शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

धर्मग्रंथ तथा अन्य कविताएं

- गणेश पाण्डेय

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धर्मग्रंथ
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मैं जालीदार टोपी पहन लूं
मैं कुरआन की आयतें पढ़ लूं
मैं उर्दू से बहुत प्यार करने लगूं
तो क्या मुसलमान हो जाऊंगा

मैं शिखा रख लूं
मैं धोती पहनने लगू़ं
मैं वेद की ऋचाएं पढ़ने लगूं
मैं मानस को प्रेम करने लगू़ं
मैं कृष्ण की वंशी बजाने लगूं
तो क्या हिंदू हो जाऊंगा

मैं कोट पैंट पहनने लगूं
मैं हैट लगाने लगूं
मैं बाइबिल पढ़ने लगूं
मैं गोरी मेम से प्रेम करने लगूं
तो क्या ईसाई हो जाऊंगा

मैं
बेगुनाहों का कत्ल करूंगा
और ऐसे कातिलों के लिए
जिंदाबाद का नारा लगाऊंगा
तो मुसलमान कैसे हो सकता हूं

मैं
गले में हरदम क्रास लिए घूमूंगा
बात-बात पर धमकी दूंगा
परमाणु बम गिराने की
तो ईसाई कैसे हो सकता हूं

मैं
धर्म के नाम पर
नित छप्पनभोग का भोग लगाऊंगा
प्रेम अहिंसा करुणा बंधुत्व छोड़
बार-बार त्रिशूल चमकाऊंगा
अहिंदुओं से नफरत करूंगा
तो हिंदू कैसे हो सकता हूं

मैं
अच्छा हिंदू अच्छा मुसलमान
अच्छा सिख अच्छा ईसाई
अच्छा पारसी नहीं हो सकता
अगर धर्म की शिक्षाओं को
जीवन में उतार नहीं सकता
फिर मनुष्य कैसे हो सकता हूं

धर्म का उद्देश्य
इससे इतर आखिर है क्या
धर्म हमारे जीवन में नहीं
तो किस काम का
और धर्म का मनुष्यता से
कोई रिश्ता ही नहीं है तो ले जाकर
सारे ग्रंथ हिंद महासागर में
डुबो दो।

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नागरिकता रजिस्टर
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बेशक
आप मेरे कंधे पर बैठकर
मोदी की एक-एक मूंछ
उखाड़ लीजिए

बेशक
आप नागरिकता रजिस्टर
चिंदी-चिंदी कर दीजिए
फूंककर उड़ा दीजिए

बेशक
मेरे किसी और सवाल का
कभी जवाब मत दीजिए
एक चुप हजार चुप रहें

बस
इतना बता दीजिए
पुरस्कृत ही क्यों साहित्य का
नागरिक है शेष घुसपैठिया

कृपा होगी
दोनों हाथ से उठाकर
साहित्य का नागरिकता
रजिस्टर सबको दिखा दीजिए।

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सीसीटीवी फुटेज
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इस साल
खूब खराब कविताएं लिखीं
कविता में कोई बुजुर्ग जिंदा रहा होता
तो कहता शाबाश

इस साल
दो बच्चों की शादी हुई
छोटी बिटिया की और बेटे की
फोटो लेने की सुध नहीं रही
सो लगाया नहीं
बच्चे देंगे तो लगा दूंगा

अरे हां
साल जाते-जाते भले लोगों के लिए
एक नया खाता खोला खाता क्या
जीवन की ओर एक खिड़की
सोचा पुराने खाते को मुड़कर
देखूंगा नहीं

लेकिन हिंदी ने
पीछे से कालर पकड़ लिया और कहा-
तू चला जाएगा तो मेरा क्या होगा
कालिये

मैंने अकबर को याद किया और कहा-
नहीं नहीं एक दम से नहीं जाऊंगा
शिया के साथ शिया रहूंगा
सुन्नी के साथ सुन्नी
नाराज मत होना
मेरी मुन्नी

अच्छे के साथ अच्छा रहूंगा
और हिंदी के बुरों के साथ
नये साल में भी उनसे ज्यादा
बुरा रहूंगा

