सोमवार, 13 जुलाई 2020

आलोचकनामा

- गणेश पाण्डेय

1

हिंदी का आलोचक है
हमारे समय का पुराना घाघ आलोचक है
इसके सुनहले फ्रेम के चश्मे पर मत जाइए
इसके भोले-भाले चेहरे पर मत जाइए
इसकी दुर्घटनाग्रस्त टूटी-फूटी आत्मा देखिए
उसे न देख पा रहे हों तो इसे ज़रा ग़ौर से देखिए
कैसे इसके रंग-बिरंगे कपड़े हैं देखिए
लालछींट का कुर्ता देखिए जैसे ख़ून के दाग़ हों
ओह बेढंगा पाजामा देखिए
कितना ढीला-ढाला है जैसे शहर का नाला है
थोड़ा नज़दीक से देखिए कुर्ता उठाकर देखिए
अरे इस नाशुकरे के पास तो ईमान का नाड़ा ही नहीं है।

2

हिंदी का आलोचक है
कैसी शक़्ल है इसकी गर्दन बिल्कुल शुतुरमुर्ग जैसी 
जिसे उठाकर और ऊपर और उसके ऊपर मुँह करके
उफ़ कैसे ज़ोर-जोर से थूकता है बारबार कोई नाम लेकर
और अपनी जगह से टस से मस नहीं होता है
एक बार भी सोचता नहीं कि सब उस पर ही पड़ता है
ओह कितना नशा है इसे अपने आलोचक होने पर
बेशर्मी देखिए पिटाई को प्रशंसा समझता है
जैसे नागार्जुन उसे धंधा करने का लाइसेंस दे गये हों -
अगर कीर्ति का फल चखना है आलोचक को ख़ुश रखना है
ओह कैसे शान से खोल रखा है उसने अपने शहर में
शुद्ध देशी घी का कीर्ति लड्डू भण्डार
उसने अपने कीर्ति लड्डू भण्डार के बाहर 
पुरोहिताई का अलग से एक स्टाल लगाकर 
कवि के गर्भाधान से लेकर 
अंत्येष्टि तक के सोलह संस्कारों के लिए
बाकायदा रेटलिस्ट टांग दिया है
आज्ञा से त्रिलोचन और साथ में यह लिखकर -
आलोचक है नया पुरोहित उसे खिलाओ
सकल कवि-यशःप्रार्थी, देकर मिलो मिलाओ
और सचमुच ऐसे मुग्ध कवियों का मेला लगा हुआ है
इस चोट्टे की दुकान के सामने।

3

हिंदी का आलोचक है
बड़ा पढ़ाकू है जी पट्ठे ने ख़ूब पढ़ रखा है
सोलह दर्जा पढ़ने के बाद सोलह दर्जा और पढ़ रखा है
कुल बत्तीस दर्जा पढ़ रखा है शायद उससे भी ज़्यादा
न न न सिर नहीं पैर धंसाकर पढ़ा है सिर से हो नहीं पाता
जितना पढ़ रखा है उससे एक इंच भी इधर-उधर नहीं होता है
असल में पट्ठे के दिमाग़ में दिमाग़ की जगह
आलमारियों पर किताब की तरह किताबें जमा हैं
सो दिमाग़़ में दिमाग़़ रखने के लिए जगह ही नहीं बची है
इसलिए कोई बीसेक साल से ख़ुद से कुछ सोचता ही नहीं है
बस आप समझ लें कि बंदा हिंदी का आलोचक-सालोचक नहीं 
हमारे समय की आलोचना की सिलाई कढ़ाई का कोई कारीगर है
दिमाग़ बंदकर और आंख मूंदकर धड़ल्ले से आलोचना कर रहा है।

4

हिंदी का आलोचक है
आलोचक क्या है पूरा रंगरेज़ है
आलोचना करता नहीं बस काग़ज़ रंगता है
फूल-पत्ती नदी-नाले गाँव-साँव बनाता है
उसके लिए यही कविता का लोक और जीवन है
उसके लोकजीवन में 
न किसान आंदोलन है न मज़दूर
पट्ठे को यह भी नहीं पता कि लोकजीवन में
महामारी की छाया भी है मलेरिया भी है 
जापानी बुख़ार भी है कोरोना भी है
पोलियो भी है कालाजार भी है
इतनी छोटी सी बात जानता नहीं आलोचक बनता है 
चरणरज लेने वालों को कवि समझता है महाकवि समझता है
जबकि ख़ुद दिल्ली के मठाधीशों के सामने
साष्टांग लेटकर चरणरज लेता है
जिस आलोचक का विकास केंचुए की तरह होगा 
वह हिंदी का आलोचक कैसे हो सकता है नहीं हो सकता है
ज़रूर यह आलोचना का संदिग्धकाल है।

5

हिंदी का आलोचक है
जिधर सब लोग जमा होते हैं उसी ओर भागता है
और वहीं उसी भीड़ में घुसकर तमाशा देखता रहता है
चाहे जो हो जाए चाहे सिर पर कुछ भी पड़ जाएं हज़ार
कोई कुछ भी कह ले बंदा हटने का नाम नहीं लेता है
उसका अपने आप से वादा है आलोचक का तमगा लिए बिना
ऐसी जगहों से हटना नहीं है
उसे मंच पर चढ़ना ही चढ़ना है पर्चा पढ़ना ही पढ़ना है
माइक पकड़कर मंच पर झूमना ही झूमना ही है
इस तरह आलोचक होना ही होना है
और अनंतकाल तक आलोचक बने रहना है
असल में वह इस बात को मान ही नहीं सकता है
कि आलोचक बनने के लिए भी ठोस वजह का होना ज़रूरी है।

6

हिंदी का आलोचक है
इसीलिए चिरकुट बना फिरता है मारा-मारा जगह-जगह
साहित्य के महाजनों और उप महाजनों के पीछे-पीछे
इसकी गठरी उसकी गठरी चोर-उचक्कों तक का सामान ढोता है
बंदे को कोई भला आदमी कुछ कह दे तो उस पर खौंखियाता है 
असल में उसके पास 
अपना कुछ ढोने के लिए है ही नहीं
आलोचना में दूस़रे का ढोना ही एक प्रकार से उसकी जीविका है।

7

हिंदी का आलोचक है
बड़ा ज़बर आलोचक है किसी को कुछ समझता ही नहीं है
ख़ुद को कवियों का मालिक बनता है सब उसके हिसाब से उठें-बैठें
जैसा कहे कविता लिखें माठा कर रखा है समझिए
कि कोई चूहा शेर के पास जाकर उसके कान में कह रहा हो
खड़े हो जाओ और फटाफट अपनी कविता दिखाओ
वह तो कहिए कि इस सदी में है निराला बाल-बाल बच गये
पिछली सदी में रहा होता तो निराला को छड़ी से कोंचकर जगाता
और कहता कविता दिखाओ यह अलग बात है कि निराला 
जागते बाद में पहले उसे जूते से लाल कर देते फिर कहते 
’हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र’ लिखता हूं तो तेरे बाप क्या जाता है बे
अबे सुन बे गुलाब लिखता हूं तो अबे तेरा क्या जाता है
आलोचक नाम का यह जीव उस समय क्या करता 
या निराला इसे क्या करके लौटाते अनुमान का विषय है
फ़िलहाल तो पट्ठा कहता फिर रहा है
कि आज की कविता में वसंत का अग्रदूत वही होगा 
जो दिल्ली दरबार की गोद में पला-बढ़ा होगा
बाहर सुदूर प्रकृति की गोद में
धूल-मिट्टी में लोटने और आँधी-पानी में बड़े होने वाले कवि 
वसंत के अग्रदूत क्या झँटुही कवि भी नहीं हो सकते हैं
मैं पूछता हूं कि अबे कवियों का सुपरवाइजर
तुझे बनाया किसने है पहले उसे बुला
उसको जीभर कर दुरुस्त कर लूं
फिर तुझे बताता हूं उलटा लटकाकर डंडा करता हूं
अब आप लोग ही बताएं कि ऐसे 
नामाकूल आलोचक के साथ क्या-क्या किया जाय 
जिसे यह नहीं पता कि रामविलास शर्मा को आखि़र
निराला की साहित्य साधना लिखते समय
भाग एक लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी
कविता के साथ कवि का जीवन देखना क्यों ज़रूरी है
सच तो यह कि आलोचक का जीवन भी
उसके मूल्यांकन के लिए देखना उतना ही ज़रूरी है
यह न समझें कि हरामज़ादे आलोचकों को बर्दाश्त करना 
कविता की मजबूरी है।

