रविवार, 30 मार्च 2014

-गणेश पाण्डेय

आ मेरे रकीब

कि आ दिल के मेरे करीब थोड़ा और
जी भर के वार कर तुझे शम्शीर दे दूँ आ

आ कि तन्हा आ के मुझे कर ले गिरिफ्तार

आ तुझे जंजीर दे दूँ

आ कि थक गये कंधे नफरत लिये-लिये

तुझे प्यार दे दूँ आ

आ न डर

आ मेरे दुश्मन
कि आ दिल के मेरे करीब थोड़ा और
आ तुझे कश्मीर दे दूँ

आ।


(‘जल में’ से)












मंगलवार, 25 मार्च 2014

ज़मीनख़ोर

-गणेश पाण्डेय

वे ज़मीनख़ोर थे  
चाहते थे
औने-पौने दाम पर 
कस्बे की मेरी पुश्तैनी ज़मीन
मेरा पुराना दुमंजिला मकान
वे चाहते थे
मैं उच्छिन्न हो जाऊं यहां से
अपने बीवी-बच्चों 
पेड़-पौधों 
फूल-पत्तियों
गाय-कुत्ता समेत
वे चाहते थे मैं छोड़ दूँ 
धरती मइया की गोद
हटा दूं अपने सिर से 
उसका आंचल 
वे चाहते थे बेच दूँ 
खुद को 
रख दूँ
अपने मजबूर हाथों से 
उनकी आकाश जैसी असीम
लालची हथेली पर
अपनी जन्मभूमि 
अपना ताजमहल
और 
जीवन की पहली 
अनमोल किलकारी का 
सौदा कर लूँ
वे चाहते थे कर दूँ 
उसे नंगा और नीलाम
भूल जाऊं 
अपने बचपन का 
एक-एक डग 
पहली बार 
धरती पर 
खड़ा होना 
गिरते-पड़ते
पहला डग भरना
वे चाहते थे
बाबा बुद्ध की तरह
चुपचाप निकल जाऊं
अपनी धरती छोड़कर 
किसी को करूँ न खबर 
वे तो चाहते थे 
कि जाऊँ तो ऐसे
कि फिर लौट कर आने का 
झंझट ही न रहे 
वे मेरे मिलने-जुलने वाले थे 
मेरे पड़ोसी थे
कुछ तो बेहद करीबी थे 
और मेरे ही साथ 
मेरी धरती के साथ
कर रहे थे राजनीति  
खटक रहा था उन्हें
मेरा अपनी जमीन पर बने रहना
वे चाहते थे कि देश-विदेश
अनन्त आकाश में कहीं भी
चाहे उसी जमीन के नीचे
जल्द से जल्द चला जाऊं
पाताल में।

( ‘जापानी बुखार’ से)




सोमवार, 17 मार्च 2014

खेलो छोटे बहादुर

-गणेश पाण्डेय

आओ बहादुर
बैठो बहादुर
खाओ बहादुर
ये खुरमा
ये सेवड़ा
ये देखो रंग-वर्षा
खेलो छोटे बहादुर।

छोड़ो बहादुर
सम्भ्रांत पंक्ति का
पनाला
रहने दो आज जाम
बहने दो जहाँ-तहाँ
छोड़ो कुदाल
फेंको बाँस
लो खुली साँस।

आओ छोटे बहादुर
बताओ छोटे बहादुर
क्या कर रही होगी
इस वक्त पहाड़ पर माँ
माँ के मुख-रंग बताओ
छोटे बहादुर।

कितनी दूर है
तुम्हारा पर्वत-प्रदेश
मुझे ले चलो अपने घर
अकलुष आँख की राह
आओ छोटे बहादुर
अपने अगाये कंठ से
बोलो छोटे बहादुर
मद्धिम क्यों है आज
मुखाकृति।



(दूसरे संग्रह ‘जल में’ से)

                    

रविवार, 16 मार्च 2014

हमलोग नाटक बहुत करते हैं ...

