शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

हिंदी की मीनार ढ़ह रही है

- गणेश पाण्डेय                         

पूर्वांचल में और जहाँ-जहाँ हिंदी प्रदेश हैं, हिंदी की मीनार ढ़ह रही है...चिंता की इससे बड़ी बात मेरे लिए और क्या हो सकती है ?  हिंदी मेरी साँस है और हिंदी की मीनार मेरा प्यार।  मैं सिद्धार्थनगर के तेतरीबाजार से आया हिंदी का एक साधारण कार्यकर्ता हूँ। न तो अकादमिक सत्ता केंद्रों से जुड़ कर अपने को हिंदी का विद्वान समझ कर गौरवान्वित अनुभव करता हूँ और न तो इस वजह से आचार्यत्व मेरी पतलून या पाजामे से टपकने वाली कोई चीज है। किसी और के लिए हो तो कह नहींे सकता। हिंदी का बेटा होने के नाते मैं अक्सर थोड़ा गुस्सा जरूर होता हूँ। पर यकीन करो साहित्य का कार्यकर्ता होने की वजह से यह कतई कोई अहंकार नहीं है। यह तो अपने कुल, अपने घर और अपने परिसर की चिंता है। बस। मेरी नाराजगी के पीछे सिर्फ यही वजह है। मैं नाराज हूँ आज हिंदी के परिसर से तो कुछ वाजिब कारण हैं। यह हिंदी का परिसर सिर्फ विश्वविद्यालयों का हिंदी विभाग नहीं है। हिंदी का बड़ा आँगन तो इन अकादमिक परिसरों से बाहर है। हिंदी पत्रकारिता का परिसर कई अर्थों में इन अकादमिक परिसर से बड़ा है। कभी हिंदी के लेखकों और आलोचकों और साहित्य संपादकों का रिश्ता हिंदी पत्रकारिता से दीवानगी की हद तक दोस्ताना था। यह दोस्ताना या बहनापा अचानक पैदा या कोई शौकिया रिश्ता नहीं है। यह तो आजादी की लड़ाई के दौरान आधुनिक हिंदी और पत्रकारिता का नाभिनालबद्ध संबंध एक लंबे आत्मसंघर्ष के बाद बना था। यह दोनों के विकास और समृद्धि और खासतौर से विश्वसनीयता के लिए एक जरूरी कदम था। स्वाधीनता संघर्ष दोनों के लिए एक कसौटी की तरह था, जहाँ दोनों को एक साथ अपने वुजूद को प्रमाणित करना था। अपने को अर्थ देना था। अपने को मूल्यवान बनाना था। एक बड़े उद्देश्य से जोड़ना था अपने को। यह काम हुआ भी शानदार ढ़ंग से। लेकिन हिंदी पत्रकारिता का वह भव्य धौरहर या कि इमारत या कि मीनार आज पूर्वांचल में किस हाल मंें है, यह मेरी चिता के केंद्र में है।
    अन्य हिंदी प्रदेशों की तरह पूर्वांचल में हिंदी की मीनार या संसद आज जिन दीवारों या खंभों पर टिकी है, उनमें उच्च शिक्षा संस्थान ही नहीं, यहाँ की साहित्यिक संस्थाएँ और जनता और उसके नुमाइंदे ही नहीं, बल्कि कहना चाहिए कि सबसे मोटी दीवार तो हिंदी पत्रकारिता की है। यह अलग बात है कि यह दीवार, चीन की न होकर भी चीन के सामानों की तरह भरोसेमंद नहीं है। बावजूद इसके कि दिखने में चीन की दीवार की बाप है। कई उपदीवारें और सुरंग और छेद हैं। जनता है कि इस इलाके में चीन के सामानों की तरह इन पर उतनी ही फिदा है। सुबह श्रीमती जी के मुखड़े से पहले जिसकी सूरत और लटके-झटके देखना चाहती है। अशर्फी खोमचे वाले की दुकान पर भी उतने आइटम न होंगे, जितने इन अखबारों के दर्जन भर पन्नों पर मिलेंगे। एक