गुरुवार, 29 अगस्त 2013

हँसो कि नक्कारखाने में तूती की आवाज हूँ

-गणेश पाण्डेय

जब मैं कहता हूँ कि काजल की इस कोठरी को ढहा दो तो जानता हूँ कि काजल की यह कोठरी किसी गरीब की मड़ई नहीं है, जिसे कोई दबंग चुटकी बजाते हुए गिरा देगा। यह भी जानता हूँ कि जब तमाम साथी इस व्यवस्था को बदलने की बात करते हैं तो उन्हें यह अच्छी तरह पता रहता है कि यह व्यवस्था एक मिनट में नहीं बदल जाएगी। उन्हें पता है कि गरीब, पिछड़े, आदिवासी की मुश्किलें हमारे जीवनकाल में खत्म नहीं होने जा रही हैं। मैं भी जानता हूँ। साथी भी जानते हैं। हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे जीवित रहते इस दुनिया से पूँजीवाद का नाश नहीं होने जा रहा है। यह भी पता है कि राजधानी में भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिए चाहे लाख नहीं, करोड़ लोग जमा हो जाएँ, भ्रष्टाचार खत्म नहीं होने जा रहा है। गांधी जी फिर से आएँ, चाहे मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन तुरत या अगले कुछ सालों में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है कि उनकी जरूरत खत्म हो जाए। हम जानते हैं कि सूरज को निकलने में कोई बारह घंटे लगते हैं, रात होते ही कहाँ झट से सूरज निकल आता है। हम जानते हैं कि इस दुनिया और इस देश को जस की तस चलाने वाली ताकतें बड़े बदलाव का विरोध इसी तरह करती रहेंगी। हम यह भी जानते हैं कि बदलाव की आवाज इसी तरह गूँजती रहेगी। जहाँ तक साहित्य की बात है, यह जानता हूँ कि मैं साहित्य के इस नक्कारखाने में तूती की आवाज हूँ। मेरी तरह दूसरे भाई भी तूती की आवाज हैं। अलबत्ता हमारे बहुत से भाई जिन्हें बदलाव की इस लड़ाई में साथ होना चाहिए था, अलग-अलग वजहों से हमारे साथ नहीं होते हैं। फिर भी कुछ लोग क्यों पूरी दुनिया में, इस देश में, समाज और साहित्य में दीवानों की तरह बदलाव के गीत गाते रहते हैं ? क्यों गाँव-गाँव, जंगल-जंगल, शहर-शहर बदलाव के ऐसे दीवानों की आवाज सुनाई देती है ? क्यों दुनिया के असंख्य नक्कारखाने में कहीं भी कभी भी कोई तूती चुप नहीं होती है ? ऐसा इसलिए कि हम बदलाव के गीत गाये बिना साँस तक नहीं ले सकते हैं ? हमारे जिंदा रहने की शर्त ही प्रतिरोध है, असहमति है, संघर्ष है।
