- गणेश पाण्डेय
बोधि प्रकाशन के ‘स्वर एकादश’ संकलन की वजह से कई कवियों ने खासतौर से ध्यान खींचा है। संकलन में संकलित कवियों के स्वर की विविधता ने ही नहीं, बल्कि तीव्रता ने भी चौंकाया है। इनमें कई ऐसे कवि हैं जो काफी समय से लिख रहे हैं। अलग-अलग अवसरों पर उनकी कविताओं ने पहले भी ध्यान खींचा है। पर यहाँ ठहर कर और एक साथ कई कवियों की रोशनी के बीच देखने पर इनका महत्व बढ़ जाता है। भूमिका में ठीक ही कहा गया है कि इनके स्वर अलग-अलग हैं। हर कवि के स्वर की निजता कविकर्म की बुनियाद है। जो कवि अपने कविता-संसार में अपनी निजता की रक्षा नहीं कर पाते हैं, वे अपनी कविता को नकली कविता की जमात में पहुँचा देते हैं। अच्छे कवि विचारधारा के आग्रह के बावजूद कविताई में अपनी छाप रखते हैं। विचारधारा ही नहीं, संवेदना के स्तर पर भी हर मजबूत कवि अपनी निजता को बचाये रखता है। तभी उसकी कविता नकल होने से बचती है। इस संग्रह की कविताओं में अपने परिवेश के प्रति जो लगाव है, दरअसल वह कवि जीवन का कविता के प्रति स्वाभाविक व्यवहार है। प्रकृति, समाज, रिश्ते, प्रेम इत्यादि से इस संकलन के कवियों की कविता का परिसर बनता है। एक खास बात, अपनी धरती से जुड़ाव की है। इस संकलन के कुछ कवियों में तो लोक संवेदना और काव्य संवेदना के बीच एक झीना-सा आवरण रहता है। कई बार लगता है कि यही कविता की असली दुनिया है। पर दरअसल यह सिर्फ लोक की ताकत नहीं है, लोक को कवि जीवन में जीने की ताकत है। शहरी जीवन पर लिखी तमाम कविताएँ कवि के जीवनानुभव की विपन्नता की वजह से इसीलिए सिर्फ एक काव्य प्रवृत्ति बन कर रह जाती हैं। अपना प्रभाव खो देती हैं। जिन कविताओं में जीवनानुभव की तीव्रता को काव्यानुभव मे बदलने की ईमानदार कोशिश होती है, वे चाहे लोक संवेदना की कविताएँ हों या कस्बाई या शहरी जमीन की, अपनी शक्ति और सौंदर्य का अनुभव कराती हैं। इन कवियों में कई कवि पचास पार के हैं, इसलिए कम से कम मैं उन्हें युवा कवि नहीं कह सकता। उनकी कविताएँ भी कविताई की दृष्टि से युवा कविता से भिन्न हैं। अपनी कविता की बनावट और बुनावट, दोनों स्तरो पर ये प्रभावित करते हैं। मुखातिब होते ही अपनी कविता की बाहों में भर लेते हैं। अपने प्रेम और अपने दर्द, अपने एकांत और अपने संघर्ष का साथी बना लेते हैं।
बोधि प्रकाशन के ‘स्वर एकादश’ संकलन की वजह से कई कवियों ने खासतौर से ध्यान खींचा है। संकलन में संकलित कवियों के स्वर की विविधता ने ही नहीं, बल्कि तीव्रता ने भी चौंकाया है। इनमें कई ऐसे कवि हैं जो काफी समय से लिख रहे हैं। अलग-अलग अवसरों पर उनकी कविताओं ने पहले भी ध्यान खींचा है। पर यहाँ ठहर कर और एक साथ कई कवियों की रोशनी के बीच देखने पर इनका महत्व बढ़ जाता है। भूमिका में ठीक ही कहा गया है कि इनके स्वर अलग-अलग हैं। हर कवि के स्वर की निजता कविकर्म की बुनियाद है। जो कवि अपने कविता-संसार में अपनी निजता की रक्षा नहीं कर पाते हैं, वे अपनी कविता को नकली कविता की जमात में पहुँचा देते हैं। अच्छे कवि विचारधारा के आग्रह के बावजूद कविताई में अपनी छाप रखते हैं। विचारधारा ही नहीं, संवेदना के स्तर पर भी हर मजबूत कवि