बुधवार, 30 मार्च 2011

ज़मीनख़ोर

 - गणेश पाण्डेय

वे ज़मीनख़ोर थे
चाहते थे
औने-पौने दाम पर
कस्बे की मेरी पुश्तैनी ज़मीन
मेरा पुराना दुमंज़िला मकान

वे चाहते थे
मैं उच्छिन्न हो जाऊँ यहाँ से
अपने बीवी-बच्चों
पेड़-पौधों
फूल-पत्तियों
गाय-कुत्ते समेत

वे चाहते थे मैं छोड़ दूँ
धरती मइया की गोद
हटा दूँ अपने सिर से
उसका आँचल

वे चाहते थे बेच दूँ
ख़ुद को
रख दूँ
अपने मज़बूर हाथों से
उनकी आकाश जैसी असीम
लालची हथेली पर
अपनी जन्मभूमि
अपना ताजमहल

और
जीवन की पहली
अनमोल किलकारी का
सौदा कर लूँ

वे चाहते थे कर दूँ
उसे नंगा और नीलाम
भूल जाऊँ
अपने बचपन का
एक-एक डग

पहली बार
धरती पर
खड़ा होना
गिरते-पड़ते
पहला डग भरना

वे चाहते थे
बाबा बुद्ध की तरह
चुपचाप निकल जाऊँ
अपनी धरती छोड़कर
किसी को करूँ ख़बर

वे तो चाहते थे
कि जाऊँ तो ऐसे
कि फिर लौट कर आने का
झंझट ही रहे

वे मेरे मिलने-जुलने वाले थे
मेरे पड़ोसी थे
कुछ तो बेहद क़रीबी थे
और मेरे ही साथ
मेरी धरती के साथ
कर रहे थे राजनीति
खटक रहा था उन्हें
मेरा अपनी ज़मीन पर बने रहना

वे चाहते थे कि देश-विदेश
अनन्त आकाश में कहीं भी
चाहे उसी ज़मीन के नीचे
जल्द से जल्द चला जाऊँ
पाताल में।
  
 
 
 
 

गणेश पाण्डेय


 
 
 