8

हिंदी का आलोचक है
ये वाला और ये मेरी पीढ़ी का है
कहता है कि मैंने अपनी ख़राब कविताओं से
हिंदी कविता का इकलौता रजिस्टर भर दिया है
और अच्छी कविताओं को लिखने के लिए जगह नहीं बची है
अब कहाँ जाएंगे भला अच्छी कविता लिखने वाले कवि
अरे भाई माना कि मैंने रजिस्टर भर दिया है
अभी तुम्हारी पूरी कमीज पूरा पतलून
तुम्हारी ओढ़ने और बिछाने की चादर तुम्हारा तकिया 
तुम्हारी रूमाल और तुम्हारे आँगन का आसमान
तुम्हारी दीवारें और छत और पानी की टंकी
और तुम्हारे शरीर के कुछ हिस्से भी तो
अनलिखे बचे हैं अभी
वहाँ मेरी ख़राब कविता न सही
अपने प्रिय कवियों से हज़ारों
अच्छी कविताएं तो लिखवा ही सकते हो
अरे आलोचना के मुंशियों अच्छी कविता वह है ही नहीं
जिसके लिखे जाने में कोई बाधा खड़ी हो सकती हो
पहाड़ तोड़कर नदियों को पाटकर
यहाँ तक कि मर्द कवि की अपनी छाती पर
फूल की पंखुड़ियों पर तितलियों के परों पर
कहीं भी कभी भी जो कविता लिख दी जाय
वही अच्छी कविता है
अच्छी कविता भीख में काग़ज़ माँगकर नहीं लिखी जाती है
अच्छी कविता दरेरा देकर लिखी जाती है
जैसे मैं लिखता हूं ख़राब कविताएँ।

9

हिंदी का आलोचक है
मैं इसको और उसको और उन सबको अच्छी तरह
आगे से भी पीछे से भी ऊपर से भी नीचे से भी जानता हूं
किस-किस की पांच फुट तीन इंच की कद-काठी में
किस-किस मठाधीश और किस-किस उपमठाधीश 
और उनके झाड़ू-पोछा करने वाले तक का
ठप्पा कहाँ-कहाँ छपा हुआ है
साफ़-साफ़ लिखा हुआ है पुट्ठे पर बाजू पर
ललाट पर गाल पर वगैरह
कि यह आलोचक किस-किस 
बाऊ साहब और पंडिज्जी जी की गाय है
इस गाय में अलबत्ता एक भारी नुक़्स यह है 
कि उनके लिए मरकही गाय है जिनके पुट्ठे पर
बाऊ साहब और पंडिज्जी की छाप नहीं है
इन आलोचकों को गाय ही होना था
तो अल्ला मियाँ की गाय नहीं हो सकते थे।

10

हिंदी का आलोचक है
किसी तरह छोटे-मोटे काम करके गुज़ारा करता है 
रोज़़ एक-दो तो पुस्तक समीक्षा कर लेता है
अक्सर किसी किताब का लोकार्पण है तो आगे बढ़कर
ख़ुद ही कहकर आलेख-वालेख लिखकर पढ़ देता है
आजकल फेसबुक पर टिप्पणियों से भी पट्ठा
कुछ न कुछ कमा लेता है 
बस घर चला लेता है।

11

हिंदी का आलोचक है
अपने शहर के और बाहर के भी
महारथियों के रथ खींचता है रथियों के भी रथ खींचता है
जिनके पास रथ नहीं है उनकी पालकी ढोता है 
उतनी ही निष्ठा उतने ही समर्पण के साथ
अब तो रथ खींचने और पालकी ढोने में
इतना प्रवीण हो गया है कि यह सब 
किये बिना उसे नींद नहीं आती है
उसे रोज़ एक रथ या पालकी चाहिए
महाजन नहीं तो महाजन के पीछे का रथ
दिल्ली की नहीं तो अपने शहर की पालकी
रथ खींचने वालों का रथ
पालकी ढोने वालों की पालकी
ज़रूर से ज़रूर चाहिए उसे रोज़
एक रथ चाहे पालकी कुछ भी
यहां तक कि आदमी तो आदमी उसे
चूहे के रथ चाहे पालकी से भी 
सुकून और चैन मिल जाता है
उसे उम्मीद है ऐसे ही हिंदी आलोचना में
उसे एक दिन मोक्ष भी मिल जाएगा।

12

हिंदी का आलोचक है
हिंदी के सफल लेखकों के साथ
अपनी डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाता है
इस तरह सफल आलोचक कहलाता है
आलोचना के शेयर मार्केट का पक्का
दलाल है दलाल 
कवियों के नाम उछालता है भाव बढ़ाता है
हिंदी का आलोचक है वक़्त मौक़ा देखकर चलता है
कवि युवा है तो आगे-आगे चलता है
कवि बुज़ुर्ग है तो पीछे-पीछे चलता है
कह सकते हैं कि है तो आदमी पर
बुद्धि और कारनामे हैं किसी लोमड़ी की।

13

हिंदी का आलोचक है
अरे यह वाला तो रचनावलीबाज़ है
और यह वाला लेखक पर केंद्रित किताबबाज़ है
अरे यह बंदा तो एक नंबर का अकादमीबाज़ है
और यह जुल्फ़ रंगके और लहराके निकलने वाला 
पक्का तिकड़मबाज़ है
संपादक-प्रकाशक का ख़ुशामदबाज़ है 
आज की आलोचना का मशहूर दग़ाबाज़ है।

14

हिंदी का आलोचक है
देखो तो इसका घमंड इसके पतलून से चू रहा है
मिडिलस्कूल के हेडमास्टर की तरह
लेखकों से उठक-बैठक कराना चाहता है
ख़ुद कुछ किया नहीं दूसरों से सब कराना चाहता है
कहता है रामचरित मानस लिखो
तुलसीदास बनो कबीर बनो जायसी बनो
जैसी कविता लिखी जा रही है वैसी कविता मत लिखो
उपदेश और नीति की चौपाई लिखो
किसी कवि-आलोचक का चीरहरण मत करो
इन कुकर्मियों को छुट्टा साँड़ की तरह
ऊधम करने दो
बस कविता में राम भजो सीताराम भजो
राधाकृष्ण भजो चाहे सीधे 
बिहारी की तरह मकरध्वज घोलो
कुछ भी करो लेकिन कविता में
दुष्ट कवियों और आलोचकों की सर्जरी मत करो
हिंदी का आज का नक़ली आलोचक
सबको सीख देता फिरता है कि कैसी कविता लिखो
भू-अभिलेख निरीक्षक और लेखपाल की तरह
पैमाइश करके बताना चाहता है
कि आज सभी कवि लोग
उसकी बतायी जमीन पर कविता लिखें
पट्ठे को पता नहीं है कविता की परंपरा
और आलोचक बना जगह-जगह फिरता है
रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी को बताया था
कि हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को
फिर तुम क्यों बावले हुए जा रहे हो
निराला ने छंद तुमसे पूछकर तोड़ा था
कि कुकुरमुत्ता झींगूर डटकर बोला
या गर्म पकौड़ी तुमसे पूछकर लिखा था
मुक्तिबोध को तुमने बताया था
कि मार्क्सवाद में ईमानवाद को
कैसे मिलाएं
छोटे केदार ने 
परमानंद से पूछकर लिखा था
औरों की नहीं जानता स्वयंभू आलोचक
मैं वही लिखूंगा जो अब तक 
नहीं लिखा गया है या कम लिखा गया है
गाँंठ में बाँध लो चाहे चुटिया में
चाहे हाफपैंट की जेब 
या पीटी शू के सफेद मोजे में 
छिपाकर रख लो मेरी बात
तुम मेरे आलोचक नहीं हो सकते हो
मेरा आलोचक 
अभी दूध पी रहा है बादाम खा रहा है
अखाड़े में अपनी देह पर मिट्टी मल रहा है
पसीना-पसीना ख़ूब दण्ड पेल रहा है
आएगा ज़रूर आएगा आलोचना का सोटा लेकर
बहुत बाद में आते हैं
ऐसे निडर ईमानदार और मज़़बूत आलोचक
तुम हमारे समय की कविता की आलोचना के
लिपिक हो सकते हो चाहे मुंशी जी हो सकते हो
हरगिज़-हरगिज़ आलोचक नहीं हो सकते हो।