अपनी निजता को बचाये रखता है। तभी उसकी कविता नकल होने से बचती है। इस संग्रह की कविताओं में अपने परिवेश के प्रति जो लगाव है, दरअसल वह कवि जीवन का कविता के प्रति स्वाभाविक व्यवहार है। प्रकृति, समाज, रिश्ते, प्रेम इत्यादि से इस संकलन के कवियों की कविता का परिसर बनता है। एक खास बात, अपनी धरती से जुड़ाव की है। इस संकलन के कुछ कवियों में तो लोक संवेदना और काव्य संवेदना के बीच एक झीना-सा आवरण रहता है। कई बार लगता है कि यही कविता की असली दुनिया है। पर दरअसल यह सिर्फ लोक की ताकत नहीं है, लोक को कवि जीवन में जीने की ताकत है। शहरी जीवन पर लिखी तमाम कविताएँ कवि के जीवनानुभव की विपन्नता की वजह से इसीलिए सिर्फ एक काव्य प्रवृत्ति बन कर रह जाती हैं। अपना प्रभाव खो देती हैं। जिन कविताओं में जीवनानुभव की तीव्रता को काव्यानुभव मे बदलने की ईमानदार कोशिश होती है, वे चाहे लोक संवेदना की कविताएँ हों या कस्बाई या शहरी जमीन की, अपनी शक्ति और सौंदर्य का अनुभव कराती हैं। इन कवियों में कई कवि पचास पार के हैं, इसलिए कम से कम मैं उन्हें युवा कवि नहीं कह सकता। उनकी कविताएँ भी कविताई की दृष्टि से युवा कविता से भिन्न हैं। अपनी कविता की बनावट और बुनावट, दोनों स्तरो पर ये प्रभावित करते हैं। मुखातिब होते ही अपनी कविता की बाहों में भर लेते हैं। अपने प्रेम और अपने दर्द, अपने एकांत और अपने संघर्ष का साथी बना लेते हैं।
अग्निशेखर की कविताओं को पहले भी देखने का अवसर मिला है। पर इस बार खास यह कि कोई ग्यारह कवियों की पंक्ति में क्रम ही ऐसा और अच्छा था कि सबसे पहले उन्हें ही देखा। कश्मीर राजनीति में भले ही एक सौदा रहा हो जिसे राजनीति करने वालों ने अपने-अपने नफे-नुकसान के नजरिये से देखा हो, पर साहित्य में कश्मीर को कभी इस नजरिये नहीं देखा गया है। कश्मीर उसी तरह वहाँ के लोगों के लिए जीवन का आधार है जैसे हमारे लिए पूर्वांचल या अवध या दूसरे अंचल। अपनी धरती से लगाव का क्या मतलब है, यह बताने की चीज नहीं है। अपनी धरती से बिछुड़ने का दर्द भी कितना दुख देता है, कहने की बात नहीं। पर जब यह जीवनानुभव कविता का हिस्सा बनता है तो कविता कैसे हमारे अंतस्तल में रच-बस जाती है, कैसे हमारे विचार-स्फुलिंग जाग जाते हैं, कैसे हम एक गहरी बेचैनी से भर उठते हैं, कैसे हम उस दर्द के पहाड़ पर अपना सिर पटक देना चाहते हैं, कैसे हम देर तक स्तब्ध रहते हैं, यह सब एक अच्छी कविता ‘पुल पर गाय’ से पता चलता है-
सब तरफ बर्फ है खामोश
जले हुए हमारे घरों से ऊँचे हैं
निपते पेड़
एक राह-भटकी गाय
पुल से देख रही है
खून की नदी
रंभाकर करती है
आकाश में सुराख
छींकती है जब भी मेरी माँ
यहाँ विस्थापन में
उसे याद कर रही होती है गाय
इतने बरसों बाद भी
नहीं थमी है खून की नदी
उस पार खड़ी है गाय
इस पार है मेरी माँ
और आकाश में
गहराता जा रहा है
सुराख।
