मंगलवार, 20 जनवरी 2015

बच्चों पर कुछ कविताएँ

-गणेश पाण्डेय

कबाड़
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वे दो थे 
भाई जैसे थे छोटे-बड़े
लड़के थे जाने किस धातु के
लोहा थे पीतल थे कि सोना थे चाँदी थे
जो थे जैसे थे खुश थे उस कबाड़ में
जिधर देखते थे कबाड़ ही कबाड़ देखते थे
कबाड़ दुनिया देखते थे।
कंधे से उतारते थे अपना थैला मैला
खोलते थे मुँह और उठाते थे टिफिन बॉक्स
डिब्बी-डिब्बे, टुकड़े प्लास्टिक के
सब थैले में गड़प।
देखते थे छागल का कोई लंबा टुकड़ा
हँसते थे उस बाई की भूल पर
जिसने फेंका होगा।
उठाते थे किसी का लाल रिबन
और चल देते थे गले में बाँधकर
एक कबाड़ से दूसरे कबाड़ में।
 (‘जल में’ से)


तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री
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देखो तो कितना सलोना है दस बरस का लड़का
अखबार लहराते हुए हवा से बात करता है किस तरह
हर सुबह करतब दिखाता है लड़का
अपने से अधिक उम्र की साइकिल पर।

देखो तो छूकर कितनी नन्ही-नन्ही हैं उँगलियाँ
हाथ की रेखाएँ पढ़ो, क्या लिखा है
जिनसे बाँटता है संसद में प्रधानमंत्री की घोषणाएँ
और दुनियाभर की खबरें।

देखो तो पुतलियाँ नचाते हुए लड़का
किस तरह देखता देखता है घरों को
सुनो तो कितना सुरीला है लड़के का कंठ
मुर्गे की तरह बाँग देता हुआ-‘पेपर’।

तुम्हें कैसा लगता है प्रधानमंत्री,
अखबार बाँटता हुआ दस बरस का लड़का
बहुत अच्छा, बहुत प्यारा
अभी-अभी इधर से निकला है हवा में लहराते हुए
राष्ट्रपति का अभिभाषण।
(‘अटा पड़ा था दुख का हाट’ से)


बाबू क्लीनर 
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बाबू क्लीनर 
इतने गंदे क्यों रहते हो
क्यों खाते हो हरदम पान
बात-बात पर हँसते क्यों हो
हो-हो।
हर गाने पर 
मूड़ी खूब हिलाते क्यों हो
लगता है तुम सचमुच 
इस गाड़ी के मालिक हो।
कुछ तो बोलो
बाबू क्लीनर 
खुश दिखने का भेद तो खोलो
हँसकर दर्द छुपाते क्यों हो।
(‘जल में’ से)


किसका है यह पेंसिलबॉक्स 
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जिस किसी का हो
आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स
जो मुझे अभी-अभी मिला है
पागल पहिये और पैरों केबीच।
जिस पर कुछ फूल बने हैं
कुछ तितलियाँ हैं उड़ती-सी
और कम उम्र उँगलियों की ताजा छाप है
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।
जिसके भीतर साबुत है आधी पेंसिल
और व्यग्र है उसकी नोंक
किसी मानचित्र के लिए
एक दूसरी पेंसिल है जो उससे छोटी है
बची हुई है उसमें अभी थोड़ी-सी जान
और किसी का नाम लिखने की इच्छा
मिटने से बचा हुआ है एक चौथाई रबर
काफी कुछ मिटा देने की उम्मीद में
किसी तानाशाह का चेहरा
किसी पैसे वाले की तोंद।
किसका है यह
किस दुलारे का किस अभागे का
किस रानी का किस कानी का
जिसका भी हो आये और ले जाये
अपना यह पेंसिलबॉक्स।
(‘जल में’ से)

बोर्ड परीक्षा का पहला दिन
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मेरी सीट
ओ मेरी सीट
कहां है मेरी सीट
उचक-उचक कर ढ़ूढते हैं
इतने सारे बच्चे एक साथ
हाईस्कूल बोर्ड परीक्षा के पहले दिन
नोटिस बोर्ड पर अपनी सीट का पता