(लंबी कविता : 5.7.20)







गुरुवार, 2 जुलाई 2020

दो सौ पचास ग्राम तुलसीदास तथा अन्य कविताएं

- गणेश पाण्डेय

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दो सौ पचास ग्राम तुलसीदास
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कितने भले
और सीधे सादे लोग हैं
कहते हैं जिसके पास प्रतिभा है
छंद है त्रिष्टुप है अनुष्टुप है पदलालित्य है
हिंदी उर्दू फ़ारसी कविता की समझ है 
वही आज का श्रेष्ठ कवि है

ओह 
निश्चय ही 
निश्चय ही निश्चय ही
जिसके पास इतनी विपुल राशि है
आज की तारीख़ में उसके
दो सौ पचास ग्राम तुलसीदास 
होने पर तनिक भी संदेह नहीं है
नहीं है नहीं है

कारयित्री प्रतिभा का 
यह रहस्य जानकर मेरी छोटी बुद्धि 
भ्रष्ट हो गयी है गहरे सदमे में है
शायद उसे दिल का दौरा पड़ गया है
यह एक कवि की पहचान है
कि कविता का हुदहुद तूफ़ान है
अरे भाई 
कबीरदास के पास प्रतिभा का
इतना बड़ा ज़लज़ला था
हिंदी की दुनिया में 
कवि होने के लिए
कविता का ईमान काफ़ी क्यों नहीं है
फटकार कर 
सच कहना काफ़ी क्यों नहीं है
और जिसके पास ईमान नहीं है
वह कवि क्यों है 
कविता का लिपिक क्यों नहीं है

मैं पूछता हूं कि 
अभी पिछले दिनों एक धूमिल कवि था 
इस लिहाज़ से धूमिल था कवि नहीं था
चुटकीभर प्रतिभा से कंठ में कैसे बसा
और वह जो कविता 
और आलोचना के हरामज़ादों से
अपनी कविता और आलोचना में
ईमान का डंडा लेकर तीस साल से
अकेले लड़ रहा है लहूलुहान है
क्या है

कवि होने के लिए
प्रतिभा के नाम पर किसी रटन्त विद्या
या छंद के पहाड़े की क्या ज़रूरत है
कवि होने के लिए 
सिर्फ़ चुटकीभर ईमान काफ़ी क्यों नहीं है
कवि वह है जो इतना तो आज़ाद हो ही
कि जिसके पुट्ठे पर किसी की छाप न हो
जो कविता के पाठकों का सगा हो
जिसने कभी 
उन्हें कविता के चमत्कार से ठगा न हो
उनके लिए जिया हो मरा हो
हिंदी के हरामज़ादों से लड़ा हो
और हिंदी के मर्दों से मुँह न चुराया हो।

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पियक्कड़ आलोचक
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कमअक़्ल 
आलोचक को
एक-दो बार में आप 
थोड़ा-बहुत समझा सकते हैं

लेकन
छलछंदी आलोचक को 
हरगिज़ नहीं बिल्कुल नहीं
वह तो टस से मस नहीं होगा

आलोचना के 
गटर में गिरकर
वहीं से चिल्लाता रहेगा
अरे कोई लाओ रे एक पैग
छंद की व्हिस्की लाओ रे

पियक्कड़
आलोचक को छंद की मदिरा से
दूर नहीं कर सकते मर जाएगा
उसका कुनबा बिखर जाएगा
उसे कोई डर नहीं है
कोई शर्म नहीं

उसकी आलोचना की कार
लड़ती है तो जल्द लड़ जाए
उसे कैंसर होता है तो हो जाए
लीवर सिरोसिस चाहे
एनीमिया डिमेंशिया
हृदयरोग कुछ भी हो जाए

हे ईश्वर 
फिर भी इतना करना
कि बेचारा छलछंदी आलोचक
अपने जीवनकाल में आज
छंद की अनिवार्यता पर
एक अमर अकाट्य अद्वितीय
और ’कविता का चाँद और 
आलोचना का मंगल’ से सुंदर
लेख लिख जाए।

(वैधानिक चेतावनी : युवा आलोचकों को ’छंद की अनिवार्यता’ की शराब पीने से बचना चाहिए।)

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कर्ज़
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जिस
आलोचक की आलोचना में
ईमान का छंद नहीं होता है

वही
प्रायः कविता में छंद के लिए
आठ-आठ आँसू रोता है

क्योंकि
उसे कुछ कवियों से लिया गया
पुराना कर्ज़ चुकाना होता है।

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कवि की ऐंठी हुई ऐंठ
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आप 
आप हैं तो आप हैं
ये ये हैं तो ये हैं हां हैं
वो वो हैं तो वो हैं हा हैं
मैं मैं हूं तो मैं हूं हां हूं
फिर भी आप समझते हैं
कि आज की कविता में
आप ही आप हैं ओह
कितने बड़े बेवकूफ़ हैं
आप

आप की माया है
जहाँ उम्मीद नहीं होती
वहाँ भी दिख जाते हैं आप
कोई भी शहर कोई भी क़स्बा
किसी भी गाँव में पहाड़ पर
बस आप ही आप होते हैं
हर जगह आप

अपने समय की कविता में
दो नहीं दो सौ कवि होते हैं
और आप सोचते हैं कि बस
आप ही आप हैं बाक़ी सब
हवा हैं च्यूंटे हैं आक्थू हैं
वाह कितने बड़े वाले आप हैं
यह नहीं पता कि लंबे वक़्त की 
छननी से छनते हैं नाम
कितने बेसब्र हैं आप
अभी तो मौज़ूद हैं
आपके बाप।

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डरे हुए आलोचक को मार दो
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नाम-इनाम की लूटमार में
कविता का असली रखवाला 
आलोचक को होना चाहिए था
चाहे इसकी शुरुआत 
उसने ही की थी

लेकिन आज जबकि 
कविता थरथर कांप रही है
एक डरा हुआ आलोचक
जो ख़ुद की हिफ़ाज़त 
कर नहीं सकता

हिंदी कविता की आबरू
ख़ाक बचाएगा सबसे पहले 
उसे मार दो 

फिर सोचो दूर खड़े
कविता के भाइयो और बहनो
अगरचे तुम भी इस लूटमार में
शामिल नहीं हो।

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हुनर
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कवि का हुनर
कविता से पाठक को
कसके जोड़ने के लिए होता है
फ़ासला पैदा करने के लिए नहीं

और
कवि का हुनर क़तई
महाकवि की कुर्सी पर बैठकर
इतराने के लिए नहीं होता है

मेरे पास 
आलोचना की एक ऐसी मशीन है
जिससे ऐंठे हुए कवियों के हुनर को
तोड़-ताड़ कर मुफ़्त में ठीक करता हूं।

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गिनतीकार
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अरे भाई
सुनो-सुनो मैं तो
किसी कविता दशक में
पैदा ही नहीं हुआ
बक़ौल गिनतीकार

चलो अच्छा हुआ
मैं तो अपने हमज़ाद
छोटे सुकल समेत फाट पड़ा
पांच फीट आठ इंच डैरेक्ट 
आधुनिककाल में

गिनतीकारो ने
रोज़-रोज़ कविगणना से
माठा नहीं कर रखा होता
तो मैं उनके ख़लिफ़ भला
ऐसी सख़्त कार्रवाई क्यों करता।

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आलोचक दोस्त से दिल की बात
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मेरे प्यारे आलोचक दोस्त 
हम कबीर और गौतम बुद्ध
छात्रावास में रहते थे 
रोज़ मिलते थे
नहीं मिल पाते थे तो हमारा
खाना हज़म नहीं होता था
हम दो बार एक बार रोज़ 
मिलते ही मिलते थे
जैसे कल की बात हो

