गुरुवार, 19 जनवरी 2012

परिणीता


                             

- गणेश पाण्डेय

यह तुम थी !
पके जिसके
कालेे लंबे बाल
असमय
हुए
गोरे चिकने गाल
अकोमल
यह तुम थी !
छपी
जिसके माथे पर
अनचाही इबारत
टूटा जिसका
कोई कीमती खिलौना
एक रेत का महल था
जिसका
एक पल में
पानी में था
कितनी हलचल थी
कितनी पीड़ा थी
भीतर
एक आहत सिंहनी
कितनी उदास थी
यह तुम थी !
ढ़ल गया था
चांद जिसका
और चांद से भी
दूर
हो गया
प्यार जिसका
यह तुम थी !
श्रीहीन हो गया
जिसका मुख
खो गया था
जिसका सुख
यह तुम थी !
यह तुम थी
एक-एक दिन
अपने से लड़ती-झगड़ती
खुद से करती जिरह
यह तुम थी !
औरत और मर्द
दोनों का काम करती
और रह-रह कर
किसी को याद करती
यह तुम थी !
कभी
गुलमोहर का सुर्ख फूल
और कभी
नीम की उदास पीली पŸाी
यह तुम थी !
अलीनगर की भीड़ में
अपनी बेटी के साथ
अकेली
कुछ खरीदने निकली थी
यह तुम थी !
यह मैं था
साथ नहीं था
आसपास था
मैं भी अकेला था
तुम भी अकेली थी
मुझसे बेखबर
यह तुम थी !
बहुमूल्य
चमचमाती
और भागती हुई
कार के पैरों के नीचे
एक मरियल काले पिल्ले-सा
मर रहा था किसी का प्यार
और
तुम बेखबर थी
यह तुम थी !
जिसकी किताब में
लग गया था
वक्त का दीमक
कुतर गये थे कुछ शब्द
कुछ नाम
कुछ अनुभव
एक छोटी-सी
दुनिया अब नहीं थी
जिसकी दुनिया में
यह तुम थी !
जो अपनी किताब में
थी और नहीं थी
जो अपने भीतर थी
और नहीं थी
घर में थी
और नहीं थी
यह तुम थी !
बदल गयी थी
जिसके घर और देह की दुनिया
जुबान और आंख की भाषा
बदल गया था
जिसके चश्में का नंबर
और मकान का पता
यह तुम थी !
जिसकी आलीशान इमारत
ढ़ह चुकी थी
मलबे में गुम हो चुकी थी
जिसकी अंगूठी
और हार
छिप गया था किसी हार में
यह तुम थी!

