-गणेश पाण्डेय
प्रिय शिष्य होना सबके भाग्य में नहीं होता है। प्रिय शिष्य बहुत अच्छा भी हो सकता है और बहुत खराब भी। जाहिर है कि यहाँ अच्छा योग्य के अर्थ में है। अच्छा शिष्य अपने गुरु का मान बढ़ाता है तो खराब शिष्य घटाता है। मान बढ़ाने से आशय गुरु के काम को आगे ले जाने से है, न कि फूलमाला पहनाने और हरवक्त जयकार करने से है। खराब शिष्य तो ऐसे-ऐसे मौकों पर गुरु का नाम ले लेते हैं, जहां नहीं लेना चाहिए। गुरु का मान कहीं कम हुआ हो तो भी उसे सार्वजनिक उस दशा में नहीं करना चाहिए कि अपमान का प्रतिकार होने की जगह और बढ़ जाय। दुर्भाग्यवश मैं यहां प्रिय शिष्य नहीं बन पाया तो इसमें दोष किसी गुरु का नहीं था, मुझमें ही रही होगी कोई कमी। कुछ गुण कम रहे होंगे, उनसे जो प्रिय थे। भले मैं कुछ अच्छा नहीं कर पाया, पर कुछ गुरुओं का कुछ प्रेम तो मुझे भी मिला। गुरु कभी मुक्तमन या स्वेच्छा से किसी खराब से खराब शिष्य को अप्रेम नहीं देता है। मनुष्य जीवन में ऐसे क्षण कभी भी और कही भी आ सकते हैं, जब कोई बड़े से बड़ा ज्ञानी भी एक क्षण के विवेक से शिथिल हो जाय। चूक कहां नहीं होती है। चूक को मैं पाप नहीं मानता। हां जानबूझकर हो तो बुरा मानता हूँ, पर मेरे जीवन में ऐसी कोई बात किसी गुरु की ओर से रही हो, मुझे स्मरण नहीं। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे शोध में गुरु के रूप में श्रद्धेय रामदेव शुक्ल जी मिले। आज स्मरण कर रहा हूं तो इस प्रयोजन के साथ कि इधर कुछ लोगों ने जानबूझकर उन्हें दुख पहुंचाने के लिए उनके नाम का उल्लेख मेरी गुरु सीरीज की कविताओं के साथ किया है। विभाग में जब भी ऐसी कोई बात आयी तो मैने तुरत प्रतिवाद किया कि नहीं ऐसी बात नहीं, मेरे तो दस गुरु हैं। आशय यह कि किसे कविताओं में ढँ़ूढ़िएगा ? यह भी स्पष्ट करता कि यह कविता तो सत्ता के प्रतिरोध में है। सत्ता चाहे अकादमिक दुनिया की हो या समाज, धर्म या राजनीति, किसी भी दुनिया की। मैं मजाक में भी किसी को अपने गुरु के बारे में ऐसा कुछ कहते पसंद नहीं करता था। मेरी आखों से अपने गुरु रामदेव जी का वह पोस्टकार्ड कभी ओझल नहीं होता, जब उन्होंने मेरे जीवन में आयी एक दुख की घड़ी में लिखा था कि तुम पैसे की चिंता मत करो, शोधप्रबंध जमा हो जाएगा, आ जाओ। भला ऐसे गुरु के प्रति कभी असम्मान का भाव मन में आ सकता है ?
