रविवार, 1 मई 2011

गणेश पाण्डेय की गुरु सीरीज

गुरु-1/ 
जब मुझे गुरु ने डसा

न रोया
न दर्द हुआ, न कोई निशान
न रक्त बहा, न सफेद हुआ
जब मुझे गुरु ने डसा।
इस तरह
मैं पहली परीक्षा पास हुआ।

गुरु-2/ 
जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया

मैं तनिक भी विचलित नहीं हुआ
न पसीना छूटा, न लड़खड़ाए मेरे पैर
सब कुछ सामान्य था मेरे लिए
जब मुझे मेरे गुरु ने बरखास्त किया
और बनाया किसी खुशामदी को अपना
प्रधान शिष्य।
बस इतना हुआ मुझसे
कि मैं बहुत जोर से हँसा।

गुरु-3/ 
गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा

चलो अच्छा हुआ
न मुद्रा, न वस्त्र, न अन्न
न अँगूठा, न कलेजा, न गर्दन
गुरु ने मुझसे कुछ नहीं माँगा
मैं खुश हुआ।
सहसा लिया मुझसे सभाकक्ष में
मेरे गुरु ने दिया हुआ शब्द।

गुरु-4/ 
जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा

कोई पत्ता नहीं खड़का
मंद-मंद मुस्काते रहे पवन
आसमान के कारिंदों ने
लंबी छुट्टी पर भेज दिया मेघों को
जब गुरु ने मेरे विरुद्ध मिथ्या कहा।
अद्भुत यह, कि
पृथ्वी पर भी नहीं आयी कोई खरोंच।

गुरु-5/ 
गुरु से बड़ा था गुरु का नाम

गुरु से बड़ा था गुरु का नाम
सोचा मैं भी रख लूँ गुरु से बड़ा नाम
कबीर तो बहुत छोटा रहेगा
कैसा रहेगा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
अच्छा हो कि गुरु से पूछूँ
गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में।
पागल हो, कहते हुए हँसे गुरु
एक टुकड़ा मोदक थमाया
और बोले-
फिसड्डी हैं ये सारे नाम
तुम्हारा तो गणेश पाण्डेय ही ठीक है।

गुरु-6/ 
कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान

सुंदर केश थे गुरु जी के
चौड़ा ललाट, आँखें भारी
लंबी नाक, रक्ताभ अधर
उस पर गज भर की जुबान।
गजब का प्रभामण्डल था
कद-काठी, चाल-ढ़ाल
सब दुरुस्त।
जो छिप कर देखा किसी दिन
कच्चे थे कुछ गुरु जी के कान।

गुरु - 7/ 
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं

कैसे हो सकता था
कि जो गुरु के गण थे, नागफनी थे
जड़ थे कितने कार्यकुशल थे।
आगे रहते थे, निकट थे इतने
जैसे स्वर्ण कुण्डल, त्योंरियाँ, हाथ।
क्या खतरा था उन्हें मुझसे
तनिक भी दक्ष नहीं था मैं
निकटता का पाठ मेरे कोर्स में था ही नहीं।
क्यों रोकते थे वे मुझे कुछ कहने से
जरूर हुई होगी कोई असुविधा
इसी तरह वैशम्पायन के गुरुकुल में
याज्ञवल्क्य से।

गुरु-8/ 
खूब मिले गुरु भाई

खूब मिले गुरु भाई
सन्नद्ध रहते थे प्रतिपल
कुछ भी हो जाने के लिए
मेरे विरुद्ध।
बात सिर्फ इतनी-सी थी
कि मैं कवि था भरा हुआ
कि टूट रहा था मुझसे
कोई नियम
कि लिखना चाहता था मैं
नियम के लिए नियम।

गुरु-9/ 
खीजे गुरु

पहला बाण
जो मारा मुख पर
आंख से निकला पानी।
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल से शीतल जल का।
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फव्वारा छूटा।
खीजे गुरु
मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू।

गुरु-10 / 
सद्गुरु का पता

अच्छा लगता था पाठशाला में
कबीर को पढ़ते हुए
अच्छा लगता था जीवन में
कबीर को ढूँढ़ते हुए
अच्छा लगता था सपने में
कबीर से पूछते हुए
सद्गुरु का पता।


(पहले कविता संग्रह ‘ अटा पड़ा था दुख का हाट’ से)



                                                                                                                                                                                         

16 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. Samayanusar Saachchi AAlochana hai

      KABIRji ka to kahna hi kya

      GURU GOVIND DOU KHADE....
      KAKE LAGO PAY...
      BALIHARA GURA AAPNE ......
      GOVIND DIYO BATAYE
      गुरु पूर्णिमा की शुभकामनायें

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  2. आदरणीय गणेश जी,
    गुरु के विविध आयाम और छवि की अदभूत प्रस्तुति के लिए बधाई ...
    - पंकज त्रिवेदी

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  3. ग़ज़ब का व्यंग्य है! इतनी तीखी मार, सोच कर ही सिहरन होती है! सच में, कैसा रहा होगा वह गुरु - क्या 'गुरु' कहलाने का तनिक भी ह्क़दार?

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  4. कलयुगी गुरूओं की समस्त चरित्रगत विशेषताओं को व्याख्यायित करती तीक्ष्ण कवितायेँ ... सादर बधाई ...

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  5. आ.श्रोत्रिय जी।
    मर्म को आपने जिस आत्मीयता के साथ छुआ है,
    उसके लिए आभारी हूँ।

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  6. भाई पंकज जी और बहन हेमा जी को कविताएँ पसंद करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

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  7. गुरुता का विद्रूप लिए इन व्यंग्य छवियों में गुरुत्व की दूसरी शृंखला की कामना जगती है।

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  8. कमाल हैं इस सीरिज की कवितायें.. थोड़े में गहरे कहने का हुनर तो व्यक्त हुआ ही है -शब्द से ज्यादा भाव पकड़ने का मजा दिलाती कवितायें.. अतिरंजना में मौजूद मारकता में तंज से ज्यादा रंज पढ़ा मैंने.. बढ़िया .. साधुवाद सर..

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  9. गुरुघंटाल गुरु पाए गुरु. और अनभय साँच लिखा, गुरुतर. बधाई.

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  10. उत्तर
    1. ये उस भाव -भूमि की कविताएं है जिनके लिए पाण्डेय जी आज भी अपना स्वर बुलंद किये हैं.

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  11. बहुत ही शानदार कविताएं सर । बहुत बहुत बधाई

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  12. फिलहाल इतना ही कि कविताएं अद्भुत हैं । जीवन अनुभव निचुड़ कर आया है । जीवन का यथार्थ अक्सर उस एकनिष्ठ ईमानदार आदमी के साथ इसी तरह का है ; जिन्होंने कभी सैद्धातिकी से विलग लाभ-हानि के व्यापार में नहीं पड़ा । गणेश पाण्डेय मुझे अपनी कविताओं की रवानगी और प्रतिरोध के स्तर पर बिल्कुल बेबाक लगते हैं

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