जमाना था कि जब लोग अपने बाप की कही गयी बात पर कम और हिंदी के अखबारों पर अधिक भरोसा करते थे। अखबार ही कितने थे! एक अखबार बनारस से आता था और छा जाता था। आज वह होकर भी नहीं रहा। हमारा आज भी कहीं खो गया है। उसी विडम्बना के संग। अखबार अब सच का दोस्त नहीं रहा, पैसे का दोस्त हो गया हे। जैसे यह लोकतंत्र लोक का नहीं रहा, पैसे वालों का तंत्र बन गया है। जब सेवा के क्षेत्र व्यवसाय बन जाएँगे तो स्वाभाविक है कि मसाला फिल्म इंडस्ट्री की तरह भारी-भरकम इंडस्ट्री ही बनेंगे, कोई धर्मशाला या अनाथालय नहीं। यह सब कम चिंता की बात नहीं, पर अधिक चिंता की बात यह कि ये हिंदी के जिस रथ पर सवार होकर यह सौदा कर रहे हैं, उस रथ के पहिए का अंजर-पंजर भी खुद ही ढ़ीला कर रहे हैं। खुद तो कर ही रहे हैं, इस तरह की हर कोशिश में बढ़-चढ़ कर दूसरों की मदद भी कर रहे हैं। इनके लिए हिंदी भाषा और साहित्य हिंदी प्रदेश की उन्नति का माध्यम नहीं है। इन्हें हिंदी प्रदेश की उन्नति राजनीति करने वालों की भेदभाव और दुश्मनी पैदा करने वाले इस अंचल के जनप्रतिनिधियों की बोली में दिखती है। इन्हें उस हिंदी से कोई मतलब नहीं जो इस अंचल के लोगों में अपनी विपन्नता और पिछड़ेपन से मुक्ति दिलाए। जो इस अंचल की जनता को अपने हक के लिए ‘‘खुद’’संघर्ष करना सिखाए। असल में इन्हें हिंदी आती कहाँ है? आती तो क्या यह नहीं जानते कि हिंदी या हिंदी पत्रकारिता की जमीन कहाँ है ? ‘हिंदी की मीनार’ शीर्षक यह कविता मेरे तीसरे संग्रह ‘जापानी बुखार’ में है-
हिंदी की मीनार
वे
सबको खबर देते थे
सबकी खबर लेते थे
करते थे सबको
खबरदार
वे खबरों को
बम की तरह फोड़ते थे
सुबह-सुबह
पैदा करते थे मीठा डर
बिखेर देते थे हवाओं में
अक्ल के परखचे
खबरों को उड़ाते थे
पतंग की तरह
और
एक हाथ की पतंग में
दस हाथ की पूंछ लगाते थे
पूंछ को मूंछ
और मूंछ को पूंछ कर के
कुछ का कुछ
दिखाते थे
पढ़ने वालों की आंखों में
झूठ और सच का
इंद्रजाल रचते थे
पैसे लेकर
खुलेआम
वे ऐसा करते थे
वे हिंदी के अखबार थे
जिनका पेशा था पैसा कमाना
और पैसे के लिए
हिंदी को
कभी लट्टू की तरह
तो कभी बंदरिया की तरह नचाना
कोई-कोई तो नचाना चाहे
पतुरिया की तरह
हिंदी की यह दुर्गति देख
मैंने छोड़ दिया आखिरकार
अखबारों के घर जाना
भाषा का बाजार
पहले भी था
पर ऐसा इससे पहले न था
नकली सामानों से अटा पड़ा था
यह बाजार
अखबार की जिस छत के नीचे
काम करता था
बैठता था जहां कभी तबीअत से
अब वहां भूल कर भी
जाना नहीं चाहता
क्या पता किसी दिन
शर्मिंदा हो कर गिर जाय मुझ पर
अखबार की कोई छत
कोई शहतीर
असल में हुआ यह कि एक दिन
हिंदी के सगे एक-एक कर
इन अखबारों की दुनिया से
कूच कर गये
और जो रह गये
धीरे-धीरे बाहर कर दिये गये
कई लेखक तो
कान पकड़ कर निकाले गये
असल में
जिस पीढ़ी ने काम संभाला था
उसे न पढ़ना-लिखना आता था
न हिंदी की इज्जत करना
उसे तो सिर्फ धंधा करना आता था
नाचना-गाना आता था
