मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

उसका नन्हा चांद



-गणेश पाण्डेय

चालीस वर्ष हुए
उसे देखते हुए
एक ऋतु को आने
और एक ऋतु को जाने में
देर कहां लगती है
छतपर
फैली हुई धूप की चादर पर
बर्फीली हवाओं को आ धमकने में
देर कहां लगती है
चालीस वर्ष पुरानी रूखी त्वचा को
पंखड़ी की तरह चूमकर
निकल जाने वाली दोस्त हवाओं को
सुई की तरह हड्डियों में
चुभने में
देर कहां लगती है
जीवन के इस आगार में
सहमी-सहमी-सी
एक विह्वल स्त्री को
अपने एकांत की आंधी में
ढह जाने में
देर कहां लगती है
देर लगती है
किसी के लिए
पूरी आस्तीन का
एक लाल स्वेटर बुनते हुए जीने में
एक नन्हा मोजा
पूरी उम्र तैयार करते हुए रह जाने में
कोई पूछता क्यों नहीं
पत्तियों की तरह झरती हुई नित
उसकी कोमल इच्छाओं से
देर कहां लगती है
कोई पूछता क्यों नहीं उससे कुछ
जिसके जीवन में
हजार कांटों के बीच
एक छोटा-सा फूल खिलने में
एक छोटा-सा जीवन रचने में
कभी-कभी तो लग जाता है
पूरा जीवन
और जीवन की कविता में
एक नन्हा फूल नहीं खिलता है
धरती के हजार काले-काले मेघों से घिरी
और डरी हुई एक स्त्री के
जीवनरस से डबडब
पयोधरों के विकल आकाश में
एक नन्हा चांद नहीं निकलता है
प्रतिपल हजार सूर्य का ताप सहती हुई
एक अकेली स्त्री ढूंढती है नित
चांद-तारों की भीड़ में
सोते-जागते
कहां है उसका नन्हा चांद
अभी कितनी देर है
देर है कि अंधेर है
अलबत्ता
कवि जी की कविता में 
चांद की बारात निकलने में
देर कहां लगती है
उसे
जो किसी की बेटी है
किसी की बहू है
कहां है उसकी बेटी
उसकी बहू
बोलो पृथ्वी के सबसे बड़े कवि
कितनी अधूरी है
तुम्हारी सबसे अच्छी कविता।
( चौथे संग्रह ‘परिणीता’ से)
















                                                                                                              गणेश पाण्डेय

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

एक दुख ही तो है मेरे पास


 -गणेश पाण्डेय                                
एक दुख ही तो है
मेरे पास
जहां-जहां
और जितनी जगह है
सब में दुख का वास
एक-एक रोम में
एक-एक सांस में
दुख का डेरा
उसका शामियाना
उसका तम्बू-कनात
इतनी बड़ी पृथ्वी पर
एक दुख ही मिला मुझे
मेरा सगा बनकर
कभी बचपन का सखा
कभी मुड़ी-तुड़ी कमीज
कभी मटमैला कागज
तो कभी
रुक-रुक कर चलने वाली
कलम बनकर
कभी रास्ते का पत्थर और कांटा
कभी बिना डोर की बेजान पतंग
कभी बिना नमक की रोटी
तो कभी
साथी की खरीखोटी बनकर
जैसे भी मिला मुझे दुख
रखा मैंने उसे संभालकर
अपने पास
कि चलो ईश्वर ने कुछ तो दिया
मुझ गरीब को
एक जीवन दिया छोटा-सा
और दुख से भर दिया
डब-डब
बहुत दिया
दुख का अविस्मरणीय स्वाद दिया
दुख ने खोलीं मेरी पलकें
दुख ने किया
मेरी जर्जर देह में
जीवन का स्पंदन
कांपे मेरे होंठ
उठीं मेरी भुजाएं
पैरों में हुई खुजली
धन्यवाद मेरे ईश्वर
मनुष्य होने का अवसर दिया
                         
कभी सूरज ने पंहुचायी
दुख की गठरी
कभी चंदा लेकर आयी
दुख को मेरे घर स्वप्न-तश्तरी में
कभी दोस्तों ने भेजा
बड़े-बड़े गुलदस्ते में
तो कभी
तीन-तीन फुट के दुश्मनों ने
मेरे माथे पर फोड़ना चाहा
दुख का हथगोला ताबड़तोड़
ईश्वर का नाम लेकर
दुख के बम पर दे मारा
मैंने अपना सिर
धन्यवाद मेरे ईश्वर
दुख दिया तो दिया
सही सलामत
एक सिर दिया
अच्छा किया मेरे ईश्वर
जो भी दिया
नाप-तौल कर दिया
बस कमी हुई जरा-सी
प्रेम असीम दिया और दिल एक
हे मेरे ईश्वर कितनी दिक्कत हुई
दुख और प्रेम
एक ही बर्तन में रखने में
मैं ही जानता हूं
दुख बांटता तो लेता कौन
सो आंख मूंद कर
खोल दिया
प्रेम के शक्कर का गोदाम
जो भी मिला
न तराजू न बांट
भर-भर दोनों हाथ दिया
दिया तो उन्हें भी
जिन्हें डायबिटीज था
उन्हें तो दिया ही दिया
जिन्हें डायबिटीज नहीं था
आंखों के सामने
मीठा बनकर दिखाया
कानों के पास
मीठा बोलकर सुनाया
जिन्हें शक्कर की जगह
मेरी शक्ल से परहेज था
कहां से लाता भला उनके लिए
दूसरी शक्ल
कोई अफसोस नहीं मेरे ईश्वर
जिस दुनिया में
दस-दस शक्लें लेकर
अकड़कर घूमते हैं लोग
मुझे एक ही क्यों दिया

यह क्या कम है मेरे ईश्वर
मुझ गरीब को बनाया
दुख का राजा
दुख की रानी मिली
और दुख का राजपाट
धन्यवाद मेरे ईश्वर
जो भी दिया
बेशुमार दिया
दुख है मेरे पास
जीवन की झिंलगी चारपाई
और मैले-कुचैले बिस्तर पर
सिरहाने पुआल के तकिये पर
सबसे सुंदर स्वप्न की तरह
जीवन की सख्त धरती पर
आसमान से बरसती हुई
आग के बीचोबीच
खम्भे जैसी देह से छूटते
पानी के फव्वारे की तरह
कपिलवस्तु में रहूं
कि जाऊं कहीं और
नीम के नीचे रहूं
कि किसी और वृक्ष की छाया में
जाऊं
इस दुख से बचने के लिए
अपनी धरती छोड़कर
कहां जाऊं
जिसके बिना जीना भी
मेरे लिए अब क्या जीना
और मरना भी अब क्या मरना
क्षमा करना मेरे ईश्वर
मैं कहीं और नहीं जा सकता 
दुख को छोड़कर
एक दुख ही तो है मेरे पास
चाहो तो इसे भी ले लो ।        
(चौथे संग्रह से)