अब कितना कुछ बदल गया है
वक़्त रास्ते और प्राथमिकताएं
सब कितनी आसानी से हुआ
मैं शायद ज़्यादा बदल गया
कवि के साथ आलोचक भी
हो गया मैं होना नहीं चाहता था
तुमने रोका भी नहीं हो गया

असली दुनिया में
बहुत मारें पड़ीं तो दिल हिल गया
तुमने रोका नहीं आभासी दुनिया में
आ गया काफ़ी पहले
वक़्त लगा तुम भी इस नयी दुनिया में 
खिंचे चले आये किसी आकर्षण में
मेरा क्या मैं तो मज़बूरी में आया

हम 
यहां भी साथ-साथ हैं
फेसबुक का हॉस्टल आसपास है 
लेकिन यहां कम दिखते हो
दिखते भी हो अगरचे कभी
तो मेरी दीवार की तरफ़
कोई काम निकालकर 
अब आते भी नहीं हो आओ तो
मेरी दीवार पर कुछ भी करो
बुरा नहीं मानूंगा

तुम 
इस दुनिया में 
किसी और काम से 
क्यों नहीं आते हो कुछ तो बड़ा 
कर रहे होगे शायद
कविता का इतिहास लिख रहे होगे
चाहे किसी की रचनावली 
संपादित कर रहे होगे
लेख तो दो दिन में हो जाता होगा
कुछ कवियों को बड़ा कवि बना रहे होगे
ज़रूर कुछ ख़ास है तभी यहां
बहुत नाप-तौल कर आते हो
दो मिनट में लौट जाते हो

किसी बड़े लेखक की पुण्यतिथि पर 
चाहे उसकी जयंती पर आते हो 
ज़्यादातर लेखकों के निधन पर ही
श्रद्धांजलि देने के लिए आते हो
मतलब बहुत ग़लत समय पर 
आते हो मित्र
मुझे तुमसे बहुत डर लगने लगा है
इस तरह तो आशंका की तरह 
यहां पहले कभी नहीं आते थे
कुछ माह पहले मेरी दीवार पर
आते थे कुछ पल के लिए
तो मित्र की तरह 

इस 
आभासी दुनिया में 
कभी-कभार दोस्तों से मिलने के लिए 
निकला करो जैसे पहले निकलते थे
चाय के लिए कविता सुनने के लिए
देखो आज कैसी कविता लिखी है
छंद के छलछंद के ख़लिफ़ लिखी है
ख़ुद तुलसीदास आए आशीष देने
और प्यार देते हुए कहा 
कविता और आलोचना के रावण से
लड़ना ज़रूरी है

तुम 
मेरी कविताओं को 
अब भी प्यार करते हो
किसी माफ़िया का डर भी होगा
तो भी मेरी कविताओं को ज़रूर
दिल ही दिल में प्यार करते होगे।

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तर्क
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किसी को
अपशब्दों की बौछार से
लज्जित करना चाहोगे तो
वह सिर्फ़ नाराज़ होगा

और
उसकी आँख में
आँख डालकर तर्क करोगे
तो उसकी आत्मा लज्जित होगी

बशर्ते 
उसने अपने हाथों
अपनी आत्मा का गला
घोंट न दिया हो

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मज़दूर क्रांति
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मज़दूर 
सिर से पैर तक मज़दूर होता है
न किसी का भाई होता है न बेटा न पिता 
न पति न प्रेमी न नागरिक न मतदाता
न मनुष्य

मज़दूर 
जैसा कोई और नहीं होता है
सिर्फ़ मज़दूर जैसा ही मज़दूर होता है
मज़दूर दुनिया का चाहे इस देश का
अद्वितीय प्राणी होता है
उसका दुख अद्वितीय होता है
उसका पसीना उसका आंसू
सब अद्वितीय होता है

मज़दूर
प्रगतिशील कविता का
प्रमुख विषय होता है कसौटी होता है
कवि जी की दृष्टि में वही प्राणी होता है
शेष पृथ्वी पर चाहे देश में मृतात्माएं हैं
सचल पाषाण प्रतिमाएं हैं 
उन्हें न दर्द होता है
न उन्हें छाला पड़ता है न आंसू बहता है
न बीमार होते हैं न भूख से मरते हैं
न कवि जी की सहानुभूति पाते हैं

आज़ादी के बाद से ही
सिर्फ़ राजनेताओं ने ही नहीं
कवियों ने भी भरपूर कोशिश की
कि देश के ग़रीब अमीर न होने पाएं
और मज़दूर मिल मालिक
यथास्थिति बनी रहे
कविता में रोना-धोना होता रहे
मज़दूरों को काम के लिए
दूर-दूर तक जाना पड़े
मुसीबत में पैदल आना पड़े
और कवि जी को कविता लिखना पड़े
और ऐसी करुणा विगलित कविताओं से 
वाहवाही के पहाड़ उठाना पड़े

हो न हो
यह दशक मज़दूर कविता के नाम रहेगा
आज के कवियों आलोचकों और
संपादकों के बहुत काम का रहेगा
दशक की बेवकूफ़ी में फंसे कवियों के लिए
मज़दूर दशक इस दशक की कविता का
नाम रहेगा

यह भी 
हो सकता है कि मज़दूर इंडिया नाम से 
धड़ाधड़ कई खंडों में संकलन आ जाएं
पत्रिकाओं में लाइव पर दीवार पर
चर्चा की बाढ़ आ जाए

आज यशपाल होते
तो हरगिज़ करवा का व्रत नहीं लिखते
कोरोना पर भी लंबी कहानी नहीं लिखते
मज़दूर का व्रत ज़रूर लिख रहे होते
केदारनाथ अग्रवाल भी हे मेरी तुम 
आज की तारीख़ में हरगिज़ नहीं लिखते
हे मज़दूर लिख रहे होते
और कविता में औचक हो रही
मज़दूर क्रांति पर
ख़ुश हो रहे होते।

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शास्त्रार्थ
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हे
सूथन वाले
पंडिज्जी पालागी 

ऊ पगलेटवा से
भिनसरवे से काहे
शास्त्रार्थ करत हौ

चोर उच्चकन से
मक्कार हरामजादन से
शास्त्रार्थ करब ठीक है

शास्त्रार्थ ज्ञानी पंडितन से 
ईमानदार मनइन से करबो
कि हिंदी कै दगाबाजन से

जौन सब
कबीर प्रेमचंद निराला
मुक्तिबोध कै बेचिखाइन

वोन्हनन सालन से
कब तक शास्त्रार्थ करबो
ई जिनगी बरबाद करबो

हम पूछित है पंडिज्जी 
एन्हनन कै कौने जनम में
डंडा करबो।

------
पापी
------

पहुंचभर जाता
साहित्य की काशी

किसी भी घाट पर
डुबकी लगा लेता

बहती हुई गंगा में 
मैं भी हाथ धो लेता

तो कोई बंदा आज
पापी नहीं कहता।

------------
सोने वालो
------------

जागते 
रहो

सोन का
इनाम
लेने वालो!

