सदियों से पीछा करती आवाज
बचपन में माँ और बुआ के मुख से एकाधिक बार सुना यह लोकगीत आज अचानक देखकर अपने उन मित्रो से साझा करने का मन है, जो मेरी तरह कविता के साधारण कार्यकर्ता हैं, असाधारण लेखक नहीं। उम्मीद है, यह लोकगीत अपनी ताकत से फिर-फिर चकित और द्रवित करेगा, एक-दो बार नहीं, हजार बार। कोई कविता यदि पाठक के मन में भावों का उद्रेक नहीं करती या विचारों के अग्निकण को तीव्र नहीं करती है तो यकीन मानिए कि वह और कुछ भी हो जाय, कविता हरगिज-हरगिज नहीं हो सकती। जो लोकगीत आपके सामने है कितना असाधारण है, आप स्वयं अनुभव करेंगे। मेरा सारा लिखा इसके सामने कुछ भी नहीं है। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि इस गीत में मेरी, आपकी और उसकी माँ और बुआ की ही नहीं, बल्कि हमारी दादी-परदादी और उनकी भी परदादी के विदीर्ण हृदय की कातर पुकार है जो सदियों से हमारा पीछा कर रही है। कितनी पुरानी है प्रतिरोध की यह आवाज ? यह लोकगीत अवधी और भोजपुरी, दोनों क्षे़़त्रों में समान महत्व का है। पहली नजर में आपको लगेगा कि यह सामंतवाद के विरुद्ध लोकमन का बहुत मद्धिम प्रतिरोध है। कुछ पाठक पहली नजर में यह भी अनुभव करेंगे कि हरिनी का यह सारा उपक्रम अपने प्रेम और प्रेम की स्मृति को बचाने के लिए है। यह भी अनुभव करेंगे कि वह कहीं अपने असीम प्रेम की महाशक्ति से फिर से खलरी में प्राणप्रतिष्ठा तो नहीं करना चाहती है। जैसे हो न हो उसके पास कोई जादू है, लेकिन ऐसा नहीं है मित्र, जादू से कुछ संभव होता तो वह सबसे पहले सामंतवाद को ही गायब कर देती। जैसे ही हम तनिक कविता के अंतस्तल में झाँकते हैं, लगता है कि अरे यह हरिनी तो एक माँ है, जो दूसरी माँ कौसिल्या रानी से संवाद करती है। एक अपने बेटे के मनोरंजन के लिए हरिना की खलरी और प्रीतिभोज में अपने पूरे परिवार और वर्ग के लिए उसका मांस चाहती है, जीवन चाहती है, सबकुछ चाहती है। हरिनी का मद्धिम प्रतिरोध दरअसल तीव्र प्रतिरोध की बड़ी महीन बुनावट है। यह लोककविता की शक्ति है, कला है। हरिनी भी इस पूरी कविता में सिर्फ माँ और प्रेयसि ही नहीं, बल्कि उससे कहीं अधिक लोक अर्थात जन की प्रतीक है। पाठक गौर से देखेगे तो देखेंगे कि इस गीत की आत्मा का सहचर बनते ही विचार किस तरह आते हैं। जैसे ही पाठक इस कोण से देखना शुरू करेंगे कि आज कौसिल्या रानी अयोध्या में हैं या दिल्ली में या जगह-जगह हर जगह, अर्थ की अनेक छवियाँ दिखती जाएंगी। हम आज की तारीख में इस कविता में सामंतवाद ही नहीं, पूँजीवादी सत्ता के विरुद्ध प्रतिकार की गूँज से भर उठेंगे। काश, हम यह जनविरोधी राजपाट पलट सकते। सच तो यह कि इस कविता में विमर्श के कई कोण सुलभ हैं। स्त्रीविषयक भी। अब अनुभव करता हूँ कि मेरी माँ और बुआ जैसी असंख्य स़्ित्रयों को यह गीत क्यो इतना प्रिय रहा है। मेरी तो आँख काफी देर से नम है।
छापक पेड़ छिउलिया तपत वन गहबर हो
रामा, तेहि तर ठाढ़ि हरिनियां मन अति अनमनि।
चरतइ चरत हरिनवा त हरिना से पूछइ हो
हरिनी कि तोर चरहा झुरान न पानी बिन मुरझिउ।
नाही मोर चरहा झुरान न पानी बिन मुरझिउँ हो
हरिना, आजु राजा जी के छट्ठी त तोहइ मारि डरिहइँ।
मचियै बैठी कौसिल्या रानी हरिनि अरज करइ हो
रानी मसुवा त सीझहिं करहिया खलरिया हम्मै देतिउ।
पेड़वा से टँगबेउ खलरिया त हेरि फेरि देखतेउँ हो
रानी, देखि देखि मन समुझउतिउँ जनुक हरिना जियतइ।
जाहु हरिन घर अपने खलरिया नाहि देबइ हो
हरिनी खलरी कइ खझडी मिढ़उबइ त राम मोर खेलिहइँ।
जब जब बाजइ खझड़िया सबद सुनि अनकइ हो
हरिनी ठाढ़ि ढकुलिया के पेड़ हरिन के बिसूरइ।
रंगों के बाजार में काला और सफेद
by Ganesh Pandey (Notes) on Friday, March 8, 2013 at 8:00pm
कुछ मित्र कहते रहते हैं कि दुनिया को सिर्फ काले और सफेद में देखना बेवकूफी है। ऐसा कुछ नहीं होता। थोड़ा कम सफेद भी होता है तो थोड़ा कम काला भी होता है। थोड़ा पीला-पीला भी होता है। थोड़ा हरा-हरा भी। थोड़ा केसरिया-केसरिया भी! थोड़ा लाल-लाल भी होता है। कोई रंग बहुत ज्यादा भी होता है। थोड़ा उससे भी कम होता है। थोड़ा उससे भी कम -कम होता है। थोड़ा थोड़ा-थोड़ा ज्यादा भी होता है। इन्हीं रंगों के बीच रेशमी केसरिया और सांप की त्वचा से भी अधिक काले रंग को हराने का खेल करना होता है। कहते हैं कि काले रंग का पेट फूला होता है, बिल्कुल किसी सेठ की तरह और लाल रंग का पेट उसकी आँत से चिपका रहता है।
मेरे समय के पढ़े-लिखे लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। जैसे सड़क के किनारे सांप और नेवले की फर्जी लड़ाई की बात कह कर कोई मदारी देर तक हमें रोके रहता है और अंत में कोई तेल या दांत साफ करने का पावडर बेचता हैं। मैं सबकी सुनता हूँ और बेचैन हो जाता हूँ। मै समझ नहीं पाता हूँ कि एक गरीब अपने पेट के लिए झूठ बोलता है यह तो चल सकता है भाई लेकिन मोटी तनख्वाह पाने वाला झूठ क्यों बोलता है ? मुझे यह जानने में बड़ी दिक्कत होती है कि महाकाले रंग को हटाने के लिए नीला-पीला क्या करेंगे ? किसी राक्षस को हटाने के लिए राक्षस क्या करेंगे ? जैसे लोहे को लोहा काटता तो काले को काला ही हटाएगा ? राजनीति के राक्षस को हटाने का काम खेल, फिल्म, पत्रकारिता, धर्म, समाज और साहित्य आदि क्षेत्रों के राक्षस करेंगे ? हो सकता है कि राक्षस सिर्फ राजनीति में होते हों ? बाकी क्षेत्रों में नहीं ?