साहित्य में कुछ करने की वजह से सभी गुरुओं के साथ एक लोकतांत्रिक या कह लें कि आलोचनात्मक रिश्ता भी बना। यह आलोचनात्मक दृष्टिकोण केवल साहित्य संबंधी सहमति या असहमति को लेकर होता है। यहां भटकने का खतरा है, इसलिए उस बेहद जरूरी हस्तक्षेप के लिए ध्यान खींचना चाहूंगा कि गुरु सीरीज के बारे में आचार्यगण ऐसी किसी नासमझी की बात न करें कि यह अमुक पर है या अमुक पर। उस सीरीज में एक कविता है-गुरु से बड़ा था गुरु का नाम-
गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम
कबीर तो बहुत छोटा रहेगा
कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ
गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में।
पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु
एक टुकड़ा मोदक थमाया
और बोले-
फिसड्डी हैं ये सारे नाम
तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।
इस कविता में जिस गुरु के बड़े नाम का उल्लेख है, उसके लिए ऐसे नाम की ओर देखने की जरूरत क्यों नहीं हुई, जिसके नाम में सबसे ज्यादा अक्षर हों या शब्द हों। विश्वनाथ जी का नाम बड़ा है ही, फिर उन्हें लक्ष्य क्यों नहीं किया गया ? क्या इसलिए कि उन्हें ऐसी असहज स्थिति में उनकी टीम के छुटभौये उन्हें खड़ा करेंगे तो उनका मान घट जाएगा ? मेरे कहने का आशय यह नहीं कि है कि उन्हें देखें। यह इस कविता के साथ अन्याय है कि आप उसे किसी व्यक्ति के साथ जोड़कर देखें। अन्याय ही नहीं, बल्कि कमअक्ली भी। विश्वनाथ जी में कुछ अच्छा है तो कुछ खराब भी। सबके साथ ऐसा होता है। कई बार मैं ऐसे खराब को आंतरिक विवशता के रूप में देखता हूं। जीवन में ऐसा बहुत कुछ होता है कि हम अपने प्रिय या अत्यंत उपयोगी के लिए बहुत योग्य को भी दूर रखते हैं। ऐसी दुर्बलता कहाँ नहीं है ? आंतरिक विवशताओं के विस्तार में नहीं जाना है। हाँ, वहाँ जरूर विरोध होता जब आप ऐसे अपात्र को अपने साहित्यिक उत्तराधिकारी की जगह देने लगते हैं। इस शहर में कोई कविसीढ़ी बनी, कोई कविक्रम बना तो किसे कहाँ रखेंगे ? जाहिर है कि कोई इसमें कोई बड़ा उलट-फेर नहीं कर सकता है ? कोई लाख उछल-कूद करे, लेकिन जब बाहर से आने वाले पचास से कम उम्र के साधारण कवियों को कवि के रूप में बहुत आदर देगा तो किस मुँह से और किस ताकत से मुझे या किसी को फूंककर उड़ा देगा ? मैं अधिक महत्व का अधिकारी नहीं हूँ। कोई किसी को न तो बड़ा बना सकता है, न छोटा। काम खुद बोलता है। काम का बोलना बेवकूफी का बोलना या मुँह इत्यादि का बोलना नहीं होता है। यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि गणेश पाण्डेय तो शुरू से ही विरोध का अभ्यस्त है, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उसे क्या कहता है, उसे फर्क तब पड़ता, जब उसका काम बोलता नहीं। मेरे बारे में जो बोलना है, सब बोल सकते हैं। जहाँ जरूरी होगा कुछ कहूँगा, जहाँ नहीं जरूरी होगा, बताकर अलग हो सकता हूँ। हाँ यह जरूर चाहता हूं कि मुझे छोटा बनाने में अपनी सारी शक्ति खर्च करने वाले आचार्य या लेखक-अलेखक किसी एक गुरु को पीड़ा पहुंचाने का काम और किसी की महानता के गुण गाने का काम न करें। बंद करें यह सब। इसलिए गुरु सीरीज की कविताओं से भयभीत रहने वाले लोग उस कविता को जितना चाहें बदनाम करें, बस उस कविता के नाम पर किसी गुरु को पीड़ा न पहुँचाएँ। ऐसा इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि महान बनने की कोशिश कर रहा हूँ। अपनी कविता के बारे में मैं बेहतर नहीं बता सकता तो और कौन बताएगा ? सच तो यह कि गुरु सीरीज की कविताओं में सतह के नीचे की सारी हलचल के केंद्र में तो गुरुभाई हैं, हिन्दी के असली कापुरुष तो यही हैं, पर इतनी हिम्मत उन लोगों में कहाँ हैं कि वे लोग बताएं कि कौन-कौन हैं और हिन्दी की दुनिया में उनका असली चरित्र क्या है ? वे बता नहीं सकते हैं, क्यों कि वे खुद उसी टीम का हिस्सा हैं -
