शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

मोढ़े की परिक्रमा

- गणेश पाण्डेय

प्रिय विमलेश, उन प्रतिभाओं के साथ यह दिक्कत अक्सर होती, जिन्हें धारा के विरुद्ध चलने की बीमारी होती है। धारा के संग बहने वाली प्रतिभाएँ सुख की नींद सोती हैं और यश के सूर्योदय में जागती हैं। जैसे मुहावरा है कि कुछ लोग मुँह में सोने का चम्मच लेकर पैदा होते हैं, उसी तरह कहते हैं कि कुछ लोग अपने भाग्य में लट्ठ लेकर पैदा होते हैं। आज हिंदी के अधिकांश लेखक, जिनमें उच्चशिक्षा संस्थानों के शिक्षक भी शामिल हैं, धारा के साथ सुखपूर्वक जीवन जीते हैं। तनिक-सा यश, तनिक-सा पुरस्कार और तनिक-सी चर्चा का सुख, उनके जीवन का उद्देश्य है, उनकी रचना का ध्येय है। ऐसे लेखक मर जाने बाद कुछ भी नहीं छोड़ना नहीं चाहते हैं, ये जीते जी अपना श्राद्ध करके जाना चाहते हैं। साहित्यिक श्राद्ध का आशय पंडिज्जी वाला कर्मकांड नहीं है, दूसरा कर्मकांड है, साफ-साफ बता दूँ कि यह कर्मकांड अपने ऊपर किताब लिखवाने और पत्रिकाओं का अंक निकलवाने का है। हमारे बीच के कई लोग ऐसा खूब करते हैं। चाहे किसी पंडिज्जी पर किताब संपादित करनी हो चाहे किसी बाऊसाहब पर। एक आलोचक ने तो यहाँ से साठ का होने पर बाकायदा एक पत्रिका का अंक ही निकलवाया, एक ने अपने काम पर एकाधिक किताब छपवाया। सबके नाम हैं, पर मेरा उद्देश्य किसी को अपमानित करना नहीं है, सिर्फ प्रवृत्ति को बताना भर है। कहना यह कि ये लोग बहुत डरे हुए लोग होते हैं और ऐसे लोगों के साथ सिर्फ और सिर्फ डरे हुए लोग होते हैं, सब यहाँ देखा हुआ है। ऐसे ही लोग उच्चशिक्षा संस्थानों में भी होते हैं। इसीलिए उच्चशिक्षा संस्थानों को प्रतिभाओं की कब्रगाह कहा जाता है।
        कोई चाहे तो यहाँ से लेकर देश के अनेक हिस्सों का उदाहरण सामने रखकर सीधे किसी कवि का नाम लेकर कह सकता है कि अमुक जी भी प्रोफेसर रह चुके हैं और अच्छे कवि कैसे हैं ? तो मैं विनम्रतापूर्वक कहूँगा कि भाई अच्छे कवि तो लाखों में हैं, यह पूछिए कि बड़े कवि हैं ? मैं अपनी समझ के आधार पर आज जब राजधानी के प्रथम पंक्ति के तीन कवियों को देखता हूँ तो उन्हें बड़े कवि के रूप में नहीं देख पाता हूँ। हाँ अच्छे और मजे हुए कवि हो सकते हैं। बड़े कवि मुझे इनसे पहले की पीढ़ी में दिखते हैं। यह उल्लेख सिर्फ इसलिए कि कह सकूँ कि कवि का जीवन जितना बड़ा होता है, उसमें टकराने का भाव जितना होता, उससे वह कवि बड़ी कविता की दीवार फाँद पाता है। जीवन में कोमलता और पग-पग पर समर्पण जितना अधिक होगा, कविता ओज से उतनी ही दूर होगी। यह ओज कवि स्वभाव का जब अंग हो जाता है, तब उसकी कविता में ठीक से भिनता है। कहीं-कहीं तो मुहावरे में झलकता है। वीरगाथाओं का ओज मुझे सच्चा ओज नहीं लगता। जैसे दिहाड़ी पर ओजप्रदर्शन किया गया हो। जीवन का खुरदुरापन अच्छी कविता के लिए जरूरी है। जाहिर है कि मँजी हुई कविता के लिए जरूरी नहीं है। मँजी हुई कविता तो अतिशय अभ्यास और बाहर की कविताओं की नकल से खूब बन सकती है।