बड़े-बड़े मंत्रियों
और सांसदों-विधायकों के
आगे-पीछे रहना आता था
कभी-कभी
साहित्य के नाम पर
मसखरी और मूर्खता के
मणिकांचन मेल से
अपूर्व अंडबंड करना आता था
किसी मर्द लेखक के साथ
न उन्हें उठना-बैठना आता था
न वे हिंदी का मिजाज जानते थे
न हिंदी का घर
न हिंदी का धड़ और शरीर
उन्हें न यह पता था
न उनमें
यह जानने की इच्छा शेष थी
कि सचाई और संघर्ष 
हिन्दी के दो हाथ हैं
कि दो पैर
जिन पर खड़ी है
हिंदी की मीनार।
  
   इसी सच्चाई और संघर्ष के जज्बे की गैरमौजूदगी ही इस लेख की चिंता के मूल में है। जाहिर है कि हिंदी के ये दो पैर हिंदी और हिंदी पत्रकारिता, दोनों के हाथ या कि पैर हैं। तुम जानते हो कि मैं कभी एक अखबार में कुछ साल काम कर चुका हूँ। थोड़ा-बहुत पत्रकारिता का अनुभव मेरे पास भी है। शायद इस वजह से ही कभी-कभी अखबार में काम करने वाले दोस्तों से नाराज हुआ करता हूँ।...जैसे इस वक्त हूँ।
क्या सच कहने और सच के लिए संघर्ष करने का जज्बा आज यहाँ के अखबारों में है ? आज जो पत्रकार साथी डेस्क पर हैं चाहे रिपोर्टिंग का काम देखते हैं चाहे खुद स्थानीय संपादक, सच के लिए वाकई प्रतिबद्ध हैं ? यह ठीक है कि बंदिशें उस वक्त भी थीं, आज भी हैं। पर नौकरी की बंदिश हमारे विवेक और प्रतिभा को नष्ट नहीं कर सकती। जैसे पानी अपना रास्ता बनाती है, उसी तरह कथन या अभिव्यक्ति का ढंग भी। हम भीतर से ईमानदार हैं तो हम अपनी बात अपने समय या संस्थान के राग की बंदिश के भीतर रहते हुए भी कह ले जाएँगे। सवाल सिर्फ सच के प्रति प्रतिबद्धता का है। जिस समय मैं लोकल डेस्क पर काम करता था। एक दिन रात के नौ-दस के आसपास एक प्रमुख बाहुबली नेता खुद आये। वे अखबार के गेट पर पहुँचे ही थे कि उनसे पहले उनके आने की दहशत भीतर आ चुकी थी। साथ काम करने वाले दूसरे लोग एकदम खामोश। दूसरे दिन उन्हें पटरी व्यसायियों के लिए अचानक बंद का आयोजन करना था। मैं रोटरी क्लब की एक सदस्या से फोन पर बात कर रहा था, बैठने का इशारा किया और जब फोन पर बात खत्म हुई तो आगन्तुक महोदय से बात हुई और दूसरे दिन लोकल पेज पर वह खबर सिंगल कॉलम में छपी। इस प्रकरण का उल्लेख करने का आशय यह कि आज क्या इस विवेक में कमी नहीं हुई है कि किस खबर को सिंगल कॉलम में दें और किसे डबल कॉलम में ? किस नेता को, किस अफसर को, किस लेखक को कितना महत्व दिया जाय ? आज अक्सर यह विवेक कम दिखता है। लेकिन इसे पूरी तरह सिर्फ विवेक का मामला मान लेना भी शायद ठीक नहीं है। ईमान और रिश्तों का मामला भी है। एक वरिष्ठ सहकर्मी बन्धु एक युवा नेता को बहुत मानते थे, अक्सर उसकी आलतू-फालतू खबरों को भी पालिसी मैटर कह कर डबल कॉलम देने की बात करते थे और मैं उसे सिंगल कॉलम में देकर और कभी न देकर अपना काम करता रहता था। तब लोकल के इतने पेज भी नहीं थे। डेढ़ पेज में लोकल का जग जीतना होता था। विज्ञापन का दबाव अलग से। कुल तीन लोग लोकल डेस्क देखते थे। आज कितने पेज हैं! उफ! फोटो