खूब झब्बा-सब्बा उतारूंगा
कम बुरे को डांटूंगा ज्यादा का
अंगरखा चर्र-चर्र फाड़ूंगा
फोटो खींचकर रख लूंगा

जब भी ऊपर से
कबीर तुलसी निराला वगैरह का
बुलावा आएगा तो आज के
लेखकों के सीसीटीवी फुटेज
ले जाऊंगा

आज तो कोई है ही नहीं
कविता के किसी बुजुर्ग के पास
मुंह ही नहीं है जो कह सके शाबाश

कुछ बड़े भाई हैं थोड़े से दोस्त
और कुछेक बहनें जिनके कहने पर
लिखे जा रहा हूं खराब कविताएं
सालों-साल।

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लेखक देश के साथ गद्दारी करते हैं
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आज
दो के लिए
अच्छे दिन हैं

इनके बाद
कल चार के लिए
फिर अच्छे दिन आ जाएंगे

हम आप
आखिर कहां जाएंगे
जहां हैं वहीं रहेंगे
लौट के बुद्धू घर आएंगे
एक ही घर के चार के घर

आज दो को
हटाने का काम कर रहे हैं
कल चार को हटाने का करेंगे
जनता होने का मतलब है
हजार बार यही काम करना है

हम जनता हैं
हमारा काम ही है खुद खड़े रहो
कुर्सी पर इन्हें फिर इन्हें बैठाओ
और फिर उन्हें बैठाओ
इस बैठाने के खेल में खुद बैठ जाओ

बुरा यह नहीं कि हम मजबूर हैं
बुरा यह नहीं राजनेता झूठ बोलते हैं
धोखा देते हैं पहले मीठा बोलते हैं
फिर गोली का डर दिखाते हैं

इस देश के लिए बुरा
यह कि लेखक भी झूठ बोलते हैं
देश के साथ गद्दारी करते हैं
न राजनीति का पूरा सच बताते हैं
न ढंग का विकल्प बनाते हैं

हम जनता हैं
लेखकों का क्या कर सकते हैं
इन्हे़ं पटककर मार भी नहीं सकते
इनका झब्बा-सब्बा नोच नहीं सकते
वोट देने और बारबार इसी तरह
सरकार बदलने के अलावा
हम क्या कर सकते हैं।

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मेरी खराब कविताओं को मत देखे
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उसने
साहित्य में शायद
अभी कोई जबर्दस्त
लड़ाई नहीं की है

इसीलिए उसे
फूल तितलियां नदी
प्रेम और देह का उत्सव
कविता में खूब भाता है

उसे
नखविहीन कविताएं
या फिर नेलपालिश लगी
चिकनी-चुपड़ी कविताएं
और सुंदर सजीले कवि
बहुत अच्छे लगते हैं

उसे
संगठनों से जुड़े कवियों की
फर्मूलाबद्ध प्रतिरोधी कविताएं
और हजार बार गाये हुए गीत भी
बहुत अच्छे लगते हैं

बस उसे
मेरी खराब कविताएं पसंद नहीं हैं
जिनमें साहित्य की काली दुनिया का
लंबा-चौड़ा बही खाता है
और अपने समय का सही खाता है

उसे
मेरी टिप्पणियों से जूड़ीताप होता है
जिसमें एक लेखक के जीवन का
संग्राम है

उसे
मेरा मुंह देखने से दिक्कत होती है
पता नहीं मेरा चेहरा सुंदर क्यों नहीं है
उसका पूरा हफ्ता खराब हो जाता है

उसे
खुश करने के लिए
पैंसठ की उम्र में सिर पर बड़ा-सा
पका हुआ कटहल लेकर चाहूं तो भी
इतनी दूर पैदल कैसे जा सकता हूं

वह जो भी है
मुझे बहुत अजीज है
मेरी खराब कविताओं को मत देखे
खुश रहे आगे बढ़े खूब जिए
जो बाद में आएंगे लड़कर
देखेंगे।

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शिक्षा का मंदिर
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चोटें
आम आदमी के
बच्चों को लगती हैं