          असल में विमलेश , कहना यह है कि अपनी संस्था के माहौल से दुखी होकर दूसरी जगह जाने के लिए हड़बड़ी में नहीं सोचना चाहिए। जाना ही चाहते हो तो ऐसी जगह जाओ, जहाँ कुछ कर सको। यह सब कहने के लिए भूमिका जरूरी है, इसीलिए कुछ संकेत किया है। इशारा यह कि आज का समय उन प्रतिभाओं के लिए बहुत बुरा समय है जो अपनी गर्दन तनी हुई रखना चाहते हैं, उन प्रतिभाओं के लिए यह समय बहुत अच्छा है जो गर्दन ही नहीं कमर भी झुकाने की कला में पारंगत हैं, क्या पता ये पहले से सीखकर ही आते हों कविता की दुनिया में। आज साहित्य से जुड़े जितने भी संस्थान हैं, सब बीमार हैं। क्यों कोई अच्छा लिखकर फलाना-फलाना जी का जूता साफ करे ? इस संपादक, उस अध्यक्ष या उस आलोचक का चरणामृत पिये ? क्या दावे के साथ आज कोई प्रकाशक या संपादक कह सकता है कि अपने समय की सभी अच्छी कृतियों को छापा है ? जिस भाषा के साहित्य में लेखकों को प्रकाशकों की पतलून साफ करनी पड़े, उस भाषा के लेखक सीना फुलाकर की चलने के योग्य हैं ?
         लेखक ही नहीं, उच्चशिक्षा संस्थानों के अधिकांश प्राध्यापक भी अपने विभागाध्यक्षों की पतलून साफ करने से मना नहीं कर पाते हैं। सीधे-सीधे कड़े ढंग से यह कहने का आशय यह है कि पढ़ने और पढ़ाने का पेशा भी उतना ही गंदा है जितना दूसरे पेशे। तनिक भी यहाँ कम नहीं है। बड़े-बड़े मार्क्सवादी भी वही करते हैं जो मोदी की पार्टी के समर्थक करते हैं। मेरा एक छोटा उपन्यास ही है-‘अथ ऊदल कथा’, जिसका नायक ऊदल ढ़ँूढ़ता ही रह जाता है, उसे लड़ाई में साथ देने के लिए बड़े भाई के रूप में कोई आल्हा नहीं मिलता है। सब के सब रणछोड़दास मिलते हैं। या सत्ता के गैंग में शामिल लोग मिलते हैं। ‘गुरू सीरीज’ की कविता तो पढ़ने और पढ़ाने की दुनिया का दस्तावेज है ही। असली दस्तावेज है, कोई नकली दस्तावेज नहीं। इससे पहले कि तुम्हें अपनी एक कविता ‘‘एकता का पुष्ट वैचारिक आधार’’ पढ़वाऊ, यह बताना जरूरी समझता हूँ कि तीन बार स्कूटर से गिरा हूँ और अगर हेलमेट नहीं रहा होता तो आज बात नहीं कर रहा होता। जाहिर है कि दफ्तर के हिंदी पुत्रों से मिला तनाव ही था, जिसकी वजह से तीन बार जाने का दुर्योग बना। तब से आज तक तनाव अहर्निश। अब गाड़ी चलाता हूँ। कुछ बचे रहने के लिए। यह सब कहता नहीं, लेकिन इसलिए कह रहा हूँ कि यह न समझो कि लेखक हो तो पढ़ने-पढ़ाने की दुनिया में हिंदी के बुरे लोग हार लेकर स्वागत करेंगे। ऐसे ही बुरे लोग साहित्य की सत्ता को भी प्रिय होते हैं, ये बुरे लोग इसलिए साहित्य की सत्ता को प्रिय होते हैं कि इनकी जुबान पर कोई अप्रिय शब्द आ ही नहीं सकता है, ये किसी भी सत्ता को यह नहीं कह सकते कि सत्ता जी आपकी धोती या पाजामें में छेद है। कहना भी हुआ कभी तो कहेंगे कि वाह क्या डिजाइन है! तो प्रियवर कहना यह कि यह कहने वाले कहीं भी रहेगे तो सुखपूर्वक रहेंगे जो कह सकेंगे कि वाह क्या डिजाइन है! जो यह कहेंगे कि यह डिजाइन नहीं छेद है मान्यवर, उनके सिर हर जगह दीवारों से टकराते रहेंगे। मैं तो अक्सर लड़कियों को मना करता हूँ कि तुम कविता मत लिखो, लिखना है तो आलोचना लिखो। कविता और कहानी दोनों क्षेत्र आज लड़कियों के लिए बहुत असुरक्षित हैं। ऐसा इसलिए कि आज संपादक, आलोचक, प्रकाशक, सब संदेह के घेरे में हैं। बहरहाल यह दूसरी बात है इस पर फिर कभी। यहाँ सिर्फ इतना ही कि उच्चशिक्षा संस्थानों में हिंदी की दुनिया संदेह के घेरे में नहीं, बल्कि सीधे-सीधे अँधेरे में है। शेषफिर, लो ‘‘एकता का पुष्ट वैचारिक आधार’’ पढ़ो-

