- गणेश पाण्डेय
(1)
जनता
सरकार बनाती ज़रूर थी
बनाए बिना मानती नहीं थी
लेकिन
बन जाने के बाद वह सरकार
जनता की क्यों नहीं रह पाती थी
आखि़र
वह कौन बीच में आ जाता था
जिसके साथ सरकार हर बार भाग जाती थी
बेचारी
जनता हाथ मलती रह जाती थी
दिन-रात बच्चों के बारे में सोच-सोच कर
हलकान होती रहती थी
गऊ जैसी सीधी-सादी जनता कर भी क्या सकती थी
जो जिधर कहे अपनी सरकार ढूँढने चली जाती थी
किसी माई के थान पर किसी पीर-मुर्शिद के पास कहीं भी
और थक-हार कर वापस अपनी बस्ती में लौट आती थी।
(2)
जनता
कोई एक थोड़े थी
कई शक्लों और कद-काठी में बँटी हुई थी
पहले का मुँह सबसे बड़ा था हिंदू था
दूसरा मुसलमान था तीसरा सिख था
चौथा ईसाई था पाँचवाँ घमंजा था
और इनकी सरकारें आवारा थीं
तरह-तरह के लिबास पहनती थीं
इत्र लगाती थीं गहने गढ़ाती थीं
किसी के भी साथ कभी भी भाग जाती थीं
कभी हिंदू की सरकार भाग जाती थी
तो कभी मुसलमान की कभी किसी की
सरकार मुँह अँधेरे भी भागती थी
तो कभी दिन दहाड़े भी भागती थी
जब सरकार भाग जाती थी
तो जनता के मुँहों से हवाईयाँ उड़ जाती थीं
जैसे यह सब
उसके साथ पहली बार हो रहा हो
जबकि उसके साथ हर बार यही होता था
पहले से उसके राजनीतिक भाग्य में लिखा होता था
सरकार भागेगी तो कुछ दिन जनता रोये-धोयेगी
और जगह-जगह सरकार को ढूँढने के बाद
अंत में रपट लिखाने थाने पर जाएगी।
(3)
इतना बड्डा
हुजूम देखकर
थानेदार की भौंहें फड़कने लगी थीं
कड़क आवाज़ में पूछा क्या माज़रा है,
हिंदू ने कहा हुज़ूर मेरी वाली भाग गयी
मुसलमान ने कहा मेरी वाली भाग गयी
फिर औरों ने भी कहा मेरी वाली भाग गयी
थानेदार ने झल्लाकर कहा -
अबे कुल कितनी भैंसें भाग गयीं
सबकी भैंसे एक साथ भागीं या भगायी गयीं
- नहीं, नहीं थानेदार साहब
भैंस नहीं हमारी सरकारें भाग जाती हैं
उनके भागने-भगाने की रपट दर्ज़ करो
थानेदार ने रोबीली आवाज़ से हड़काया -
क्या मैं तुम्हें पागल दिखता हूँ
अरे गधो सरकारें भी कहीं भागती हैं
हा हा हा हो हो हो
भागो यहाँ से तुम सब
भाँग खाकर आये या गाँजा पीकर
ऐसी सरकारें बनाते ही क्यों हो
जो किसी भी अड्डे-बड्डे के संग भाग जाएँ।
(4)
पुरानी-धुरानी
हवेली उदास थी
कनीज़ की कनीज़ दिखती
कनीज़ चमेली उदास थी
फटेहाल नवाब साहब उदास थे
तबलची उदास थे गवैये उदास थे
नचनिये-पदनिये उदास थे मतलब
हिंदी के कबी-सबी अम्पादक-संपादक
और अफ़सानानिगार वगैरह सारे
इनामी-सुनामी सब उदास थे
चाँदनी रात और सुरमई शाम
और सुर्ख़ आफ़ताब सब उदास थे
राजनीति की इस उदासी पर लिखी जा रही
कविताएँ उदास थीं कहानियाँ उदास थीं
दिन उदास था उजाला उदास था
चाय का प्याला और रसरंजन का गिलास
सब उदास था
बहत्तर साल से ढहती हुई हवेली उदास थी
यहाँ तक कि उदासी भी उदास थी
हम सबकी बेग़म सरकार
किसी साहूकार के साथ भाग गयी थीं।
(5)
जिन सरकारों को
जनता के साथ घर बसाकर रहना नहीं आता
तो बनती ही क्यों हैं इंकार क्यों नहीं कर देतीं
शुरू में ही कह क्यों नहीं देतीं
कि हमें मुँह दिखाई में चंद्रहार चाहिए
हमें रहने के लिए सोने के लिए
अच्छे से अच्छा सोने का महल चाहिए
नये ज़माने का एंटीलिया-फेंटीलिया से भी शानदार चाहिए
दूल्हा तो सबसे अमीर चाहिए खानदान आला चाहिए
किसी चिरकुट निरहुआ घिरहुआ के साथ
उसकी टप-टप चूती झोपड़ी में नहीं रहना है।
(6)
यही वक़्त था सही वक़्त था
जब पुलिस की नाकामी के बाद
जासूस तिरलोकचन को लाया गया
जासूस ने अपना हैट उतारा
सिर खुजलाया आँखे मिचकाया
और बताया-
इसी सरकारी बंगले से
इसी वजीर की कोठी फाँदकर
इसी चोर रास्ते से इसी सुरंग से
इसी आँख में पट्टी बंधी हुई
किताब से मुँह छिपाकर
सरकारें भागती रहती हैं
जासूस तिरलोकचन ने
ऐलान किया था कि उन्होंने
भागी हुई सरकारों के बारे में
सब पता कर लिया है
कौन हैं जो ऐसी मनचली सरकारों को
भगाकर ले जाते हैं और ऐश करते हैं
ऐसे लोगों के खि़लाफ़ सारे सबूत हैं
सारे गवाह हैं मुकम्मल तैयारी है
हम इन्हें गिरफ़्तार कर सकते हैं
हम इन्हें हमेशा के लिए
सलाखों के पीछे डाल सकते हैं
जासूस तिरलोकचन ने
जनता की ओर देखा अपना हैट उतारा
पीठ पर हाथ ले जाकर सिर झुकाया
और अतिविनम्रता से कहा-
बस एक बार ढंग से
जनता का साथ देने वाली
सरकार आ जाय।
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