शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

दीया

- गणेश पाण्डेय

पहला दीया
उनके लिए जो देख नहीं पाते
दूसरा उनके लिए जो दीये को दीया कह नहीं पाते
तीसरा उनके लिए जो दीये की कोई बात सुन नहीं पाते

एक दीया हिंदी के उन भयभीत दोस्तों के नाम 
जिन्होंने मुझे चींटी की मुंडी के बराबर दोस्ती के लायक नहीं समझा

हिंदी के उन दुश्मनों के नाम भी कुछ दीये ठीक उनकी अक्ल के पिछवाड़े
जिन्होंने हमेशा चूहे की पीठ पर बैठकर शेर की पूँछ मरोड़ने की जिद की

ये दीये उन तमाम अदेख दोस्तों की नम आँखों के नाम 
इस वर्ष हारी-बीमारी और हादसों में छोड़ गये जिनके प्रिय और बुजुर्गवार
चाहे मारे गये मोर्चे पर जिनके बेटे, पति और पिता और गाँव के गौरव

पृथ्वी की समूची मिट्टी और आँसुओं से बने ये दीये
क्यों नहीं मिटा पाते हैं, सदियों से बढ़ता ही जाता अँधेरे का डर

एक थरथराती हुई स्त्री के जीवन में क्यों नहीं ला पाते हैं जरा-सा रोशनी
ये दीये क्यों नहीं जला पाते हैं हत्यारों का मुँह, उनके हाथ और लपलपाती हुई जीभ

ये दीये उम्मीद के सही, हार के नहीं
ये दीये बारूद के न सही, प्यार के सही
ये दीये क्रांति के न सही प्रतीक सही
दोस्तो फिर भी जलाता रहूँगा ऐसे ही ये दीये कविता के दोस्त सही
इनकी लौ में है पलभर में हमारी आत्मा को जगाने की शक्ति 

देखो अरण्य के समीप गरीब-गुरबा की बस्ती में जलते दीये
कैसे काटता है एक नौजवान टाँगे से जलौनी लकड़ी
कैसे इनकी रोशनी में डालती है एक माँ बच्चे के मुख में कौर

कैसे कनखियों से देखती है एक युवा स्त्री 
अपने पति के शरीर की मछलियों को, उसकी वज्र जैसी छाती

पैसे की मार से दुखी लोगों के लिए कुछ दीये
उस बाप की ड्योढ़ी पर एक दीया जिसे बेटियों की फीस की चिंता है

जलायें न जलायें चाहे बड़े शौक से भाड़ में जायें
उन आलोचकों के लिए भी कविता के छोटी जाति के कुम्हारों के बनाये कुछ दीये
जिनके घर मुफ्त पहुँचायी गयी हैं गाड़ियों में भरकर बिजली की विदेशी झालरें

विश्वविद्यालयों, अकादमियों, संस्थानों, अखबारों, पत्रिकाओं 
प्रकाशकों और हिन्दी के बाकी दफ्तरों के संडास में एक-एक दीया जबरदस्त

हिन्दी की उन्नति के नाम पर उसकी किडनी बेचकर 
मलाई काटने वाले हजारों हरामजादों के लिए भी

हिन्दी के जालसाजों के छल में फँसे हुए बच्चों के लिखने की मेज पर
जीवनभर जलने वाला कविता का यह दीया खास

हिन्दी बोलने वाले विपन्न बच्चों के लिए उम्मीद का एक दीया
इस साल वे भी बने कलक्टर चाहे कमायें दो पैसा

हिन्दी बोलने वाले बच्चे पैदा करने वाली माँ के बिना चप्पल के पैरों के पास
मेरी, तेरी, उसकी, सबकी गुजर गयी माँ की जिंदा याद के पैरों के पास
चाँदी की पायल की जगह एक गरीब कवि की ओर से मिट्टी का यह दीया।











सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

पांच छोटी कविताएं

- गणेश पाण्डेय

अकड़ 1

हे प्रभु
हिन्दी में ऐसा वक्त भी आये
जब कवि की अकड
कहीं और नहीं
साहित्य की सत्ता के सामने
दिखे।

