शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

अभी

गणेश पाण्डेय


बची हुई है अभी थोड़ी-सी शाम
बची हुई है अभी थोड़ी-सी भीड़
नित्य उठती-बैठती दुकानों पर

रह-रह कर सिहर उठती है
रह-रह कर डर जाती है
नई-नई लड़की
छोटी-सी श्यामवर्णी
जिसके पास बची हुई है अभी
थोड़ी-सी मूली

और
मूली के पत्तों से गाढ़ा है
जिसके दुपट्टे का रंग
जिससे ढाँप रखा है उसने
आधा चेहरा आधा कान

अनमोल है जिसकी छोटी-सी हँसी
संसार की सभी मूलियाँ
जिसके दाँतों से सफ़ेद हैं कम

और
पाव-डेढ़ पाव मूली एक रुपए में देकर
छुट्टी पाती है मण्डी से
ख़ुश होती है काफ़ी
एक रुपये से कहीं ज्यादा

मण्डी से लौटते हुए मुझे लगता है-
मूली से छोटी है अभी उसकी उम्र
और मूली से बीस है अभी उसकी ताज़गी

घर में घुसता हूँ तो अहसास होता है-
अरे!
ये तो मूली में छिपकर
घुस आई है नटखट मेरे संग
अभी-अभी शामिल हो जाएगी
बच्चों में ।


(दूसरे कविता संग्रह ‘जल में’ से)