कितने और कितने रंग-बिरंगे होते हैं। मेला लगता है लोकल के पन्नों पर। खबर कम और तस्वीरें ज्यादा। बहरहाल यह तो दूसरी बात हुई। मैं बात कर रहा था सच्चाई की। आज कौन-सा अखबार यहाँ है जो अपने जनप्रतिनिधि की राजनीतिक कुंडली जनता के सामने खोल सकता है ? कौन है जिसने अपने सवालों और विश्लेषण या स्टोरी से अब तक यह बताने की कोशिश की है कि आप अपने जिस जनप्रतिनिधि पर लंबे समय से फिदा हैं उन्हें कभी भी केंद्र में या प्रदेश में कैबिनेट मंत्री होने का कोई योग है ही नहीं। चूँकि ये कैबिनेट मंत्री नहीं बन सकते हैं, इसलिए इस अंचल के लिए एक सीमा से अधिक नहीं कर सकते हैं। यह सीमा इनके राजनीतिक परिसर की है। या यह बताएँ कि अमुक उम्मीदवार मौसमी हैं। पैसे से टिकट खरीद कर आपका प्रतिनिधि बनना चाहते है। ये किसी शहर या अंचल के लिए एक सीमा तक ही संघर्ष करेंगे। क्योंकि ये जनांदोलन खड़ा करने वाले नेता नहीं है। या अमुक नेताजी जातिवाद के नाम पर कुछ हजार मत पाकर बस दृश्य पर बने रहना चाहते हैं। या लंबे समय से एक जनप्रतिनिधि अक्सर आयोजनों में बड़े करीने से अपने फटे हुए या उसमें खुद ही छेद बना कर पहने गए मोजे का प्रदर्शन करते रहते हैं। जाहिर है कि यह जनप्रतिनिधि ऐसा इसलिए करते हैं कि देखने वाले समझें और प्रचारित करें कि अमुक नेता जी बहुत ईमानदार हैं। इतना अधिक ईमानदार हैं कि फटा हुआ मोजा पहनते हैं। क्या यहाँ के किसी पत्रकार का ध्यान अब तक इस ओर गया है ? यदि हाँ तो इस मोजे की राजनीति पर कोई स्टोरी या किसी कॉलम में जिक्र है ? अखबार का काम राजनीतिक लोगों के साइड इफेक्ट बताने का नहीं है तो किसका है ? ऐसा नहीं है तो क्यों नहीं है ?
  थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि पत्रकारों और अखबार के कुछ हित इन्हीं जनप्रतिनिधियों से जुड़े होते हैं, इसलिए ये एक सीमा से अधिक सच कह नहीं सकते हैं। तो भी कम से कम ऐसे प्रसंगों में साहस और विवेक क्यों नहीं दिखता है, जहाँ डर और नुकसान की बात नहीं है ? मसलन साहित्य के बारे में ये सच क्यों नहीं कहना चाहते या क्यों नहीं कह पाते हैं ? खिलाड़ी का खेल देख कर उसे बड़ा बताते हैं तो लेखक का लिखा हुआ देख लेने के बाद उसे बड़ा क्यों नहीं बताते हैं। सिर्फ पुरस्कार देख कर किसी लेखक को बड़ा मान लेने की मूर्खता क्यों करते हैं ? हिंदी के पत्रकारों से यह अपेक्षा करना कभी अनुचित नहीं कहा जाएगा कि उसके पास उन्नत या रचनात्मक हिंदी भाषा का संस्कार हो। वह समझ सके कि यह भाषा अच्छी है या इस तरह की भाषा लिखने वाला लेखक बेहतर है और औसत भाषा का लेखक औसत है। या इस लेख या कथा या उपन्यास या कविता में कुछ है या नहीं है ? यही अपेक्षा हिंदी के लेखकों से भी है कि वे अपनी भाषा के पत्रकारों के काम को गौर से देख सकें और कह सकें कि अमुक पत्रकार और अमुक पत्रकार की समझ या भाषा में यह अंतर है। जैसे भाषा रचना का मुखड़ा है, उसी तरह खबर या अखबार