खून बहता है
माथे पर टांके लगते हैं
घर पर माएं रोती हैं
कलेजा फटा जाता है

माएं बच्चों के
भविष्य का सोचती हैं
पढ़ाई का सोचती हैं
इम्तहान का सोचती हैं

टूटती हुई
उम्मीद का सोचती है
घर का सोचती हैं
नौकरी और ब्याह का
सोचती हैं

आखिर
कम पढ़ी-लिखी माएं
देश की प्रथमपंक्ति की महिला
चाहे मंत्री सांसद महासचिव
अभिनेत्री लेखिका प्रोफेसर
बुद्धिजीवी वगैरह तो हैं नहीं
इसीलिए कम सोचती हैं

ये मारकाट
ये पुलिस हिंसा
ये हिंदू मुसलमान
उसे कुछ नहीं चाहिए
उसे अपना लाल चाहिए
साबुत चाहिए

ये कैसा देश है
पीढ़ियों से साथ रहने वाला
साथ पढ़ने-लिखने वाला
एक-दूसरे के घर जाने वाला
तीसरे चौथे पांचवे के बहकावे में
सौ कैरेट का हिंदू
और सौ कैरेट का मुसलमान
हो जाता है
दोनों के दिलों में बसने वाले
मनुष्य को कौन चुरा ले जाता है
कौन शिक्षा के मंदिर में
दंगे-फसाद कराता है

हाय कैसे
गरीबों के बच्चों को
तड़तड़ चोट लगती है
खून बहता है हड्डियां चटकती हैं
और दूर बैठे राजनेताओं के
मुकुट का हीरा आकार लेता है

बस
राजनीति का यही सत्य
कवि की आत्मा को
चीर देता है।

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काव्यपाठ
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मैंने
बहुत कम काव्यपाठ किया है
याद भी नहीं है कि कब कहां कैसे
किया है

अलबत्ता
तमाम कवियों को तरह-तरह से
काव्यपाठ करते हुए देखा है

गीत वाले गले से पढ़ते थे
गजल वाले तरन्नुम और तहत
दोनों में पढ़ते थे

कृष्ण बिहारी नूर का पढ़ना
निदा वसीम और बद्र से बेहतर था
यों सब ठीक ही लिखते थे
पर नूर की आवाज कलेजे को
चीरती हुई निकलती थी
दिल और दिमाग में एकसाथ
गूंजती थी

फराज की मशहूर गजल
सुना है लोग उसे अच्छी लगती थी
फराज का पढ़ना बुरा नहीं था
पर उतना अच्छा नहीं था
जितनी गजल

बंगाली
गीत बहुत अच्छा लिखते थे
उतना अच्छा पढ़ते नहीं थे
आप गले से गाएं
या दिल से पढ़ें
पढ़ना कला है

यह कला न हो तो
फिर भी ठीक है शब्द
संभाल लेते हैं
भले कवि को
भले कवि के लिए
कविता मजाक नहीं है

हिंदी के कई
प्रगतिशील कवियों को यहां
काव्यपाठ करते हुए देखा है
कविता को न तीर मारने की तरह
पढ़ते हैं न प्यार करने की तरह

मेरा अपना तजुर्बा है
और बहुत खराब तजुर्बा है
कविता उनके लिए न प्रेम है न पूजा
वे कविता जैसी गंभीर चीज को
संसद में आंख मारने की तरह पढ़ते हैं।

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आलू जैसी मुलायम आलोचना
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नये आलोचक
दागी हिस्सा निकालकर
अच्छे से छील और काटकर
आलू को घी और जीरे में
छौंक देते है

और
सुघड़ बहू की तरह
खूबसूरत तश्तरी में रखकर
सबका ध्यान अपनी ओर
खींच लेते हैं

असल में हिंदी की
खानदानी आलोचना में
यह रवादारी अब तक
बनी हुई है

यह अलग बात है
कि मेरी उम्र के आलोचक
नयी-नयी सास की तरह
कहते पाए जाते हैं

हम ऐसे नहीं थीं
जरा हींग के साथ तड़का
लगाती थीं फिर तो आलू
दांत नहीं होठों के छूनेभर से
दो फाड़ हो जाता था

क्या आलू था
वाह क्या आलोचना थी
वाह क्या आलोचना है
और यह
क्या खराब कविता है।





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