कैसे हो सकता था
कि जो गुरु के गण थे, नागफनी थे
जड़ थे, कितने कार्यकुशल थे।
आगे रहते थे, निकट थे इतने
जैसे स्वर्ण कुंडल, त्योरियाँ, हाथ।
क्या खतरा था उन्हें मुझसे
तनिक भी दक्ष नहीं था मैं
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं।
क्यों रोकते थे वे मुझे कुछ कहने से
जरूर हुई होगी कोई असुविधा
इसी तरह वैशम्पायन के गुरुकुल में
याज्ञवल्क्य से।
000
खूब मिले गुरुभाई
सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल
कुछ भी हो जाने के लिए
मेरे विरुद्ध।
बात सिर्फ इतनी-सी थी
कि मैं कवि था भरा हुआ
कि टूट रहा था मुझसे
कोई नियम
कि लिखना चाहता था मैं
नियम के लिए नियम।
बहरहाल मैं अपनी कविताओं की व्याख्या नहीं करना चाहता। जानबूझकर किसी एक गुरु को दुखी करने की कोशिश के विरुद्ध बस हस्तक्षेप करना था, सो कर रहा हूँ। क्योंकि कुछ लोग काव्यानुभव और जीवनानुभव की बात तो करते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि काव्यानुभव कोई आकाश से नहीं झरते हैं, जीवनानुभव की गीली मिट्टी ही पककर काव्यानुभव बनती है। असल में ये आचार्य ऐसे कवियों की पूजा अधिक करते हैं, जिनके पास अपना जीवनानुभव कम होता है, बाहर के काव्यानुभव को ही अपने परिवेश में ढ़ाल लेते हैं। आज हिन्दी के बड़े समझे जाने वाले कितने कवियों के पास ऐसी कविताएँ हैं, जिन्हें लिखने में कोई जोखिम रहा हो। जीवनसंघर्ष में जिन्होंने साहित्य की स्थानीय सत्ताओं और केंद्रों का विरोध किया हो। प्रमोटी कविसंघ के सदस्य या अध्यक्ष न रहे हों ? यह सब इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि ऐसा करने से कोई बड़ा कवि बन जाता है, इसलिए कह रहा हूँ कि बड़ों के पीछे-पीछे चलने वाले छुटभैये उनकी उन कमजोरियों को भी जान सकें जो छिपाकर रखी जाती हैं। ये आचार्य न तो कविता की आंतरिक संगति या तर्क को समझ पाते हैं और न कविता की शक्ति को। इन्हें यह भी नहीं पता होता है कि किसी छोटे दुख से भी बड़ी या अच्छी कविता संभव हो सकती है और किसी बड़े दुख की कविता भी खराब बन सकती है। जिनके पास खुद की कोई भाषा नहीं होती, वह भला किसी लेखक की भाषा को कैसे जान सकता है।
मित्रो अघाये हुए लोगों की भाषा और रोटी के लिए संघर्ष करने वालो की भाषा का फर्क समझना चाहिए। मैंने भले खराब कविताएँ लिखी हों, पर किसी की गोद में या चरणों में बैठकर यह सब निश्चिंत भाव से नहीं किया है। कहीं कहा है कि यह सब एक हाथ में हिन्दी के राक्षसों से लड़ने के लिए तलवार और दूसरे हाथ में कलम लेकर कविताई की है। कई साल संघर्ष किया है। विश्वविद्यालय में दूसरा शिक्षक संगठन खड़ा किया, एक नहीं तीनबार स्कूटर दुर्घटना में मरने से बचा। मैं भी अमुक जी या ढमुक जी का पिछलग्गू या लठैत बन जाता तो साहित्य में भी कुछ हलवा-पूड़ी पाता रहता। कहना जरूरी है कि हिन्दी के आचार्य लठैत बनना अधिक पसंद करते हैं, वीर बनना कम। लठैत बनकर दाना-पानी और आफत से छुटकारे की पक्की व्यवस्था रहती है। जिसका चाहो सर फोड़ दो। कोई स्वाधीन लेखक हो या चोर-उचक्का, क्या फर्क पड़ता है। बस मालिक के सामने दुम दबी रहनी चाहिए। मालिक का नाम लेते रहना चाहिए। वीर