जीवन के आधे रास्ते में
बेहद थकी हुई
झुकी हुई
देखती हुई अपनी परछाईं
समय के दर्पण में
जो इससे पहले
कभी
इतनी कमजोर न थी
इतनी उदास न थी
यह तुम थी
किसी की परिणीता!
और
यह !
तुम थी !!
मेरी तुम !!!
जो अहर्निश
मेरे पास थी
जिसकी त्वचा
मेरी त्वचा की सखी थी
जिसकी सांसों का
मेरी सांसों के संग
आना-जाना था
मेरे बिस्तर का
आधा हिस्सा जिसका था
और जिसका दर्द
मेरे दर्द का पड़ोसी था
जिसके पैर बंधे थे
मेरे पैरों से
जिसके बाल
कुछ ही कम सफेद थे
मेरे बालों से
जिसके माथे की सिलवटें
कम नहीं थीं मेरे माथे से
जिससे
मुझे उस तरह प्रेम न था
जैसा कोई-कोई प्रेमी
और प्रेमिका
किताबों में करते थे
पर अप्रेम न था
कुछ था जरूर
पर शब्द न थे
जो भी था
एक अनुभव था
एक स्त्री थी
जो
दिनरात खटती थी
सूर्य देवता से पहले
चलना शुरू करती थी
पवन देवता से पहले
दौड़ पड़ती थी
हाथ में झाड़ू लेकर
बच्चों के जागने से पहले
दूध का गिलास लेकर
खड़ी हो जाती थी
मुस्तैदी से
अखबार से भी पहले
चाय की प्याली
रख जाती थी
मेरे होठों के पास
मीठे गन्न्ो से भी मीठी
यह तुम थी
मेरे घर की रसोई में
सुबह-शाम
सूखी लकड़ी जैसी जलती
और खाने की मेज पर
सिर झुकाकर
डांट खाने के लिए
तैयार रहती
यह तुम थी!
बावर्ची
धोबी
दर्जी
पेंटर
टीचर
खजांची
राजगीर
मेहतर
सेविका
और दाई
क्या नहीं थी तुम!
यह तुम थी!
क्या हुआ
जो इस जन्म में
मेरी प्रेमिका नहीं थी
क्या पता
मेरे हजार जन्मों की प्रेयसी
तुम्हारे अंतस्तल में
छुपी बैठी हो
और तुम्हें खबर न हो
यह कैसी उलझन थी
मेरे भीतर कई युगों से
यह तुम थी
अपने को
मेरे और पास लाती थी
जब-जब मैं अपने को
तुमसे दूर करता था
यह तुम थी !
जो करती थी
मेरे गुनाहों की अनदेखी
मेरे खेतों में
अपने गीतों के संग
पोछीटा मार कर
रोपाई करती हुई
मजदूरनी कौन थी!
अपनी हमजोलियों के साथ
हंसी-ठिठोली के बीच
बड़े मन से मेरे खेतों में
एक-एक खर-पतवार
ढूंढ-ढूंढ कर
निराई करती हुई
यह तन्वंगी कौन थी!
मेरे जीवन के भट्ठे पर
पिछले तीस साल से
ईंट पकाती हुई
झाँवाँ जैसी
यह स्त्री कौन थी
यह तुम थी!
और यह मैं था
एक अभिशप्त मेघ !
जिसके नीचे
न कोई धरती थी
न ऊपर कोई आकाश
और जिसके भीतर
पानी की जगह
प्यास ही प्यास
कभी
मैं ढू़ंढ़ता उस तुम को !
और कभी इस तुम को !
कभी
किसी की प्यास न बुझाई
न किसी के तप्त अंतस्तल को
सींचा
न किसी को कोई
उम्मीद बधायी
यह मैं था
प्रेम का बंजर
इतनी बड़ी पृथ्वी का
एक मृत
और विदीर्ण टुकड़ा
अपनी विकलता
और विफलता के गुनाह में
डूबा
यह मैं था!
यह मेरे हजार गुनाह थे
और तुम
मेरे गुनाहों की देवी थी!
यह तुम थी!
जिससे
मेरी छोटी-सी दुनिया में
गौरैया की चोंच में
अंटने भर का
उसके पंख पर फैलने भर का
एक छोटा-सा जीवन था
एक छोटी-सी खिड़की थी
जहां मैं खड़ा था
सुप्रभात का एक छोटा-सा
दृश्यखंड था
यह तुम थी!
मेरी आंखों के सामने
मेरी तुम थी
यह तुम थी!
मेरे गुनाहों की देवी!
मुझे मेरे गुनाहों की सजा दो
चाहे अपनी करुणा में
सजा लो मुझे
अपनी लाल बिन्दी की तरह
अपने अंधेरे में भासमान
इस उजास का क्या करूं
जो तुमसे है
इस उम्मीद का क्या करूं
आत्मा की आवाज का क्या करूं
अतीत का क्या करूं
अपने आज का क्या करूं
तुम्हारा क्या करूं
जो
मेरे जीवन की सखी थी
और सखी है
जिसके संग लिए सात फेरे
मेरे सात जन्म के फेरे हैं
जो
मेरी आत्मा की चिरसंगिनी थी
मेरा अंतिम ठौर है
यह तुम थी!
यह तुम हो!!
मेरी मीता                         
मेरी परिणीता।

