मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012

पितृपक्ष


       -गणेश पाण्डेय


जैसे रिक्शेवाले भाई ने किया याद
पूछा जैसे जूतों की मरम्मत करनेवाले ने
जैसे दिया जल-अक्षत सामनेवाले भाई ने
जैसे दिया ज्ञानियों ने
और कम ज्ञानियों ने
जैसे किया याद
अड़ोस-पड़ोस और गांव-जवार ने
अपने-अपने पितरों को


मैंने भी किया याद
पिता को और पिता की उंगली को
बुआ को और बुआ की गोद को
और उसकी खूंट में बंधी दुअन्नी को
सिर से पैर तक मां को
मां के आंचल के मोतीचूर को
मामा को और मामा के कंधे को
दादी को और दादी की छड़ी को


अनुभव की चहारदीवारी में
और याद की चटाई पर
आते गये जो भी आप से आप
मैंने सबको किया याद
जिन्हे देखा और जिन्हे नहीं देखा


जैसे ठेलेवाले भाई ने किया याद
जैसे याद किया नाई ने
मैंने भी जल्दी-जल्दी खाली कराया
पितरों के बैठने के लिए अपना सिर।


(तीसरे कविता संग्रह ‘जापानी बुखार’ से)






 










                                                      


                                                                                                                    

2 टिप्‍पणियां:

  1. "मैंने भी किया याद
    पिता को और पिता की उंगली को
    बुआ को और बुआ की गोद को
    और उसकी खूंट में बंधी दुअन्नी को
    सिर से पैर तक मां को
    मां के आंचल के मोतीचूर को
    मामा को और मामा के कंधे को
    दादी को और दादी की छड़ी को..."

    क्या बात है ! और कितना प्यारा स्मरण है. रिश्तों को इसी तरह याद किया जाना चाहिए, किसी एक और स्मृति के सहारे.

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  2. वाह! इस याद में करुणा भी झलक रही है, जीवन-संलग्‍नता की हुलस भी. कविता पढ़ के आप मुस्‍कुराए बिना नहीं रह सकते. वाह!

    कृपया इस वेरिफिकेशन को हटा दें.

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