क्या रंगों की लड़ाई के खेल का नाम दुनिया है ? क्या सिर्फ विचारों की लड़ाई का नाम दुनिया है ? क्या झूठ और सच की लड़ाई कोई स्वप्न है, यथार्थ नहीं ? क्या न्याय और अन्याय की लड़ाई सिर्फ किस्से-कहानी की बात है ? दुनिया भी कोई चीज है या फैशन ? अपने घर को साफ करने के लिए, अपने घर के अँधेरे को दूर करने के लिए आखिर हमे झाड़ू और मोमबत्ती कहाँ मिलेगी ? किस दुकान, मकान या गुप्त तहखाने में ? या जंगल में ? काले को भगाने का मंत्र और दवा कहाँ है भाई ? कितनी कारगर है भाई ? दवा में किसी सुधार की जरूरत है या दवा केे असर के लिए हमारी हजार पीढ़ियों को कुर्बानी देनी होगी ?
कहाँ हैं विचारक और लेखक और पत्रकार सब ? क्यों नहीं निकालते काला जादू का तोड़ ? कब तक गरीबों-वंचितों, स्त्रियों और कमजोर लोगों के साथ होता रहेगा भेद-भाव ? मेहनत करने वाला भूखा रहेगा और तोंद वाला मजा करेगा ? अच्छा काम करने वाला हाशिये पर रहेगा और फिसड्डी लेखक पुरस्कार पायेगा ? पुरस्कार पाकर या कतार में लगा हुआ लेखक क्रांति करेगा ? काला रंग भगाने की कविता रचेगा ? कविता क्या पूरा मंत्र रचेगा ? शर्तिया इलाज का दावा करेगा! हद तो यह कि राजधानी के लेखकों की क्रूरता पर रोष करने वाला खुद पुरस्कार पाने के बाद साहित्य की सारी क्रूरता को भूल कर अन्तर्राष्ट्रीय लेखक बनने के अभियान में लग जायेगा! इधर पुरस्कार ही नहीं रचनाओं के अनुवाद के फैशन के रूप में भी बेवकूफी दिखती है ? पहले के लेखक अपनी रचनाओं का अनुवाद देखकर मरे हैं क्या भाई ? अपना श्राद्ध करने की हड़बड़ी क्यों ? क्या करोगे काले रंग से फर्जी लड़ाई का ? कहीं तो ढंग से लड़ो यार! देश की लड़ाई का बूता नही ंतो चलो कोई बात नहीं। अपने आसपास की लड़ाई लड़ो। राजनीति की लड़ाई नहीं लड़ सकते तो साहित्य की लड़ाई लड़ो। समाज की लड़ाई भी नहीं लड़ सकते तो अपने जीवन की लड़ाई लड़ो। अपने बच्चो की लड़ाई लड़ो। असली लड़ाई तो होगी। आज नही ंतो कल। काले पर जब तक पूरा सफेद नहीं पोतोगे, काला नहीं भागेगा। सफेद बढ़ाओ। थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ाओ। खुद नहीं बढ़ा सकते तो रास्ते से हट जाओ। ये रंगों का बाजार मत लगाओ। हटाओ उधर। फेंको उधर। बाहर के लाल से नहीं जायेगा काला। भीतर थोड़ा और लाल करो। कुछ चीजों से रंग बदल जाता है। जैसे ही भीतर थोड़ा और लाल करोगे, जैसे ही बढ़ा हुआ रंग आँखों के रास्ते बाहर आयेगा, काले को खत्म करने का सफेद आप से आप बन जायेगा।
हिंदी माँ ही नहीं, मेरी प्रेमिका भी है
by Ganesh Pandey (Notes) on Monday, March 25, 2013 at 11:25pm
भाषा की निर्मिति में सांस्कृतिक अवयवों की भी कम भूमिका नहीं होती है। प्रकृति, समाज, धर्म, अर्थ, राजनीति और इन सबसे बढ़कर लोकविश्वास और लोकजीवन की परंपरा की शक्ति, ये सब भाषा की रचना में सहायक होते हैं। भाषा का भी एक जीवन होता है। भाषा के भी मनुष्य से रिश्ते होते हैं। भाषा ही मनुष्यों में रिश्ते बनाती है। रिश्ते आसमान से पैदा नहीं होते हैं। जिस भाषा का जीवन नहीं होता है, वह भाषा मर जाती है। वह भाषा केवल पुस्तकालयों की शोभा बन कर रह जाती है। भाषा की रचना भले ही मनुष्य करता है, लेकिन एक ऐसी स्थिति भी आती है कि जब भाषा मनुष्य को और अच्छा मनुष्य बनाती है। जैसे मनुष्य ने भाषा को निरंतर समृद्ध किया है। भाषा मोटे तौर पर दो तरह की होती है। मैं यहाँ ज्ञान-विज्ञान और अध्ययन के माध्यम के रूप में भाषा की बात नहीं करूँगा। बल्कि उन दो रूपों की बात करूँगा, जो एक तो साधारण जीवन में रोजी-रोटी और सरकारी कामकाज तथा सामाजिक व्यवहार का माध्यम है, दूसरे वह भाषा जिसका प्रयोग लेखक लोग करते हैं अर्थात जो सर्जनात्मक भाषा है।
यह बातचीत भी किसी बड़े भाषा विमर्श के लिए नहीं है, बल्कि एक छोटी-सी सफाई है कि मैं हिंदी को माँ जैसा कुछ क्यों कहता हूँ। हालाकि हिंदी को माँ कभी नहीं कहा है। बल्कि कुछ लोगों को हिंदी का बेटा कहता हूँ या कहता हूँ कि ये हिंदी के बेटे नहीं हैं। कभी-कभी जब समय विपरीत होता है या परिस्थितियाँ विपरीत होती हैं तो एक बाप को भी अपने बेटे के सामने सफाई देनी पड़ती है। कहते हैं कि इधर मूल्यों में क्षरण बहुत हुआ है। हर क्षेत्र में हुआ है। राजनीति, धर्म, वाणिज्य, साहित्य, सब जगह। सो भाषा में भी बहुत कुछ खराब हुआ है। कविता की भाषा में पत्थर कूटने का जो काम शुरू हुआ है, उसे देखकर स्वर्ग में बैठे हुए पुरखो की आत्मा खूब तृप्त हो रही होगी। बहरहाल कविता की भाषा पर कभी आगे बात करेंगे। यहाँ नये कवियों के भाषा विवेक पर कुछ कहना है। इसलिए कहना है कि यह बता सकूँ कि मैं ‘‘हिंदी के बेटे’’ जैसे पद का प्रयोग क्यों करता हँू ? शमशेर बहादुर सिंह नाम के एक कवि हिंदी में हुए हैं, इस तरह इसलिए कह रहा हूँ कि कुछ नये कवियों को शायद यह मालूम नहीं होगा कि उन्हांेने ‘‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’’ संकलन की भूमिका में मुक्तिबोध को मर्द कवि कहा है। सवाल यहीं से शुरू हो जाता है कि उन्होने ऐसा क्यों किया ? मर्द कवि कहने की क्या जरूरत थी ? वह तो कहिए कि अभी कट्टर विमर्शवादियों ने अभी ध्यान नहीं दिया है वर्ना शमशेर को मर्दवादी कह कर स्त्रीविरोधी घोषित कर देते। तो हाँ, मर्द की जगह बहादुर या वीर या लड़ाका इत्यादि क्यों नहीं कहा ? मर्द ही क्यों कहा ? असल में नये कवियों को भी पता होना चाहिए कि शमशेर कविता की भाषा के जादू के जानकार थे। यों यह हर कोई जानता है कि शब्द की तीन शक्तियाँ होतीं हैं, अभिधा, लक्षणा, व्यंजना। मर्द शब्द को अभिधा में लेने वाले शमशेर के साथ अनर्थ कर देंगे। ठीक वैसे ही जैसे जब मैं कहता हूँ कि ‘हिंदी के बेटे’ तो सीधे-सीधे माँ-बेटे के स्थूल संबंध में भाषा के इस पद को देख कर अनर्थ कर देंगे। अभी बताता हूँ...
पहले यह कि यह माँ का पद भी भाषा ही नहीं जीवन, समाज, सभ्यता, संस्कृति का शीर्ष पद है। आदिशक्ति ही नहीं सभी देवियों को भी माँ कहते है और परमेश्वर को भी पिता ही कहते हैं। और तो और नदियों को माँ कहते हैं। धरती को माँ कहते हैं। गाय को माँ कहते हैं। गाय को ही नहीं, बैल, भैंस, बकरी, कुत्ता आदि पशुओं को भी गाँव में बाबू-भैया, दीदी-बहिनी, मौसी इत्यादि संबोधन देते हैं। कई स्त्रियाँ तो गाय, बकरी आदि की असमय मृत्यु पर पारिवारिक संबोधन देते हुए विलाप करती हैं। कई घरेलू कुत्तों को बहुत पढ़े-लिखे और मेरी तरह बेवकूफ लोग भी बेटा कहते हैं। कई बच्चे भैया कहते हैं। आखिर जो अपनी माँ के पेट से पैदा नहीं हुआ है, उसे हम भैया क्यों कहते है ? और तो और हम जिस ऑटो में बैठकर सफर करते हैं, उसके ड्राइवर को भाई साहब या बेटा या भैया क्यों कहते हैं ? किसी बुजुर्ग को देख कर चाचा क्यों कहते हैं ? गाँव में छोटी जाति या बड़ी जाति के लोगों को समान रूप से चाचा, चाची भैया आदि से संबोधित क्यों करते हैं ? इसलिए! इसलिए!! इसलिए!!! कि यह भावनात्मक संलग्नता है। यही सामाजिकता है। यह भावनात्मक श्रृंखला ही एक मजबूत समाज की रचना करती है। आशय यह कि थोड़ी देर के लिए अभिधा में भी ‘हिंदी के बेटे’ को ले लें तो भी संलग्नता के स्तर का पता चलता है। भावनात्मक जुड़ाव की तीव्रता का पता चलता है। हालाकि ऐसा कुछ न भी हो तो सीधे-सीधे शब्द की शक्ति की ओर ध्यान केंद्रित करूँगा।
जब मैं किसी को हिंदी का बेटा कहता हूँ तो आशय यह कि हिंदी के प्रति उसकी निष्ठा और ईमान का स्तर वही है जो एक माँ के प्रति एक बेटे का होता है। जब यह कहता हूँ कि ‘वे हिंदी के बेटे नहीं हैं’ तो आशय ठीक वही है जैसे कोई कहे कि अमुक देशभक्त नहीं है। अर्थात गद्दार है। हिंदी हो या देश दोनों के लिए बात एक ही है। असल में यह माँ जैसा पद या दूसरे पारिकवारिक पद हमारे संबंधों के स्तर ही नहीं, भावनात्मक और मूल्यपरक निकटता और मजबूती को भी दर्शाते हैं। आखिर हम किसी को पत्नी क्यों कहते हैं ? पारिवारिक सहायक क्यों नहीं कहते हैं या पार्टनर क्यों नहीं कहते हैं ? गुरु को गुरु क्यों कहते हैं, शिक्षणकर्मी क्यों नहीं कहते हैं ? आपको आपके दफ्तर में कोई क्लर्क क्यों नहीं कहता है ? आपके उपनाम से क्यों संबोधित करता है ? वही भावनात्मक निकटता का आधार। पर ‘हिंदी के बेटे नहीं हैं’ कहते हैं तो उसके पीछे की ध्वनि तो सीधे ‘हिंदी के गद्दार’ की ही है। आखिर मातृभाषा पद क्यों है ? फिर हिंदी को माँ कहने से परहेज क्यों ? हिंदी या दुनिया की कोई भी भाषा कोई फुटबाल है ? मातृभाषा या सर्जनात्मक भाषा के साथ यह नासमझी क्यों ?
सच तो यह कि मेरे लिए हिंदी, जीवन में परिवार और सभी संबंधों का भी आधार है। सांस तो है ही। मुझे पुरस्कार के लिए हिंदी में काम नहीं करना है। हिंदी मेरे लिए ऑफिस की कोई फाइल नहीं है बच्चो, हिंदी मेरे लिए कोई सिगरेट या शराब का प्याला भी नहीं है। हिंदी मेरे लिए माँ ही नहीं, मेरी प्रेमिका भी है।
लाइक और कमेंट उर्फ आग से प्रेम करता हूँ
by Ganesh Pandey (Notes) on Thursday, March 28, 2013 at 7:22pm
एक एफबी मित्र ने फेसबुक के परिदृश्य को सिर्फ लाइक और कमेंट संख्या के अधार पर देखने की कोशिश की है। मैं संख्या के आधार पर नहीं, बल्कि पहुँच के आधार पर देखता हूँ। आप किस वर्ग तक अपनी बात ले जाना चाहते हैं। यह बहुत कुछ तय करता है। यह कोई जरूरी नहीं कि कोई आपकी तीखी बात सुने या देखे और हाँ भी कहे। एफबी पर काफी अधिक संख्या युवाओं की है। मेरी उम्र के या मुझसे अधिक उम्र के कम हैं। उम्र ही नहीं रुचियाँ और प्रतिबद्धताएँ भी महत्वपूर्ण हैं। सबसे बड़ी बात यह कि यह एक सामाजिक माध्यम है, जहाँ आपकी पोस्ट, आपके लाइक और कमेंट सबके लिए सुलभ हैं। आशय यह कि यहाँ आप ड्राइंगरूम की तरह अकेले में कोई लाइक और कमेंट नहीं कर सकते हैं। सब आपको देख सकते हैं। इसलिए कई बार उन बातों और चीजों से कुछ लोग दूर रहते हैं ,जहाँ यह डर होता है कि कोई जान न जाय कि मैं गणेश पाण्डेय के साथ हूँ या मैं इस तरह की बातों को पसंद करता हूँ। यह ऐसे भीरु मित्र होते हैं, जिन्हें यदि अनलाइक की भी सुविधा मिली हो तो वह भी नहीं करेंगे। एफबी पर कई तरह की पोस्ट दिखती है। अधिकांश युवामन की पोस्ट होती है। जिनमें वैचारिकता या गंभीरता या परिवर्तन की आकांक्षा की जगह उच्चवास अधिक होता है। ऐसी अभिव्यक्ति चालीस-पचास की उम्र में भी दिख जाती है। मेरी उम्र के आसपास और कुछ जरा कम उम्र के लोग भी ज्यादातर अपने को प्रतिष्ठत करने के लिए अपने बारे में कहते हैं। साहित्यिक परिदृश्य से जुड़ी ज्यादातर ऐसी पोस्ट साहित्यिक परिदृश्य पर किसी बदलाव, असहमति या नाराजगी की वजह से नहीं होती है। अधिक सक्रिय ज्यादातर युवा लेखक मित्र भी साहित्य के भ्रष्टाचार पर भयवश चुप रहना अधिक पसंद करते हैं। भय सिर्फ यह कि हाय, पुरस्कार और चर्चा से वंचित हो जायेंगे या अमुक संगठन या समूह के लोग नाराज हो जायेंगे। यह जानता हूँ, इसलिए मुझे तनिक भी दुख नहीं होता कि क्यों कम लोग लाइक या कमेंट करते हैं। एक बार अग्रज मोहन श्रोत्रिय जी ने मेरे बारे में कहा था कि आँख में उंगली डाल कर साहित्य का सच दिखाता हूँ। यह श्रोत्रिय जी का बड़प्पन है कि वे मेरे बारे में ऐसा कहते हैं। इस उद्धरण का प्रयोजन सिर्फ यह कहने के लिए कि जब आप आँख मूँद कर साहित्य में काम करने वाले लोगों की आँख में उंगली डालेंगे तो वे भला आपको क्यों पसंद करेंगे। पर यह सच है कि आप अपने समय के साहित्यक परिदृश्य पर भूमिगत यथार्थ को फटकार कर कहने के लिए कबीर बनने की हिमाकत करते हैं, तो वे आपके साथ तो नहीं आयेंगे, पर छिप-छिप कर आपकी बात सुनेंगे और पढ़ेंगे, जैसे कुछ लेखों की फोटो कापियाँ पढ़ी गयीं। यह सिर्फ इसलिए कि जब यह आप जानेंगे तो आपको कतई लाइक और कमेंट की संख्या को लेकर कोई दुख नहीं होगा। मैं जब कई लोगों की पोस्ट के साथ सौ-दो सौ की लाइक और कमेंट देखता हूँ तो कतई बुरा नही लगता। क्यों कि मेरी उम्र के या युवा लेखक मित्रों की उन सौ-दो सौ लाइक में साहित्य में काम करने वाले गंभीर लोग नहीं होते है। अधिकांश अन्य क्षेत्रों के लोग होते हैं। नवनीत जी ने अपने जिन तीन अनुभूत सत्यों का जिक्र किया है, वे हैं-पहला-पोस्ट चाहे जैसी हो अगर प्रोफाइल फीमेल है तो दावा है खूब-खूब सारे लाइक और कमेंट मिलेंगे। दूसरा-पोस्ट चाहे जैसी हो अगर पोस्ट किसी प्रोमिनेंट फिगर की है तो भी कुछ लाइक और कमेंट मिलेंगे। तीसरा-पोस्ट चाहे कितनी ही अच्छी, सही और मुद्दे की हो लेकिन अगर प्रोफाइल दमदार नहीं तो बहुत मुश्किल है कि आपकी बात को आपके निजी मित्रों से बाहर किसी का समर्थन मिल पाए। विनम्र निवेदन यह कि यह देखें कि किसी फीमेल की पोस्ट में लाइक की संख्या महत्वपूर्ण है या कैसे लोग उनकी बात को पसंद करते हैं, यह महत्वपूर्ण है। कविता वाचक्नवी की तमाम पोस्ट को बहुत से लोग लाइक करते हैं, लेकिन मैं यह नहीं मानता कि मेरे जैसे दूसरे कई मित्रों की पसंद का उनके लिए वही अर्थ है जो बाकी मित्रों की पसंद का। उन्हें पता है कि कौन मित्र पाठक मित्र है और कौन मित्र लेखक मित्र है। दूसरी बात कम उम्र की बच्चियों बौर बहनों की पसंद का तो उनसे किसी प्रकार की ईर्ष्या का भाव नहीं होना चाहिए, बल्कि यह देखना चाहिए कि कितने लोग उनकी बात सुन रहे हैं और वे कैसे संवाद कर रही हैं। मनीषा पाण्डेय नाम की एक कम उम्र की मित्र के संवाद देखें। हम लेखक मित्रों को कोई चुनाव लड़ना है क्या कि हम लाइक बढ़ाने के उपाय ढ़ँूढे। मै जानता हँू कि कौन-कौन मुझे पढ़ता है, भले ही वह लाइक का बटन नहीं दबाता है। हम किसके लिए लिखते या कहते हैं, इस पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। नये लेखक इस भ्रम में हो सकते हैं कि उन्हें बहुत से लोग लाइक करते हैं। एफबी मित्र की सामाजिक हैसियत या पद उसकी पोस्ट को ज्यादा लाइक जरूर दिला सकता है। कोई किसी बड़े अखबार का संपादक है तो बहुत से लोग इस आकर्षण में लाइक-वाइक या कमेंट कर सकते हैं। लेकिन मेरी उम्र का व्यक्ति क्या ऐसा करेगा या मैं पहले उसकी बात देखूँगा, अच्छी है तब लाइक करूँगा। मैं तो यह भी देखूँगा कि वह व्यक्ति जितना बड़ा संपादक है, क्या उतना ही बड़ा लेखक भी है ? ऐसा कोई व्यक्ति जो साहित्य के प्रति उसी निष्ठा से न जुड़ा हो जैसा मैं अपने को महसूस करता हँू, तो उसके लाइक न करने का मुझे कोई दुख नहीं होता है। यह भी जानता हूँ कि बड़े संपादक की कुर्सी पर बैठने मात्र से कोई निडर संपादक नहीं हो जाता है। जो संपादक, साहित्य की सत्ता से डरेगा भला वह राजनीति और समाज की सत्ता के सामने कैसे टिकेगा। कई सरकारी अधिकारी हैं, जिनकी पोस्ट को बहुत कम लोग लाइक करते हैं। जाहिर है कि यहाँ पद नहीं बल्कि रचना का सवाल होता है। मित्रो, यह निवेदन इसलिए कि आप लाइक और कमेंट पर नहीं अपनी अभिव्यक्ति पर ध्यान दें। आप क्या कह कर सुकून महसूस करते हैं। क्या आप यह सोचते हैं कि आप इस धरती पर क्या करने और कहने के लिए आये हैं ? या यह सोचते हैं कि अमुक को खुश करके पुरस्कार और कार्यक्रम का निमंत्रण पाने के लिए आये हैं। मित्रों डर कर मेरी पोस्ट को लाइक न करने की दिक्कत कुछ मशहूर प्रोफसर और लेखक लोगों के साथ भी है। कुछ तो हिंदी के नये अंतरराष्ट्रीय लेखकों के साथ भी ऐसा ही डर है। लेकिन मैं तनिक भी बुरा नहीं मानता। मुझे इस बात का संतोष है कि मैंने लिखा वह जो चाहा। किसी संपादक या आलोचक या साहित्य की सत्ता को प्रसन्न करने के लिए उस तरह का साहित्यिक जीवन नहीं जिया है, जैसा आज बहुत से लोग जीते हैं। कुछ लोग आग को छूने से डरते तो हैं और मैं आग से प्रेम करता हँू। अपना काम कीजिए। लाइक और कमेंट की चिता करने की कोई जरूरत नहीं है। अंत में यह कि फेसबुक एक ऐसा माध्यम है, जहाँ आप किसी शहर में रहते हुए भी अपनी निडरता और खासतौर से लेखकीय स्वाभिमान की वजह बाहर कर दिये जाने पर भी एक सचमुच का समाज पा सकते हैं, जहाँ कुछ लोग आपकी तरह सोचने और जीने वाले हैं। मैं इन्हीं कुछ मित्रों को देखना और इनसे ही संवाद करना पसंद करता हँू..........
वीआईपीवाद के पंजे में फँसा है जनसुरक्षा का टेंटुआ...
by Ganesh Pandey (Notes) on Sunday, April 21, 2013 at 3:22pm
यह किताब भी अजीब किताब है। कुछ होते ही कई पन्ने आप से आप फड़फड़ाने लगते हैं। कभी इसका रंग लाल दिखता है तो कभी काला तो कभी इंद्रधनुष जैसा लुभावना। कभी-कभी तो इतना बेमेल दिखता है कि देखने का मन नहीं करता है। देश एक पाँच बरस की बेटी के साथ हुए हादसे से सदमें में है और एक लेखक अपनी फोटो बदल रहे हैं, एक संपादक अपनी निजी दुनिया में विचरण कर रहे हैं। यही लोग देश और समाज के शुभचिंतक हैं ? कुछ लेखक लोग इस घटना पर प्रवचन में दुश्मन नम्बर एक के रूप में पूँजीवाद को पहले गिरिफ्तार करने की बात करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि भाई पूँजीवाद कोई घुरहुआ-निरहुआ नहीं है कि उसे आप कहीं से पकड़ कर जेल में ठूँस देंगे और सारी समस्या पलक झपकते ही छूमंतर हो जाएगी। अरे भाई पूँजीवाद एक बड़ी बीमारी है, जाते-जाते जाएगी, एक लंबी लड़ाई है। साल-दो साल में कुछ नहीं होने वाला। जब किसी व्यवस्था को राजरोग हो जाता है तो उसकी लंबी दवाई होती है। किसी आदमी को तपेदिक हो और उसका पैर भी टूट जाए तो पैर टूटने का इलाज क्या तपेदिक ठीक होने के बाद किया जाएगा ? या पैर को दिखाने हड्डी के चिकित्सक के पास जाएँगे ? प्लास्टर वगैरह जो जरूरी होगा, करेंगे ? कहना यह कि मौजूदा लोकतंत्र के फेफड़े में क्षय रोग हो गया है, जिसकी उपयुक्त चिकित्सा की जरूरत है। गंभीर बात यह कि लोकतंत्र को राजरोग के साथ पोलियो भी हो गया है। इससे भी गंभीर बात यह कि पोलियो दाहिने हाथ में हो गया है। सीधे-सीधे कहूँ तो पुलिसतंत्र को पोलियो हो गया है। विचारणीय यह कि यह पोलियो किसी टीके से नहीं दूर होगा, इसे दूर करने के लिए पुलिसतंत्र को ही कहीं दूर व्यवस्थित करना पड़ेगा। जब तक पुलिस का पोलियो ठीक न हो जाए तब तक उसे लालबत्ती अर्थात वीआईपी ड्यूटी या वीआईपीवाद से दूर रखना पड़ेगा। उसे जनता का सेवक और रक्षक बनाने के लिए राजनीतिक गुलामी से मुक्त करना पड़ेगा। उसकी सेवाशर्तों में बड़े फेरबदल की जरूरत है। उसे पहले जनता की रक्षा करने के लिए बाध्य करना पड़ेगा।
इस घटना पर कुछ लोग कहते हैं कि फाँसी की सजा हो जाए तो क्या ऐसे अपराध बंद हो जाएंगे ? मैं कहना चाहता हूँ कि फाँसी की सजा नहीं है तो क्या ऐसे अपराध बंद हैं ? मानवाधिकारों की बात करने वाले कुछ लोग बड़े अपराधियों को फाँसी न देने की वकालत करते दिख जाते हैं। उनका कहना है कि फाँसी की सजा न हो। जानने की इच्छा होती है कि भाई जब एक या दस हत्या करने वाले अपराधी को फाँसी न देने की बात की जाती है या ऐसा कानून बनाने की बात की जाती है तो फिर सेनाओं को दुश्मनों को मौत के घाट उतारने की अनुमति क्यों ? आखिर दुश्मन भी तो मानव है, उसके भी जिंदा रहने का अधिकार उस समय कहाँ होता है ? क्या उस समय संकीर्ण मानवाधिकार की बात करने वाली बहन या भाई को युद्ध के मोर्च पर भेज देना चाहिए ? क्या जिसकी हत्या होती है या जिसके देह के साथ क्रूरतम व्यवहार किया जाता है, उसके दर्द का कोई मोल नहीं है ? बस मानवाधिकार की ओर से निंदा के दो बोल काफी हैं ? क्या शरीर में गंभीर बीमारी होने पर कभी उसके अंग को अलग नहीं किया जाता है ? यहाँ फाँसी के दंड के पक्ष में कोई बहस नहीं कर रहा हूँ। सिर्फ यह कह रहा हूँ कि लकीर के फकीर मत बनिए। प्रगतिशीलता को पहले तर्क की कसौटी पर कसिए। फिर आप यह मुनासिब पाते हैं कि फाँसी की सजा एकदम से खत्म कर दी जाए तो खत्म कर दीजिए। लेकिन देखना यह है कि आप इस धरती पर सिर्फ फाँसी की सजा खत्म कर देने का स्वप्न देखने के लिए पैदा हुए हैं या समाज को हिंसा मुक्त कराने के लिए ? जिस देश में रहते हैं, उसे बेटियों और बहनों को सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए बेहतर बनाने के लिए योगदान करना चाहते हैं ? तर्क सिर्फ फाँसी की सजा तक ही नहीं रह जाएगा, फिर तो यह भी पूछना पड़ेगा कि भाई हथियार की क्या जरूरत ? बैंकों की सुरक्षा तो मानवाधिकार वाले लोग कर ही लेंगे ? बाहर की सेनाओं को भी अपने भाषण से प्रभावित कर लेंगे ? क्या मानवाधिकार की सोच का दायरा तंग है ? मानवाधिकार की बात क्या वहाँ नहीं करनी चाहिए जहाँ शासन की पुलिस या अन्य बल निहत्थे लोगों पर क्रूरताएँ करते हैं ? पिछड़े लोगों को ताकत के बल पर दबाते हैं, उनका सबकुछ छीन लेते हैं। उनकी आबरू लूट लेते हैं। फिर यहाँ आबरू लूटने वालों के साथ जान की माफी की बात क्यों ? जिस स्त्री या बच्ची के साथ ऐसा कुछ होता है, उसे न जाने कितनी बार, शायद रोज मरना होता होगा। पर यह जानता हूँ कि फाँसी की सजा से भी हमारा समाज सचमुच बदल नहीं जाएगा। हत्याएँ रुक गयीं क्या ? दूसरे अपराध खत्म हो गये क्या ? दरअसल सबसे बड़ा सवाल कानून के राज का है। कानून के डर का है। संविधान के प्रति निष्ठा का है। लेकिन यह होगा कैसे ? क्या हमारे देश के राजनेताओं की निष्ठा सचमुच संविधान के प्रति सच्ची है या सब दिखावा है ? कानून का डर वीआईपी को नहीं होगा तो जनता को कानून का डर कैसे होगा ? राजा कानून तोड़ेगा तो जनता कानून का पालन कैसे करेगी ? यह सब यह कहने के लिए कह रहा हूँ कि हमारे लोकतंत्र के चुनाव में पैसे की भूमिका सबसे खतरनाक है। इसी पैसे के लिए कानून तोड़ने का खेल चलता है। यह सब विचारणीय है पर सबसे पहले वीआईपी की सेवा से पुलिस को मुक्त करने की जोरदार पहल हो।
सच तो यह कि सिर्फ राजधानी ही नहीं, देश के बाकी हिस्सों में भी इस तरह के हादसे बच्चियों और महिलाओं के साथ हो रहे हैं। जिन पर मीडिया का फोकस कम है। पुलिस के चरित्र की समस्या वहाँ भी कमोबेश ऐसी ही है। पुलिस परिवार की बच्चियों को भी कई बार यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। फिर भी अपराध छिपाना और अल्पीकरण करना या गलत दिशा देना, आम बात है तो ऐसा इसलिए कि पूरे देश में पुलिस कानून की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि सत्ता और वीआईपी की रक्षा के लिए काम करती है। जाहिर है कि यह सब खुशी-खुशी नहीं, बल्कि अपनी सेवाशर्तों की वजह से ऐसा करती है। जनांदोलन इस बात के लिए भी होना चाहिए कि सरकारें सबसे पहले जनता की पुलिस से अपना काम लेना बंद करें अपनी सुरक्षा लिए दूसरे बल का गठन करें, चाहें तो दूसरी फौज बना लें। पर जनता की सुरक्षा में संेध न लगाएँ। सच तो यह कि आज की तारीख में जनसुरक्षा का टेंटुआ वीआईपीवाद के पंजें में फँसा है। इस वीआईपीवाद से टकराना ही होगा। वे जिस दिन पुलिस को अपनी सेवा से मुक्त कर देंगे, कम से कम कानून में भी इससे बेहतर हो जाएगा।
साहित्य के पूँजीवाद से कब लड़ेंगे ?
by Ganesh Pandey (Notes) on Saturday, May 4, 2013 at 8:46pm
युवामित्रो द्वारा की जा रही एक अखबार के संपादकजी की तीव्र आलोचना ने ध्यान खींचा है। युवा मित्रों के हौसले के साथ हूँ। युवा ही नहीं बल्कि कुछ वरिष्ठ मित्र भी संपादकजी से असहमत हैं। एक मित्र ने अपनी पीड़ा को जरा तल्ख लहजे में रघुवीर सहाय के मुहावरे से ठीक ही कहा कि ऐसे ही रहा तो अमुक अखबार बच्चों के नम्बर दो के लायक रह जाएगा। एक युवामित्र ने कहा कि जैसे रोम के जलने पर वहाँ का शासक वंशी बजा रहा था, संपादकजी भी अपनी वंशी में लीन हैं। पता नहीं धुन में या वंशी में या दोनों में या किसी की याद में। एक अशोकजी हैं एक कमलेश जी हैं। ऐसे कई ‘जी’ साहित्य में सक्रिय हैं। यह ‘जी’ एक सामाजिक-सांस्कृतिक (एक अर्थ में राजनीतिक भी) संगठन के लोगों द्वारा अनिवार्य रूप से लगाया जाने वाला आदरसूचक एक विशेष पद है। संबोधन ही नही, कहीं भी उल्लेख करना हो तो रेल के इंजन की तरह श्री लगाने के बाद अंत में गार्ड के डिब्बे की तरह ‘जी’ जरूर लगता है। पर यही ‘जी’ प्रगतिशील मित्रों के हाथ लगते ही सिर्फ और सिर्फ एक औपचारिक आदर बन जाता है। जैसे नामवरजी। हृदय से सम्मान न भी करते हों तो दिखाने के लिए ही सही। हो सकता है कि बहुत से लोग संपादकजी का भी सम्मान सिर्फ दिखाने के लिए ही करते हों या इसलिए कि वे एक अखबार के संपादक हैं, इसलिए। वे संपादक न रहते तो कितने लोग किस तरह सम्मान करते, यह एक अलग विषय है। पर विनम्रतापूर्वक यह जरूर कहूँगा कि तब लोग उनके लिखे को देखकर करते। अशोकजी का न चाहते हुए भी लोग सम्मान इसलिए करते हैं कि उन्होंने बकौलखुद हजार से अधिक कविताएँ लिखी हैं, जैसे तेंदुलकर ने कई हजार रन बनाए हैं। वे एक बड़े अफसर थे, कई साहित्यिक संस्थाओं के प्रधान थे। पर क्या अपने समय के और अपने आसपास के लेखकों में उनका काम सबसे अच्छा है ? वे जितनी जगह घेरते हैं, सचमुच उतनी जगह के अधिकारी हैं ? मैं बहुत छोटा आदमी हूँ, बड़े संकोच के साथ यह कह रहा हूँ। पर जब कोई साहित्य की एक चली हुई दुकान हो जाएगा तो कुछ लोग तो उस दुकान के साथ रहेंगे ही। दरअसल साहित्य में ऐसी कई दुकानें हैं। सिर्फ अशोकजी ही क्यों , दो और भी हैं। कुछ लेखक संगठन भी दुकान ही हैं। जब मैं दुकान कह रहा हूँ तो उन्हें छोटा नहीं बना रहा हँू बल्कि यह कह रहा हूँ कि जैसे दुकान अपने फायदे की बात सोचती है, इसी तरह यह लोग भी अपनी दुकान के फायदे की बात सोचते हैं। साहित्य में दोनों तरफ यही दुकानदारी है। खरीदने और बेचने का काम एक जैसा चलता है। संपादकजी भी किसी दुकान के से जुड़ गये हों तो कुछ गलत नहीं। आज देश की राजनीति में ही नहीं, साहित्य के देश में भी दबंगों और गिरोहोे का बोलबाला है। वहाँ लालबत्ती है तो यहाँ भी लालबत्ती बँटती है। सारा लफड़ा ही लालबत्ती का है। आप अगर किसी गिरोह में नहीं होंगे तो आपको पूछेगा कौन ? अकेले रहने का साहस जिसके भी पास नहीं होगा, वह इसी तरह के दरबारों के रत्न और उपरत्न बनने की कोशिश करेगा। मित्रो, मैं किसी का व्यक्तिगत रूप से असम्मान नहीं कर रहा हूँ बल्कि इस खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशारा कर रहा हूँ। कई बार कह चुका हूँ कि यह गिरोहबंदी साहित्य के लिए नुकसानदेह है। इस गिरोहबंदी को बढ़ावा देने वाली चीजों में पुरस्कार और चर्चा है। कम काम करके भी अधिक मान-सम्मान पाने की लालसा भी पूँजीवादी सोच ही है। गैरवाम के लोग यह करें तो कह सकते हैं कि उनका रास्ता ही दूसरा है, हालांकि गलत वह भी है, पर वाम के लोग करते हैं तो हजार गुना अधिक गलत है। जब तक यह सब रहेगा तब तक एक नहीं हजार कमलेश आयेंगे-जायेंगे, हजार आजपेयी-वाजपेयी आते-जाते रहेंगे। मुद्दा सिर्फ सीआईए को मानवता के लिए जादू की छड़ी मानने का होगा या सीआईए के विरोध तक सीमित रहेगा तो साहित्य के जरूरी संघर्ष का मुद्दा कभी केंद्र में नहीं आएगा। आज साहित्य में सबसे बड़ा खतरा साहित्य के पूँजीवाद से है। पूँजीवादी संस्कृति से है। ठीक है कि आप सीआईए को मानवता के लिए वरदान मानने वालों की जमकर आलोचना करें। चोट पर चोट करें। पर यह साहित्य में कुछ बदलाव लाने वाली कोई निर्णायक लड़ाई नहीं हो सकती है। कुछ और भी सोचना होगा।