एक वीर ने उन्हें तब घूरा
जब वे सच की तरह कुछ बोल रहे थे ।

एक वीर ने उन्हें तब टोका
जब वे किसी की चमचम खाए जा रहे थे ।

एक वीर ने उन्हें तब फटकारा
जब वे किसी मोढ़े की परिक्रमा कर रहे थे ।

असल में
एक वीर ने दम कर रखा था
उनकी उस अक्षुण्ण नाक में
जिसे तख़्ते-ताउस की हर गंध
एक जैसी प्यारी थी ।

एक दिन वे एकजुट हुए
क्योंकि एकता का पुष्ट वैचारिक आधार उनके सामने था ।

पाठ्यक्रम समिति की उस बैठक में
लिया उन्होंने निर्णय
कि ‘सच्ची वीरता’ को
जीवन से निकाल दिया जाय ।

सच्ची वीरता’ = अध्यापक पूर्ण सिंह का महत्त्वपूर्ण निबंध ।

( दूसरे संग्रह ‘जल में’ से )

रविवार, 22 दिसंबर 2013

स्वतंत्रता क्या मनुष्य और पशु में भेद नहीं करती है ?

-गणेश पाण्डेय

        पिछले दिनों हुई एक खुदकुशी ने एफबी की दुनिया को भीतर से मथ दिया है। जिन्होंने इस दुनिया को सहसा छोड़कर जाने का फैसला किया, वे मेरे मित्र नहीं थे। मेरी मित्र सूची के कुछ मित्रों के मित्र थे। वे जो भी थे, अच्छे या बुरे, मैं उन्हें ठीक से जानता नहीं था, फिर भी उनकी खुदकुशी और उसके बाद लोगों की प्रतिक्रिया से दुखी था। कोई उन्हें निर्दोष बता रहा था तो कोई कह रहा था कि खुदकुशी दोषमुक्त होने की गारंटी नहीं। आज की दुनिया बहुत खुल गयी है, शायद इतनी कि जरा-जरा-सी बात पर भी विरोध का स्वर मुखर हो जाता है। यह अच्छी बात है। स्वागतयोग्य, पर इस खुलेपन की क्या हर बात स्वागतयोग्य है ?  
       पता नहीं क्यों, मुझे लगता है कि इधर कुछ खुलापन अधिक ही खुल गया है। लगता है कि अतिआधुनिकता का कोई नया क्षितिज यौन स्वाधीनता के रूप में हमारे समय में नये विचारसूर्य की तरह उदित हुआ है। जैसे कई हजार साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति में ऐसी कोई चीज कभी थी ही नहीं और यह पहली बार हो रहा है। हो सकता है कि सचमुच इसमें कुछ बहुत नया हो। मनुष्यों की यौन स्वतंत्रता और पशुओं की यौन स्वतंत्रता में क्या अच्छा और क्या बुरा है, यह मेरे अध्ययन का विषय कभी नहीं रहा है। कविता में भी मैंने कभी बिहारियों की कविता को पसंद नहीं किया है, आज के हिंदी के राजधानी के एकाधिक डॉनों में से एक कवि चाहे बिहारी के नाती ही क्यों न हों, उनकी कविता को भी स्त्रीदेह के शब्दानुवाद की वजह से पसंद नहीं करता। खैर, यह और बात है। यहाँ खुदकुशी वाले व्यक्ति के उभयपक्ष की सहमति वाले तर्क को फर्श पर रखकर देखना चाहता हूँ। आखिर पुरुष क्यों विवाहेतर संबंध के लिए अधिक व्यग्र रहता है ? इस रिश्ते के लिए हमारे यहाँ विवाह जैसी संस्था क्यों बनी ? आजकल, कभी-कभार लिव-इन रिलेशन जैसी बातें क्यों सामने आ रही हैं ? यदि यह कोई बहुत तार्किक, स्वास्थ्यवर्धक और उच्च मूल्यों को प्रतिष्ठित करने वाली चीज है तो इसे ही क्यों न विवाह की जगह अनिवार्य बनाने का कानून बना दिया जाय ? यदि बुद्धिजीवी बंधुओं को लगता है कि इससे समाज एक कदम और आगे जाएगा, तो उसे आगे क्यों नहीं ले जाना चाहिए ? क्या अपवाद को समाज की मुख्यधारा मान लेना चाहिए ?