-गणेश पाण्डेेय 
राजनीति कल्पना है या यथार्थ ? जाहिर है कि मेरी छोटी-सी बुद्धि से यथार्थ है। इसलिए हमारे समय की राजनीति मेरी समझ से नींद का महास्वप्न या दुःस्वप्न नहीं है। इसे हमने बनाया है। हमने रचा है यह पिजड़ा अपने इर्दगिर्द। हम भला इससे बच कैसे सकते हैं ? राजनीति कोई प्रेम कविता नहीं, जीवनसंग्राम का ऐसा पथ है, जिससे राहें फूटती हैं। सड़क चाहिए तो, नौकरी चाहिए तो, सुरक्षा चाहिए तो और अन्न चाहिए तो शिक्षा चाहिए तो, चहुँमुखी विकास चाहिए तो, सरकार और व्यवस्था की प्रक्रिया से गुजरने के लिए इसकी जरूरत पड़ती है। मनुष्य जीवन के लिए जैसे साँस जरूरी है, उसी तरह राजनीति। साहित्य के बिना मनुष्य जीवित रह सकता है, राजनीति के बिना नहीं। पशु राजनीति के बिना जीवन जी सकता है, पर मनुष्य नहीं। आशय यह कि जब यह इतना जरूरी है तो इसके प्रति हमारा अर्थात लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों इत्यादि का दृष्टिकोण कभी-कभी बहुत संकुचित क्यों दिखता है ? यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि मैं व्यावहारिक राजनीति की बात कर रहा हूँ, लाइब्रेरी में बंद या साहित्य की तमाम रचनाओं में बंद महान राजनीति की बात नहीं कर रहा हूँ। उस महान राजनीति की बात करने वालों को भी जीवन में हजार ऐसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता, जहाँ लाइब्रेरी और साहित्य और विचार की किताबों में बंद राजनीति तिनके जितना भी मदद नहीं करती है। वहाँ काम आते हैं, कोई विधायक जी, कोई सांसद जी, कोई मंत्री जी, किसी पार्टी के कोई नेता जी, क्या यह झूठ है ? जिसके पारस यह नहीं होता है, वे पत्रकार मित्रों की मदद लेते हैं, पर उनकी शक्ति का केंद्र भी वहीं हैं। 
    साहित्य का प्रयोजन भी क्या समाज को सुंदर बनाना नहीं है ? क्या समाज को संुदर बनाने के लिए सुरक्षा और विकास इत्यादि का रास्ता राजनीति से होकर नहीं जाता है ? यह जो तमाम साहित्य अकादमी इत्यादि संस्थाएँ हैं, इन्हें भी पैसा वगैरह सब उसी सरकार से आता है। फिर पुरस्कारों और चर्चा इत्यादि के लिए जहाँ-तहाँ नाक रगड़ने वाले तमाम लेखकों के लिए राजनीति बड़ी गंदी जगह क्यों है ? जबकि वे खुद उससे अधिक गंदगी के शिकार होते हैं ? इस समय के चुनाव में एक अच्छी खबर यह कि मेधा पाटेकर समेत कई सामाजिक कार्यकर्ता चुनाव लड़ रहे हैं। पहले भी कई लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता चुनाव लड़ते रहे हैं। 
    मैंने दो छोटे-छोटे स्टेटस लिखकर हमारे समय की राजनीति और साहित्य के जानकार मित्रों से- जो अक्सर समस्याओं पर बहुत अच्छे-अच्छे विचार व्यक्त करते हैं-यह जानना चाहा किः ‘‘राजनीति में जाना जरूरी हो तो कहाँ जायें ? ...