शुक्रवार, 4 मई 2012

भरभराकर ढ़ह गया है

 -गणेश पाण्डेय

ढलान पर चलते हुए
सोचता हूं कि यह कैसी तेजी है
भागते हैं पैर आप से आप
कहां पहुंचकर चाहते हैं
सुस्ताना
धरती के किस भाग पर
होना चाहते हैं मुझसे अलग
और मेरी बांहें भी पैरों के संग-संग
किससे मिलने की जल्दी में हैं
मेरी देह का हर हिस्सा
छोड़ना चाहता है मुझे
दुर्दिन की यह कैसी बरसात है
कि चू रहा है जगह -जगह
देह का घर
जरा-सी बरसात में
भरभरा कर
ढ़ह गया है दिल का कमरा
आंखों के बरामदे में
अब कैसे बीतता है
खाली-खाली दिन
और काली-काली रातें
किसे सुनाऊं -
जीवन की कमजोर पटकथा
किस रचयिता से कहूं -
मुझ गरीब की कथा में ला दे
कोई मोड़
ढलान पर बिछा दे हरियाली
थके हुए पैरों को मिला दे
कल-कल करते झरने से
आंखों में भर दे जीवन का रंग
और धरती का असीम आकाश
आतुर कानों के पास कर दे 
किसी की पुकार
एक साधारण हृदय को बना दे
प्रेम का असाधारण सभागार
मेरी कविता को कर दे
फिर से जीवित
और इस कवि को बना दे
नवजीवन का कवि।
(चौथे संग्रह से)

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