दो-दो माँएँ हैं इस कविता में। एक गाय, एक माँ। गाय धरती माँ है। कश्मीर है। जिसके दर्द की आवाज से आकाश में सुराख हो रहा है और बढ़ता ही जा रहा है सुराख। अर्थात दर्द की आवाज और तेज होती जा रही है। कविता इससे आगे कहती यह है, इस विडम्बना से साक्षात्कार कराती है कि आसमान से अमन की जगह हिंसा की बारिश जारी है। गाय माँ की भटकती हुई आत्मा भी बन जाती है। गाय एक हिंदू परिवार की आवाज भी बन जाती है। कई अर्थछवियाँ हैं, इस कविता में। यह कवि की खूबी है कि वह अनेक अर्थछवियों को अस्पष्ट होने से बचाता है। अग्निशेखर की और भी कविताएँ इस संकलन में हैं, दिल्ली में पुश्किन, पीजा, बर्गर और नाजिम हिकमत, बिरसे में गाँव, याद करजा है बच्चा, तेरी डायरियाँ, माली। इन कविताओं में संवेदना की बारीक बुनावट के भीतर विचार का एक कोड़ा भी है, जो हमारे समय के यथार्थ से मुठभेड़ करता है। जैसे अग्निशेखर कश्मीर की जगह जम्मू में हैं, उसी तरह केशव तिवारी प्रतापगढ़ की जगह बाँदा में हैं। पर यह दर्द उतना बड़ा नहीं है। इसलिए कि केशव बाँउा में रह कर भी एक प्रतापगढ़ बना लेते हैं। कहना चाहिए कि बाँदा में रच-बस जाते हैं। वहाँ के लोक का हिस्सा हो जाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि अपने जनपद में नहीं हैं। जहाँ हैं वही उनका जनपद हो जाता है। केशव की कविता में जन के पद की और जनपद की, दोनों की गूँज है। यही बात केशव में मुझे काफी अच्छी लगती है। कई जनवादियों को इधर हिंदी कविता और आलोचना में विलक्षणतावादी होते इतना देखा है कि लगता है कि वे हैं तो शुद्ध विलक्षणतावादी पर अपनी प्रगतिशीलता की दुकान बचाए रखने के लिए संगठनों में शामिल हो गये हैं। वे जनविरोधी भाषा में जनवादी कविताएँ और आलोचना लिखते हैं। कविता और आलोचना के इस अकाल में इधर के कवियों में केशव अच्छे लगते हैं। इसलिए कि जो लिखते हैं, वह जीते हैं। जीवनानुभव के धनी कवि केशव की कुछ कविताओं पर एक छोटे-से नोट पहले भी कह चुका हूँ कि कुछ नये कवि शोर बहुत करते हैं और काम कम। कुछ कवि चुपचाप अपना काम करते हैं। शयद ऐसे ही कवि हैं केशव तिवारी। केशव की कविताओं से मिलकर बहुत अच्छा लगा। हमारे समय और जीवन और खासतौर से लोकजीवन की भूमि पर रची साफ-सुथरी कविताएँ भला किसे अच्छी नहीं लगेंगी। केशव की कविताएँ इसलिए भी अच्छी लगती हैं कि इनमें जीवन की सहजता और लय की तरह कविता का जीवन भी बहुत सहज और आत्मीय है। केशव के लोक की एक बड़ी विशेषता है कि केशव का लोक अपने परिसर का विस्तार करता है। अपने अंचल से बाहर जहाँ-जहाँ लोक है, लोक के जन हैं सब केशव की कविता में रच-बस जाते हैं। जीवन जहाँ भी है, सुख-दुख की डोर के बीच तना है। ‘कल रात’ का छत्तीसगढ़िया मजदूर भी केशव की कविता की आत्मा का सहचर बन जाता है-
‘सोचता हूँ जैसे मैं अवध
और बुदेलखण्ड को चाहता हूँ
मेवाती मेवात को
भेजपुरिया भोजपुर को चाहता होगा
क्ल रात बतिया रहा था
दोस्त के ईंट-भट्ठे पर
सपरिवार काम करने आये एक छत्तीसगढ़िया मजदूर से
वह शराब में डूबा बता रहा था अपने लोगों की बदमाशी
कैसे अपने ही लोगों ने लिखाया झूठा मुकदमा
सयानी होती बिटिया पर कसे छींटे
कई-कई बार बोला वह
एक रोटी खाकर भी न छोड़ता देश
रोटी ही नहीं ये वजहें भी थीं सब छोड़ने की
बोला सालों से नहीं गया दुर्ग और न जाना चाहता है
चलते-चलते मैंने कहा-
कल में जा रहा हूँ दुर्ग
तुम भी तो पाटन के लिए उतरते होगे वहीं
जाने क्या छुपा था उसकी
नाराज आँखों के बीच