मंगलवार, 29 मार्च 2011

आलोचना की सामाजिकता का रास्ता और चंद राहजन

- गणेश पाण्डेय

मैनेजर पाण्डेय हमारे समय के एक बड़े आलोचक हैं। ज़ाहिर है कि आलोचना की बड़ी परंपरा में यह बड़ा होने का रिश्ता देह की ऊँचाई या आलोचना के नाम पर अनुयायिओं की हनुमानजी की पूँछ जैसी लंबी पंक्ति से नहीं बनता है। बड़ा होने का यह रिश्ता, आलोचना की समग्रता में उसकी शर्तों और आलोचना की कसौटी पर ख़ुद को परखते रहने से बनता है। अपने समय की चुनौतियों और विकलताओं का सच के साथ सामना करने से बनता है। आलोचक का कद न तो उसकी धोती का घेरा तय करता है, न पाजामा, न कोई अन्य अंगरखा, जहाँ तक मैं जान पाता हूँ, एक आलोचक आलोचना की सचाई के पैमाने से बड़ा या छोटा होता है। केवल लिखना और लिखना और कुछ लिखते जाना या बोलना और बोलना और कुछ भी बोलते जाना ही आलोचना नहीं है। अच्छी आलोचना तो कतई नहीं है। हमारे समय में दो ऐसे उदाहरण बिल्कुल सटे हुए हैं जिनमें पहले में अति वक्तृता है तो दूसरे में -जो पहले के ही सहायक के रूप में अधिक प्रसिद्ध हैं-अतिलेखन और आशुलेखन। यह जो अतिबोला और अतिलेखन या आशुलेखन का संसार है, जिस-तिस पर कभी भी कुछ भी शानदार, अद्वितीय से कम नहीं, यह जो एक अर्थ में आलोचना का ‘‘सामाजिक कार्य’’ है, क्या यही आलोचना की सामाजिकता है ? आख़िर सार्वजनिक रूप से यह सब करते हुए आलोचक कितना सामाजिक होता है, किसी विधायक या सांसद की तरह किसी के निवेदन पर तत्काल अपनी संस्तुति बाँटता चाहे बेचता हुआ? यह दृश्य क्या आज की हिंदी आलोचना का नहीं है? क्या इसे ही मैनेजर पाण्डेय आलोचना की सामाजिकता कहते हैं ?
मैनेजर पाण्डेय छोटे आलोचक होते तो शायद ऐसा कह सकते थे, लेकिन जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा कि मैनेजर पाण्डेय बड़े आलोचक हैं, इसलिए पाण्डेय जी का कतई यह आशय नहीं है। गौर करने पर यकीनन आप पायेंगे कि पाण्डेयजी की आलोचना की सामाजिकता का आशय आलोचना की बड़ी परंपरा की व्यापकता और सार्थकता से मेल खाने वाला है। मैं ‘पक्का’ आलोचक नहीं हूँ। पक्का आलोचक तो मेरा ढ़िलपुक दोस्त है। मेरे समझने में कुछ दिक्कतें ज़रूर हैं, पर समझने के इस क्रम में समझते-समझते मैं भी किसी हद तक समझ जाऊँगा। अपनी ही बात से आगे बढ़ने की कोशिश करता हूँ। यह जो ‘व्यापकता’ और ‘सार्थकता’ है, शायद मेरी कुछ मदद करे।
पाण्डेय जी का आलोचना की सामाजिकता वाला लेख शायद आलोचना में पहली बार देखा था। शायद क्या, यकीनन देखा था। इसी नाम की किताब में दूसरी बार देख रहा हूँ। यह लेख हमारे समय की आलोचना पर जितना मौजू है, शायद उससे ज़्यादा आने वाले वक़्त की आलोचना पर मौजूँ होगा। पर मेरे सामने आज का समय है। मैनेजर पाण्डेय के सामने भी उनका समय है। एक सही आलोचक अपने समय को जब भी देखता है, आलोचना की खुली आँख से देखता है। पाण्डेय जी भी अपनी खुली और धुली-पुंछी आँख और सही नंबर के चश्मे से अपने समय को साफ़-साफ़ देखते हैं-‘आजकल भारत पूँजीवादी सभ्यता के आतंककारी प्रभावों का सामना कर रहा है। पूँजीवाद का स्वभाव है हर सार्वजनिक वस्तु का निजीकरण करना। पूँजीवाद अपने वर्तमान दौर में प्रकृति के पाँचों तत्वों-पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु का पूँजी के संचय और विस्तार के लिए निजीकरण में लगा हुआ है। जब प्रकृति का निजीकरण हो रहा हो तब संस्कृति कब तक और कितनी देर तक सामाजिक या सार्वजनिक रह सकती है। पूँजीवाद का वर्तमान दौर सचमुच ‘सामाजिक की मृत्यु’ का समय है।’ ऐसे मुश्किल वक़्त में मैनेजर पाण्डेय चुनौती के रूप में एक प्रश्न खड़ा करते हैं और उस चुनौती से दो-दो हाथ करने के लिए आस्तीन चढ़ाते हुए पाठकों को यह बताना नहीं भूलते हैं कि भाई- यह जो आलोचना की सामाजिकता नाम की बेशक़ीमती चीज़ है, आख़िर है क्या और रचना की वैयक्तिकता से इसका क्या रिश्ता है-‘ साहित्य के विभिन्न रूपों में वैयक्तिकता और सामाजिकता की स्थिति एक समान नहीं होती। अगर कविता स्वभाव से अधिक व्यक्तिगत होती है तो उपन्यास अधिक सामाजिक। आलोचना रचना की व्याख्या करती हुई, उसे व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचने में मदद करती हुई ख़ुद सामाजिक बनती है और रचना को भी सामाजिक बनाती है।’ पाण्डेय जी आगाह करते हैं-‘जो लोग रचना और आलोचना दोनों को नितांत व्यक्तिगत बनाते हैं वे अभिजन एक तरह से साधारण जन को साहित्य-संसार से बाहर रखने की कोशिश करते हैं और पूँजीवाद के निजीकरण में सहायक भी बनते हैं।’ और यहीं पाण्डेय जी आलोचना की सामाजिकता के व्यापक निहितार्थ को स्पष्ट करते हैं -‘आलोचना की सामाजिकता की चिंता असल में पूँजीवाद द्वारा प्रकृति और संस्कृति के निजीकरण के प्रयत्न के विरुद्ध प्रतिरोध की चिंता से जुड़ी हुई है।’
ज़ाहिर है कि साहित्य की आत्मा जिन दो छोरों के बीच डोलती है, वे असहमति और प्रतिरोध ही हैं। प्रसंग से तनिक इतर होकर यहाँ मैं कहना चाहूँगा कि एक अर्थ में करुणा जैसे शुद्ध मनोभाव के मूल में भी असहमति और दुख के विरुद्ध कोमल प्रतिकार है। दुख के विरुद्ध जाना उस संघर्ष के विरुद्ध भी जाना है जो दुख का कारण है या दुख देती है। आदिकवि से लेकर आज तक के कवियों ने अपने ढंग से और अपने समय के भीतर असहमति और प्रतिकार की संस्कृति को कविता की आत्मा का सहचर बनाया है। मैथ्यू आर्नाल्ड ने कविता को जीवन की आलोचना कहा है। आशय यह कि आलोचना की व्याप्ति कविता के भीतर अनिवार्य रूप से मौजूद है। उस आलोचना की व्याप्ति है जो असहमति और प्रतिरोध की संस्कृति से जुड़ी हो। मैनेजर पाण्डेय के लिए आलोचना की सामाजिकता का अर्थ है- ‘आलोचना, चाहे समाज की हो या साहित्य की, वह सामाजिक बनती है, एडवर्ड सईद के शब्दों में-सत्ता के सामने सच कहने के साहस से।’ यहाँ मैनेजर पाण्डेय सावधान करते हुए बेहद ज़रूरी बात कहते हैं कि-‘ सत्ता केवल राजनीति की ही नहीं होती। धर्म,संस्कृति और साहित्य की भी सत्ताएँ होती हैं, जो एक ओर बौद्धिक दमन और अपने वर्चस्व की स्थापना का प्रयत्न करती हैं तो दूसरी ओर राजनीतिक सत्ता को मजबूत करने में सहयोग भी करती हैं। ऐसी सत्ताओं के सामने सच कहने का साहस जिस आलोचना में होता है वह मनुष्य की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ी होती है, इसलिए वह सामाजिक होती है।’ यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि राजनीति, धर्म, संस्कृति की सत्ताएँ किसी हद तक अमूर्त होती हैं जबकि साहित्य की सत्ताएँ प्रायः मूर्त होती हैं। कभी हाथी छाप, कभी घोड़ा छाप, कभी तलवार छाप, कभी बाऊ साहब छाप, कभी मोटी चुटिया छाप, कभी पतली मोरी का पाजामा छाप, कभी लाला जी छाप, कभी पंडिज्जी छाप, कभी सुर्ती छाप तो कभी कोई और छाप। दिल्ली हो या गोरखपुर या कोई भी शहर, साहित्य की सत्ताएँ बड़ी, मझोली, छोटी या पिद्दी हर जगह होती ही होती हैं। मज़े की बात यह कि ऐसी किसी भी मामूली से मामूली साहित्य की सत्ता के विरुद्ध खड़े होने का साहस शायद ही कहीं दिखता हो। एक रहस्य यह भी कि साहित्य की सत्ता हासिल करने के लिए अच्छा लिखना कतई ज़रूरी नहीं है। कोई भी मीडियाकर अपने दंद-फंद से ऐसी सत्ता पलक झपकते हासिल कर लेता है। अब साहित्य की सत्ता हासिल करने के लिए किसी का नामवर होना या आलोचना या रचना में खूँटा गाड़ना अर्थात महत्वपूर्ण करना कतई ज़रूरी नहीं रहा। सच तो यह कि साहित्य की सत्ता बनने के लिए तो कहीं-कहीं लेखक होना भी ज़रूरी नहीं रहा। जैसे समुद्री डाकू पानी के तमाम जहाज चुटकी बजाते हुए लूट लेते हैं, उसी तरह आज साहित्य के लुटेरे लाखों-करोड़ों रुपये के सरकारी और ग़ैर सरकारी अनुदान से चलने वाली भारी-भरकम और नामी-गिरामी साहित्यिक संस्थाओं और अकादमियों को लूट रहे हैं। देश के हिन्दी भाषी क्षेत्र के अनेक हिस्से आज अपराध की दुनिया में शूटरों और आतंकवादियों