चुनाव सिर पर है। कभी-कभी यह सोचकर हैरान होता हूँ कि यदि हिन्दी के लेखको और पत्रकारों के लिए किसी एक राजनीतिक दल में शामिल होना अनिवार्य हो तो ये लोग जाएँगे किधर ? प्राथमिकता के आधार पर दलों का नाम किस क्रम में लिखेंगे ? या किसी एक दल या दो दल का नाम लिखेंगे ? प्राथमिकता के आधार पर पत्रकार लोगों के दलों का क्रम क्या होगा ? दरअसल इस सवाल के पीछे यह विचार सक्रिय है कि हम जिस व्यवस्था में है, कभी न चाहते हुए भी ऐसी कोई स्थिति किसी के साथ आ सकती है। यदि ऐसी कोई स्थिति आयी तो वे केजरीवाल की तरह जनता की राय लेंगे या दलों का चुनाव खुद करेंगे ? या कोई नयी पार्टी बनाएँगे ? बहरहाल दलों का क्रम तय करके रखना बेहद जरूरी है, क्या पता कब किसे चुनाव लड़ना पड़ जाय या ऐसे ही बिना मतलब या किसी बड़ी जरूरत की वजह से या किसी आंतरिक विवशता की वजह से एक दल चुनना ही पड़ जाय। पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो वाम का न कोई मजबूत जनाधार इस वक्त है और न निकट भविष्य में संभव दिखता है। चुनाव की दृष्टि से वाम का भविष्य कमोबेश हर जगह निराश करने वाला है। ले-देकर कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा और कुछ दूसरे छोटे दल हैं। क्या सचमुच इन दलों में जाना लेखक की खुदकुशी होगी ? क्या पहले इन दलों में लेखक नहीं जाते रहे हैं ? या लेखक को हरगिज किसी दल में जाना ही नहीं चाहिए ? सक्रिय राजनीति से उसे दूर रहना चाहिए ? अरे भाई जब साधु-संत राजनीति के संग रास रचाने के लिए अक्सर आतुर होते हैं तो लेखक ही क्यों सक्रिय राजनीति से परहेज करे ? ऐसा इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि साधु संग लेखक भी वही काम करे जो साधु करते हैं। लेखक क्या कुछ बेहतर नहीं कर सकता है ? जरूरी है कि दलों की स्वीकार्यता के लिए विमर्श हो। यदि यह सब कुछ भी नहीं तो फिर विकल्प होगा क्या ? कितना और कब प्रभावी होगा ? फिलवक्त मैं खुद कहीं किसी दल में जा नहीं रहा हूँ, लेकिन क्या पता कोई लेखक मित्र तैयारी में हो ही़़़...’’ तुरत इस पर तीर की तरह चुभता हुआ एक दोटूक सच अपनी प्रतिक्रिया में रविकेश मिश्र ने कहा- ‘‘कि राजनीतिक स्थिति तो ये है श्रीमान दक्षिण वाम या पूरब पश्चिम का कोई अर्थ रह ही नहीं गया है। किसी वैचारिकता से दलों को कुछ लेना-देना नहीं, आदमी जिताऊ, टिकाऊ और कमाऊ हो तो हजार विद्वानों से बेहतर है। क्या करेंगे सैद्धांतिक बकवासी लेकर ? अब चिड़िया की आँख में तीर मारने वाला चाहिए और वफादार हो। ये पढ़े-लिखे लोग नाटक बहुत करते हैं, हालाकि चारित्रिक रूप से ये भी खोखले ही होते हैं, मौका पा जाये ंतो कौन है जो दो-चार अरब इधर-उधर न कर दे ?’’ इस प्रतिक्रिया के बरक्स संजय कुमार मिश्र की प्रतिक्रिया थी कि ‘‘ मेरे विचार मौजूदा स्थितियों को देखते हुए है कि सचमुच के एक लेखक को किसी भी राजनीतिक में न जाते हुए अपने साहित्य के माध्यम से ऐसा माहौल बनाया जाना चाहिए ताकि एक लेखक के लिए सक्रिय राजनीति दलदल न लगे, राजनीति का एजेंडा इतना सकारात्मक बन जाय कि कोई किसी भी दल में जा सके और अपना योगदान कर सके...कोई यह कह सकता है कि क्या यह संभव है तो मैं यही कह सकता हूँ कि हम लेखक है, साहित्यकार हैं, हमें बसंत के इस मनोहारी मौसम में सपने देखने की पूरी आजादी है।’’ कुछ और मित्रों ने भी बिना लागलपेट के अपने हिस्से का सच कहा, लेकिन मुझे जानना था कि वे मित्र क्या सोचते हैं जो नित्य, बल्कि क्षण-प्रतिक्षण अपनी राजनीतिक जागरूकता का परिचय देते हैं। कुछ मित्र तो यहाँ राष्ट्रीय अखबारों के संपादक-पत्रकार हैं तो कुछ नामी-इनामी लेखक, मैं चाहता था कि वे साफ-साफ बताएँ कि उनकी दृष्टि में कौन दल कितना खराब है या कितना अच्छा ? फिर पहले के स्टेटस को साझा करते हुए मैंने लिखा कि ‘‘इस देश में कोई एक पार्टी बहुत खराब है या दो पार्टियां बहुत खराब हैं ? या तीन या सब ? सब खराब हैं तो सिर्फ एक या दो सरकार न बनाएँ ,बाकी बनाएँ, ऐसा क्यों ? क्या कोई पार्टी सचमुच किसी सिद्धांत और विचारधारा इत्यादि की बहुत पक्की है या सब अवसरवाद या व्यवहारवाद की विचारधारा के साथ ? ऐसे में कहने के लिए लेखकों और पत्रकारों के पास पूरा सच क्या है ? इस माध्यम पर रोज राजनीतिक टिप्पणियां दिखती हैं, पर उनमें पूरा सच क्यों नहीं देख पाता ? सब एक खेल नहीं है तो और क्या ? कोई अभिव्यक्ति का खेल खेलने में माहिर है तो कोई विचार का खेल खेलने में माहिर है तो कोई व्यवहार का ? सब खेल ही है, तो कहीं हम खुद, जाने-अनजाने इस खेल में शामिल तो नही ंहैं ? सोचता था कि मित्रों के बीच समस्या रखने पर विकल्पों की बारिश होगी, पर दिग्गज पत्रकारों और लेखकों ने रास्ता दिखाया ही नहीं ? कितना अच्छा होता कि वे बताते कि सबसे खराब पार्टियों का क्रम ये है और अच्छी पार्टियों का क्रम ये है, पर अफसोस कि महाजन मौन हैं। कुछ मित्रों ने जरूर अपनी राय दी है। कैसे कहूँ कि ये बड़े भोले लोग हैं, जो बिना किसी लागलपेट के कुछ कहते हैं।
 मित्रो, इस पीड़ा को साझा करने की वजह सिर्फ यह है कि उन लोगों को अपना रूख पहले से साफ रखना चाहिए जो आज या कल किसी लेखक के किसी दल से या किसी दल के नेता से जुड़ने या उसके हाथ से कोई पुरस्कार इत्यादि लेने पर पर सबसे पहले नाक-भौं सिकोड़ेंगे। उन्हें चाहिए कि बताएँ कि कौन सा दल खराब है और कौन अच्छा या कम अच्छा ? क्यों कोई एक पार्टी सत्ता में न आये और क्यों दूसरी कोई पार्टी सत्ता में आए ? क्या हमें एजेंडे के आधार पर नहीं सोचना चाहिए ? क्या हमें सिर्फ भ्रष्टाचार के आधार पर सोचना चाहिए ? आज की तारीख में कौन-सी पार्टी है जो गरीब और अमीर के बच्चे को एक छत के नीचे पढ़ाई और दवाई देना चाहती है ? क्यों अलग-अलग दुनिया है ? क्यों कुछ स्त्रियाँ गैस के चूल्हे पर खाना बनाएँ और भारत की शेष स़्ित्रयाँ गीली लड़की के धुएँ में अपनी आँखें फोड़ें ? साहित्य के अँधेरे के खिलाफ लड़ना जितना जरूरी है, उतना ही समाज के अँधेरे के खिलाफ लड़ना भी जरूरी है। आजादी की लड़ाई के दिनों में लेखक की जो भूमिका थी, क्या आज वह भूमिका नहीं होनी चाहिए ? फिर सक्रिय राजनीति से परहेज क्यों ? लेखक संगठन भी इस दिशा में अपनी नयी भूमिका तय कर सकते हैं, बशर्ते वे लेखकों के पुरस्कार और चर्चा की राजनीति को छोड़ दें और समाज को संुदर बनाने और राजनीति की दुनिया में बदलाव लाने के लिए अपने आग्रहों से मुक्त हों।  बहरहाल बड़े लेखकों और पत्रकारों को किसी एक नेता या पार्टी का विरोध या समर्थन करने की जगह अपने हिस्से का पूरा सच जरूर कहना चाहिए।