---------
कवि थे
---------

वे सब तेज़ी से
उधर ही भाग रहे थे

जिधर 
कुछ बंट रहा था

लॉकडाउन में
मुसीबत के मारे
मज़दूर नहीं थे

सब के सब
हिंदी के कवि थे।

------------------
कवि नहीं कहा
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पापी कहा
पागल कहा
कुंठित कहा
असफल कहा
क्या-क्या नहीं
कहा ज़माने ने

बस एक 
कवि नहीं कहा।

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काँटों की सेज की कविता
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मैंने
उनकी बहुत सुंदर
और बहुत कोमल कविताओं को
बहुत-बहुत देखा 

वाह-वाह 
करते-करते थक गया
उन्हें और कुछ लिखना आता ही नहीं था
इतना तो देखा और कितना देखता

उन्होंने तो
मेरी कँटीली कविताओं को कभी
चाहे मुझे फूटी आँखों से भी नहीं देखा
फिर भी लंबे समय तक उन्हें देखता रहा

आख़रि ऐसे
महाकवियों की ओर कब तक देखता
जिनकी कविताएं फूल जैसी हैं
और कविता की समझ पत्थर की तरह

कोई महाकवि 
यह कैसे समझ सकता है कि कविता
कभी कांटों की सेज पर नहीं सोएगी
हमेशा फूल ही पंखुड़ियों में बंद रहेगी

कोई कवि 
सोचता है कि वह जैसी कविता लिखेगा
बस वही कविता होगी बाक़ी पागलपन
तो मुझे उसके कवि होने पर संदेह है।





बीसवीं शताब्दी के नवनिर्वाचित श्रेष्ठ कवियों का शपथग्रहण तथा अन्य कविताएं


- गणेश पाण्डेय

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बीसवीं शताब्दी के नवनिर्वाचित श्रेष्ठ कवियों का शपथग्रहण
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हिंदी का कवि 
बहुत अधिक परिश्रमी है
वैश्विक चिंता उसका स्थायी भाव है
कितना बोझ है हिंदी के कवि पर
क्या पता विश्व के बाक़ी कवि 
लंबी छुट्टी पर हों

जो भी हो
हिंदी का कवि इस महादेश का प्रहरी है 
लोकतंत्र का सबसे सच्चा रखवाला है 
संसद और जनता का शुभचिंतक है 
समता और न्याय का महागायक है 

हिंदी भाषा और साहित्य का
लाडला है राजकुमार है महाराज है
हिंदी के सारे मंच सारे पुरस्कार
सारे कवितापाठ सारे लाइव
सारे संगठन सारी अकादमियां
सारी सुंदर कविताएं
सब उसकी हैं 

बस एक कमी है
उसका नज़दीक का चश्मा टूट गया है
इस वजह से वह सतह पर
चाहे ज़मीन के नीचे हिंदी का
हाथी जैसा नुक्स भी देख नहीं पाता है
उसके लिए सत्य एक अनुमान है इसीलिए
उसे हिंदी में कुछ भी चिंताजनक नहीं दिखता है
वह सिर से पैर तक मार्क्सवादी होकर भी 
हिंदी में पूर्ण रामराज्य देखता है 
शेर और बकरी का शुभविवाह होते देखता है
किसी की पीठ में किसी को छुरा भोंकते नहीं देखता है
किसी को किसी का इनाम लेकर 
भागते नहीं देखता है 

वह 
सिद्धावस्था का कवि है
हिंदी का अंतर्यामी है उसे जो प्रिय है 
जो उसके मन और आचरण में बसा है
वही उसके लिए पूर्ण सत्य है शेष असत्य है
उसने मान लिया लिया है
हिंदी का उसका संगी-साथी कोई कवि
किसी कवि की गठरी नहीं चुराता है
सारे कवि दूध के धुले हैं 
कोई विश्वकविता से कुछ नहीं लेता है
उसके प्रशंसक हिंदी के सारे कवि मौलिक हैं

उसे गर्व है
अपने आठवें दशक का कवि होने पर
हिंदी कविता की महान परंपरा में
सत्य हरिश्चंद्र की औलाद होने पर
कबीर निराला मुक्तिबोध ही नहीं
नौमीनाथ केदारनाथ आदि की भी
औलाद होने पर
उसके लिए यह विस्मय का नहीं
अपनी कविताओं के प्रति आश्वस्ति का कारक है
उसे एक साथ सबका
उत्तराधिकारी होने का गौरव प्राप्त है
हिंदी का भविष्य ऐसे हाथों में सुरक्षित है
उसने अपने अथक श्रम से
हिंदी में विश्व का सबसे स्वस्थ लोकतंत्र रचा है
अभी हाल में सबने
आठवें दशक के इन कवियों को निर्विरोध
बीसवीं शताब्दी का श्रेष्ठ कवि चुना है
बहुत थोड़े से कवि हैं 
उंगलियों पर गिने जाने लायक
जो दिल्ली से बहुत दूर हैं
पागल हैं इस चुनाव को 
निरस्त करने की मांग करते हैं
लेकिन नक्कारख़ाने में 
चंद तूतियों की आवाज़
भला कौन सुनता है

फिर भी शपथग्रहण के रंग में
कोई भंग न पड़े इसलिए बात
काफ़ी ऊपर तक ले जायी गयी है-
हे कविता के अंतरराष्ट्रीय देवताओं
हे अनुवादप्रिय हे प्रभावप्रिय हे सत्कारप्रिय 
हे अंग्रेजीप्रिय इन पागलों को देखिए 
एक तो बड़ा ही ज़बरदस्त पागल है 
ग़ुस्से में अपना कुर्ता-पाजामा फाड़ लेता है
उसे हिंदी कविता की परंपरा का 
रत्ती भर ज्ञान नहीं है कहता है- 
हिंदी की दुनिया में जो इनामी है 
कवि नहीं डाकू है
हे विश्वकविता के छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं
आप ही बताएं ऐसा कैसे हो सकता है
हिंदी का कवि चोर तो हो सकता है
डाकू कैसे हो सकता है
और इन कवियों को ऊपर से
हरी झंडी भी मिल गयी है

हिंदी के बाक़ी दशकों के
सुकवि अतिप्रसन्नतापूर्वक लकदक
बीसवीं शताब्दी के नवनिर्वाचित 
श्रेष्ठ कवियों के
शपथग्रहण की भव्य तैयारियों में
जोर-शोर से लगे हुए हैं
ओह इनके पास तो नंबर एक तक
करने की फुरसत नहीं है 
ऐसा उत्साह ऐसा उत्सव 
क्या किसी अन्य भाषा में 
संभव है

हिंदी के इन
कनिष्ठ कवियों जैसी निष्ठा 
विश्व की दूसरी भाषाओं में 
विरल है विरल है विरल है।

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लाउडस्पीकर
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(लोग हैं लागि कवित्त बनावत
मोहि तौ मोरे कवित्त बनावत।
याद आए अनन्य प्रेमी घनानंद)

मुझे हिंदी में
चींटी की मुंडी के बराबर भी
मान नहीं मिला न चाहिए था
न अब चाहिए

अकादमी तो अकादमी
अपने शहर का चाहे मुहल्ले का
कोई इनाम नहीं मिला न चाहिए था

किसी शहर किसी संस्था
किसी सरकार किसी बेकार का
कोई तमगा मुझे नहीं मिला
न कभी चाहिए

मैं ही था 
जिसे मौक़ा नहीं मिला
वक़त पर एकल काव्यपाठ का
बुड्ढों ने जगह ही नहीं खाली की
मरते दम तक पढ़ते रहे कविता

अब पैंसठ की उम्र में
मुझे कविता पढ़ना भी नहीं है
बिना पढ़े मैंने खाली कर दी थी जगह
अपने बाद के लोगों के लिए
काफ़ी पहले

मैंने शुरू में ही
इधर-उधर देखने की जगह
ख़ुद पर भरोसा किया ख़ुदमुख़्तार बना
और मुझमें कुछ अजीब बदलाव हुए

ख़ासतौर से
मेरे सिर पर निकल आयीं थीं
ख़ूब लंबी-लंबी बैलों जैसी कई सींगे 
कोई आशीर्वाद देने के लिए डर के मारे
हाथ ही नहीं रख पा रहा था

हिंदी में कृपा बरसाने वाले
दूर से नहीं बरसाते थे पास बुलाते थे
बिल्कुल पास झुकाते थे कृपा बरसाते थे
मुझे पास नहीं बुलाते थे
मेरे पास सींग थी

मेरा चेहरे से नूर नहीं टपकता था
मेरे गाल गोरे नहीं थे मुस्कराता नहीं था
चट्टान की तरह सख़्त था चेहरा
सारे बड़े लोग और उनके चमचे साले
दूर से भगा देते थे

मैं क्या करता
मेरे पास न भाग्य था न सीढ़ी
मैं ख़ुद ही लंबी-लंबी छलांगे लगाने लगा
किसी के भी सिर तक कूदकर जाने लगा

मुझे देखते ही सब चिल्लाने लगते
हटाओ-हटाओ इस देहाती-भुच्चड़ को
कोई-कोई मुझे मां-बहन की गाली देते
असल में मैं उन लोगों का कुछ भी
बिगाड़ नहीं सकता था