कि अचानक छलकने लगा बाहर
शराब के नशे में शिथिल
उदास आखों को इस तरह रोते मैंने
देखा पहली बार।’
इस कविता में एक लोकमन को ही नहीं, कवि की आत्मा के साथ अपनी आत्मा को भी रोते हुए देख रहा हूँ। मजदूर तो कविता के भीतर रो रहा है। हम बाहर। यह कविता की ताकत है। कश्मीर कहाँ नहीं हैं। जुल्म ढ़ाने वाले कहाँ नहीं हैं। कभी रोटी की वजह से तो कभी बेदखल करने की वजह से, विस्थापन कर क्रम चलता रहता है। जीवन का यह क्रम हर जगह है। लेकिन सच्चाई यह कि हम जहाँ जाते हैं और जिन्दगी के बीस-तीस साल गुजारते हैं, वह जगह हमारी भी हो जाती है। हम उस जगह के हो जाते हैं। स्वर एकादश में केशव की कुछ और अच्छी कविताएँ हैं-दिल्ली में एक दिल्ली यह भी, रातों में कभी-कभी रोती थी मरचिरैया, बिसेसर। सभी कविताएँ अच्छी हैं। सब के बारे में कहने का न तो अवकाश नहीं हैं। अग्निशेखर और केशव तिवारी के बाद बाकी कवियों में जिन कवियों ने ध्यान खींचा है, बिना क्रम के मैं उनके नाम लेना चाहूँगा। कवि की उम्र का कविता के अच्छे होने या यादगार होने से कोई संबंध नहीं है। मुझे अच्छा यह लगा कि हिंदी की पारंपरिक शिक्षा न लेने वाले कई कवि जिन्होंने इतर विषयों में डिग्री ली है, उनकी कविताएँ पानी की तरह तरल, सहज और सरल हैं। इतनी पारदर्शी और इतनी कोमल कि पूछिए मत। सीधे हृदय को छू जाती है। इन कवियों में सबको एक जैसे महत्व का कह पाना मेरे लिए मुश्किल है। कविताएँ सभी कवियों की अच्छी हैं, पर मेरे लिए सभी कवियों की सभी कविताओं को उल्लेख के लिए पसंद कर पाना मुश्किल है। संतोष चतुर्वेदी, महेश पुनेठा, भरत प्रसाद, सुरेश सेन निशांत, राज्यवर्द्धन, राजकिशोर राजन और कमल जीत चौधरी की कुछ कविताएँ काफी पसंद आयीं। जबकि काव्यभाषा की दृष्टि से अधिक ध्यान खींचा है संतोष कुमार चतुर्वेदी, राजकिशोर राजन, महेश पुनेठा और कमलजीत चौधरी ने। अधिक उम्र के कवियों की भाषा तो अच्छी है ही। इसलिए उनका नाम नहीं ले रहा हूँ। पर ध्यान देने की बात यह कि काव्यभाषा अच्छी होने के बावजूद किसी कविता के उल्लेखनीय बनने की और भी वजहें होती हैं। विषय का चुनाव और कविता की बनावट और बुनावट और फिर कविता को एक निश्चित परिणति तक ले जाने का हुनर, इन सब कई बातों पर मेरा ध्यान जाता है। संतोष चतुर्वेदी की कविताओं ने इन्हीं खूबियों की वजह से खासतौर से ध्यान खींचा है। सच तो यह कि इधर हिंदी की पारंपरिक पढ़ाई न करने वाले कई कवियों ने अपनी प्रतिभा और कविता के प्रति दीवानगी की वजह से अच्छा काम किया है या अपनी कविताई के प्रति भरोसा पैदा किया है। संतोष, महेश, राज्यवर्द्धन आदि शायद ऐसे ही रचनाकार हैं। संतोष कुमार चतुर्वेदी की ‘पानी का रंग’ कविता को देखकर मैं दंग था। जैसे एक-एक शब्द से छन कर बह रहा है कविता का पानी। संतोष की कविता का पानी, जीवन का पानी है, सार है, अर्थ है-
‘अनोखा रंग है पानी का
सुख में सुख की तरह उल्लसित होते हुए
दुख में दुख के विषाद से गुजरते हुए
कहीं कोई अलगा नहीं पाता पानी से रंग को
रंग से पानी को कोई छननी छान नहीं पाती
कोई सूप फटक नहीं पाता
और अगर ओसाने की कोशिश की किसी ने
तो खुद ही भीग गया आपादमस्तक.....’