के लिए ही नहीं बदनाम हुए हैं, साहित्य के क्षेत्र में भी लूट और कत्ल के पेशेवर गिरोहों के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर जाने-पहचाने जा रहे हैं। कहना यह है कि आज ऐसे लुटेरों और हिंदी के हत्यारों के ख़िलाफ़ बोलने का रत्ती भर साहस जब बहुत बोलने वाले लेखकों में नहीं है तो दूसरे सामान्य लेखकों के बारे में क्या कहें। बस इतना समझ लीजिए कि ऐसे साहित्यिक माफियाओं के सामने जब कुछ विश्वविद्यालयों के हिंदी के कई प्रोफेसर साहबान और कई स्वनामधन्य लेखक चूहा और चुहिया बन जाते हों-बन क्या जाते हों,बल्कि हों ही- तो फिर साहित्य के युवा लेखकों और बच्चों के भविष्य के बारे में क्या कहना। फिर भी शायद कुछ हैं, हैं कुछ सिरफिरे जो ताल ठोंकते हैं और साहित्य के परिसर का सच साहस के साथ कहते हैं। पर ऐसे कितने हैं ? साहस के साथ सच कहने वाले को बुजदिलों की फौज देख नहीं पाती है या देख कर शर्म से मुँह फेर लेती है ? साहित्य की सत्ता की क्रूरता और कदाचार के साथ जो बड़ा सवाल पैदा होता है, उससे टकराये बिना क्या समाज, राजनीति, धर्म और संस्कृति की सत्ता से टकराने की बात मौजूं है ? प्रतिरोध की संस्कृति पहले ज़मीन पर दिखनी चाहिए या आसमान पर ? साहित्यकार पहले साहित्य की क्रूर और भ्रष्ट सत्ता से नहीं टकराएगा तो फिर हम कैसे तय करेंगे कि उसका बारूद असली है? या वह ख़ुद असली है? या कि उसमें वाकई दम है? क्या साहित्य की सत्ता के सामने आत्मसमर्पण करने वाले लोग दुनिया की बाक़ी सत्ताओं के ख़िलाफ़ सचमुच ताल ठोंक कर खड़े हो सकते हैं या आरपार की लड़ाई लड़ सकेंगे? या कोई फर्जी लड़ाई करेंगे ? या सिर्फ़ लड़ाई-लड़ाई खेलेंगे? क्या प्रतिरोध की संस्कृति एक खेल है ? असली सवाल यह है। यह पाण्डेय जी बेहतर बता सकते हैं कि साहित्य की सत्ता से कैसे टकरायें ? क्योंकि पाण्डेय जी को वर्तमान साहित्य के आलोचना विशेषांक में छपे लेख ‘ आलोचक का बाहर-भीतर ’ में हिंदी आलोचना की अब तक की सबसे बड़ी लफंगई दिखती है। यहाँ यह सवाल ज़रूरी है कि क्या वह लेख आलोचना और साहित्यिक पत्रकारिता अर्थात साहित्य की सत्ता की अंधेरगर्दी, लूटपाट और महाभ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हिंदी के सिपाहियों की ओर से किया गया जवाबी हमला नहीं है ? क्या आततायियों के ख़िलाफ़ जवाबी कार्रवाई ग़ैरक़ानूनी है ? क्या साहित्य की क्रूर और भ्रष्ट सत्ताओं के ख़िलाफ़ फूलों का हार ले जाकर देवभाषा में नतमस्तक होकर दबी जुबान से निवेदन करने से हिंदी के वे क्रिमिनल अपनी साहित्यिक धंधई बंद कर देंगे? गुनाह से तौबा कर लेंगे ? क्या उस लेख में आलोचकों और संपादकों का जो यथार्थ है वह सही नहीं है? एक आलोचक को, एक संपादक को बुरे से बुरा साहित्यिक जीवन जीने का हक़ है, वह चाहे जितनी गंदगी फैलाये, पर उसे कठोर और कबीर की तरह फटकार की भाषा में कुछ न कहा जाये? उसे देवभाषा में जल-अक्षत चढ़ाते हुए देवताओं की तरह पूजा जाये? पाण्डेय जी बतायें कि हिंदी की लाज सरेआम लूटने वाले इन गुनाहगारों के साथ क्या किया जाए? कमतर कवियों को प्रमोट करने के मामले हों, चाहे कमतर रचनाकारों को पुरस्कारों की रेवड़ी बांटने का धंधा हो, हिंदी के इन माफ़ियाओं के गुनाह कौन नहीं जानता है और जानकर चुप रहने के गुनाह का हिस्सेदार नहीं बनता है। कथासाहित्य का एक छोटा-सा उदाहरण है। दो लेखिकाओं के पहले उपन्यासों - जो उपन्यास की ‘पहली’ शर्त ‘पठनीयता’ के सामने ही फेल हो जाते हैं-को आसमान पर पहुँचाने वाले आलोचकों और संपादकों के इस भ्रष्टाचार की सज़ा क्या होनी चाहिए ? या इन्हें बेवकूफ़ या मक्कार या बेईमान वगैरह समझ कर माफ़ कर देना चाहिए ? इस देश की या शायद दुनिया भर में ऐसा कहीं नहीं होता होगा-जहाँ किसी भी परीक्षा में प्रारम्भिक और मुख्य परीक्षाएँ होती होंगी- कि प्रारम्भिक परीक्षा में फेल होने के बाद अर्थात प्रारम्भिक