न मैं गाली देता था 
न उन पर डंडे बरसाता था
न ही उनका कुर्ता-पाजामा 
कमीज-पतलून वगैरह फाड़ता था 
जबकि ऐसा आसानी से कर सकता था

मुझे 
उन लोगों से कुछ नहीं चाहिए था
न की गयी चोरियों-डकैतियों में हिस्सा
न स्त्रियों संग दुराचरण में सहभागिता
मैं अपनी पत्नी को बहुत प्रेम करता हूं

मैं तो सिर्फ़ दूर से 
लाउडस्पीकर लगाकर
साहित्य की अवनति के विरुद्ध
रोज़ बोलता था उनसे प्रश्न करता था
यह सब भी उनके लिए असह्य था
जो उनके लिए असह्य था
मेरे लिए प्रिय था और है
और रहेगा

देखिए 
क्या-क्या किया गया है मेरे साथ
हाय मेरे लाउडस्पीकर को देखिए
इसे तोड़ने-फोड़ने की कोशिश की गयी 
फिर भी मैं चुप नहीं हुआ 
तो मुझे हिंदी के सबसे बड़े कूड़ेदान में
ज़बरदस्ती उठाकर फेंक दिया गया है
और मैं वहीं से उनके मुंह पर 
रोज़ थूकता हूं।

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अंगरखे में सुर्ख़ गुलाब
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नेहरू ने 
ठीक कहा था आराम हराम है
सिर उठाकर जिस शान से कहते हैं 
हिंदी के ये क्रांतिकारी लेखक

काश 
उसी तरह कह पाते ये लेखक
बुलंदतर आवाज़ में इनाम हराम है
और प्रलय तक विद्यमान रहती 
इनकी गूंज दिशाओं में

और ये लेखक
हिंदी को जन-जन तक ले जाते
उसे उनके सरोकारों से जोड़ पाते
काश ये हिंदी के नेहरू बन पाते

इनाम की जगह 
अपने अंगरखे में सुर्ख़ गुलाब टांकते
हिंदी के बच्चों के चाचा कहलाते

मुझ जैसे को
रातों में नींद कहां दिन में चैन कहां
हिंदी के बच्चों की चिंता में अब
इस जीवन में आराम कहां।

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कितनी अच्छी सरकार है
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कितनी आज़ादी है
कोई इमरजेंसी नहीं लगायी गयी है
फ़ासिस्टों के विरोध में एक-एक कवि
हज़ार-हज़ार टन कविताएं
लिख सकता है

सरकार ने 
किसी को मना नहीं किया है
कि अपना आदर्श मार्क्स को मत बनाओ
गांधी या लोहिया को बनाओ
साहित्य की काशी न जाओ 
मगहर जाओ

सरकार ने 
किसी भी गिरोहबंद लेखक का नाम 
किसी कालीसूची में नहीं डाला है
हिंदी का कोई लेखक नज़रबंद नहीं है
कोई भी किसी भी स्त्री को
बुरी नज़र से देख सकता है

कोई पाबंदी नहीं है
कोई भी किसी का भी चरणरज ले सकता है
किसी भी तुच्छ लेखक की पादुका
जिह्वा से स्वच्छ कर सकता है

कितनी अच्छी सरकार है
किसी को भी दूसरे के हिस्से का पुरस्कार
मंच माइक माला छीनने की
कोई मनाही नहीं है
लेखक कुछ भी कर सकता है
कोई आचारसंहिता ही नहीं है
कोई लेखक आयोग भी नहीं है

हमारी प्यारी सरकार ने 
कविता की नकल चोरी गैंग बनाने
या साहित्यिक क़त्ल रोकने के लिए
कोई अध्यादेश नहीं पारित कराया है

फिर भी आप कवि लोग
सरकार के लोगों को कितनी गालियां देते हैं
सरकार ने हिंदी के कवियों को
कितनी छूट दे रखी है
सभी प्रकार के व्यभिचार करने की
छूट दे रखी है

सरकार ने
साहित्य की काशी में मोक्ष के लिए
टिकट के बिना उड़कर 
जाने की अनुमति दे रखी है
लेखकों की लाइन लगी हुई है
अकादमियों के गेट खुले हुए हैं
धड़ाधड़ लेखक मशहूर हो रहा है
साहित्य की कच्ची शराब के नशे में
चूर हो रहा है

बस सरकार 
सिर्फ़ मगहर जाने वालों पर 
बहुत से बहुत सख़्त है
मेरी तो हालत पस्त है
जिस पागल लेखक को 
वहां जाना है पैदल ही जाए
इकतालीस डिग्री की धूप में 
सिर से पैर तक पसीना बहाए
फिर कबीर का दास कहलाए।

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कोमलांगी कवियो
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एक तो हिंदी में 
मेरी किस्मत पहाड़ जैसी सख़्त 
और उतनी ही बेजान है

उस पर 
मेरी दीवार ज़बरदस्त कँटीली
उस पर मेरी बर्छी जैसी कविताएं 
और गद्य आए दिन चस्पा होते रहते हैं

ओह
कोमलांगी कवियों 
और आलोचकों को 
कितनी दिक़्क़त होती होगी
एहतियात के तौर पर तो उन्हें 
सौ गज दूर से इस बघनखे लेखक को
देखना पड़ता होगा

यह सोचकर
कि चलो हमारे समय में है साला
इस साले को भी दूर से जीभर देख लो
क्या लगता है कुछ नहीं लगता है
कुछ मां-बहन की गालियां भी देते होगे
मैं बुरा नहीं मनाता कोमलांगी लेखको

मैं ऐसा शुरू में नहीं था
रीफ़ जैसे दस उपन्यास लिख सकता था
ओ केरल की उन्नत ग्रामबाला जैसी 
हज़ार से ज़्यादा कविताएं लिख सकता था
कई सौ शुद्ध शाकाहारी लेखों का 
पहाड़ खड़ा कर सकता था

ये तो हिंदी के राक्षस थे
जिन्होंने मुझे ऐसा करने नहीं दिया 
चलती हुई ट्रेन के सेकेंड क्लास के डिब्बे से 
मुझे पूरी तबीअत से ठोकर मारकर 
बाहर कर दिया 
मेरे साथ भी ऐसा होना था

तुम्हीं बताओ 
कोमलांगी लेखको
मेरे पास हिंदी के इन ज़ालिमों के इशारे पर 
चलती हुई ट्रेन पर पत्थर बरसाने के अलावा 
और क्या विकल्प था
क्या मैं ट्रेन की पटरी पर लेट जाता
और इन ज़ालिमों की धड़धड़ाती हुई ट्रेन को
अपने ऊपर गुज़र जाने देता

अब तो मेरा यह हाल है
कि जहां-जहां हिंदी के ज़ालिम दिखते हैं
आप से आप मेरे हाथों से जादू की तरह
तेजी से पत्थर छूटते हैं बर्छी छूटती है

अच्छा करते हो 
जालिमों के घराने से ताल्लुक रखने वाले 
हिंदी के कोमलांगी लेखको
जो मेरी दीवार से दूर रहते हो

तुम्हारे लिए
बहुत अच्छा हुआ
कि तुम्हें वज्र जैसी छाती नहीं मिलीं
एक साथ दसों दिशाओं में अहर्निश
तलवार चलाने वाली बलिष्ठ 
भुजाएं नहीं मिलीं

तुम्हें तो 
सारे के सारे अंग अतिकोमल मिले हैं
हिंदी के विधाताओं ने हाय तुम्हें
कितनी फुरसत से गढ़ा है
तुमने वह सब सीखा जो चाहा
सारी कलाएं भी चतुराई भी

तुमने कव्वे की तरह 
जब-जब जितना सिखाया गया 
उससे भी ज़्यादा होशियारी सीख ली है
अपना सिर सलामत रखना ख़ूब जानते हो
यह भी जानते हो कि जिस राह पर तुम हो
गद्दी और मुकुट सब मिलना तय है

कुसूरवार तो मैं हूं
मैंने ही तय रास्तों पर 
शुरू में ही चलना छोड़ दिया नहीं तो 
तुम्हें मुझ जैसे आत्मघाती लेखक से
कभी कोई शिकायत नहीं होती।