महेश चंद्र पुनेठा की अपनी पहली ही कविता ‘प्रार्थना’ से अपनी कविताई और खासतौर से काव्यसंवेदना के प्रति भरोसा पैदा करते हैं-
‘विपत्तियों से घिरे आदमी का
जब नहीं रहा होगा नियंत्रण परिस्थितियों पर
फूटी होगी उनके कंठ से पहली प्रार्थना
विपत्तियों से उसे बचा पायी हों या नहीं प्रार्थना
पर विपत्तियों ने अवश्य बचा लिया प्रार्थना को।’
पर महेश की कोई आठ कविताओं में मुझे एक नई दुनिया के निर्माण की तैयारी इसलिए ज्यादा अच्छी लगी कि कवि कविता के नये क्षेत्रों में जाने का साहस है। आटा गूँथती स्त्रियों के बहुत से चित्र कविताओं में मिल जायेंगे। पर तेरह बरस के बेटे को आटा गूँथते हुए देखना और उस पूरे प्रसंग में किसी सपने को पकते हुए देखना, देखते बनता है। कविता में इधर नये चरित्रों की मौजूदगी कम हुई है। लेकिन अभी भी कई कवि स्मृतियों के बहाने ही सही जीवन को भासमान करने वाले चरित्रों को लेकर आ रहे हैं। राजकिशोर राजन अपनी पीढ़ी के कवियों में ध्यान खींचते हैं। इस पीढ़ी के कवि सचमुच अच्छा लिख रहे हैं। राजन की ‘सुनैना चूड़ीहारिन’ एक ऐसी ही उम्दा कविता है। राजन का संग्रह भी देख चुका हूँ। संभावनाशील कवि हैं राजन। नोट की सीमा है, इसलिए राजन की कविता का अंश नहीं दे रहा हूँ। राजन से उम्र में छोटे पर उतने ही संभावनाशील कवि कमलजीत चौधरी की भी कविता का अंश नहीं दे पा रहा हूँ। कमलजीत चौधरी की भाषा ध्यान खींचती है। छोटी-छोटी पंक्ति में टटके बिम्ब हैं। भरत प्रसाद भी अपनी कविता की ताजगी की वजह से ध्यान खींचते हैं। ताजगी सिर्फ नये विषयों की खोज में नहीं होती, कभी-कभी पुराने विषयों की नयी कहन में भी ताजगी दिख जाती है, ‘रेड लाइट एरिया’ एक ऐसी ही कविता है-
‘सब कुछ लुट जाने के बावजूद
उसकी आँखों में अभी कितना पानी शेष है
यकीन नहीं होता कि वह अभी भी
हँस सकती है, रो सकती है, नाच सकती है, खुश हो सकती है
सबसे आश्चर्यजनक यह कि वह अभी भी प्यार कर सकती है
खैर मनाइएआपके आदमी होने से अभी उसका विश्वास नहीं उठा है’
इन कवियों की सभी कविताओं में कविता होने का भरपूर अहसास भी जिन्दा है। निशांत की ‘गुजरात’ कविता गुजरात को पिछले दिनों की साम्प्रदायिक घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में देखते हुए भी उस धरती में भरोेस के बीज अंकुरण किया है। भले ही बेटे के गुजरात जाने के संदर्भ विशेष की वजह से। पूरी कविता अपनी लंबाई ही नहीं बल्कि गहराई से भी पाठक को बाँधकर रखती है। संपादक राज्यवर्द्धन की यह चिंता स्वाभाविक है कि समकालीन हिंदी कविता में ‘अमूर्तन की प्रवृत्ति बढ़ी है तथा अबूझ बिम्बों की बाढ़ आयी हुई है। कतिवा जो कहना चाहती है, वह पाठकों तक ठीक-ठीक संप्रेषित नहीं हो पा रहा है।’ इस नजरिये से ‘स्वर एकादश ’को देखें तो कहना होगा कि संपादक राज्यवर्द्धन का यह प्रयास अपने उद्देश्य में सफल है। यह तो पक्का है कि इस संकलन में संप्रेषण का सकंट नहीं है। लेकिन मित्रो, जितना जरूरी है किसी कविता को अबूझ बनने से बचाने का उपक्रम उतना ही जरूरी है किसी कविता को अच्छी कविता बनाने की कोशिश। एक पहिए में जरा-सा नुक्स होगा तो दूसरा ठीक से काम नहीं कर पाएगा। अभी इस पर रास्ते पर काफी काम बाकी है। अंत में कवियों से यह कि पसंद करने वालों के भरोसे पर ध्यान देंगे तो आगे अपनी कविता को और बेहतर करेंगे। बेहतर की उम्मीद है।
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