- गणेश पाण्डेय
(एक)
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जब किसी ने नहीं सुनी मेरी बात
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जब किसी ने
नहीं सुनी मेरी बात
तो आखिर मैं क्या करता
उन हंसी-ठट्ठा करते लोगों के बीच
खुद को बचाने के लिए मुझे
अलग होना ही था हुआ।
(दो)
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कितनी देर तक विनती करता
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कहां-कहां
किसके पास कितनी देर तक
विनती करता
सब पत्थर की चलती-फिरती
हंसती-बोलती नाचती-गाती
और काव्यपाठ करती मूर्ति थे
सब समय की बहती हुई धारा के
कण थे मृत पशु थे अस्थि थे
मानव-शव थे
कोई सुनता ही नहीं मेरी बात
पता नहीं क्या टेढ़ा था मेरा मुंह
कि मेरी बात
जैसे उनके लिए
मैं था फिर भी नहीं था
जैसे मैं कोई अदृश्य चीज था
हवा होता तो महसूस करते
उड़नतश्तरी होता तो देख लेते
शायद मैं उनके लिए बीता समय था
मैंनै चुपचाप अपना
कुछ सामान बोरिया-बिस्तर समेटा
और उस जगह से बाहर हो गया।
(तीन)
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शर्म से पानी-पानी हुआ
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तमाम लोग
बड़ी-बड़ी जगहों से
बाहर कर दिए जाते हैं
लेकिन उन्हें शर्म नहीं आती
कितना नासमझ हूं
उन जगहों की तुच्छ बातों को देखकर
मैं खुद ही शर्म से पानी-पानी हुआ खूब
और बिना देर किये बाहर आ गया।
(चार)
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मेरी उंगली और सभाध्यक्ष की आंख
-----------------------------------------
मैं सोचता था
कि मेरी उठी हुई उंगली की ओर
सभाध्यक्ष देखेंगे और सुधार लेंगे
अपनी बात
लेकिन उन्हें
झूठ बोलने की इतनी जल्दी थी
कि अपनी आंखें निकालकर
जेब में रख लीं
ओह मैं
बहुत से बहुत शर्मिन्दा हुआ
अपना सिर और उंगली झुकाकर
सभागार से बाहर आ गया।
(पांच)
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हिंदीघर से मुझे बाहर फेंक दिया
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मुझे
हर ऐसी-वैसी बात पर
छींकने की बीमारी हो गयी थी
और उन्हें वह सब करने की आदत थी
मैं अपनी नाक को
बहुत समझाता था कि बस भी करो
लेकिन मेरी नाक पर मेरा वश नहीं था
आखिर वही हुआ जिसका डर था
किसी ने मेरी नाक किसी ने कान
किसी ने हाथ किसी ने पैर खींचा जोर से
और मेरे बाप-दादा-परदादा के बनाए
उस हिन्दीघर से मुझे बाहर फेंक दिया।
(एक)
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जब किसी ने नहीं सुनी मेरी बात
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जब किसी ने
नहीं सुनी मेरी बात
तो आखिर मैं क्या करता
उन हंसी-ठट्ठा करते लोगों के बीच
खुद को बचाने के लिए मुझे
अलग होना ही था हुआ।
(दो)
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कितनी देर तक विनती करता
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कहां-कहां
किसके पास कितनी देर तक
विनती करता
सब पत्थर की चलती-फिरती
हंसती-बोलती नाचती-गाती
और काव्यपाठ करती मूर्ति थे
सब समय की बहती हुई धारा के
कण थे मृत पशु थे अस्थि थे
मानव-शव थे
कोई सुनता ही नहीं मेरी बात
पता नहीं क्या टेढ़ा था मेरा मुंह
कि मेरी बात
जैसे उनके लिए
मैं था फिर भी नहीं था
जैसे मैं कोई अदृश्य चीज था
हवा होता तो महसूस करते
उड़नतश्तरी होता तो देख लेते
शायद मैं उनके लिए बीता समय था
मैंनै चुपचाप अपना
कुछ सामान बोरिया-बिस्तर समेटा
और उस जगह से बाहर हो गया।
(तीन)
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शर्म से पानी-पानी हुआ
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तमाम लोग
बड़ी-बड़ी जगहों से
बाहर कर दिए जाते हैं
लेकिन उन्हें शर्म नहीं आती
कितना नासमझ हूं
उन जगहों की तुच्छ बातों को देखकर
मैं खुद ही शर्म से पानी-पानी हुआ खूब
और बिना देर किये बाहर आ गया।
(चार)
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मेरी उंगली और सभाध्यक्ष की आंख
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मैं सोचता था
कि मेरी उठी हुई उंगली की ओर
सभाध्यक्ष देखेंगे और सुधार लेंगे
अपनी बात
लेकिन उन्हें
झूठ बोलने की इतनी जल्दी थी
कि अपनी आंखें निकालकर
जेब में रख लीं
ओह मैं
बहुत से बहुत शर्मिन्दा हुआ
अपना सिर और उंगली झुकाकर
सभागार से बाहर आ गया।
(पांच)
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हिंदीघर से मुझे बाहर फेंक दिया
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मुझे
हर ऐसी-वैसी बात पर
छींकने की बीमारी हो गयी थी
और उन्हें वह सब करने की आदत थी
मैं अपनी नाक को
बहुत समझाता था कि बस भी करो
लेकिन मेरी नाक पर मेरा वश नहीं था
आखिर वही हुआ जिसका डर था
किसी ने मेरी नाक किसी ने कान
किसी ने हाथ किसी ने पैर खींचा जोर से
और मेरे बाप-दादा-परदादा के बनाए
उस हिन्दीघर से मुझे बाहर फेंक दिया।
गणेश पाण्डेय हिंदी के वे कवि आलोचक हैं जिनका कि ,अब तक का कोई अनुबंध नहीं है ! यह अवश्य है कि वे हिंदी की खाते हैं , हिंदी की गाते हैं , उसे ही ओढ़ते हैं और जरूरत पर बिछाते भी हैं नतीजतन न कोई उनकी सुनता है और न वे ही किसी सुनते हैं और एकला चलो रे की उक्ति को चरितार्थ करते सबकी खोज ख़बर लेते उनकी आंखों की किरकिरी बने फिरते हैं । गणेश पाण्डेय की इधर जितनी चिंताएं काव्य रूप में आए हैं सबके सब लोगों के सुख का नहीं अपितु दुख का कारण बना । पाण्डेय को मैं इस समय के जितना जरूरी कवि के रूप में देख रहा हूं उससे भी ज्यादा एक बड़े आलोचक के रूप में देखता हूं । परन्तु यहां उनकी कविताएं है और वे कविताएं जो उन्होंने ज़लालत से ऊपर आकर लिखा । सूकून देता है ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद,इन्द्र जी।
हटाएंजब किसी ने
जवाब देंहटाएंनहीं सुनी मेरी बात
तो आखिर मैं क्या करता
उन हंसी-ठट्ठा करते लोगों के बीच
कहना न होगा कि गणेश पाण्डेय की कविताएं आज के साहित्यिक समाज के विपरीत प्रभाव की कविताएं है और कई कई अर्थों में कवि के लिए आत्मघाती भी । कि वे धार पर खड़े हैं और ललकार रहे हैं या फिर हंसी ठठ्ठा के विदूषकीय प्रवृत्तियों से खुद को अलगा लेते हैं
"
खुद को बचाने के लिए मुझे
अलग होना ही था हुआ।"
धन्यवाद, इन्द्र जी।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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