               

मंगलवार, 4 मार्च 2014

कहना जरूरी है...

-गणेश पाण्डेय

मित्रो, उदय जी एक दिन एक पत्रिका में छपे एक चित्र के आधार पर ब्राह्मणवाद (ब्राह्मणों) पर बहुत नाराज थे। मैंने उनके  स्टेटस पर एक छोटी-सी टीप में कहा-‘ मुझे सिर्फ ब्राह्मणवाद के बारे में कहना है। साहित्य में ब्राह्मणवाद सिक्के का एक पहलू है और ठाकुरवाद दूसरा पहलू, दोनों के बिना हिन्दी का सिक्का चलता ही नहीं, बल्कि सच तो यह कि इस सिक्के का एक तीसरा भी पहलू है जिसे कायस्थवाद भी कहते हैं। इधर कुछ और जातियाँ हैं, जिनके गुट दिखते हैं। गौर करने पर कई और पहलू निकल आयेंगे। साहित्य के भ्रष्टाचार के महासागर में सभी जातियों की भ्रष्ट नदियां पहुँचती हैं। दृश्य तो ऐसे भी होते हैं, अपनी ही जाति का लेखक अपनी ही जाति के लेखक का विरोध करता है, दूसरी जाति के लेखक को प्रमोट करता है, सवाल यह कि साहित्य में यह प्रमोशन और पुरस्कार का भ्रष्टाचार क्यों ? बेशक आप ब्राह्मणवाद का विरोध अपने तईं कीजिए, लेकिन क्या ही अच्छा हो कि इसे आप व्यापक साहित्य-सत्तावाद के विरोध से जोड़ दें। मुझे पूरा विश्वास है कि आप भी ऐसा ही सोचते होंगे।’ इस टीप को उदय जी ने पसंद नहीं किया, जबकि छः मित्रों ने उसे पसंद किया।
आज फिर उनके स्टेटस पर अपनी तमाम कृतियों के अनुवाद के विवरण के साथ मोहनदास के जर्मन अनुवाद को श्रेष्ठ अनुवाद के रूप में चयनित होने की खबर है। यहाँ तक भी खराब नहीं। हालांकि यह प्रश्न तो बनता ही है कि इस वजह से उदय जी अपने को किन-किन लेखकों से बड़े लेखक के रूप में देखना चाहते हैं ? क्या प्रेमचंद से लेकर विनोक कुमार शुक्ल तक को अपने से छोटे कथाकार के रूप में देखना चाहते हैं ? शायद वे ऐसा नहीं चाहते होंगे ? ‘मोहनदास’ को तो मैंने भी पढ़ा है। उसका अनुवाद नहीं हुआ तो क्या