मिलते हैं अन्दर घुसते ही कमरे में
एक तुनकमिजाज और कड़कआवाज
अजीब तरह के मास्टर जी
उसपर एक ढ़िलपुक मेज
और आगे-पीछे होती कुर्सी

और
उसके बाद मिलते हैं
परचे के जंगल में कुछ खरहे जैसे प्रश्न
कुछ होते हैं चीते की तरह आक्रामक
और कुछ हाथी जैसे भारी-भरकम

जिसके उत्तर में
निकालकर रख देना पड़ता है
एक पिता का कांपता हुआ कलेजा
और एक मां का आसभरा
और धड़कता हुआ दिल

देखो तो परचे के आगे-पीछे
पंक्तियों के बीच में लुका-छिपी करता है
एक मासूम सवाल-
कैसे करता है करतब
यह सब इतना कोई किशोर
पहली दफा

कोई बताए 
तो सौ में दो सौ पाए !
 (‘जल में’ से)

अभी 
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बची हुई है अभी थोड़ी-सी शाम
बची हुई है अभी थोड़ी-सी भीड़
नित्य उठती-बैठती दुकानों पर

रह-रह कर सिहर उठती है
रह-रह कर डर जाती है
नई-नई लड़की
छोटी-सी 
श्यामवर्णी
जिसके पास बची हुई है अभी
थोड़ी-सी मूली

और
मूली के पत्तों से गाढ़ा है
जिसके दुपट्टे का रंग
जिससे ढाँप रखा है उसने
आधा चेहरा आधा कान

अनमोल है 
जिसकी छोटी-सी हँसी
संसार की सभी मूलियाँ
जिसके दाँतों से 
सफ़ेद हैं कम

और
पाव-डेढ़ पाव मूली 
एक रुपए में देकर
छुट्टी पाती है 
मण्डी से
ख़ुश होती है काफ़ी
एक रुपये से कहीं ज्यादा

मण्डी से लौटते हुए 
मुझे लगता है-
मूली से छोटी है 
अभी उसकी उम्र
और मूली से बीस है 
अभी उसकी ताज़गी

घर में घुसता हूँ तो  होता है-
अरे!
ये तो मूली में छिपकर
घुस आई है नटखट 
मेरे संग
अभी-अभी 
शामिल हो जाएगी
बच्चों में ।
(‘जल में’ से)

धर्मशाला बाजार के आटो लड़के   
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वे दूर से देखते थे और पहचान लेते थे
मद्धिम होता मेरा प्याजी रंग का कुर्ता
थाम लेते थे बढ़कर कंधे से
मेरा वही पुराना आसमानी रंग का झोला
जिसे तमाम गर्द-गुबार ने
खासा मटमैला कर दिया था
वे मेरे रोज के मुलाकाती थे
मैं चाचा था उन सबका
मेरे जैसे सब उनके चाचा थे
कुछ थे जो दादा जैसे थे
इस स्टैंड से उस स्टैंड तक
फैल और फूल रहे थे
छाते की कमानियों की तरह
कई हाथ थे उनके पास
रंगदारी के रंग कई
दो-दो रुपये में
जहां बिकती थी पुलिस
वे तो बस
उसी धर्मशाला बाजार के
आटो लड़के थे हंसते-मुस्कराते
आपस में लड़ते-झगड़ते
एक-एक सवारी के लिए
माथे से तड़-तड़ पसीना चुआते
पेट्रोल की तरह खून जलाते
वे मुझे देखते थे
और खुश हो जाते थे
वे मेरे जैसे किसी को भी देखते थे
खुश हो जाते थे
वे मुझे खींचते थे चाचा कहकर
और मैं उनकी मुश्किल से बची हुई
एक चौथाई सीट पर बैठ जाता था
अंड़सकर
वे पहले आटो चालू करते थे
फिर टेप-
किसी खोते में छिपी हुई
किसी अहि रे बालम चिरई के लिए
फुल्ले-फुल्ले गाल वाले लड़के का
दिल बजता था
उनका टेप बजता था
आटो में ठुंसे हुए लोगों में से
किसी की सांसत में फंसी हुई
गठरी बजती थी
किसी की टूटी कमानियों वाला
छाता बजता था
किसी के झोले में
टार्च का खत्म मसाला बजता था
और अंधेरे में
किसी बच्चे की किताब बजती थी
किसी छोटे-मोटे बाबू की जेब में
कुछ बेमतलब चाबियां बजती थीं
कुछ मामूली सिक्के बजते थे
किसी के जेहन में-
धर्मशाला बाजार की फलमंडी में
देखकर छोड़ दिया गया
अट्ठारह रुपये किलो का
दशहरी आम
और कोने में एक ठेले पर
दोने में सजा
आठ रुपये पाव का जामुन बजता था
और घर पर इन्तजार करते बच्चों की आंखें
बजती थीं सबसे ज्यादा।
(‘जल में’ से)