      जब मैं कहता हूँ कि साहित्य में भ्रष्टाचार की इमारत ढहा दो तो जानता हूँ भाई कि मेरे जीते जी यह काम नहीं होने जा रहा है। मेरे लिए जीवन भी एक कविता है। जब आप कविता लिखते हैं तो कविता में बदलाव की सुबह का इशारा क्यों करते हैं, क्या सचमुच बदलाव की सुबह हो रही होती है ? इसी तरह दोस्त, इसी तरह, काजल की कोठरी को ढहाने की बात करता हूँ। मैं जानता हँू कि साहित्य में नायकों की धोती में दाग बहुत है, इसे एक मिनट में साफ करने का कोई डिटर्जेंट पावडर मेरे पास नहीं है। फिर भी इसलिए कहता हूँ कि मेेरे जीवनकाल में नहीं, सौ - दो  सौ साल बाद सही, उसके भी  बाद सही, साहित्य से ये भ्रष्टाचार दूर हो, अन्याय दूर हो। क्या एक छोटे से छोटे लेखक के पास यह स्वप्न नहीं होना चाहिए ? बहुत अच्छी तरह जानता हूँ कि जब तक साहित्य, कला और संस्कृति के परिसर से अँधेरा नहीं हटेगा, समाज और राजनीति से अँधेरा रत्तीभर कम नहीं होगा। क्या दुनिया में जहाँ-जहाँ बदलाव आया है, वहाँ के लेखक साहित्य के हर तरह के काले कारमाने में जुटे थे या उनके पास साहित्य का थोड़ा-सा ईमान बाकी था ? क्या अपने देश में विचार और संस्कृति से जुड़े प्रबुद्ध और गंभीर कार्यकर्ता अपने ईमान के साथ पीड़ित जन के साथ नहीं हैं ?
    जैसे जनता का एक बड़ा हिस्सा व्यवस्था की खुरचन के प्रलोभन में फँसा रहता है, हजार तरह के डर उसके सामने होते हैं, उसी तरह कुछ लोगों को छोड़कर हिंदी के लेखकों बहुत बड़ा हिस्सा डरा हुआ रहता है। हाय, पाँच सौ की टॉफी, हाय इस अकादमी, हाय उस अकादमी, हाय इस पीठ, हाय उस पीठ का इनाम हाथ से निकल जाएगा। फिर भी जनता तो आंदोलन करती है। दफ्तर घेरती है। ये लेखक जिस जनता को बड़ी-बड़ी सीख्  देते है , उससे तनिक भी सीख नहीं लेते हैं। मैं पूछता हूँ कि यार अच्छा लिखोगे तो कौन-सा आलोचक है जो तुम्हारी अच्छी चीज छीन लेगा, उसे भूसे के मंडीले में छिपा देगा ? या उसे जमीन में गाड़ देगा ? कौन है जो तुम्हारी अच्छी रचना को बम से उड़ा देगा ? नाम तो बताओ जरा उस आलोचक का ? कौन है आज की तारीख में महाबली ? क्यों मरे जाते हो कि कोई आलोचक जरा-सा नाम ले ले ? क्यों मरे जाते हो अमुक अखबार में, अमुक पत्रिका में अपना नाम देखने के लिए ? अपमान के साथ कहीं मत छपो, अपमान के साथ किसी मंच पर मत बैठो, अपमान के साथ कोई पुरस्कार मत लो। अपनी पत्रिका निकालो, चाहे दस पेज का ही सही। अपनी किताब छपवाओ। आएगा कोई तुम्हें पढ़ने वाला। तुम्हें देखने वाला। दूसरे संग्रह की अपनी ही एक कविता ‘मुश्किल काम’ फिर याद आ रही है, ऐसा इसलिए कि इस मिजाज की हमारे समय की कोई और कविता फिलहाल मुझे याद नहीं आ रही है-

यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे कि मेरे साथ तो थे पर आजाद थे।
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ जाता था अक्सर वह धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे
जो मेरे साथ तो थे पर किसी के गुलाम न थे।
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच।
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए और बिकना था सबसे।
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीयत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-‘पीना और शैतान के संग’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था।

         एक लेखक का जीवन भी पतित जीवन हुआ तो फिर उसमें और किसी दुष्कर्मी बाबा-साबा में क्या फर्क रह जाएगा ? बोलो दोस्तो ? बाबा गंदा है और तुम गंदे नहीं हो ? राजनीति और धर्म के नायक पवित्र हो जाएँ और तुम ? राजनीति में सब सेकुलर हो जाएँ और तुम इनाम के मामले में सांप्रदायिक बने रहोगे ? दुष्कर्म में लगे रहोगे ? हँसो कि मैं बेवकूफी की बात करता हूँ। हँसो कि मैं नहीं जानता, पुरस्कार ही आज बहुसंख्यक लेखक के जीवन का प्रयोजन है। हँसो कि मैं दूध में पानी की तरह कमल जाने की कला नहीं जानता। हँसो कि मैं बड़ों का सम्मान करना नहीं जानता। हँसो कि मैं गँवार हूँ। हँसो कि मैं उजड्ड हूँ। हँसो कि मैं लेखक संगठन का रास्ता नहीं जानता हूँ। हँसो कि मैं फलाना शहर की भूलभुलैया नहीं जानता हूँ। हँसो कि साठ के पास पहुँचकर भी अपने प्रदेश की राजधानी में किसी चर्चित पत्रकार के साथ युवा कवियों-लेखकों के योग्य पुरस्कार लेने वाले पचहत्तर साल के कवि के जीवन से कुछ सीख नहीं लेता। हँसो कि मेरे गले में प्रगतिशील होने का कोई पट्टा नहीं है। इस तरह के पुरस्कारों को छ़ोड़ो और देश के हिंदी के तमाम पुरस्कारों को देखकर सच-सच बताओ दोस्तो कि क्या आज तमाम पुरस्कार लेखकों को पालतू बनाने का सुनहला पट्टा नहीं है ? कौन-कौन हैं जो साहित्य में अपने ‘पुरस्कारघर’ को जुआघर की तरह नहीं चला रहे हैं ? इन्हें क्यों नही पहचान रहे हो भाई ? क्यों जानबूझकर लेखक का जीवन हार रहे हो। मैं यह कहाँ रहा हूँ कि तुम कोई सम्मान और पुरस्कार न लो, बस इतना ही तो कह रहा हूँ कि नंगा हो जाने की कीमत पर यह सब न करो। कहना तो यह चाहता हूँ कि संास्थानिक और व्यावसायिक या साहित्य की राजनीति के तहत कोई पुरस्कार मत लो। जनता का कोई स्वतःस्फूर्त पुरस्कार और सम्मान इन पुरस्कारों से हजार गुना ज्यादा तृप्ति देगा। अव्वल तो ऐसा होगा नहीं फिर भी कभी कोई ऐसा संयोग बना तो मैं तो किसी मोची भाई की कमाई का और उसके हाथ से एक नये पैसे का पुरस्कार लेकर अपने इस तुच्छ लेखक जीवन को सार्थक समझूँगा। तुम भी ऐसा क्यों नहीं चाहते ?
    दोस्तो देवेंद्र कुमार का जिक्र यहाँ जरूरी है। देवेंद्र कुमार पंडित नहीं थे, लाला नहीं थे, हरिजन थे, पर आज की तारीख में यहाँ जितने भी असली या नकली तोप हैं, उन सबसे अच्छे थे और हैं। अपनी कविता को लेकर अति संकोची थे। आत्मप्रचार से दूर रहने वाले। सिर्फ और सिर्फ कविता से प्रेम करने वाले। बात-बात पर राजधानी की परिक्रमा न करने वाले। उन्हें कभी पुरस्कारों के लिए दौड़धूप करते नहीं देखा। मैं ही नहीं, मेरा दोस्त अरविंद भी उन्हें ही बेहतर कहता है। फिर अपनी ही एक कविता का अंश, साक्ष्य के रूप में -

कई कवि देखे
कई तरह के कवि देखे
कोई मधुकर था यहाँ
कोई काला था, कोई दिलवाला
कोई परमानंद, कोई विश्वनाथ।
देवेंद्र कुमार को यहीं देखा
अपनी हीर कविता के लिए राँझा बनते।

      अपनी कविता से प्रेम करना है, अच्छी कविता से प्रेम करना है तो उन्हें मत देखो जो पुरस्कार के लिए अपनी कविता को गिरा चुके हैं। यह क्यों नहीं सोचते कि एजेंडा अच्छी कविता लिखने का है, नामी-गिरामी पुरस्कार लेने का नहीं है। क्या मुक्तिबोध को उतने पुरस्कार मिले, जितने पुरस्कार काँख में दाब कर आज दो कौड़ी के कवि यहाँ-वहाँ घूम रहे हैं ?
      दोस्तो, क्यों उस धोती वाले पंडित या बाऊ साहब के हाथ से गले का सुनहला पट्टा ले रहे हो ? या लेने के लिए कतार में हो ? मैं जानता हूँ मेरी बातें सबको अच्छी नहीं लगती हैं लेकिन यह भी जानता हूँ कि मेरी बातें उन साथियों को अच्छी लगती हैं जो साहित्य में अच्छाई का पक्ष लेते हैं। बुराई का पक्ष लेने वाले जरूर बंद कमरे में छिपकर मुझ पर हँसते होंगे। हँसो भाई खूब हँसो, हँसो कि मैं नक्कारखाने में तूती की आवाज हूँ।



