गुरुवार, 10 अगस्त 2017

मगरमच्छ

- गणेश पाण्डेय

ओ ईश्वर
अगले जन्म में
मुझे साहित्य में मत भेजना

मुझे हिन्दी का कोई चूतिया कवि
चाहे कोई मूढ़ कवयित्री मत बनाना
बनाना भी तो दिल्ली हरगिज मत भेजना

गंगा में
उतने मगरमच्छ नहीं होंगे
जितने साहित्य की इस गंगा में होते हैं

वे कभी आलोचक के भेस में मिलेंगे
तो कभी बहुपुरस्कृत कवि के भेस में
कभी लेखक संगठनों की मुंडेर पर

ये मगरमच्छ
दिखने में जितने सुंदर होंगे
उतने ही वशीकरण के पक्के आचार्य

आंखें
बिल्कुल गिद्ध जैसी
दूर तक मार करने वाली

पाजामा होगा
तो मोरी पतली होगी
धोती होगी तो घोड़ा छाप

इनसे बचना
किसी भी कवि के लिए
काफी से काफी मुश्किल होगा

कवि जैसे ही पैर छुएगा
उसकी रीढ़ की हड्डी छूकर
उसमें कोई चिप डाल देंगे

कवयित्री जैसे ही झुकेगी
उसकी कोमल-निर्मल पीठ पर
अपना खुरदुरा हाथ रख देंगे खच्च से

इन मगरमच्छों के हाथ
बहुत से बहुत लंबे होते हैं खूब फैले
दिल्ली से यूपी और पूरा बिहार तक

कहां-कहां से भागे चले आते हैं
यश: प्रार्थी कवि अपनी रीढ़ सौंपकर
कवि होने का प्रमाण-पत्र लेने के लिए
कोई-कोई तो आजीवन सेवादार बन जाते हैं

कवयित्रियां नाचती-गाती
दूर-दूर से खिंची चली आती हैं
पूजा की थाली लिए अपने नाम के नीचे
एक सीधी लंबी रेखा खींचे जाने के लिए

देशभर में
हिन्दी के मगरमच्छों का राज्य है
सबका भाग्य उनके जबड़े में कैद है

कविता के दादाओं परदादाओं ने
हिन्दी के ऐसे मगरमच्छों का जिक्र
कभी किया ही नहीं

मैं कैसे मान लेता
कि कवि बनने के लिए
किसी मगरमच्छ का आशीष जरूरी है

मैं कैसे मान लेता कि
कोई मगरमच्छ प्रमोट करेगा तभी मैं जिंदा रहूंगा
खुद तो अमर होकर दिखाता पहले नीच

मेरे समय में
पूरे देश में भगदड़ थी
चूतिये कवियों का दौड़ते-दौड़ते बुरा हाल था

बेचारी कवयित्रियां
महाकवयित्री बनने के लिए व्याकुल थीं
अब नहीं तो कभी नहीं कुछ भी हो पा लो

ओ ईश्वर
मुझसे यह सब देखा नहीं जाता है
कुछ करो कुछ तो करो

कवयित्रियों से पूछो
मीरां और महादेवी को
किस ज्ञानपीठ विजेता ने प्रमोट किया था

तुम्हारे समय में ही
आखिर क्यों जरूरी हुआ
कोई बाऊ साहब कोई पंडिज्जी

तुम्हारी पीठ
कच्छप की पीठ बनने की जगह
क्यों बनी इनके लिए चरागाह

तुम खुद क्यों नहीं
अपने समय का पहाड़ बनकर
मगरमच्छों पर अरराकर टूट पड़ी

ओ ईश्वर
मेरे बच्चों और मेरी बच्चियों से कहो
कि मुझे देखें आखिर मैं जिंदा हूं कैसे

और मगरमच्छों के पीछे से
उनके पीछे चलने वाली फौज के पीछे से
कैसे धुआं निकालता रहता हूं!