खेलो छोटे बहादुर
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आओ बहादुर
बैठो बहादुर
खाओ बहादुर
ये खुरमा
ये सेवड़ा
ये देखो रंग-वर्षा
खेलो छोटे बहादुर।
छोड़ो बहादुर
सम्भ्रांत पंक्ति का
पनाला
रहने दो आज जाम
बहने दो जहाँ-तहाँ
छोड़ो कुदाल
फेंको बाँस
लो खुली साँस।
आओ छोटे बहादुर
बताओ छोटे बहादुर
क्या कर रही होगी
इस वक्त पहाड़ पर माँ
माँ के मुख-रंग बताओ
छोटे बहादुर।
कितनी दूर है
तुम्हारा पर्वत-प्रदेश
मुझे ले चलो अपने घर
अकलुष आँख की राह
आओ छोटे बहादुर
अपने अगाये कंठ से
बोलो छोटे बहादुर
मद्धिम क्यों है आज
मुखाकृति।
(दूसरे संग्रह ‘जल में’ से)

आप सौ साल जियें पापा
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छोड़ दीजिए पापा 
पान के बीड़े चबाना
और तरह-तरह के जर्दे की 
गमकने वाली खुशबू।
तम्बाकू-चूना मलना, ठोंकना
और होंठ के भीतर दाबकर
चुनचुनाहट के मजे लेना
बंद की जिए पापा बंद।
मुझे नहीं पसंद है पापा
मम्मी को नहीं पसंद है पापा।
ये लीजिए पापा सौंफ
इलायची लीजिए पापा
आप सौ साल जियें पापा।
सफेद फ्रॉकों वाली गुडिया जैसी
दस बरस की बिटिया
करती है प्रार्थना।
(‘जल में’ से)


जापानी बुख़ार
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हे बाबा 
किसका है यह 
जो अभी - अभी था 
और इस क्षण नहीं है 
जिसके मुखड़े के बिल्कुल पास 
बिलख रहे हैं परिजन और स्वजन 
राहुल - राहुल कह कर 

किसका है यह नन्हा - सा 
राजकुमार 
जिसे अपनी छाती से लगाये 
चूमती जा रही है बेतहाशा 
एक लुटी-लुटी - सी बदहवास युवा स्त्री 
जिसकी पथराई आँखों से झर रहे हैं 
आँसू 
झर-झर-झर 

कौन है यह 
अटूट विलाप करती हुई 
अभागी कोमलांगी 
जिसे अड़ोस - पड़ोस की बुजुर्ग औरतें 
चुप करा रही हैं -
यशोधरा - यशोधरा कह कर 
यह किसकी यशोधरा है बाबा 
किसका है राहुल यह 
तुमसे क्या नाता है 

पिपरहवा के किसी सिधई अहीर 
और गनवरिया के किसी बुधई कोंहार से 
इस कालकथा का क्या रिश्ता है 
कितने राहुल हैं बाबा
कितनी यशोधरा 