मूल्यजीवी होता है। किसी अर्थपूर्ण मकसद के लिए संघर्ष करता है। साहित्य के अँधेरे को दूर करने के लिए। गंदगी साफ करने के लिए, न कि गंदगी करने के लिए। मुझे एक वीर का क्षणिक जीवन भी प्रिय है, किसी का लठैत बनने से अच्छा है, चुल्लूभर पानी की खोज करना। साहित्य में कभी किसी के साथ संबंध निभाने के लिए समझौता नहीं किया। अरविंद त्रिपाठी मेरे मित्र हैं, उनकी कमियों पर भी खुलकर कहा और उन्होंने कभी भी अवयस्क या अलोकतांत्रिक व्यवहार नहीं किया। इसलिए कि अरविंद जी लेखक हैं, हिन्दी के अहंकारी आचार्य नहीं। किताबों के रटने का अहंकार नहीं, रचने का अभिमान है, बल्कि आश्वस्ति है। एक लेखक कभी जीवन की आपाधापी में आंतरिक विवशता की वजह से निकृष्ट पर बहुत उपयोगी लोगों के साथ जुड़ा रह सकता है, लेकिन अगर वह सच्चा लेखक है तो उस निकृष्ट व्यक्ति की नाराजगी के बावजूद किसी सच्चे लेखक से रिश्ते की एक खिड़की जरूर अपने पास रखता है। गुरुओं में भी ऐसे लेखक हों तो आश्चर्य नहीं। उदाहरण के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं। अलबत्ता यहाँ सब लेखक ऐसे नहीं हैं। ज्यादातर लेखक साहसी नहीं हैं। विश्वविद्यालय के आचार्यों से बहुत डरते रहे हैं। शायद यह देश का पहला शहर होगा जहाँ के लेखक अपने शहर के अलेखकों से डरते होंगे। लेखक बनना उतना ही अच्छा है जितना अच्छा एक शिक्षक बनना है या एक अच्छा पाठक बनना है, लेकिन अलेखक बनकर साहित्य के परिसर में लठैती करना सबसे खराब काम है। ये अलेखक कई बार आयोजक, प्रशंसक इत्यादि की भूमिका में शहर के लेखकों को प्रभावित करने लगते हैं। शहर के वे लेखक जो भीतर से कमजोर होते हैं, साहित्य की स्थानीय सत्ता और उसके लठैतों के डर में जीने लगते हैं। हजार डर होते हैं, ऐसे लेखकों के पास, हाय ये मेरा नाम नहीं लेंगे, हाय ये मुझे कविता पढ़ने के लिए नहीं बुलाएंगे, इत्यादि। हद तो यह कि ऐसे भयभीत लेखक शहर की साहित्यिक वरिष्ठता साहित्य में काम से तय नहीं कर पाते, बल्कि विश्वविद्यालय की नौकरी की वरिष्ठता को ही प्रमाण मानने लगते हैं। हद है या नहीं ? जाहिर है, ऐसे लेखक भला किसी निडर लेखक को क्यों पसंद करेंगे ? बहरहाल उनसे कोई शिकायत नहीं कि उन्होंने साहस का पथ क्यों नहीं चुना, लेकिन संतोष की बात यह है कि इसी शहर में कुछ ऐसे लेखक भी हैं जो एक सीमा में ही सही अपने हिस्से का सच कहने की कोशिश करते हैं। उनसे मिलकर अच्छा लगता है, उनसे बात करके अच्छा लगता है। अब ऐसे लोगों के विरोध से कोई फर्क नहीं पड़ता, जो खुद विरोध के काबिल नहीं हैं। कभी-कभी अपने जीवन को लेकर यह अनुभव जरूर होता है कि आखिर मुझे यहाँ कैसा जीवन मिला जो पाता ही आया विरोध-धिक जीवन जो पाता ही आया विरोध। ऐसी पंक्ति की रचना करने वाले महान लेखकों के चरणों की धूल भी नहीं हूँ मैं, लेकिन जीवन तो यहाँ कुछ-कुछ वैसा ही जिया। वीरता का एक कण भी कहीं पा सका तो बहुत है। उसी कण के सहारे कट जाएगी जिन्दगी। मुझे अपनी कविता से कोई पुरस्कार नहीं चाहिए।
कविताएँ हमेशा पुरस्कार ही नहीं दिलातीं। कभी-कभी दण्ड भी दिलाती हैं। जब्त कर ली जाती हैं या जेल होती है। मैं जानता हूँ कि अपने पहले संग्रह में गुरुसीरीज की कविताओं की वजह से साहित्य की दुनिया में मुझे वनवास का दण्ड मिला है तो सिर माथे पर। कौन कहता है कि कविताएँ कुछ नहीं करती हैं ? कमजोर कवियों की कविताएँ अलबत्ता कुछ नहीं करती हैं। बहुत हुआ तो पुरस्कार की सूली पर लटक जाती हैं, बस।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें