बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

कहाँ जलाओगे मेरी देह

-गणेश पाण्डेय

कहाँ जलाओगे मेरी देह
ओ जलाने वाले
शिव की नगरी के गंगातट पर
जहाँ कोई नहीं जानता है मुझे
काशी नरेश से लेकर
मामूली से मामूली आदमी तक
कि रामजी की जिस अयोध्या को
देखा नहीं अब तक
उसी के सरयूतट पर
कि यहीं दो कदम पर बहने वाली
अपनी राप्ती के तटपर
फूँक दोगे मुझे
कि लेकर चलोगे मुझे
मेरे पुरखों के जमुआरतट पर
ओ जलाने वाले
कौन होगे तुम
मेरे बेटे
भाई के
कि रिश्ते के बेटे
ओ बेटे
तुम जिसके भी बेटे होना
मुझ गरीब के लिए
उठाना
थोड़ी सी जहमत
ले जाकर रखना मुझे उस घाटपर
जिससे नाता हो मेरी देह का
जैसे
देखोगे
आसपास
मुझे जलाने वाले
वहीं कहीं
बिखरी तमाम सदियों की राख में
सोने की कील-सी दमकती हुई
दिख जाएगी
मेरी आतुर माँ
न जाने कब से अपने आँचल में छिपाये हुए
जीवनरस
ओ जलाने वाले
रखना माँ की गोद में ऐसे मेरी देह
जैसे मैं पहली बार उसकी गोद में
पहले पूछना उससे
फिर जलाना मुझे
धीरे से
यह भी ध्यान रहे जलाने वाले
पिता के पैरों के पास रहूँ
जिनसे सीखा है मैंने चिपक-चिपक कर
जीवन की सख्त मिट्टी पर चलना
हो सके तो
कुछ देर के लिए ही सही
मेरी बाहों के घेरे के भीतर रखना
जामुन के दरख्तों की कतार के नीचे
कंचा खेलने और बीड़ी पीने वाले
एक से एक गप्पी और पतंगबाज
और मुझसे भी कम कामयाब
नन्हे दोस्तों का संसार

जिस रास्ते से निकलना
मुझे लेकर
दोस्तों और दुश्मनों
और खासतौर से
मददगारों के सामने झुककर
शुक्रिया अदा करने देना
भर आयी किसी की आँख तो पोंछने देना
जरूर
देर नहीं करूँगा
किसी गरीब के लिए खुली हुई हथेलियों को
बस चूमता हुआ चल दूँगा
और अंत में लड़ना-झगड़ना क्या किसी से
फिर मिलेंगे - कहता हुआ चल दूँगा
ओ मुझे जलाने वाले
थोड़ी-सी मदद करना और
जो हो जाय मेरे साथ
सरोसामान
कुछ ज्यादा 
मेरी मामूली देह से लिपट-लिपट कर
कुछ ठंडी और बहुत कुछ
जमाने भर की गर्म हवाएँ
मेरे पैरों के संग चलती हुई
रास्ते की थोड़ी-सी हरियाली
और बहुत सारी मुरझायी हुई पत्तियाँ
और पूजा और प्रेम के थोड़े से ताजा फूल
क्या गजब कि सब चलना चाहें
मेरे साथ
ओ मेरे बच्चे डरना मत
कह देना पृथ्वी के दारोगा से
क्या गुलमोहर और क्या अमलताश
और क्या मेरी चंपा
जो मेरी जिन्दगी में
और मेरी यादों में शामिल हैं
सबके रंग
स्पर्श
और गंध
चुराकर ले जाऊँगा पृथ्वी से
देखना
ओ जलाने वाले
जल न जाये जलाते वक्त
मेरे अनगिनत सामान
और तुम्हारी थोड़ी-सी चतुराई
तय कर लो पहले से
आग लगाओगे कैसे
शुरू से 
खुली रखना अपनी आँखें
देखना झाँककर
मेरी बंद आँखों में
छिपे तो नहीं रह गये हैं किसी कोने में
नन्हे-नन्हे स्वप्न बेशुमार
होठों पर
चिपकी तो नहीं रह गयी हैं
हजार मिट्ठियाँ
बेचारे कान
तरस तो नहीं रहे हैं अब तक
किसी अच्छी खबर के लिए
देखना
सिर के एक-एक सफेद बालों को हटाकर
फँसी तो नहीं रह गयी हैं
जीवन की चक्की में साथ-साथ पिसने वाली
निर्दोष प्रिया की बेचैन उँगलियाँ
कुछ कहने के लिए
देखना लड़के
मुझे साबुत चाहिए
मेरे ये सामान

ओ जलाने वाले
ये सब तो ठीक
पर बताओ - मरूँगा कहाँ
और तुम रहोगे कहाँ
जीवन की डोर टूटेगी किसके पास
राजस्थान में मरूँगा
कि मरूँगा उत्तर प्रदेश में
देश में मरूँगा कि मरूँगा विदेश में
अपनों के बीच एक छोटे से कमरे में
कि छत पर टहलते हुए नाती-पोतों के संग
कि गैरों के संसार में कहीं
धरती पर कि आसमान में
कि बदहवास भागती हुई ट्रेन में
इसे भी छोड़ो
जहाँ भी और जैसे मरना होगा मर लूँगा
पर ये तो बताओ - पहुँचोगे कैसे
जो रहना हुआ तुम्हें
सात समुंदर पार
और स्थगित हो गयी उड़ान
कि कई हजार किलोमीटर दूर
छूट गयी टेªन
तुम
पहुँच नहीं पाये तो करूँगा क्या
कितना करूँगा इंतजार
जो देह को फौरन हुई
आग की दरकार
आखिर लौंडे-लफड़ियों के चक्कर में
कब तक कराऊँगा
देह की साँसत
माफ करना
ओ जलाने वाले
जब जिन्दगी में तुम सब में
कोई फर्क किया नहीं
विदा की बेला में
कैसा भेद
बेटियों से करूँगा विनती -
हे बड़ी
हे छोटी
दूर क्यों खड़ी हो
आओ मेरे पास
और लाओ मेरे पास
थोड़ी-सी आग
ये क्या
रोओ मत
घबड़ाओ मत
मैं हूँ बिल्कुल पास
डरो मत मेरी बहादुर लड़कियो
याद करो
कितनी बार
सिखाया है तुम्हें छत पर
खुले आसमान में
धुआँधार पटाखे और राकेट
और रंग-बिरंगी छुरछुरियाँ जलाना
कैसे जलाती थी नटखट
खुश हो - हो कर
बचाते हुए अपनी नन्हीं-सी
छींटदार फ्रॉक
देखो तो
कैसे छुरछुरी बन गयी है आज मेरी देह
तुम्हारे लिए
हे छुटकी देर न करो
आओ बेटा
जलाओ बेटा
अपनी नायाब छुरछुरी
चलो जल्दी करो
नहीं तो आ जाएगी बड़ी
क्या पता पहुँच रहा हो भइया ।


(‘जापानी बुखार’ से)




6 टिप्‍पणियां:

  1. आह, अत्यंत भीग गया मन ! आँख भर आईं मेरी तो।

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  2. इस कविता को मैं कई बार पढ़ चुकी हूँ , भावुक कर देती है इसकी हर पंक्ति .....खासतौर से ये पंक्तियाँ - ' डरो मत मेरी बहादुर लड़कियों.... '
    उत्कृष्ट रचना ||

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    1. प्रतिभा जी, धन्यवाद। आज की कविता के परिसर में शुद्ध पाठकों की बेहद कमी है। जिधर देखिए, अशुद्ध पाठक, अशुद्ध कवि और आलोचक तो खैर महाअशुद्ध। मेरी दृष्टि में यह हमारे समय की कविता का मजाक ही है कि आज किसी कवि को इस तरह रेखांकित किसी जाय कि यह कवि अमुक-अमुक कवि की परंपरा में है। अमुक की बेहतरीन फोटो कापी है या अमुक का शानदार नकलची बंदर है। अरे भाई यह सब बहुत खराब है। ऐसे कवि को प्रमोट करने के धंधे में लगे हुए लोग कविता विरोधी है। ये साहित्य के मित्र तो हरगिज नहीं हैं। दुर्भाग्य यह कि आज के चर्चित कवियों की पाँच-सात प्रतिनिधि कविताओं को बताने का साहस आज के आलोचकों के पास नहीं है। क्यों कि ऐसा करते ही उनकी पोल खुल जाएगी। जाहिर है वे डरते हैं कि कहीं कोई यह न कह दे कि भाई जरा अमुक कवि की अमुक-अमुक कविता को सामने रख कर देख लो। अपने समय की कविता की भ्रष्ट सरकार के बारे में निराला भी ऐसा ही कुछ कह चुके हैं। बहरहाल, आपको एकबार फिर बहुत धन्यवाद।

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  3. धन्यवाद प्रतिभा शेयर करने के लिये ,मैंने पहली बार पढ़ी ,संवेदनशील मन की आकांक्षा --सच में भावुक कर गयी ,छुटकी की छुरछुरी --मैं गयी थी अपने पिता माँ के साथ शमशान में और हाँ अजय, ईरा के साथ भी ,लेपन ,समिधा जल सभी किया। कविता पढ़के यूँ लगा मेरे ही मन की बात हो --पांडेजी को बधाई और शुभकामनायें।

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