शनिवार, 24 अगस्त 2013

दुखी रहे फिर भी कुछ पाजी

-गणेश पाण्डेय
यह सुख और दुख की दुनिया भी अजीब है, सबके लिए न दुख है और न सबके लिए सुख। साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में भी सुखी और दुखी दोनों तरह के लोग रहे हैं। आज भी जहाँ देखिए मिल जायेंगे, एक ओर हाल में निकाले गये पत्रकार  हैं तो दूसरी तरफ संपादक, निदेशक इत्यादि कुर्सियों पर बैठकर इत्र सूँघते हुए चंद सुखी लोग। साहित्य में भी कभी कोई संघर्ष न करने वाले तिकड़मी लोग हैं जो अकादमियों में मालपुआ खा रहे हैं और आज की तारीख में साहित्य में लड़ाई लड़ते हुए लगातार तनाव में रहने वाले दूसरे तरह के दुखी लोग भी हैं। साहित्य के भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रतिदिन, प्रतिक्षण लड़ने वाले लोग कम हो सकते हैं, पर हैं। जाहिर है कि ऐसे लोग सुखी लोग नहीं है।
      इस दुनिया में कई तरह के लोगों को देखने के लिए आँखें पूरी खुली रखना देखने की पहली शर्त है। मुश्किल यह भी है कि बहुत से लोग दुख और संघर्ष देखना ही नहीं चाहते हैं। जाहिर है कि जिनका पेट भरा होगा वे भूख के बारे में क्यों बात करेंगे ? बड़े तो बड़े , एक बच्चा भी अघाये हुए लोगों की भाषा और दुखीजन की भाषा में फर्क कर लेगा। आज किसी की भाषा अलग है तो इसे जाना जा सकता हैं कि ऐसा क्यों है। क्यों किसी की भाषा में इतना बारूद है, साहित्य में यह लेखक जब पैदा हुआ था तब तो ऐसा नहीं था, क्या देखा और भोगा है कि ऐसा हो गया है, किसे-किसे किस हाल में देख लिया है कि तब से गुस्से में है। कोई लेखक, कोई संपादक बताए भला! बहरहाल, अपना काम सिर्फ कहना है, अर्थ-अनर्थ करना पढ़ने वाले के जिम्मे। हाँ, तो मैं बात कर रहा था साहित्य के सुखिया और दुखिया संप्रदाय के बारे में। यह सब कहने की जरूरत क्यों आन पड़ी, इसके बारे में सिर्फ इतना ही कि सरसरी तौर पर एक मशहूर पत्रकार के स्टेटस पर यह चिंता दिखी कि भाई इस माध्यम पर लोग अपना रोना क्यों रोते हैं ? क्यों नहीं नित्य सुखीजीवन के गीत गाते हैं ? क्यों नहीं मनोरम दृश्य उपस्थित करते हैं ? क्यों नहीं हँसी-मजाक और हँसी-ठट्ठा करते रहते हैं ? क्यों नहीं संग्रहालयों की फोटो छापते रहते हैं, इत्यादि सुखी जीवन का व्यापार करते हैं ? क्यों नहीं इस माध्यम के लोग उनके सामने से शव, बीमार और बूढ़े आदमी चित्र हटा देते हैं, जिस तरह सिद्धार्थ के सामने से हटा दिया जाता था। ऐसा चाहने वालों की दिक्कत हर तरह के गरीबों को लेकर है, खासतौर से साहित्य के दीन-हीन, शोषित-पीड़ित की ऊँची आवाज को लेकर उनकी दिक्कत सबसे ज्यादा है। वे उन कवियों और लेखकों को पसंद करते हैं और बड़े गर्व से नाम लेते हैं , जो खुशामद के रास्ते पर चलता हो। साहित्य में लड़ने वाला, हरगिज नहीं। आलोचकों, संपादकों और अकादमियों के अधिकारियों के जूते में पालिश लगाने वाला लेखक चलेगा, इसी रास्ते से पुरस्कार पाने वाला लेखक चलेगा ही नहीं, दौड़ेगा। जाहिर है कि लूट का माल खाकर अघाये हुए लोग सुखी और स्वस्थ रहते हैं।