परीक्षा पास किये बग़ैर मुख्य परीक्षा का गोल्डमेडल दे दिया जाय, ये तो साहित्य के महाभ्रष्ट ही ऐसा कर सकते हैं। क्या ऐसे कांड साहित्य में होटल ताज के 26/11 कांड की तरह नहीं हैं, जिसमें उपन्यास और आलोचना के ‘‘ईमान’’ और पाठकों के ‘भरोसे’ का लगातार बर्बर क़त्ल किया जाता है ? साहित्य की लाज को तार-तार किया जाता है। क्या न्यायालयों के जजों के ग़लत काम पर उन्हें दण्ड नहीं मिलता है ? अभी आज ही (27नवंबर10 को) ख़बर छपी है कि सुप्रीम कोर्ट ने शेक्सपीयर का उल्लेख करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के बारे में कहा है कि ‘‘विलियम शेक्सपीयर ने ‘हेमलेट’ में कहा था कि डेनमार्क राज्य में कुछ गड़बड़ है। उसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुछ गड़बड़ है।’’ काश कभी सुप्रीम कोर्ट का ध्यान साहित्य के हाईकोर्टों पर भी जाता और यहाँ की साफ़-सफाई के लिए कुछ हो पाता। साहित्य के न्यायालयों के लिए शायद हमारे संविधान में कोई व्यवस्था नहीं है, वहाँ सिर्फ़ स्वेच्छाचार है। इसीलिए साहित्य के हाईकोर्ट हों या सुप्रीमकोर्ट, सब भ्रष्ट हैं। हमारे शहर में तो साहित्य का हाईकोर्ट भ्रष्ट ही नहीं बल्कि महाभ्रष्ट है। क्या साहित्य के माफ़ियाओं के ख़िलाफ़ किसी साहित्यिक फौजी कार्रवाई की ज़रूरत नहीं है? वैसे पाण्डेय जी का ध्यान इस ओर दिलाना ज़रूरी है कि जब क़ानून का राज नहीं रहता है तो जनता क़ानून को अपने हाथ में ले लेती है। साहित्य के नैतिक ‘क़ानून’ और ‘मूल्यों’ का कत्ल करने वालों के साथ साहित्य के ग़रीब बेटे और कुछ कर सकें या न कर सकें पर वह दिन दूर नहीं जब साहित्यिक सभा-गोष्ठियों में बेईमानों और लुटेरों पर हमारे समय की राजनीति की तरह तीव्र असहमति व्यक्त करने के लिए जूते फेंकने का दौर शुरू हो जाय ? साहित्य की सामाजिकता के रास्ते में राहजनी बंद नहीं होगी तो शायद ऐसे राहजनों के ख़िलाफ़ साहित्य की जनता या साधारण कार्यकर्ता ख़ुद ‘साहित्यिक हथियार’ लेकर चलना शुरू कर देंगे? जब बड़े - बड़े साहित्यकारों ने कविता, कथा और आलोचना के रास्ते के राहजनों को प्रश्रय देना और महत्व देना और मान्यता देना शुरू कर दिया हो और ख़ुद भी उनके साथ मिलकर राहजनी करने लगे हों तो यह कहना मुश्किल है कि ऐसे लोगों के लिए देवभाषा की जगह लफंगई और जूता फेंकने की घटनाओं जैसी स्वतःस्फूर्त जनता की देसी प्रतिरोध की संस्कृति साहित्य में नहीं विकसित होगी? अपराध के साथ दंड का भी विधान होता है। कुछ ऐसे अपराध होते हैं जिनके ख़िलाफ़ बौद्धिक और शालीन असहमति ख़ुद एक अपराध है। यों जिस लेख पर पाण्डेय जी को एतराज है उसके बारे में ‘यात्रा’ के अंक तीन में ‘छोटे सुकुल के प्राइवेट नोट्स’ में यह सफाई है कि कैसे उस लेख में कथाकंस की जगह लंगड़सांई या कुछ और दूसरी चीज़ें आयीं, जिन्हें नहीं आना चाहिए था। हालाकि पाण्डेय जी ने भी उस लेख को अबतक की सबसे बड़ी लफंगई कहते हुए उसी पैराग्राफ में ख़ुद ही उन हालात और दिक्कतों का ज़िक्र किया है जिसकी वजह से उस तरह के लेख लिखने जैसे हालात पैदा होते हैं-‘‘ आलोचना की सामाजिक विश्वसनीयता एक और कारण से कम हुई है। कुछ लोग व्यक्तिगत राग-द्वेष के कारण रचनाओं और रचनाकारों की कभी अतिरंजित प्रशंसा करते हैं तो कभी रक्तरंजित निंदा। ऐसी आलोचना प्रायः अतिरंजना और सरलीकरण के सहारे चलती है और वह अपनी विश्वसनीयता के साथ-साथ आलोचना कर्म की सामाजिकता का भी नाश करती है।’’ आलोचना की सामाजिकता का नाश करने वालों के साथ आख़िर क्या सलूक हो ? क्या आलोचना की सामाजिकता का नाश करने वालों के सिर पर एक छोटा-सा भाषा का ही सही साहित्य के ईमान के बारूद से बनाया गया बम भी नहीं फोड़ा जा सकता है, तब क्या हिंदी के सच्चे सपूत आलोचना की सामाजिकता का नाश करने वालों के सिर पर चमेली का तेल रखकर चम्पी करें ? पूर्वांचल में कहा जाता है कि जैसा देवता वैसा अक्षत। लेखक की बात पर भरोसा उसके जीवन को देखकर किया जाता है। आलोचना की सामाजिकता के रास्ते पर बहुत से बहुरूपिये राहजन तरह-तरह के भेस बनाकर घूम रहे हैं, जिनकी पहचान उनके मुखौटे को उतार कर ही की जा सकती है। आलोचना की सामाजिकता को ज़ाहिर है कि पाण्डेय जी शिद्दत के साथ महसूस करते हैं और उस पर खुले दिमाग़ से रोशनी भी डालते हैं-‘ आलोचना की सामाजिकता पर विचार करने की शुरुआत इस प्रश्न से हो सकती है कि वह किसके लिए लिखी जाती है या उसे कौन पढ़ता है। इससे आलोचनात्मक सोच की प्रक्रिया प्रभावित होती है और उसका उद्देश्य भी तय होता है। यही नहीं इससे आलोचना की शैली और भाषा भी निर्धारित होती है। आजकल हिन्दी में आलोचना के नाम से कई तरह का लेखन हो रहा है। एक छोर पर अख़बारी आलोचना है तो दूसरे छोर पर अकादमिक आलोचना। अख़बारी आलोचना साहित्य के बारे में ख़बरें देती है, इसलिए जिनकी दिलचस्पी साहित्य संसार में होती है, वे ही अख़बारी आलोचना पढ़ते हैं। ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। अकादमिक आलोचना के पाठक मुख्यतः छात्र-छात्राएँ हैं।’ मैनेजर पाण्डेय आगे कहते हैं- ‘टेरी इग्लटन ने लिखा है कि आजकल आलोचना या तो साहित्य-उद्योग के जन-सम्पर्क का हिस्सा है या शिक्षा संस्थाओं का आन्तरिक मामला। उसका कोई सामाजिक लक्ष्य या कार्य नहीं है।’ ज़ाहिर है कि साहित्य के ऐसे भारी उद्योग का सबसे बड़ा मुनाफ़ा हिंदी में पुरस्कार के लिए तिकड़म है और इस तिकड़म को साहित्य के पवित्र कार्य में बदलने या आधार देने का काम ग़ैर-ज़िम्मेदार या भ्रष्ट आलोचना बख़ूबी कर रही है।मैनेजर पाण्डेय आलोचना की सामाजिकता के रास्ते की एक रुकावट के रूप में बेहद ज़रूरी बात आलोचना की राजधानी क्षेत्र की भाषा को लेकर करते हैं-‘ आज की हिंदी आलोचना को अभिजन संस्कृति का हिस्सा बनाने और उसकी सामाजिकता को सीमित करने का काम आलोचना की भाषा भी कर रही है। हाल के वर्षों में हिंदी आलोचना में संस्कृत से अधिक अँगरेज़ी का आतंक बढ़ा है। इस आतंक का अनुभव करना हो तो बहुवचन-7 में छपे सुधीश पचौरी के लेख ‘कबीर धर्मवीर और फूको की जीनियोलाजी’ को पढ़ना उपयोगी होगा, हिंदी में ऐसे आलोचक पहले भी रहे हैं और आज भी हैं जो शायद पाठकों के हिंदी ज्ञान पर संदेह के कारण या किसी अन्य कारण से हिंदी शब्दों के समानार्थी अँगरेज़ी शब्दों से अपने लेखों को सजाते रहे हैं, लेकिन सुधीश पचौरी ऐसा नहीं करते। वे देवनागरी लिपि में अंग्रेजी लिखते हैं। उदाहरण के लिए उनके लेख से उद्धरण देखिए: इंटरटेक्स्चुएलिटी के ज़माने में सिर्फ़ मूर्ख ही दलित को कबीर में ढ़ूँढ सकते हैं। जीनियोलाजिकल डिकंस्ट्रक्शन की यही ख़ास बात है कि दलित कबीर की किताब में भले न हो, लेकिन जीनियोलोजी के वर्तमानत्व और दलितवाद के युद्ध में कबीर एक प्राथमिक सांस्कृतिक टेक्स्ट हो सकते हैं।’ हिंदी आलोचना की सामाजिकता के रास्ते में आने वाली एक और बाधा का ज़िक्र पाण्डेय जी करते हैं-‘हिंदी आलोचना की सामाजिकता को संदेहास्पद बनाने वाली एक प्रवृत्ति वह है जो किसी रचना की समीक्षा के दौरान उसमें मौज़ूद समाज पर ध्यान नहीं देती।’ इस प्रसंग में वे ललित कार्तिकेय की लिखी अल्मा कबूतरी की समीक्षा का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि ‘समीक्षक की सारी बौद्धिकता ‘अल्मा कबूतरी’ को एक प्रकृतवादी रचना साबित करने में लगी है। जब आलोचनात्मक चेतना धारणाओं के पीछे-पीछे चलती हुई रचनाओं के बारे में फ़ैसला करती है तब ऐसी ही अदालती आलोचना लिखी जाती है।’ यहाँ कहना ज़रूरी है कि उसी लेखिका के शुरुआती उपन्यास को अपठनीय, ठस और भूसाछाप कथाभाषा होने के बावजूद एक संपादक जी ने और कुछ आलोचकों ने सिर पर रखकर जो भांगड़ा किया था, वह क्या था ? क्या यह कहने की ज़रूरत है कि कथाभाषा में कथारस का चार सौ बोल्ट का करेंट प्रवाहित होता है जो पाठक को न सिर्फ़ प्यार से अपने सीने से चिपका लेता है, बल्कि किसी कथाकृति को यादगार बनाता है ? यह ठीक है कि ललित कार्तिकेय की आलोचनादृष्टि में बौद्धिकता और नागरबोध की दिक्कत है, पर इस दिक्कत से कहीं बड़ा अपराध कूड़ा कृतियों को आसमान पर बैठा देने से है। क्योंकि एक में अज्ञान या दृष्टिदोष है तो दूसरे में आलोचक के ईमान का लोप ही नहीं बल्कि बाक़ायदा कदाचार है। क्या यह आलोचना की असामाजिकता नहीं है ? यहाँ याद दिलाना है कि पाण्डेय जी ने ख़ुद ही ग्राम्शी के इस कथन का उल्लेख आगे किया है कि ‘महत्वपूर्ण साहित्यिक रचना एक कलाकृति होने के साथ ही अपने समय और समाज की सभ्यता का एक हिस्सा भी होती है।’ महत्वपूर्ण बात यह कि ग्राम्शी के इस कथन में यह स्पष्ट है कि एक साहित्यिक रचना का समय और समाज से जुड़ाव होने के साथ ‘एक कलाकृति होना’ भी ज़रूरी है। इसी नज़रिये से दलित विमर्श या स्त्री विमर्श से जुड़ी रचनाओं के साथ एक अविस्मरणीय ‘कलाकृति’ न हो पाने की विफलता की बात की जाती है। बहरहाल मैनेजर पाण्डेय यहाँ ललित कार्तिकेय के बहाने बेशक बौद्धिकता के ख़तरों की ओर ध्यान खींचने का ज़रूरी काम करते हैं। इस क्रम में वे नामवर सिंह को याद करते हुए लिखते हैं-‘नामवर सिंह ने ठीक ही कहा है कि आलोचना अपने समय की बौद्धिकता की उपस्थिति है।’ फिर आर-पार देखते हुए सवाल करते हैं-‘सवाल यह है कि कैसी बौद्धिकता। ज़ाहिर है अपनी सेवा में लगी बौद्धिकता नहीं, बल्कि अपने समाज की वर्चस्ववादी विमर्श की काल्पनिक सहमति के छद्म की निर्मम आलोचना करने वाली बौद्धिकता। ऐसी ही बौद्धिकता अपने समय के समाज के आलोचनात्मक विवेक का प्रतिनिधित्व करती है। वह एक ऐसी निरंतर सतर्क बौद्धिकता होती है जो अपने समय की हलचलों को जानती है और धड़कनों को पहचानती है। उसमें अपने समाज, संस्कृति और साहित्य के प्रति गहरी जिज्ञासा और ऐसी प्रश्नात्मकता होती है, जिसकी पहुँच के बाहर न परंपरा की स्मृति होती है, न वर्तमान का बोध और न भविष्य की चिंता। उस बौद्धिकता का लक्ष्य मनुष्य की स्वाधीनता है, मनुष्य की अमूर्त अवधारणा की दार्शनिक स्वतंत्रता, समाज में पराधीनता के शिकार मनुष्यों की सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता।’ यही आलोचना की सामाजिकता की बुनियाद भी है। सवाल फिर यहाँ साहित्य की दुनिया में लेखक की स्वाधीनता का है। क्यों लेखकों का कोई छोटा या बड़ा समूह अपनी स्वाधीनता किसी साहित्य की सत्ता को भेंट कर देता है। लेखकों का समाज हो या वृहत्तर समाज उसके स्वास्थ्य से बहुत-सी चीज़ें तय होती हैं। ‘ अगर समाज का बौद्धिक वातावरण उन्मुक्त और संवादधर्मी होगा तो आलोचना भी मूलगामी, उत्सुक, तेजस्वी, प्रश्नाकुल और सत्यनिष्ठ होगी, लेकिन अगर बौद्धिक वातावरण रूढ़िवादी, पीछे देखू और सहमतिवादी होगा तो आलोचना वैसी ही होगी। हिन्दी आलोचना के बेजान और बीमार होने का एक कारण हमारे समाज का वह बौद्धिक वातावरण है जिसमें साहित्यवाद का सहयोगी सहमतिवाद है। ऐसे वातावरण में पलने वाली आलोचना अगर असामाजिक हो तो आश्चर्य की क्या बात है।’ मैनेजर पाण्डेय आलोचना की सामाजिकता के रास्ते में जगह-जगह घात लगाकर बैठे राहजनों की हरक़तों पर बारीक नज़र रखते हैं। तभी तो कहते हैं- ‘हिन्दी आलोचना को असामाजिक बनाने में कुछ भूमिका उन आलोचकों की भी है जो अतिरंजना, सरलीकरण, धमकी, फ़तवा, आशीर्वाद और दुविधा की भाषा में आलोचना लिखते हैं। ऐसी आलोचना ग़ैर ज़िम्मेदार होती है, इसलिए असामाजिक की होती है।’ कहना बेहद ज़रूरी है कि आज ऐसे आलोचकों, उप आलोचकों, सहायक आलोचकों की एक पूरी ज़मात राहजनी के धंधे में लगी हुई है। आलोचकों की यह खेप प्रतिभा की जगह अपनी धंधई से बड़े सुकुल जी का बाप बनना चाहती है, ऐसा इसलिए कि उसके पास आलोचना में आत्मसंघर्ष की कूवत सिरे से गायब है। सच तो यह कि आज आलोचना की सामाजिकता को असली ख़तरा ऐसे राहजनों से ज़्यादा है।