आज बड़े-बड़े संपादकजी लोग डरते हैं कि फलाना जी नाराज हो जाएंगे, इसलिए इसके साथ न दिखो, उसके साथ न रहो, यह न करो, वह न करो या कुछ लोग विरोध वहाँ करेंगे जहाँ पुरस्कार खोने का डर नहीं होगा तो इस तरह के डर हमेशा नुकसान साहित्य का ही करेंगे। एक संपादक चाहे जितना शक्तिशाली हो जाय, यदि उसके पास साहस नहीं है तो वह दो कौड़ी का है। एक लेखक चाहे जितना शोर मचाए लेकिन उसके पास पुरस्स्कर और चर्चा के भ्रष्ट पथ को तजने का साहस नहीं है तो उसकी सारी खुद की या सांगठनिक ताकत भी दो कौड़ी की है। असल बात सिर्फ साहस का है। साहस ही शक्ति की खोज करता है, शक्ति अर्जित करता है। शक्ति से साहस नहीं पैदा होता। जोड़तोड़ और तिकड़म में लगे हुए लेखक-संपादक साहित्य की इन मुश्किलों पर ध्यान देंगे तो साहित्य का भला होगा। पर यह तब होगा जब आप अपना नहीं, साहित्य का भला करना चाहेंगे। कहना यह है संपादकजी और उनसे भिड़ने वाले मित्र अ शोकजी और क मलेशजी के विवाद से आगे बढ़े। साहित्य की जरूरी लड़ाई तक पहुँचें। साहित्य का धंधा करने वाली सभी संस्थाओं और संगठनों और लेखकों का विरोध करें। जैसे संसद में दागी लोग पहुँच जाते हैं, उसी तरह साहित्य की संसदों में दागी और फर्जी लेखक पहुँच जाते हैं। जैसे कई पत्रकार दूसरे रास्ते से संसद में पहुँच जाते हैं, उसी तरह कुछ पत्रकार भी साहित्य की संसद में पहुँचने के लिए दूसरे रास्ते का इस्तेमाल करते हैं।
जरूरत आज इस बात की ज्यादा है कि साहित्य की सभी संस्थाओं को भ्रष्टाचार मुक्त करने, उसे अधिक लोकतांत्रिक, अधिक पारदर्शी बनाने के लिए काम करें। वैसे यह सिर्फ एक मामूली विचार है, जरूरी नहीं लोग जिस वाद-विवाद में लगें हुए हैं उससे आगे बढ़कर ऐसा कुछ सोचें या करें। मैं तो ऐसे ही कहता रहता हूँ।
निशाने पर सिर्फ लेखक संगठन ही क्यों
by Ganesh Pandey (Notes) on Thursday, May 16, 2013 at 5:38pm
खून में मीठा 120/150 है। रिपोर्ट बिल्कुल नार्मल है। फिर भी कल से बहुत थकान महसूस कर रहा हूँ। कुछ देखकर कुछ कहने का मन नहीं करता है। चलो कोई भी कुछ कह लो। मैं कुछ नहीं कहता। लेकिन मेरे एक प्यारे बच्चे ने लेखक संगठन को लेकर एक बहुत अच्छी बात कह दी है। मैं थोड़ी देर के लिए अपनी थकान भूल गया हूँ। हालांकि जहाँ तक मैं समझ पा रहा हूँ, मेरी थकान देह की कम है मन की ज्यादा। लड़ते-लड़ते थक गया हूँ। कुछ दिन आराम करूँगा, फिर पहनूँगा युद्ध की पोशाक और कूद पड़ूँगा। अब न भी कहूँ और कुछ तो भी वे खुद चिार करने लगे हैं, जिन्हें विचार करने की जरूरत ज्यादा थी। इसका मतलब यह नहीं कि संपादकजी को संपादक होने के नाते विचार करने से छूट मिल जाती है। संपादकजी ने अपनी एकतरफा साहित्य-निष्ठा की वजह से या संपादक के रूप में अपनी निडरता की वजह से दोनों तरफ देखे बगैर लेखक संगठनों को मुर्गा बनाया है। पड़रौना वाले अपने केदार जी के हवाले से। संपादक जी हिसाब से बस लेखक संगठन ही बुरे हैं। इतना ही नहीं शायद उनकी दृष्टि में सारी खुराफात की जड़ हैं। अपने स्टेटस में उन्होंने यह सीधे-सीधे तो नहीं कहा पर उनके कहने का आशय यही है कि जो लेखक संगठनों से जुड़े नहीं हैं, वे दूध के धुले हैं। हिंदी साहित्य के मौजूदा परिदृश्य को रत्तीभर भी गंदा करने का काम उन्होंने नहीं किया है। संपादकजी कितने भोले हैं कि संगठन के रूप में सिर्फ प्रलेस, जलेस और जसम को देख रहे हैं। क्या संगठन के लिए कोई निश्चित संख्या या औपचारिक घोषणा जरूरी है ? आज साहित्य के अनेक गिरोहों और लेखक संगठन में क्या अंतर है ? संगठन वाले तो बुरा ही सही, जो कर रहे हैं खुले आम कर रहे हैं। गिरोह वाले तो साहित्य का भूमिगत संगठन चला कर बड़े से बड़ा अपराध कर रहे हैं। कवियों, कथाकारों और आलोचकों और संपादकों के अपने -अपने गिरोह हैं। ये दिल्ली ही नहीं लखनऊ और गोरखपुर में अर्थात कहाँ नहीं हैं ? अस्वस्थ अनुभव करने के बावजूद कहना जरूरी है कि लेखक संगठनों को उल्टा लटका दीजिए संपादक जी, लेकिन इन गिरोहों पर भी एक नजर डालिए। खुद को भी देखिए कि कहीं आप किसी गिरोह के भीतर तो नहीं हैं ? शायद संपादक होने के नाते आप किसी गिरोह में न हों। मैं ठीक-ठीक नहीं जानता हूँ। दुर्भाग्य से आपका प्रतिष्ठित पत्र मेरे मुहल्ले के हाकरों को प्रिय नहीं है, इसलिए उसे नित्य देख नहीं पाता हूँ। यह सब यह जानने के लिए कह रहा हूँ कि आप साहित्य के प्रति समर्पित संपादक हैं और आपकी बहुत प्रतिष्ठा है, फिर तो आपने जैसे इधर मीडिया ने राजनीति के भ्रष्टाचार को प्रमुखता से उजागर किया है, अपने साहित्य के भ्रष्टाचार को उजागर किया होगा, क्यों संपादकजी ? दिल्ली और देश की अन्य राजधानियों में स्थित सरकारी और गैर सरकारी साहित्यिक संस्थानों के भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई मुहिम जरूर चलाई होगी ? यदि हाँ तो मुझे आगे कुछ नहीं कहना है। यदि नही ंतो भी प्रश्न बहुत छोटा-सा कि फिर बेचारे लेखक संगठनों जुड़े लेखक ही क्यों आपकी कलम की नोंक पर हैं ? यह तो नाइंसाफी हुई। शुरू में मैंने जिस बच्चे की बात की, साफ कर दूँ कि सिर्फ यहाँ के स्थानीय मुहावरे में की रहा हूँ नहीं तो वह अपनी उम्र में ही बाप बन चुका है, उसने यह बहुत अच्छी बात कही है कि लेखक संगठनों को सिर्फ बुरा-भला कहने की जगह कुछ ऐसा भी बताएँ कि आपकी अपेक्षाएँ क्या हैं ? उन्हें कैसे बेहतर बनाया जा सके ? जरूरी बात यह कि क्या गिरोहों को भी बेहतर बनाने की बात गिरोह के लोग करेंगे ? बहुत चाहकर भी अधिक कुछ अधिक नहीं पा रहा हूँ। अलबत्ता पहले के लेख का लिंक दे रहा हूँ।
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