उसका कोई मूल्य नहीं रहता ? क्या वह अनुवाद होने मात्र से अच्छी कृति है ? वह बहुत अच्छी कृति है तो क्या हमारे समय लिखी गयी दूसरी कथाकृतियाँ उससे अच्छी नहीं हैं ? उदय जी अच्छा लिखते हैं, जितना अच्छा लिखते हैं, उतना पढ़े भी जाते हैं, लेकिन क्या केवल उदय जी ने ही साहित्य में संघर्ष किया है, दूसरों ने नहीं ? केवल उनका ही विरोध हुआ है, दूसरों का नहीं ? उन्होंने आज अपने उसी स्टेटस में किसी ब्राह्मणवादी लेखक और उसके गुमाश्तों को लक्ष्य करके लिखा है कि ‘अब हिंदी का घनघोर ब्राह्मणवादी लेखक और उसके लंपट गुमाश्ते जितना भी ‘हेट-कैंपेन’ चलाएँ, अपना तो एक रोयां भी नहीं हिलता।’ 
मित्रो, दो-तीन बातें हैं। पहली बात तो यह कि उदय जी का संघर्ष यदि दिल्ली में न रहकर गोरखपुर या अपने गृहजनपद इत्यादि राजधानी से दूर किसी छोटे शहर में रहकर किया गया होता तो उन्हें जितने विकल्प मिले, पत्रिकाएँ और प्रकाशक निकट मिले और बहुत से सहयोगी लेखक मिले, क्या यह सब उन्हें  मिल पाता ? यह कोई आरोप नहीं है। सिर्फ एक जिज्ञासा है। आशय यह कि सिर्फ उनका ही संघर्ष, बाकी का साहित्य में नौकाविहार नहीं है। यह ठीक बात है कि अधिकांश लेखक किसी न किसी मठाधीश की गोद में बैठकर अपनी अधिकांश यात्रा पूरी करते हैं। मुझे उदय जी के बारे में अधिक कुछ भी पता नहीं है। किसने-किसने उन्हें एक अच्छा लेखक बनाने में उनकी मदद की ? किसी ने मदद की भी या नहीं ? कई लेखक ऐसे अभागे हैं, जिनका विरोध दूसरी जाति के लोगों ने कम खुद उनकी जाति के लोगों ने अधिक किया है। उदय जी का विरोध कोई ब्राह्मण करता है, यह खबर नहीं बनती, खबर तब बनती जब ‘‘सभी’’ ठाकुर लेखक विरोध करते ? साहित्य में उदाहरण ऐसे भी हैं कि ब्राह्मणों ने ही ब्राह्मण लेखक का तीव्र विरोध किया। गुरुओं ने अपने ही बच्चे का कत्ल किया-