       अगर पितृसत्तात्मक समाज को मातृसत्तात्मक बनाना जरूरी है तो उसे बनाने की दिशा में कानूनी पहल क्यों नहीं ? पिता का नाम अभिलेखों से हटाकर माँ का नाम क्यों न दर्ज किया जाय ? वह भी क्यों, पशुओं की तरह बच्चे पैदा करके दूध पीने की उम्र के बाद उन्हें छोड़कर चल देने की परंपरा क्यों नहीं शुरू की जाय ? स्वतंत्रता का यह संसार क्या कम आकर्षक होगा ? सौफीसदी स्वतंत्रता। यौन संबंध बनाइए और तुरत भूल जाइए कि कुछ हुआ है। जैसे चाट की दुकान से बाहर हो जाते हैं, जाइए मंच पर खड़े होकर आराम से भाषण दीजिए। विचार झाड़िए। अगर यौनक्रिया इतनी स्वतंत्र है, तो फिर भ्रष्टाचार करने या घूस लेने की स्वतंत्रता क्यों नहीं ? और यह स्वतंत्रता भी कोई मूल्य है या स्वभाव का अंग ? कोई कानून-वानून ? स्वतंत्रता क्या मनुष्य और पशु में भेद नहीं करती है ? आखिर पशुओं की दुनिया में कोई विचार या मूल्य का संसार है क्या ? पशुओं के संसार में सेक्स का संबंध संतानोत्पत्ति की भावना से जुड़ा है ? मनुष्यों को वस्त्र पहनने की परतंत्रता आखिर क्यों, नंग-धड़ंग रहने की स्वतंत्रता क्यों नहीं ? मनुष्य क्यों एक घर बनाए, बच्चों को पढ़ाए-लिखाये, शादी-ब्याह करे ? यह सब करने वाले बेवकूफ हैं ? इसी विधि से पढ़-लिखकर बुद्धिजीवी बनने वाले लोग, कोई और समाज बनाना चाहते हैं या स्वतंत्रता को, स्वतंत्रता के लिए प्राण देने वाले दीवानों से अधिक समझते हैं तो अपने लिए एक अलग दुनियाक्यों नहीं बना लेते ?
        बहरहाल, आज मीडिया ने ऐसे तमाम मुद्दों को सामने लाकर तमाम पीड़ित स्त्रियों को न्याय दिलाने के लिए उम्दा कोशिश भी की है। कई प्रभावशाली लोग कानून की पकड़ में आ सके तो मीडिया भी कहीं न कहीं श्रेय पाने की स्थिति में दिखती है। मीडिया का काम सिर्फ सच को जस का तस दिखा देना ही नहीं होना चाहिए और न एक पक्ष बन जाना चाहिए, बल्कि एक शिक्षक की तरह दण्ड और पुरस्कार की आँख से चीजों को देखते हुए बनते-बिगड़ते समाज को भी गौर से देखना चाहिए। देखना चाहिए कि समाज को क्या नुकसान पहुँचाने वाली बात है और क्या उसे फायदा पहुँचाने वाली बात है ? मेरे कहने का आशय यह नहीं कि दो जन विशेष परिस्थिति में जैसे विवाह संबंध टूट गया हो या अधिक उम्र के कारण एक साथी दुनिया से चला गया हो और बच्चे न हों तो अकेलेपन की स्थिति में या ऐसे ही कोई बड़ा कारण हो तो किसी हमउम्र को जीवनसाथी की तरह साथ रखने में बुराई नहीं दिखती है, लेकिन इस तरह की गतिविधि को विवाह जैसी संस्था के विकल्प के रूप में देखना या हर उम्र के लिए उचित बताना या महिमामंड़ित करना मुझे कुछ ठीक नहीं लगता।
        यह एफबी का संसार कई उम्र के लोगों का संसार है, कई समाजार्थिक और बौद्धिक स्तर के लोगों का संसार है, ऐसे लोगों का भी संसार है, जो अपने माता-पिता को कम और बाहर के विचार की दुनिया के आधुनिक या उत्तर आध्ुनिक माता-पिता को अधिक देखते हैं। कभी-कभी लगता है कि एकदम चुप रहना चाहिए। वैसे भी इस विषय पर कुछ कहना नहीं चाहता था, लेकिन किसी तरह कुछ कह गया।


मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

बुखार में अखबार

-गणेश पाण्डेय 
   
परसों रात से बुखार है, पढ़ना-पढ़ाना फिलहाल परसों तक बंद। उसके बाद चंगा हो जाने की उम्मीद है। कंप्यूटर भी छू नहीं रहा था, लेकिन कल बहुत दिनों बाद, बल्कि सच तो यह कि कई सालों बाद मेरा हॉकर आखिर जनसत्ता ले ही आया और कुछ कहने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। जनसत्ता की तारीफ में कुछ नहीं कहना है, मेरी तारीफ से न तो वह और अच्छा हो जाएगा और बुराई करने से न तो और खराब हो जाएगा। जनसत्ता के बहाने शुद्ध पूँजीसत्ता वाले ( खुल्लमखुल्ला व्यावसायिक ) अखबारों के बारे में कुछ कहना है। हालांकि जनसत्ता भी पूँजी से जुड़ा अखबार है। बात जनसत्ता से ही करूँगा कि एक लंबे समय के बाद उसे को देखकर आँखों को सुख मिला। कोई कह सकता है कि अखबार भी क्या ऐसे होते हैं कि जिन्हें देखकर आँखों को सुख मिले ? जरूर ओम थानवी से गणेश पाण्डेय के रिश्ते अच्छे होंगे, इसलिए जनसत्ता की तारीफ कर रहे हैं। मित्रो, ओम जी से मेरा  कोई  रिश्ता नहीं है। मैं जनसत्ता की तारीफ कतई नहीं कर रहा हूँ, मैं तो उन अखबारों की बुराई करना चाहता हूँ, जिन्हें देखते ही आँखों में मिर्ची लगती है। जैसे तोते को मिर्ची पसंद है, आज के पाठकों को भी आँखों में मिर्ची की तरह लगने वाले अखबार क्यों बेहद पसंद हैं ? कहीं सारे के सारे हिंदी अखबारों के पाठक तोता तो नहीं हो गये हैं ?
              मित्रो, जैसे मुहावरा है कि पेट के रास्ते दिल तक पहुँचा जाता है, उसी तरह आँखों के रास्ते भी दिमाग तक पहुँचा जाता है। कोई अखबार, समाचार, विचार और विमर्श का जो परिसर पाठक के लिए उपलब्ध कराता है या अपनी प्रस्तुति उस पर केंद्रित करता है, तो उसे देखकर अच्छा लगता है। वह कितने रंगों में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह कितना सलीके का है, इससे फर्क पड़ता है। दिनमान तो श्वेत-श्याम था, उसे उस समय के पाठक कितना महत्व देते थे ? राजनीति के बारे में तनिक भी जागरूक रहने वाले पाठक के लिए बेहद जरूरी पत्रिका थी, आज वैसी एक भी पत्रिका नहीं है। उस दौर के शोध-छात्रों और सिविल सेवा के प्रतियोगियों के लिए अनिवार्य पत्रिका थी, यह उसका अतिरिक्त गुण था। आज रंग तो हजार हैं, पर वह बात नहीं, जो उसमें थी। साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग का महत्व भी बहुत अधिक था। अखबारों में भी तब के अखबार इस तरह नहीं हुए थे। इधर व्यावसायिकता ने विचार और संवेदना को अखबारों से दूर किया है। उत्तेजना तो मिल सकती है, संयम और विवेक