ढाई हजार साल बाद 
यह कैसी पटकथा लिख रहा है 
काल 
कपिलवस्तु के एक - एक गाँव में 
कपिलवस्तु के बाहर गाँव - गाँव में 
फूस की झोपड़ियों 
और खपरैल के कच्चे - पक्के मकानों में 
इक्कीसवीं सदी के एक - एक राहुल को 
चुन - चुन कर 
कैसे डँस लेता है काल
मच्छर का रूप धर कर

क्या पहले भी मच्छर के काटने से 
मर जाते थे कपिलवस्तु के लोग 
क्या पहले भी धान के सबसे अच्छे खेतों में 
छिपे रहते थे जहरीले मच्छर 
और देखते ही फूल जैसे बच्चों को 
डँस लेते थे ऐसे ही 
जापानी बुख़ार - जापानी बुख़ार 
कह - कह कर 

हमारे पुरखों के  पुरखों के  पुरखे 
शालवन और पीपल के पेड़ वाले 
बाबा 
आज भी जिस जापान में बजता है 
तुम्हारे नाम का डंका 
सीधे वहीं से फाट पड़ी है यह महामारी 
तीर्थों के तीर्थ बुद्ध प्रदेश में 
पूर्वी उत्तर प्रदेश में 

शोक में डूबी हुई है 
यह विदीर्ण धरती 
जहाँ - जहाँ पड़े हैं 
तुम्हारे चरणकमल 
श्रावस्ती हो या मगध 
कपिलवस्तु हो या कोसल 
लुम्बिनी हो या कुशीनारा 
या हो सारनाथ 
हर जगह है तुम्हारा राहुल 
अनाथ 

आमी हो या राप्ती 
सरयू हो या गंगा या कोई और 
जिन - जिन नदियों ने छुए हैं 
तुम्हारे पांव 
डबडब हैं यशोधरा के आँसुओं की बाढ़ से 
देखो तो कैसे कम पड़ गया है 
तुम्हारी करुणा का पाट 
तुम्हीं बताओ बाबा 
क्या 
मेरी माँ यशोधरा 
मेरी चाची यशोधरा
मेरी बुआ यशोधरा
मेरी दादी 
मेरी परदादी की परदादी 
यशोधरा के असमाप्त रुदन से 
जीवित हैं इस अंचल की नदियाँ 

क्यों नहीं सूख जाती हैं ये नदियाँ 
क्यों नहीं खत्म हो जाता है 
राहुल की चिन्ता न करने वाला 
राजपाट 
क्यों नहीं हो जाता सिंहासन को 
जापानी बुखार 

बोलो बाबा 
कुछ तो बोलो 
हे मेरे अच्छे बाबा कुछ तो नया बोलो 
यशोधरा के महादुख पर रोशनी डालो 
आलोकित करो पथ 


क्या गोरखपुर क्या देवरिया 
और क्या महराजगंज 
क्या सिद्धार्थनगर 
क्या अड़ोस - पड़ोस के जनपद 
क्या पडोस के बिहार के गांव-गिरांव 
और क्या नेपाल बार्डर - अन्दर 
हर जगह पसरा हुआ है 
मौत का सन्नाटा 
और डर 
घर - घर में कर गया है घर 

किसी 
नई - नई हुई माँ से 
उसे रह-रह कर पुकारती हुई 
उसकी नटखट पुकार को 
छीन लेना 
सहसा
किसी
पिता की डबडब आँख से 
उसके चाँद-तारे को 
अलग कर देना 
किसी मासूम तितली से 
एक झटके में 
उसके पंख नोच लेना 
और गेंदा और गुलाब से 
उसकी पंखुड़ियों को लूटकर 
मसल देना 
किसी कविता का अंत है 
कि जीवन की अवांछित विपदा 
कि सभ्यता का कोई अनिवार्य शोकगीत 
बोलो बाबा

क्या है यह
जपानी बुखार है तो यहां क्यों है
क्यों पसंद है इसे सबसे अधिक
इसके फंदेनुमा पंजे में
गिरई मछली की तरह तड़प-तड़प कर
शांत हो जाने वाले
इस अंचल के विपन्न , हतभाग्य
और दुधमुंहे