‘पहला बाण 
जो मारा मुख पर
आँख से निकला पानी। 
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल सें शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फववारा छूटा।
खीजे गुरु 
मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।’

निश्चय ही उदय जी का भी विरोध हुआ होगा, संभव है कि गुरुओं ने भी किया हो, समकालीन लेखकों ने किया हो। जाहिर है कि प्रतिभाओं का विरोध तो होता ही है। विरोध में ही कुंदन और निखरता है। भारतेुंदु के बारे में रामविलास जी का कथन है- ‘भारतेंदु का विरोध दोनों ओर से हुआ-सरकार की ओर से और समाज के प्रगतिविरोधियों की ओर से भी। लेकिन जितना ही विरोध हुआ उतना ही हरिश्चंद्र का वीरभाव कुंदन की तरह और निखर उठा।...तीन शताब्दी पहले जैसे काशी के पुरोहितवर्ग ने तुलसीदास को कष्ट दिया था, उसी तरह हिन्दी साहित्य के नये अभ्युदय-काल में उसने भारतेंदु को लोक-बहिष्कृत किया था। जिस तरह तुलसीदास ने ‘‘धूत कहौ अवधूम कहौ रजपूत कहौ जुलहा कहौ कोऊ’’ लिखकर दुष्ट विरोधियों को मुँहतोड़ जवाब दिया था, उसी तरह भारतेंदु ने घोषणा की थी कि वे विरोधी कीड़़ों  के सिर पर पाँव रखकर आगे निकल जायेंगे।’- रामविलास शर्मा का यह कथन पिछले दिनों गोरखपुर में एक व्याख्यान देते समय तक मेरे जेहन में गूँजता रहा। जाहिर है कि पहले के और बाद के और कई कवि भी याद आये। याद तो आज का पूरा हिन्दी समाज आया। यह प्रश्न बेचैन करता रहा है कि ‘आज के सभी कथित बड़े कवि’ लोक-बहिष्कृत तो हुए ही नहीं, बल्कि लोक-पूजित हैं। पुरस्कृत तो इतने की पुरस्कार भी शर्मा जाये। आश्चर्य यह कि उनका तनिक भी विरोध नहीं हुआ। चक्कर क्या है ? क्या इतिहास में कुछ गड़बड़ है या हमारे समय में ? कहीं ऐसा तो नहीं काशी की तरह कुछ और भी शहर हमारे समय में हैं ? यह मानने के लिए मन नहीं कर रहा है कि हमारे समय में कुछ कवि लोक-बहिष्कृत या उपेक्षित नहीं होंगे या आगे नहीं होंगे। इसलिए उदय जी हों या कोई भी जी, यदि प्रतिभा है तो विरोध तो होगा ही भाई। विरोध का विरोध छोटे दायरे में रहकर नहीं किया जा सकता। जरूरी है कि हम अपने विरोध को व्यापक बनाएँ। उन सभी लेखकों के लिए लड़ें जो आज कहीं किसी शहर में तन्हां है। अकेले लड़ रहे हैं। हिन्दी के फिसड्डियों की फौज से टकरायें। हिन्दी के लुटेरे आज देश भर की अकादमियों को लूट रहे हैं, जिनमें दिल्ली की अकादमी भी शामिल है, विरोध को वहाँ तक ले जाना चाहिए। साहित्य की अकादमियों में और उनके आयोजनों में अपात्रों का मेला लग रहा है।
      दूसरी बात यह कि रोयां वाली बात जंची नहीं। रोयेंदार लेखक क्या सिर्फ उदय जी ही हैं ? और भी लेखक हैं जो रोयेंदार हैं। जिनका रोयां दूसरे हिला नहीं पाते, पर वे अपना रोयां दिखाते नहीं। कुछ चीजें छिपा कर रखने के लिए होती हैं। यह कहने की बात नहीं है भाई। अपना काम करना जरूरी है, अच्छा लिखिये और विरोध की आग को दूर तक ले जाइए। तीसरी बात यह कि यह तय कर लेना चाहिए कि आप अपने समय में सबसे अच्छा लिखना चाहते हैं या सबसे बड़ा दिखना चाहते हैं  या सबसे ज्यादा पुरस्कार चाहते हैं ? सबसे ज्यादा और बड़ा पुरस्कार पाने के लिए अच्छा लिखना कतई जरूरी नहीं है, होता तो मेरे या आपके आसपास के लोग उन पुरस्कारों को नहीं पाते। क्या यह बड़ी बात नहीं कि आपकी किताबों को लोग पढ़ते हैं ? यह काफी नहीं ? कहना जरूरी है, इसलिए विनमंतापूर्वक कुछ कहा है। किसी का दिल दुखाना उद्देश्य नहीं है। मोहनदास को मैंने भी पढ़ा और पसंद किया है, पर क्या मेरे जैसे असंख्य पाठको का पढ़ना महत्वपूर्ण नहीं है, सिर्फ उसका अनुवाद इत्यादि महत्वपूर्ण है ? उदयजी निश्चत रूप से मुझसे बड़े लेखक हैं, मेरी कोई बात पसंद न आयी हो तो माफ करेंगे।