संपादकों में सिरे से गायब है। जनसत्ता शुरू से ही एक खास तरह के पाठकों के बीच लोकप्रिय रहा है। जाहिर है कि ये पाठक, सामान्य पाठकों की तुलना में कुछ अधिक विचारसम्पन्न रहे हैं। तब अखबार हर कोई नहीं खरीदता था, आज मोबाइल की तरह चाय की गुमटी से लेकर हर कोई खरीद सकता हैं। जिसे देखो वही अखबार पढ़ता है, पर पढ़ता क्या है या पढ़ना क्या चाहता है ? मुहल्ले के नेताजी की फेटो देखना चाहता है या मुहल्ले के कविजी की या आलोचक जी की फोटो देखना चाहता है ? क्या वह जानता है कि जिसकी तारीफ आज के अखबार में पत्रकार ने छापी है, उसमें कोई नुक्स नहीं है ? क्या सचमुच उस व्यक्ति ने अपने क्षेत्र में ढ़ंग का कोई काम भी किया है या खबर लिखने और फोटो छापने वाले ने बेईमानी या बेवकूफी की है ? क्या अखबारों का पाठक कभी सोचता है कि जिनकी फोटो अक्सर पत्रकार छापता है या जिनके बारे में निरंतर खबरें छापता है , उनकी कोई कमी कभी क्यों नहीं छापता है ? अखबारों का प्रसार इधर खूब बढ़ा है, क्या इसलिए कि लोग बिना यह जाने अखबार पढ़ते हैं कि वे इस अखबार को क्यों पढ़ते हैं ?
              मैंने मिर्ची की तरह आँख में लगने वाले अखबारों की बात है। बताता हूँ कि क्या है जो आँखों को चुभता है ? आज के युवा पाठकों ने पहले के अखबारों को नहीं देखा है, पहले की पत्रिकाओं को नहीं देखा है, लेकिन वे आज जनसत्ता को कभी देखें तो क्या यह फर्क नहीं कर पायेंगे कि उनके शहर का अखबार सब कितना खराब छापता है ? शायद वे फर्क नहीं कर पायेंगे, उनके लिए मुश्किल होगा। हाँ, विचारसम्पन्न युवा पाठक जरूर फर्क कर सकते हैं। मेरे शहर के कई अखबार मेरी आँख में मिर्ची की तरह आँख में लगते हैं। ये अखबार ऐसे हैं जैसे कोई ऐसी दुकान हों जिसमें हवाई जहाज से लेकर सुई तक सब रखा हो या केंचुए से लेकर डायनासोर तक सब रखा हो या सब बौने ही बौने लोग हों या सब अगड़मबाइस हो। जैसे ये अखबार न हों, किराने की दुकान का पर्चा हों। चाहें तो ये सब मेरी इस बात से नाराज होकर मेरा नाम तक अपने अखबार में .....क्षमा करें, बस दो मिनट, श्रीमती जी का आदेश है कि कल से कुछ खाया नहीं है तो पहले जरा-सा गरमागरम खिचड़ी हो जाए....हाँ तो मैं कह रहा था कि चाहे कोई मेरा नाम अपने अखबार में न छापे, पर क्या इस डर से यह कहना बंद कर दूँगा कि तुम्हारा अखबार बुखार की खिचड़ी नहीं है जो फायदा करे। यह तो पाठक की रुचियों को ही नहीं, उनके विचार और विवेक तंत्र को ध्वस्त करने की चीज है। हाँ- हाँ, अफीम भी कह सकते हैं, स्थानीयता का अफीम। हाँ, वही मुहल्लेपन का अफीम। आँचलिकता बुरी चीज नहीं है, पर