडी का प्रदर्शन करते हैं ? या सिर्फ फिल्मों में ही ऐसा करते हैं ? कहना तो यह भी चाहता हूं कि वे फिल्मों में ऐसा क्यों करते हैं ? कौन है जो उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करता है ? या पैसे के लिए ऐसा करते हैं ? कौन हैं जिनसे उन्हें इस काम के लिए पैसे मिलते हैं ? फिल्म में स्त्ऱी-पुरुष सभी कलाकार पैसे के लिए ऐसा क्यों कर रहे हैं ? यह भी एक बड़ा सवाल है ? फिल्म ही नहीं, विज्ञापन और पत्रकारिता, क्या सब इस पैसे के धंधे में शामिल नहीं हैं ? हैं, हैं सौ फीसदी हैं। तो शायद मैं कह रहा था कि कौन है जो तय करेगा कि कैसी फिल्में बनें ? कैसे धारावाहिक टीवी पर आयें ? कैसे विज्ञापन हों ? अखबारों पर या टीवी पर अश्लील चित्र या विज्ञापन न दिखें ? सरकार का क्या काम है ? सरकार की क्या जरूरत है ? साहित्य क्यों हो ? बुद्धिजीवी और लेखक जी लोग नित्य विचारक या छींकवादी विमर्शकार क्यों हों ? बात-बेबात मिनट-मिनट पर असंख्य बेवकूफियां ? काम की बात क्यों नहीं ? पहले पुलिस ही सही होगी नेताजी बाद में सही होंगे ? नेताजी ही पहले सही होगे, लेखक जी बाद में सही होगे ? पत्रकार जी भी लेखक जी लोंगे के साथ ही होते हैं। लेखक जी भ्रष्टाचार करें तो सब चुप ? पत्रकार जी भ्रष्टाचार करें तो सब चुप ? नेताजी और पुलिस जी पर भिड़ जायेंगे सब ? पुलिस भी जनता की सुरक्षा के लिए है या नेताओं की सुरक्षा के लिए ? इस देश में पूंजीवाद से कम बड़ा खतरा वी.आई.पी वाद है ? वी.आई.पी. पूंजीवाद के दांत, आंख, कान और नाक नहीं हैं ? इनकी सुरक्षा के भारी-भरकम इंतजाम के खिलाफ बुद्धिजीवी और लेखक कब बोलेंगे ? बहरहाल मैं शायद कुछ और कह रहा था। क्या कह रहा था....जरा याद दिलाइएगा....
हां, शायद मैं कपड़ा विमर्श पर कुछ कह रहा था... शायद कपड़ा विमर्श कर रहा था... नहीं-नहीं, विमर्श तो नित्य विचारक करते हैं। मैं तो सिर्फ अपनी बात कह रहा था। हां, सवालों की कतार में या कह लें कि जाम में फंसा हुआ हूं...कौन तय करेगा कि हम क्या पहने और क्या न पहने ? हम खुद या हमारे मां-बाप या हमारे शुभेच्छु ? कपड़ा तो कपड़ा साहब रंग तक तय कर दिये जाते हैं कि आप लाल रंग कर इस्तेमाल नहीं करेंगी...