अकड़ 2

हे प्रभु
आये जरूर आये
हिन्दी में ऐसा भी वक्त
जब आलोचक अपनी अकड़
निरीह कवि के सामने नहीं
साहित्य की सत्ता के सामने
दिखाए।

अकड़ 3

हे प्रभु
आप हो तो ठीक है
न हो तो भी
हिन्दी में ऐसा वक्त जरूर आये
जब पाठक ही पाठक हों
और पाठक के पास इतना बल हो
कि कवि और आलोचक की अकड़
तोड़कर उसकी जेब में डाल दें।

लज्जा

हे प्रभु
माइक के सामने
अखबार के बयान में
कविता लिखते हुए
अकड़ गयी है कवि की रीढ़
जहां-जहां झगड़ना था मीठा बोला
जहां-जहां तनकर खडा होना था झुका
जहां-जहां उदाहरण प्रस्तुत करना था छिपकर जिया
हे प्रभु
उसे सुख-शांति दीजिए न दीजिए
थोडी-सी सचमुच की लज्जा जरूर दीजिए।

फर्क

वे
साहित्यपति थे

उन्होंने कहा -
झण्डा लेकर चलो

मैंने कहा -
डण्डा लेकर चलो।


रविवार, 9 अक्तूबर 2016

रावण का पुतला

- गणेश पाण्डेय
                                          
रामलीला मैदान में
अवैध कब्जे की होड़ है
कमेटी के पदाधिकारियों में
आपस में काफी सिर फुटौवल
और तोड़-फोड़़ है
फिर भी किये जा रहे हैं
जैसे-तैसे
रामलीला

कुछ हैं
बस देख रहे हैं
लीलाभाव से
रामलीला
बच्चे हैं कि जिन्हें
बिल्कुल मजा नहीं आता
अब कोई ढ़ंग से
रावण का पुतला ही नहीं जलाता

कहां बीस-बीस फुट के रावण
और कहां चार-चार फुट के
राम जी
मजा आये तो आये कैसे
नये जमाने के बच्चों को
कोई समझाए कैसे
कहां भीमकाय रावण
कहां क्षीणकाय
और अतिशय दुर्बल
राम जी
कहां रामलीला मैदान में
तमाशबीन ज्यादा
और राम जी की सेना में
मुट्ठीभर
कुपोषणग्रस्त
किशोर
न कोई
हनूमान सरीखा बलशाली
न कोई लक्ष्मण
जाम्बवान और सुग्रीव जैसा
न कोई वानर-भालू जैसा
ताकतवर और जुझारू
जैसे चूहों की टुकड़ी चली हो
राम जी के पीछे-पीछे
रावण को जीतने

आखिर इस बेमेल लड़ाई में
बच्चों को
मजा आये तो कैसे आये
राम जी ने
सचमुच रावण को जीता होगा
यकीन आये तो कैसे आये
अपराधियों के अवैध कब्जे के बाद
सौ गुणे सौ मीटर के
छोटे-से
रामलीला मैदान में
इतनी बड़ी लड़ाई हो तो कैसे हो

कोई तो बताये
राम जी
रावण के भीमकाय पुतले में
आग लगायें तो कैसे लगायें
न तीर पकड़ना सीखा
न कहीं निशाना लगाना
न अपने से बड़े कद वाले पर
कभी प्रहार करना
जैसे-तैसे तीर चलायें भी तो
तीर में वह आग कहां से लायें
जो रास्ते में बुझ न जाये
जैसे-तैसे आउल-फाउल
तमाशबीनों और पटाखों की मदद से
आग लगायें भी तो बच्चों को
राम जी की शक्ति पर
यकीन कैसे आये

और जब
बार-बार दशहरे में
देखेंगे
इस तरह
रावण के पुतले को
जलाने की लीला
तो रावण के अंत पर
उन्हें यकीन आये तो कैसे आये
अब या तो राम जी का
और उनकी सेना का कद बढ़ायें
या रावण को छोटा बनायें

पहले काटें उसके पैर
फिर घेर कर मारें
लेकिन
यह सब करने से पहले
राम जी
लंका के सोने में नहीं
अपनी सीता को छुड़ाने में
मन लगायें।

 (‘जापानी बुखार’ से)