की भाषा उसका मुखड़ा है। शुरू के कुछ शब्द ही खबर और उसकी दृष्टि और प्रस्तुति का पता दे देते हैं। सच तो यह कि पूर्वांचल की जिस पत्रकारिता और हिंदी की दुनिया को केंद्र में रख कर बात कर रहा हूँ, वहाँ की सबसे बड़ी मुश्किल तो हिंदी की वर्तनी और वाक्यरचना और साहित्य का संस्कार है। क्या हिंदी के विद्यार्थी और क्या हिंदी के नये और युवा पत्रकार, कमोबेश वर्तनी और वाक्यरचना और साहित्य के संस्कार की दिक्कत एक जैसी मिलेगी। हिंदी की उच्च कक्षाओं के विद्यार्थी ही नहीं, बल्कि सर्वोच्च उपाधि के विद्यार्थी भी खराब हिंदी के सबसे अच्छे उदाहरण हैं। यह दिक्कत सिर्फ विद्यार्थियों और नए लोगों की ही समस्या नहीं है। कुछ महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग भी अच्छी हिंदी और स्तरीय साहित्यिक भाषा अर्थात सर्जनात्मक भाषा के मामले में निराश करते हैं। यह कोई आरोप नहीं है। एक चिंता है, अपने लोगों के बारे में, अपने घर के बारे में, अपने अंचल के बारे में, अपनी धरती के बारे में, अपने परिवेश के बारे में। जहाँ हैं, वहाँ के बारे में। सब जानते हैं कि हिंदी इस अंचल के विद्याथियों के भविष्य का आधार है। इस अंचल की जनता के भविष्य का आधार है। इस अंचल के लाल का जीवन है। हिंदी के रथ पर सवार होकर ही उन्हें देश में कहीं भी अपने लिए जगह बनाने का काम करना है। हिंदी यहाँ के बच्चों के लिए पैर और हाथ दोनों है। आज पूर्वांचल में दो तरह का दिमागी बुखार फैला हुआ है। एक तो वह है, जिसकी दवा चिकित्सकों और अस्पतालों के पास है। दूसरी तरह का हिंदी का दिमागी बुखार यहाँ के विद्यार्थियों में फैला हुआ है। जिससे उनकी हिंदी कमजोर हो गयी है। दिखने में बड़ी कक्षा में होने के बावजूद उनकी दिक्कत छोटे बच्चों के स्तर की है। क्या हिंदी भाषा और क्या हिंदी साहित्य, समझ की भारी समस्या इस अंचल के हिंदी के दिमागी बुखार का पता देती है। ऐसा नहीं है कि इसे मैं पहली बार अनुभव कर रहा हूँ, दूसरे लोग भी अनुभव करते होंगे। कुछ सूझ नहीं रहा है। क्या उच्च शिक्षा संस्थानों की जिम्मेदारी आज इस अंचल की हिंदी की मीनार को ढ़हने से बचाने की नहीं है ? क्या हिंदी की पत्रकारिता की जिम्मेदारी नहीं है कि वह उच्च शिक्षा संस्थानों और जिम्मेदार लोगों के सामने सवाल उठाए कि ऐसा क्यों है ? इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण करने की जरूरत है। इस अंचल की हिंदी की पत्रकारिता को क्या पहले खुद अपनी साहित्य और भाषा संबंधी समझ को दुरुस्त करने की जरूरत नहीं होगी ? आज इस अंचल के कितने पत्रकार हैं जो पुरस्कार की जगह लेखक की कृतियों को उसके महत्वपूर्ण होने का आधार मानते हैं ? जिन्हें अच्छी कृतियों के पहचान की तमीज है ? क्या ऐसे पत्रकार हैं जो उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रतिभा की जगह दंद-फंद वाले या चलजा-पुर्जा किस्म के लोगों के प्रभावशाली होने पर सवाल खड़े कर