प्रतिमान वही बनेंगे जो आपके अँचल का श्रेष्ठ होगा, आपका अखबार उसे ही बड़ा या श्रेष्ठ बताए जो सचमुच अपने लेखन या कार्यों से बड़ा या श्रेष्ठ हो, आप हरगिज-हरगिज गधे को घोड़ा या चूहे को शेर की तरह नहीं छाप सकते, आप ऐसा करते हैं तो आप भी उतने ही बेईमान हैं, जितने राजनीति के लोग। जिन अखबारों को देखता हूँ, सब बस दो मिनट में देखकर फेंक दिये जाते हैं। बस अपने दफ्तर से जुड़ी खबरें और कुछ जरूरी सूचनाएँ। क्या एक अखबार का परिसर सिर्फ यही है ? इधर कई राष्ट्रीय अखबारों ने अपने चरित्र को क्षेत्रीय बना लिया है। अंचल विशेष की छोटी से छोटी चीजों को प्रमुखता से छापना। न छापने लायक चीजों को भी प्रमुखता से छापना।
          जिस अखबार के संपादक में इतना विवेक न हो कि वह प्रति सप्ताह संपादकीय पेज पर अपनी फोटो पैंट की मियानी तक का छापता हो, ऐसे संपादक से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। ऐसे संपादकों के स्थानीय संपादक कैसे-कैसे होंगे ? ऐसे ही संपादकों का समय है यह। ऐसे संपादक क्या छापेंगे ? सच तो यह कि इन्हीं वजहों से अब अखबार का एक-एक अक्षर चाटने वाले पाठक नहीं मिलेंगे, वे पढ़ें या संपादक जी की फोटो पैंट की मियानी तक फोटो देखें। आज की तारीख में अखबार में छपी रंगीन फोटो चाटने वाले लोग मिलेंगे। जब अखबारों में साहित्य और विचार का ढ़ंग का परिसर नहीं है, तो पढ़े ंतो क्या ? खबरें भी पहले चैनल पहुँचा देते हैं, उनका भी कोई खास आकर्षण नहीं। आखिर क्या बात है कि देरे से आने पर भी जनसत्ता आज अच्छा लगा ? इसका अर्थ यह नहीं कि आज का जनसत्ता अच्छा है या बहुत अच्छा है, मैं ऐसा कुछ भी नहीं कहूँगा, मैं बस इतना कह सकता हूँ कि रेड़ का पेड़ है। जहाँ कोई पेड़ नहीं होता है, वहाँ रेड़ का पेड़ ही बड़ा होता है। जनसत्ता में साहित्य जब मंगलेश जी देखते थे, तब भी उसकी सीमा थी। सब अच्छी कविताएँ नहीं होती थीं। आज भी जनसत्ता में काफी विमर्श ऐसा है, जो नखदंत विहीन होता है अर्थात जिनमें कोई जोखिम नहीं होता। राजनीति का सच फटकार कर कहना जैसे अखबार की नैतिकता है, उसी तरह अपने समय के साहित्य का सच कहना भी अखबार की नैतिकता है। संसद में जाने वाले दागी लोगों की ही नहीं, साहित्य और कला की अकादमियों की भी आलोचना करना एक अच्छे अखबार के लिए उतना ही जरूरी है। वह अखबार जो अपने साहित्य के परिसर के लिए जाना जाता हो, उसके लिए तो और भी जरूरी है। कहना और भी है, पर बुखार में अधिक बड़बड़ाना ठीक नहीं। अंत में यह कि मेरा बुखार तो दो दिन में ठीक हो जाएगा, पर हिन्दी के इन अखबारों और पाठकों का बुखार कब जाएगा ?