....दिल्ली हो या गोरखपुर या कोई भी शहर, साहित्य की सत्ताएं बड़ी, मझोली, छोटी या पिद्दी हर जगह होती ही होती हैं। मजे की बात यह कि ऐसी किसी भी मामूली से मामूली साहित्य की सत्ता के विरुद्ध खड़े होने का साहस शायद ही कहीं दिखता हो। एक रहस्य यह भी कि साहित्य की सत्ता हासिल करने के लिए अच्छा लिखना कतई जरूरी नहीं है। कोई भी मीडियाकर अपने दंद-फंद से ऐसी सत्ता पलक झपकते हासिल कर लेता है। अब साहित्य की सत्ता  हासिल करने के लिए किसी का नामवर होना या आलोचना या रचना में खूंटा गाड़ना अर्थात महत्वपूर्ण करना कतई जरूरी नहीं रहा। सच तो यह कि साहित्य की सत्ता बनने के लिए तो कहीं-कहीं लेखक होना भी जरूरी नहीं रहा। जैसे समुद्री डाकू पानी के तमाम जहाज चुटकी बजाते हुए लूट लेते हैं, उसी तरह आज साहित्य के लुटेरे लाखों-करोड़ों रुपये के सरकारी और गैर सरकारी अनुदान से चलने वाली भारी-भरकम और नामी-गिरामी साहित्यिक संस्थाओं और अकादमियों को लूट रहे हैं।.....


आलोचना की सामाजिकता का रास्ता और चंद राहजन