सोमवार, 2 जनवरी 2012

रचयिता के पैर

 - गणेश पाण्डेय 

एक साधारण कवि की दुनिया में
और क्या हो सकता था भला उसका
एक जोड़ा कामचलाऊ पैर के सिवा
कवि की क्षीण काया में
पैर ही तो था जो हर मुश्किल में
उसका था
और बची हुई थी जिसमें
शुरू से अंत तक
किसी का अपना बने रहने की आदत
ये पैर
न किसी मैराथन धावक के पैर थे
न किसी फुटबाल के शीर्ष खिलाड़ी के
और न अकारण दिल तोड़ने वाली
तुनकमिजाज नृत्यांगना के पैर
फिर भी पता नहीं किसकी आंख में
किरकिरी बनकर चुभ रहा था
कवि का पैर
असंख्य बेवाइयों से विदीर्ण
एक फटे-पुराने जूते के चमड़े की तरह
अकोमल और असुंदर पैर
पता नहीं किसे
देखा नहीं गया
कैसा मोटरसाइकिल सवार था
कि जिसपर कुछ और सवार था
पता नहीं भाड़े पर दुर्घटना करता था
कि ऐसे ही शौकिया
कैसा बावला था
आव देखा न ताव
ठोंक दिया सीधे
डी.आई.जी. के बंगले के सामने
क्या पता
खुद डी.आई.जी. की साजिश रही हो
इस कांड में
या रहा हो किसी और अफसर का हाथ
बतायें नगर के गुणीजन
अपने जासूसों से पता करायें
डोमिनगढ़ के आलोचक और तांत्रिक
डोमानंद जी महाराज
आखिर
किसी को क्या खुन्नस हो सकती थी
हिन्दी के एक फटीचर कवि से
जो धंधा-पानी के लिए
पत्रिका नहीं निकालता था
न रुपया-पैसा खर्च करके
यश खरीदता था
और न लालबत्ती का रोब जमाकर
चर्चित होता था
झोला तो खैर बहुत से लेखक ढ़ोते थे
किसी न किसी का
ऐसे प्रश्नों के बारे तथागत मौन रहेंगे
कुछ न कहेंगे
बदकिस्मती यह कि दुर्घटनाग्रस्त कवि
जिलाधिकारी के बंगले के पिछवाड़े रहता था
और रोज शाम हवाखोरी के लिए
डी.आई.जी. के बंगले की तरफ जाता था
पता नहीं आगे क्या हुआ
एक संक्षिप्त कार्रवाई में
कवि को टूटे हुए पैर के साथ
बिस्तरपर
तनहाई की कारा में डाल दिया गया
ताकि जा न सके चंपा का रसिया कवि
अपने किसी मनपसंद बगीचे में
कविता के खेत-खलिहानों
घर-आंगन और चौपालों में पहुंच न सके
कविता का दीवाना
कलेक्टर बहादुर के दफ्तर के सामने
धरने पर बैठी स्त्रियों से रहे दूर
पशु-पक्षियों और हवाओं
और यहां तक कि मासूम तितलियों से
कर न सके कोई बात
हरगिज-हरगिज जा न सके
कविता के इलाके में
जाने कैसा सवार था
तनिक-सा सोचता तो अधिक पा जाता
जो कवि के साथ पैर कांड करने की जगह
सीधे पैर ले जाता
बिना किसी अंतरिक्षयान के
एक चांद को दूसरे चांद से मिलाता
जीवन के नये क्षेत्रों में अपने लिए
जगह बनाता
मुश्किल रास्तों पर चलना सीख जाता
क्या पता उस्तादों ने दी हो उसे
सिर्फ पैर कांड की तालीम
कि उसने छुआ नहीं कोई और अंग
चुना भी तो बस एक पैर
कि कर दो इसे जाम
पता नहीं कहां था नौजवान सवार का ध्यान
जो अपना भारी किया नुकसान
छोड़ दिया
कवि की दरिद्र देह में छिपा अनमोल खजाना
दिल के तहखाने में उतर भर जाता
तो हो जाता मालामाल
जगह-जगह से चुराकर लाये गये
एक से एक नायाब हीरे-जवाहरात जैसे
मुखड़े
मधुमक्खी के छत्ते  की तरह
जीवनरस में सने
कोई मुश्किल न होती कवि को
किसी नौजवान को देने में अपना दिल
क्यों कि कवि के साथ नहीं रह गया था
उसका दिल-
लो नौजवान ले जाओ
फबता है तुमपर खूब यह जवान दिल
कहने को कवि के साथ रहता था हाथ
पर करता था सदा औरों का काम
चलता था बच्चों के साथ-साथ
उठता था
नन्हे-नन्हे दांतो के वास्ते तोड़ने के लिए
आम,अमरूद,जामुन और लीची के गुच्छे
फैलता था
एक नये देश और नये समाज को
बाहों में भरने के लिए
बच्चों की दुनिया थोड़ी और चौड़ी
धरती थोड़ी और उर्वर करने के लिए
सबके लिए किताबें , अनाज , दूध , सब्जियां
गैस का सिलेंडर और पूरा कुनबा ढ़ोते रहे
हाथ
लगे रहे सबके लिए
आसमान से तारे तोड़ने के काम में
जीवन भर दूसरों के हजार काम करने वाले
कवि के कोमल हाथ
अपनी पत्नी के लिए कभी ला नहीं सके
एक लाल गुलाब
यह रहस्य कविता का विषय नहीं
बाकायदा जांच का मुद्दा है
पर जब हिंदी के कुछ कवियों को
मार दिये जाने की घटनाओं की जांच हुई नहीं
तो ऐसे किसी मामूली कांड की जांच
क्या खाक होगी
आखिर
इस पैर कांड के पीछे के हाथों ने
बख्श क्यों दिया इन हाथों को
क्यों नहीं दी कवि का हाथ होने की सजा
और तो और
ठोंकने वाले ने क्यों किया
कविता की जासूस आंखों को अदेख
रहने दिया पापी आंखों को जस का तस
दूसरों की सुंदरता में सेंधमारी करने के लिए
डाका डालने के लिए दूसरों के खजाने पर
भोलाभाला नौवजवान सवार भला क्या जाने
कवियों की आंखों में छिपा होता है
जीवन की कविता का घर
इस पैर कांड को अंजाम देने वाला नौजवान
भला कैसे जान पाता
कि उससे हजार गुना ज्यादा
शातिर और खतरनाक है कवि का दिमाग
जिसमें एक साथ बैठे रहते हैं-
कवि , व्यभिचारी , चोर और क्रांतिकारी
हर समय लगा रहता है-
कविता की दुनिया में तख्ता पलटने के लिए
दुनिया को फिर से रचने के लिए
कुछ का कुछ करने के लिए
और अपने जैसे
गरीब दोस्तों को कविता सुनाने के लिए
पता नहीं कैसे हुई यह चूक ठोंकने वाले से
जो उसके निशाने पर थे कवि के पैर
ये पैर थे जो ले जाते थे कवि को हर मुश्किल में
आगे
जहां भी फटा हुआ देखते थे अड़ जाते थे
ये पैर उम्मीद के रास्ते पर चलने वाले पैर थे
ये पैर दुनिया में प्यार की जीत के पैर थे
ये पैर रचयिता के पैर थे
हर अंधेरे को चीरकर देखते थे ये पैर
ये पैर कविता के पैर थे।

(‘जापानी बुखार’ से)