सकें ? जिस समाज और संस्थान में प्रतिभा का अनादर होगा और चापलूस, डरपोक, स्वार्थी और अपने विषयों के शत्रु प्रतिष्ठित होंगे , वहाँ का भविष्य भला मौजूदा पूर्वांचल से बेहतर कैसे होगा ? वहाँ के युवा कैसे अपने क्षेत्र में कमाल कर सकेंगे ? यह सवाल उठाने का काम यहाँ की हिंदी की पत्रकारिता का नहीं है तो फिर किसका है ? सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या आज की हिंदी की पत्रकारिता के पास खुद सवालों का सामना करने की हिम्मत है ? जिस अंचल में हिंदी की जिम्मेदारी हिंदी की प्रतिभाओं पर नहीं होगी, बल्कि हिंदी के औसत या औसत से भी कम समझ के लोगों पर होगी, तो जाहिर है कि यह पूर्वांचल हिंदी का सबसे पिछड़ा प्रदेश बनने के लिए ही नहीं बल्कि हिंदी का सबसे खराब उदाहरण बनने के लिए भी अभिशप्त होगा। दुर्भाग्य यह कि यह संकट लोगों को बेचैन नहीं कर रहा है। लोग खुश हैं कि हिंदी के लिए सरकार देश और विदेश में बड़े-बड़े आयोजन कर रही है। बहुत-सी संस्थाएँ दिल्ली से लेकर यहाँ तक चल रही हैं। हिंदी नहीं चल रही है तो क्या हुआ। हिंदी के चमचे चल रहे हैं। हिंदी के लुटेरे दौड़ रहे हैं। हिंदी के हत्यारे ऐश कर रहे हैं। आज हिंदी के गद्दार अपने को हिंदी का कफनखसोट के रूप में दिखने पर भी शर्मिन्दा नहीं हैं। यहाँ की हिंदी की दुनिया के दिग्गज पता नहीं कब अपने हिंदी विरोधी आचरण पर शर्मिन्दा होंगे ? बेचैन हूँ। दुखी हूँ। जो मेरे हाथ में है, कर रहा हूँ। साहित्यिक पत्रकारिता में जो कर सकता हूँ, कर रहा हूँ, हिंदी की मुख्यधारा की व्यावसासिक पत्रकारिता में जो लोग काम कर रहे हैं, उनसे यह निवेदन तो कर ही सकता हूँ कि अब और अधिक सोएँगे तो  इस अंचल में हिंदी की ढ़हती हुई मीनार को ढ़ह जाने से रोक नहीं पाएँगे। उस मीनार को जो इस अंचल का इतिहास, वर्तमान और भविष्य है। जीवन है इस अंचल का। इस अंचल के जीवन का आधार है।
    बातें तमाम हैं, पर इन बातों के लिए कितने लोग बेचैन होंगे ? जानता हूँ कि कुछ लोग यह भी कहंेगे कि यह पानीपांडे साहित्य और पत्रकारिता का उद्धव बनता है, हिंदी की गोपियों के सामने ज्ञान बघारता है। मैं जानता हूँ कि अब ऐसे लोग कम हैं जो अपनी भाषा और अपने साहित्य को प्रेम करते हैं। प्रेम का रास्ता आसान कहाँ होता है ? अति कठिन होता है। घनानंद दूसरे संदर्भ में अति सूधो सनेह को मारग है... कहते हैं। यहाँ तो मैं हिंदी से प्रेम करने की सजा लंबे समय से भुगत ही रहा हूँ। अब अपने अखबार के मित्रों से खबर से प्रेम करने की बात कह कर उन्हें भी मुश्किल में नहीं डालना चाहता। वे जो कर रहे है, करते रहें। मैं जो कर रहा हूँ, करता रहूँ। मैं जानता हूँ कि मैंने इस रास्ते पर चल कर साहित्य में क्या खोया और पाया है। पत्रकार दोस्तांे से यह उम्मीद बेजा है कि वे सच को उसी तरह कहें, जैसे साहित्य में मैं कहने की कोशिश करता हूँ। फिर भी उम्मीद तो उम्मीद है, एक तिनके से भी होती है।