       पत्रकार मित्र ने अपने स्टेटस में हालाकि यह सीधे नहीं कहा है कि दुख की बातें एकदम से न कहें, उन्होंने कहा है कि कहें पर सिर्फ वही-वही हरदम न कहें। शायद उनका आशय है कि प्रकृति, सौंदर्य, कला, प्रेम, उत्सव आदि की बातें भी बढ़चढ़कर करें। जो लोग ऐसा करते हैं उनकी तारीफ करता हूँ, पर सबके लिए ऐसा कर पाना संभव होगा, यह नहीं कह सकता। भला जिस स्त्री का नवजात शिशु अस्पताल से चोरी हो जाएगा, वह जीवन भर कैसे उत्सव मना पाएगी, जिसके जवान बेटों को हत्यारे कत्ल कर देंगे, वह माँ कैसे और कितना और कब-कब उत्सव मना पाएगी ? वह माँ, नाच पाएगी, वह माँ फोटो खींच पाएगी ? वह माँ यात्रा का किस तरह आनंद ले पाएगी ? इत्यादि बातें हैं। जिनके लिए हिंदी धंधा नहीं है, हालाकि कुछ लोगों के लिए नौकरी है, पर कुछ लोगों के लिए सिर्फ नौकरी नहीं है, जीवन है। जिनके लिए साहित्य यश और इनाम का जरिया नहीं, एक ड्यूटी है, चौकीदार जैसी, वह रातों में सो कैसे सकते हैं ? मजे कैसे ले सकते हैं, उन्हें तो सुनसान रातों में सीटी बजाते, जागते रहो कहते और सड़क पर लाठी से आवाज पैदा करते हुए रहना है। आशय यह कि जिसे हिंदी की लंका के तनाव में तीन बार स्कूटर दुर्घटना में मरने के करीब का दृश्य देखना होगा भला वह हिंदी की दुनिया में बहुत अधिक उत्सवधर्मी कैसे हो पाएंगे ? हिंदी के राक्षसों का अट्टहास उन्हें कितना उत्सवधर्मी बनने देगा ? कहने का यह आशय यह नहीं कि ऐसे लोग अपने घर में भी योद्धा की मुद्रा में ही रहते होंगे, निश्चितरूप से वे वहाँ अपने बच्चों से प्यार करते होंगे, हँसते होंगे, शादी-ब्याह में नाचते भी होंगे, लेकिन इस माध्यम पर ऐसे लोग उत्सव मनाने के लिए ही नहीं रह सकते हैं। ऐसा भी होता है कि एक लेखक अपने शहर में हिंदी की लंका में बिल्कुल अलग-थलग रहता हो और जब वह इस माध्यम पर आए तो अपने दर्द और संघर्ष के साथ मौजूद हो। ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो किसी विचारधारा और समाज के दुखी लोगों से प्यार करते हों, ऐसे लोग बहुत ज्यादा आनंदवादी नहीं हो सकते हैं। दरअसल दुखी लोगों के लिए यह माध्यम समाज का कोई ललित माध्यम नहीं हो सकता है। चित्रहार नहीं हो सकता है। जो लोग इसे एक ललित माध्यम के रूप में देखते हैं, वे अपनी जगह और दृष्टि और विचारधारा के आधार पर इसे अनंतकाल तक ललित माध्यम के रूप में ले सकते हैं, पर जिसकी बात कोई और माध्यम कम सुनता हो, जिसकी बातों से साहित्य के भ्रष्ट लोगों के कान पर जूँ न रेंगता हो, वह इस माध्यम पर अपनी आवाज समानधर्मा मित्रों तक क्यों नहीं ले जाएगा ? जाहिर है कि वह कानफोड़ू आवाज में भी अपनी बात कहने की सीमा तक जा सकता है, अच्छा हो कि आप सुखवादी है, संतुष्टिवादी है, ललितवादी हैं इत्यादि तो अपनी मित्र सूची से ऐसे दुखवादियों को अलग कर दें।
     साहित्य और पत्रकारिता के सुखी लोग, दुखी लोगों को पसंद नहीं करते हैं तो न करें, लेकिन दुखी लोगों के रोने पर एतराज करेंगे तो जाहिर है कि दुखी लोग भी उनके ललितवाद पर एतराज करेंगे। सुखी लोग यह न समझें कि दुखी लोग उन रास्तों को नहीं जानते हैं, जहाँ से सारा सुख उन्हें भीख में मिलता है। दुखी लोग भीख नहीं, अपना हक चाहते हैं और उसके लिए रोते हैं, लड़ते हैं, हार जाते हैं, फिर लड़ते हैं, फिर रोते हैं और लड़ते ही रहते हैं। कबीर ने कहा है कि-
सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।
कबीर का उदाहरण देने का आशय यह कि आज कबीर भी इस माध्यम पर होते तो ऐसे पत्रकार जी लोग उनसे भी कहते कि कबीरदास जी ये क्या आप रोना-धोना करते रहते हैं। ये क्या जीव-ब्रह्म करते रहते हैं, ये गरीबों और पिछड़ों की चिंता क्यों ? ये हिंदू-मुसलमान क्यों ? ये आग लगाने वाली बातें क्यों ? कुछ मीठा कीजिए कबीर दास जी। निराला होते इस माध्यम पर तो उन्हें भी डाँटते कि अरे भाई निराला ये क्या हरदम कहते रहते हो कि दुख ही जीवन की कथा रही...हिंदी के सुमनों के प्रति क्यों अनाप-शनाप कहते रहते हो, संपादक को बुरा-भला क्यों कहते रहते हो...अरे अजीब आदमी हो ये आराध्य की मूर्ति पर डंडे से चोट क्यों करते हो...ये साहित्यिक अन्याय और भ्रष्टाचार की बात क्यों करते हो भाई...क्या हुआ जो दूसरे तुम्हारे हिस्से की मलाई काट रहे हैं...इसमें रोने की कौन-सी बात है...हटाओ अपना ये रोना-धोना। कुछ अच्छी बातें करो। कुछ मस्ती करो। अरे भाई, पत्रकार जी ! आपके अज्ञेय ने भी तो कहा है कि दुख सबको माँजता है। आपको दुख माँजता नहीं है क्या ? कम माँजता है क्या ?
       दरअसल ये कहना तो चाहते होंगे आज के राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक सरोकारों के लिए लड़ने वाले तमाम लोगों से कि भाई ये क्या हर समय दुख की बातें। ये क्या हर समय शोषण-उत्पीड़न का रोना। ये क्या हर समय सोनी सोरी की चिंता, ये क्या दामिनी जैसी तमाम बेटियों के लिए रोज-रोज गुस्सा, छोड़ो ये सब, हँसो-हँसो, हँसो कि हँसने से सेहत को फायदा है, हँसो कि रोना सत्ता को पसंद नहीं है। हजार झूठ छापते हुए तमाम पत्रकार -संपादक अपनी कुर्सी पर हँसते है जोर-जोर से। कहना सिर्फ इतना है कि यह माध्यम अपनी तमाम कमियों के बावजूद वह सब सबसे साझा करता है जिसे किन्हीं कारणों तमाम पत्रकार अपने अखबार में दे नहीं सकते हैं। जहाँ तक मैं जानता हूँ देश की संसद में पहुँचने वाले दागी लोगों के बारे में ये जितना छापते हैं, उसका एक बटा हजार भी साहित्य की अकादमियों में पहुँचने वाले दागी लोगों के बारे में नहीं छापते हैं । असल में ये सच के देवता नहीं , सौदागर हैं। सच, उतना ही और वही सच छापते हैं जिसमें जोखिम रत्तीभर न हो। इन्हें जनता के दुख से नहीं, सत्ता के सुख से प्रेम है। जनता का दुख भी इनके लिए दुख नहीं एक वस्तु है, जिसे उचित समय और उचित दाम पर ये बेचने के लिए मजबूर होते हैं। हाय, इस दुनिया में कितने मजबूर लोग रहते हैं। जाहिर है कि ये मजबूर लोग दुख के सिपाही नहीं, सुख के चाकर हैं। खुद चुना है सुख की यह नौकरी। आखिर दुख की नौकरी चुनने वाले भी कुछ कम पाजी तो नहीं हैं।
अंत में कविता का यह अंश -

सुखी हुए वे जन
त्याग दिया जिन्होंने
क्रोध

सुखी हुए वे भी
जिन्होंने एवज में दिया
शील

वे महाशय भी सुखी हुए
साध लिया जिन्होंने
चिंता से बैरभाव

परम सुखी हुए वे मनुष्य
जो हुए नित्य
सत्तामुख

दुखी रहे फिर भी कुछ पाजी
जिनके पास हुई गर्दन
तनी हुई।