सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

तोंदिया बादल


-  गणेश पाण्डेय
अपने आकाश से उतर कर
लकदक खादी में खिलखिल करते
हाथ हिलाते आयेंगे बादल
तो कहेंगे क्या
कि बैठिए मिट्टी की इस टूटीफूटी खाट पर
हरी चादर बिछी हुई है खास आपके लिए
मेड़ का तकिया थोड़ा मटमैला है तो क्या हुआ
आप चाहें तो पसर सकते हैं आराम से
आप चाहें तो जुड़ सकते हैं हमारे जी से आराम से
आप चाहें तो समा सकते हैं
मिट्टी की अतृप्त देह की आत्मा में
और जुड़ाकर हमें
आप चाहें तो परमात्मा बन सकते हैं आराम से
आप चाहें तो अपनी खादी जैकेट की जेब से निकाल कर
चाँदी की वर्कवाली पान की गिलौरी
सोने के दाँतों के बीच रख सकते हैं आराम से
आप हमारे लिए कुछ न करना चाहें
किसी अमीरउमरा की कोठी में आराम फरमाना चाहें तो जा सकते हैं
हमारे मुँह पर थूक कर आराम से
आप बादल हैं सरकार
हम आपका क्या कर सकते हैं
आप का घर और आपका दफ्तर
और आपकी थानापुलिस सब आसमान पर
हमारी पहुँच से दूर
क्या कर सकते हैं हम
आप जब चाहें
असगाँव-पसगाँव सब जगह गरज सकते हैं
आप चाहें तो कहीं भी बरस सकते हैं
आप चाहें तो किसी के खेत के हिस्से का पानी
दे सकते हैं किसी और के खेत को
चाहे किसी पत्थर पर डाल सकते हैं सबेरे-सबेरे
हंड़ेनुमा लोटे में भर कर सारा जल
आप चाहें तो अपना पानी
सुर-असुर और नर-किन्नर किसी को भी न देकर
सब का सब बेच सकते हैं खुले बाजार में
आप बादल हैं तो क्या हुआ जितना चाहें रुपया कमा सकते हैं
आप आकाश की संसद में बैठ कर जो राग चाहें काढ़ सकते हैं
अपनी संसद को दुनिया की सबसे बड़ी मंडी बना सकते हैं
हम कुछ नहीं कह सकते हैं आपको
आप के पास कोई विशेष अधिकार है
जिसके डर से हम आपसे यह भी नहीं पूछ सकते है
कि आप रोज गला फाड़-फाड़ कर यह क्यों कहते हैं
कि सब हमारे भले के लिए करते हैं
सरकार
और माईबाप
सब हमारे भले के लिए करते हैं
तो हमारा पानी
और हमारा पसीना ले जाकर विदेश के किसी बैंक में क्यों जमा करते हैं
अफसोस हम आपसे पूछ नहीं सकते हैं
हम ठहरे मिट्टी के क्षुद्र कण
और आप ठहरे खादी पहनकर गजराज की तरह चलने वाले
दुनिया के सबसे बड़े तोंदिया बादल
हम कितने मजबूर हैं
हम ने कैसे काट लिए हैं अपने हाथ
कि हम आपसे पूछ भी नहीं सकते कि आप ऐसा कानून क्यों बनाते हैं
कि हमारा सारा पानी अपने मुँह, अपने नाक, अपने कान
अपने रोम-रोम से खुद पी जाते हैं
और हम आपको स्वार्थी नहीं कह सकते हैं
बेईमान भी नहीं कह सकते
सिर्फ और सिर्फ माननीय कह सकते हैं
और चोर तो हरगिज-हरगिज सात जन्म में नहीं कह सकते हैं
ऐसा कहने पर हमें जेल हो सकती
हमारे बच्चे भूखों मर सकते हैं
आपका कानून है आप खुद कानून हैं
आप चाहें तो सबका पानी खुद पी जाने वाले मामले पर
चाहे रबड़ के मजबूत और विशाल गुब्बारे की तरह बढ़ती जाती हुई
अपनी तोंद के खिलाफ
थोड़ी-सी भी चपड़-चूँ करने पर जनता को
सीधे गोली मारने का कानून बना सकते हैं
आप कोई ऐसे-वैसे बादल नहीं हैं
आप बादलों के दल हैं
दलदल हैं
जिसमें जनता धँस तो सकती है पर जिससे निकल नहीं सकती है
कानून की इस जादुई किताब में
जनता को दलों के इस कीचड़ में धंसते चले जाने के लिए
विवश करने का कोई बाध्यकारी कानून है
पर निकलने के लिए एक नन्ही-सी भी धारा नहीं है
और दबी जुबान से भी
हम कह नहीं सकते कि यह संविधान हमारा नहीं हैं
हमारी उँगली से चलता है बादलों का राजपाट
लेकिन
आकाश में विचरण की अभ्यस्त संसद हमारी नहीं है
हमारा देश , हमारी धरती, हमारा अन्न, हमारा श्रम,
हमारा जीवन , कुछ भी हमारा नहीं है
यहाँ तक कि यह उँगली भी हमारी नहीं है।





मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

पितृपक्ष


       -गणेश पाण्डेय


जैसे रिक्शेवाले भाई ने किया याद
पूछा जैसे जूतों की मरम्मत करनेवाले ने
जैसे दिया जल-अक्षत सामनेवाले भाई ने
जैसे दिया ज्ञानियों ने
और कम ज्ञानियों ने
जैसे किया याद
अड़ोस-पड़ोस और गांव-जवार ने
अपने-अपने पितरों को


मैंने भी किया याद
पिता को और पिता की उंगली को
बुआ को और बुआ की गोद को
और उसकी खूंट में बंधी दुअन्नी को
सिर से पैर तक मां को
मां के आंचल के मोतीचूर को
मामा को और मामा के कंधे को
दादी को और दादी की छड़ी को


अनुभव की चहारदीवारी में
और याद की चटाई पर
आते गये जो भी आप से आप
मैंने सबको किया याद
जिन्हे देखा और जिन्हे नहीं देखा


जैसे ठेलेवाले भाई ने किया याद
जैसे याद किया नाई ने
मैंने भी जल्दी-जल्दी खाली कराया
पितरों के बैठने के लिए अपना सिर।


(तीसरे कविता संग्रह ‘जापानी बुखार’ से)