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साहित्य में तीन सौ सत्तर
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वाजपेयी जी चाहते हैं
राजनेता प्रतिदिन दुग्धस्नान करें
पूरे शरीर पर चंदन का गाढा लेप करें
धवल वस्त्र धारण करें

मिश्र जी जोशी जी पाण्डेय जी 
बाऊ साहब लाला जी भी चाहते हैं
फ़ासिस्टों का समूल नाश कर दिया जाय
नाश न हो पाने तक पूरी मुस्तैदी के साथ
उन्हें रोज़ पटककर कचर-कचर कर
डिटर्जेंट से सुबह-शाम साफ़ किया जाय
दिन में चार बार और रात में तीन बार
गुलाबजल में नहलाया जाय

ये लेखक लोग मिलकर
संयुक्त वक्तव्य जारी करते हैं-
चूंकि देश में समाज में कोने-अंतरे में
हर जगह बुरे लोग राजी-खुशी रहते हैं
लेखकों को भी ठीक उसी तरह 
राजी-खुशी रहने दिया जाय

यहां तक 
सब ठीक चल रहा था
लेकिन जैसे इन सब लोगों ने
वक्तव्य में पुनश्च करके जोड़ा
कि उन्हें नहाने के लिए न कहा जाय
उन्हें वस्त्र पहनने के लिए न कहा जाय
उनके उच्च विचार और आदर्श जीवन
केवल उनके साहित्य में देखा जाय

एक पागल लेखक
उछलकर उनके पास पहुंच गया
नटई पकड़कर घसीटते हुए चिल्लाया
तुम सब लेखक हो तो तुम्हारे लिए
साहित्य में अलग से कोई धारा
तीन सौ सत्तर की तरह
क्यों चाहिए क्यों।
















आलोचक अभिनव ज्ञान की मौखिक परीक्षा तथा अन्य कविताएं

- गणेश पाण्डेय

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आलोचक अभिनव ज्ञान की मौखिक परीक्षा
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आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. ने
अपने पट्टशिष्य अभिनव ज्ञान से 
मौखिक परीक्षा में सबसे पहले पूछा-
वत्स, अपना नाम बताओ 

अभिनव ज्ञान ने 
हाफपैंट की जेब से हाथ बाहर निकाला
और धाराप्रवाह बोलना शुरू किया-
जी, मेरे अग्रज का नाम ज्ञानेंद्र है
उनके अग्रज का नाम ध्यानेंद्र है
मेरे अनुज का नाम रणेंद्र है
उसके अनुज का नाम देवेंद्र है
मेरे चचेरे भाई का नाम नरेंद्र है
मेरे मौसेरे भाई का नाम जितेंद्र है
मेरे फुफेरे भाई का नाम धर्मेंद्र है

आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. ने
बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह को
गर्व से देखा कि ग़ौर से देखिए 
मेरे संस्थान का नगीना है नगीना
एक प्रश्न के दस-दस उत्तर दे सकता है

बाह्य परीक्षक 
आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने पूछा-
वत्स, तुम्हारे पिता जी का क्या नाम है
और अभिनव ज्ञान की आँखों से निकलती
अद्भुत ज्योति से चकित होकर
फिर कहा- हां, वत्स बताओ

अभिनव ज्ञान ने फिर शुरू किया
पहले से भी अधिक धाराप्रवाह-
जी, मेरे ताऊ का नाम है निर्मल प्रसाद
मेरे मंझले ताऊ का नाम है विमल प्रसाद
मेरे चाचा का नाम है सदल प्रसाद
उनसे छोटे चाचा का नाम है कोमल प्रसाद
मेरे फूफा का नाम है लालमन प्रसाद
मेरे मौसा का नाम है ढुनमुन प्रसाद
मेरे मामा का नाम है भुल्लन प्रसाद

इस बार 
बाह्य परीक्षक सुतुही प्रसाद सिंह ने
आंतरिक परीक्षक हँसमुख शास्त्री डी. लिट. को 
सविस्मय देखा
और एक चौड़ी मुस्कान मुस्काए-
वाह, क्या विद्यार्थी है अद्भुत है
हिंदी का प्रतिभाशाली आलोचक है
पूछो एक बताता है दस
आचार्य हँसमुख शास्त्री ने 
अपना सीना छप्पन इंच का करके
अतिहर्षित होते हुए कहा-
मित्र सुतुही प्रसाद सिंह जी पूछिए 
कुछ और पूछिए

आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने 
अभिनव ज्ञान को ग़ौर से ऐसे देखा
जैसे सूर्य और चंद्रमा को देख रहे हों
जैसे रामचंद्र शुक्ल 
और हजारी प्रसाद द्विवेदी को
साक्षात देख रहे हों 
मन ही मन प्रणाम भी किया
तत्क्षण सहज होकर अभिनव ज्ञान से पूछा - 
वत्स, अपने गाँव का नाम बताओ

अभिनव ज्ञान ने 
प्रचण्ड आत्मविश्वास से फिर शुरू किया
पहले से भी अधिक धाराप्रवाह-
जी, मेरे गाँव में गाँधी जी आ चुके हैं
और नेहरू जी दो बार आ चुके हैं
मेरे गाँव में वाजपेयी जी भी आ चुके हैं
मेरे गाँव में नामवर जी आ चुके हैं
मेरे गाँव में रामविलास जी आ चुके हैं
मेरा गाँव आदर्श गाँव बन चुका है
मेरा गाँव जनपद मुख्यालय के पास है
मेरे गाँव के पास रेलवे स्टेशन है
मेरे गाँव के पास हवाईअड्डा बन रहा है

बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह
अभिनव ज्ञान की कारयित्री प्रतिभा से
और आचार्य हँसमुख शास्त्री डी. लिट. के भव्य
सत्कार से तृप्त और अतीव प्रसन्न हो चुके थे
उन्होंने कहा- अब जाओ, वत्स!
आलोचना के आकाश में विचरण करो
जो चाहो सो करो

परीक्षार्थी के जाने के बाद
बाह्य परीक्षक आचार्य सुतुही प्रसाद सिंह ने
आंतरिक परीक्षक और अपने मित्र
आचार्य हँसमुख शास्त्री डी.लिट. से
तपाक से कहा-
अभिनव ज्ञान को उसके अभिनव ज्ञान 
और विलक्षण तर्कणा के आधार पर
हमारे समय की हिंदी आलोचना की
पीएचडी की उपाधि प्रदान करने हेतु 
संस्तुति की जाती है।

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चुग़द उर्फ़ मियाँ मोहन राकेश
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(तुम से पहले भी वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था/
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था : हबीब जालिब)

इस शहर में 
तब भी कोई हलचल नहीं हुई थी
शायद सब अपने-अपने में 
बहुत मसरूफ़ रहे होंगे
कुछ जो अपने शहर के लेखक से
भीतर ही भीतर जलते रहे होंगे
शायद ख़ुश भी हुए होंगे
कि चलो हम नहीं छोटा कर पाये
उसे किसी ने तो किया

जब
मोहन राकेश ने
शायद अपने बोले चाहे लिखे में
कोई नुक़्स निकालने की वजह से
इस शहर के एक लेखक को
चुग़द कहा था बल्कि लिखा था
टाँक दिया था बाक़ायदा 
अपनी डायरी में हमेशा के लिए
बिना वजह बताए उसके मुँह पर 
कालिख मल दिया था

क्या 
कोई बड़े से बड़ा लेखक भी
साहित्य का ख़ुदा होता है
कि कोई उसकी आलोचना न करे
कोई उसे चुभने वाली बात न करे
और चुभने वाली बात का जवाब
शानदार दलील की जगह गाली क्यों हो
भला ख़ुदा भी कहीं गाली देता है

काश
मैं मोहन राकेश का
समकालीन रहा होता तो कहता
मियाँ मोहन राकेश बड़े लेखक हो
तो तुम्हारे पास कोई अच्छा शब्द 
क्यों नहीं है 
अनाड़ी नहीं कह सकते थे
नासमझ नहीं कह सकते थे
औसत नहीं कह सकते थे
कहाँ गयी थी तुम्हारी भाषा
घास चरने चली गयी थी
उस वक़्त जब तुम 
किसी लेखक पर
टल्ली होकर
थूक रहे थे