तमाम मुल्कों की बागडोर संभाल सकती थीं
औरतें
फतह कर सकती थीं सागरमाथा
लिख सकती थीं अच्छी कविताएँ
सोच सकती थीं दुनिया के बारे में
खूब,
एक अपने बारे में नहीं।
यही ऊपर का हुक्म था
ऐसा ही वे सोचते, जानते और मानते थे।
वे जानते और मानते थे, अच्छा नहीं होता
औरतों का इस तरह रंगों से मेलजोल।
क्रूर प्रतिबंध और नियम की धार से
वे खुरच देना चाहते थे
औरतों के शरीर से
पहनावे और उनके जीवन से
लाल, हरे, पीले, नारंगी जैसे
चटकीले रंग।
वे थे तो बड़े ताकतवर
बहुत कुछ कर सकते थे
बैठे-बैठे कुछ भी बदल सकते थे
अच्छे खासे आदमी को भेंड़
और भेंड़ को आदमी कर सकते थे।
बस शरीर के भीतर का रंग नहीं बदल सकते थे
वह, जो बहता चला आया था
शुरू से उन औरतों के शरीर में
उसी तरह लाल चटक। ’
(यह दुनिया-2)
सवाल यह है कि ऐसा करने वाले या ऐसा चाहने वाले क्रूर और धर्मांध लोगों के अज्ञान का विकल्प क्या है ? क्या पहनावे की बंदिश का जवाब कुछ भी न पहनना या शरीर के उभार वाले हिस्सों को दिखाने वाले तंग कपड़े पहनना है ? क्या अज्ञान, अप्रगतिशीलता और अवैज्ञानिकता का विकल्प फैशन है ? फैशन, क्या विज्ञान और क्रांति है ? फैशन क्या अश्लीलता है ? अश्लीलता क्या आधुनिक विचार है ? आधुनिकता और वैज्ञानिकता क्या अंगरखे से तय होने वाली चीज है ? पुलिस की वर्दी में शर्ट और पैंट पहन कर मोटरसाइकिल चलाती हुई बेटियों में अश्लीलता क्यों नहीं दिखती है ? जींस पहनना भी उस समय बुरा नहीं लगता है, जब वह तंग नहीं होता है। लेकिन तंग जींस या ऐसा कोई भी कपड़ा बस जरा-सा ढ़ीला करके बनवाने से हमारी आधुनिकता खतरे में पड़ जायेगी ? हम सोलहवीं सदी में पहुंच जायेंगे ? अज्ञानियों और धर्मांध लोगों का जवाब आंख मूंद कर देना कतई बुद्धिमानी नहीं है। गांधी आश्रम के कपड़े पर कहीं- कहीं गांधी जी के हवाले से लिखा होता था कि ‘‘खादी वस्त्र नहीं विचार है’’ क्या आज उसके जवाब में हम कह सकते हैं कि तंग कपड़े वस्त्र नहीं, विचार हैं ? गांधी जी कम कपड़े पहनते थे तो क्या आज बच्चों को यह जानने की जरूरत नहीं है कि वे ऐसा किसी फैशन की वजह से करते थे या इस विचार की वजह से कि शेष भारतीयों को भी तन ढ़कने के लिए वस्त्र मिले ? क्या आज कम कपड़ा पहनने या भद्दा लगने वाला कपड़ा पहनने का चलन किसी फैशन इत्यादि की वजह से है या देश और समाज से जुड़े किसी अच्छे विचार की वजह से ? क्या यह देखने की जरूरत नहीं है कि इसमें कोई अज्ञान या कुविचार तो नहीं है ? बातें काफी की जा सकती हैं। पर यहां न तो किसी का दिल दुखाना उद्देश्य है न किसी को छोटा बनाना। पर यह कहना चाहता हूँ कि बातें जो भी सामने हों उनका तर्कसंगत विश्लेषण जरूर करना चाहिए। तर्क ही वह पथ है जो हमें अधिक आधुनिक, अधिक प्रगतिशील बनाता है। अंत में कहना चाहूँगा कि बच्चों के कपड़ों पर बेशक बात कीजिए, पर जरा इस लोकतंत्र के कपड़ों पर भी गौर करें और देखें कि कहीं लोकतंत्र के शरीर पर कोई कपड़ा है या नहीं ? क्या इस तंत्र को चलाने वालों ने इसे पूरा अश्लील नहीं बना दिया है ? यह नहीं कहूँगा कि इस बात पर विचार करें कि ऐसे लोकतंत्र को अंगरखे की जरूरत ज्यादा है या कफन की ? काश, कफन कहानी कोई फिर से लिखता !
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