मोहन राकेश 
तो मोहन राकेश
आज की तारीख़ में
छोटे से छोटा लेखक भी ख़ुद को
बड़ा लेखक से कम नहीं समझता है
उसे ख़ुद के तख़्त-नशीं
और ख़ुदा होने का 
घमंड हो गया है

बुरा वक़्त है
मोहन राकेश के समय से काफ़ी बुरा है 
जो आज काफ़ी बुरा है वह भी
धड़ल्ले से किसी लेखक को
उसके मुँह पर चुग़द कह सकता है
मुझे भी

मेरी बात और है
फिर भी मेरे मुँह पर कोई
मेरे बराबर का या मुझसे बड़ा शख़्स
मुझे चुग़द कहेगा तो शायद मैं 
सीधे उसका कुर्ता फाड़ दूँ
अगर मैं ऐसा नहीं करता 
तो यह शहर तो मेरे साथ भी
ठीक वही सलूक करेगा
अकेला छोड़ देगा

यह शहर है ही ऐसा
कहने के लिए सब साथ होते हैं
लेकिन असल में सब के सब
बहुत अकेले होते हैं
इतनी बुरी तरह अकेले होते हैं 
कि अकेले चलने जीने और लड़ने का
साहस ही किसी के पास नहीं होता है
भला ऐसा शहर भी कोई शहर होता है।

(नोट : यह कविता एक अर्थ में अपने शिक्षक परमानंद श्रीवास्तव के प्रति श्रद्धांजलि है। परमानंद जी एक लोकतांत्रिक लेखक थे। सहमति और असहमति, दोनों का स्वागत करते थे। साहित्य में कई मुद्दों को लेकर मेरी उनसे असहमति भी रही है, लेकिन मुझ पर एक शिक्षक के रूप में उनका ऋण भी रहा है। इस कविता को मुझे कोई पच्चीस-तीस साल पहले लिखना चाहिए था, लेकिन किसी बात को लिखने का समय कब और किस घटना-दुर्घटना के बहाने आएगा, यह कौन जानता है।)

---------------
परिक्रमाकार 
---------------
जब 
आपके पास 
ढंग का एक लेख भी नहीं है
जिसका नाम लेकर 
अभी बता सकें कि यह
आपकी कीर्ति का आधार है
एक बीघा खेत नहीं है 
और आप बनना चाहते हैं
गोरखपुर की आलोचना का 
ज़मींदार
ऐसा कैसे हो सकता है भला
और अगर आप बज़िद हैं 
तो फिर आपको इस उम्र में 
साहित्यिक औषधि की जरूरत है

बेहतर हो
आप अपने लिए 
औषधि की विधि का चुनाव ख़ुद करें 
चाहें तो आयुर्वेदिक चाहें तो होम्योपैथ 
लेकिन एलोपैथ आपके लिए
ख़तरनाक होगा उसमें सर्जरी है

इस उम्र में
दुर्बल महत्वाकांक्षाओं को 
अपने घर के सहन में मिट्टी खोदकर 
उसी में रखकर अच्छी तरह से 
ऐसे दबा देना चाहिए 
कि फिर कभी बाहर न आ सकें
जैसे मैंने एकल काव्यपाठ 
मंच माइक माला 
और पुरस्कार की इच्छा को 
दफ़्न कर दिया है

साहित्य में 
एक कार्यकर्ता के रूप में भी 
ईमान साथ हो तो अच्छा काम 
किया जा सकता है 
और अमूमन मठाधीश के रूप में 
बहुत ख़राब काम किया जाता है 
गोरखपुर के मठाधीश का हाल देख लें
न कविता में कुछ न आलोचना में कुछ 

और
आप हैं कि आलोचना का क़िला 
फ़तह करने की ज़िद लिए बैठे हैं
यह भूल गये हैं कि आप ऊंट हैं
और पहाड़ को मां की गाली दे बैठे हैं

असल में 
आप छेदीलाल शुक्ल के काव्य संग्रह पर
ब्लर्ब लेखन को ही आलोचना समझ बैठे हैं
और आपको घमंड इस मूर्खता पर है
जबकि आपका छेदीलाल
मेरे मित्र का चरणरज 
हज़ार बार ले चुका है

जब मैं
अपने प्यारे आलोचक मित्र 
अरविंद की कमियों पर चोट कर सकता हूं
तो आप किस खेत की मूली हैं 
अरविंद के पास तो 
आलोचना की अच्छी खेती बारी है
मोटा-महीन सब बोता है
आपके पास तो 
एक बिस्वा खेत नहीं है 
जो है हवा-हवाई है 
आलोचना में हाथ की सफाई है 

ज़रूरी नहीं
कि परमानंद के सेवक भी 
इस शहर में आलोचना का परमपद
प्राप्त करें ख़ुद को शांत करें
ठंडा तेल अपनी खोपड़ी पर धरें
कुछ बनने के लिए तीस साल बहुत होते हैं 
मान लें कि इतने लंबे वक्त में 
न आप आलोचक का पद बचा पाए 
न विमर्शकार बन पाए
बेहतर होगा
आलोचना के परिक्रमाकार के रूप में
ख़ुद को मुतमइन करें।

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दीन-हीन निरीह लेखक की हवाई फायरिंग
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गोरखपुर के एक लेखक ने 
बाहर के एक लेखक की पोस्ट पर 
कुछ टिप्पणी की 

बाहर के लेखक ने 
गोरखपुर के लेखक को उसके मुंह पर कहा, 
आप मूर्ख हैं 

और 
गोरखपुर के लेखक ने
तुरत झुककर हथियार डालते हुए कहा,
आप यही कह सकते हैं

हद है 
इस दीन-हीन निरीह लेखक ने
गोरखपुर का मान कितना घटा दिया  

पलट कर यह भी नहीं कहा 
कि आप महामूर्ख हैं 
या मैं नहीं आप मूर्ख हैं

किसी ने पूंछ पर पैर रखा
तो दस दिन बाद फनफनाये
हवा में खूब तलवारबाजी की
बेनामी गालियां दीं 

बाहर के लेखक को 
पता ही नहीं कि पट्ठा यह प्रलाप 
किसे सुनाने के लिए कर रहा है
पूंछ पर पैर रखने वाले को पता नहीं

हवाई फायरिंग का मतलब भीड़ में होता है
साहित्य में हवाई फायरिंग का मतलब
शुद्ध मूर्खता है

पट्ठा जो-जो ऊपर वाले पर फेंक रहा था
सारा सूखा गीला गंदा उसके मुंह पर 
गिर रहा था फिर भी वह बहुत खुश था

गोरखपुर का लेखक है इतना ही काफी है
कुछ भी कहूंगा तो हम सबकी बदनामी है
यों कहने को पूरा पोथा अभी बाकी है।

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मेरे विद्यार्थियो
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कहां होंगे 
मेरे विद्यार्थी 
कविता का दरवाज़ा खोलना 
उन्हें ठीक से याद होगा

अब भी सीढियों से उतरकर
दोस्तों और सखियों संग
मर्मस्थल पर पहुंचने की बेचैनी
उतनी ही तीव्र होगी

अब भी 
उनके जीवन में 
उतना ही गाढ़ा होगा
गुलमोहर और अमलतास का
सुर्ख़ और चटक पीला रंग

कहां होगे
मेरे विद्यार्थियो
मेरे बच्चो इस हारी-बीमारी में
कहीं निपट अकेले तो नहीं होगे
किस हाल में होगे।

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लाइव मुकुट वितरण
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कवि जी
ख़ूब आस्तीनें मोड़ते हैं
ख़ूब तलवारें भांजते हैं
काले बादलों से भी ज़्यादा
ख़ूब-ख़ूब गरजते हैं

कवि जी जैसे
अपने इस महारोर से
सब उलट-पलट देंगे
हिंदी की काली दुनिया को
दिव्यज्योति से पलभर में
भासमान कर देंगे

ये क्या हुआ
कवि जी का सिंहनाद
लाइव में आते ही गुम हो गया
कवि जी मुदितमन प्रसन्नवदन 
मुकुट वितरण करने लगे।