यह कोई बुखार है
बुखार है तो उतरता क्यों नहीं
महामारी है महामारी
नई महामारी
सबसे ज्यादा नये पौधों को
धरती से विलग करने वाली
मौत की तेज आंधी है
बुझाये हैं जिसने 
इस अंचल के
हजारों नन्हे कुलदीप

कहां हैं मर्द सब
बेबस
और विलाप करती हुई मांओं की गोद
शिशु शवों से पाट देने वाला
हत्यारा जापानी बुखार
बचा हुआ है कैसे अबतक
कहां है पुलिस
और कहां है सेना
क्यों नहीं करती इसे गिरिफ्तार
जिंदा या मुर्दा
कोई विपक्ष है
है तो क्यों नहीं मांगता
जीने के अधिकार की गारंटी
कोई सरकार है कहीं
है तो कहां है

आये हाईकमान 
कोई भारी-भरकम मंत्री-संत्री
कोई राजधानी का पत्रकार आये
और 
टीवी पर जिंदगी की दो बूंद देने वाले
महानायक को पकड़कर लाये
कोई तो बतलाये-
जापान में एटमबम से
कितने शिशुओं की आंखें हुईं बंद
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले में
मारे गये कितने अमेरिकी
आखिर कितना है अभी यहां कम

आने से कतराता है
सरकार का मुखिया
करता है वक्त का इंतजार
और हिसाब-किताब
अस्पतालों और सेहत का महकमा
पता नहीं किस अहमक के जिम्मे है
क्या शहर और क्या देहात
क्या धान के खेत
और क्या गड्ढे का पानी
किस सूअर
और किस मच्छर की बात करें 
हर कोनें-अंतरे में बठी हुई है मौत
सफेद लिबास में

एक कहता है
हेलीकाप्टर में बैठकर
अपने नुकीले नाखूनों वाले पंजे से
छिड़केंगे दवा
गांव-खेत , ताल-पोखर 
चल चुकी है राजधानी से
दवा लगी मच्छरदानियों की भारी खेप
हर मुश्किल में आपके साथ है
एक खानदानी पंजा

दूसरा
पहले शंख बजाता है फिर गाल-
बुखार जापानी हो या पाकिस्तानी
मार भगायेंगे
मर्ज कैसा भी हो 
काफी है छूमंतर होने के लिए
कमल की पंखुड़ियों से बनी
एक गोली 

तीसरा आता है बाद में
रहता है सरकार में मगन
कहता है कुछ करता है कुछ
मिनट-मिनट पर सोचता है 
नफा-नुकसान
क्या खूब फबती है 
उसकी दस लाख की गाड़ी पर
हरे और लाल रंग के मखमल जैसे
छोटे से झण्डे में कढ़ी हुई
सुनहली साइकिल 
जिसके पास खड़ा होकर
किसी पुराने दर्द भरे गाने की तरह
कहता है-
जो हुआ उसके लिए बेहद अफसोस है
टीके और दवा का करते हैं इंतजाम
लीजिए फौरन से पेश्तर 
ले आया हूं आठ करोड़ 
बस पकड़े रहें 
साइकिल की मूठ

आते हैं एक से बढ़कर एक
हाथी नहीं आता 
मुमकिन है कभी आये हाथी
गिरते-पड़ते
चाहे हाथी के हौदे पर आये
कोई गुस्सैल
चिंघाड़ते हुए-
नहीं-नहीं , यह नहीं जापानी बुखार
न इंसेफेलाइटिस न मस्तिष्क ज्वर
यह तो है सीधे-सीधे
मनुवादी बुखार 
कमजोर तबके पर है जिसकी ज्यादे मार

कोई नहीं आता ऐसा
कोई वैद्य कोई डाक्टर
कोई लेखक कोई कलावंत
जीवन का कोई इंजीनियर

कोई पथ-प्रदर्शक
कोई माई का लाल
माई से कहने-
घबड़ाओ नहीं माई
लो 
मेरी त्वचा की रूमाल से 
पोंछ लो अपने आंसू 
हर पंजे से बचायेंगे
बचायेंगे कमल से
साइकिल से बचायेंगे
बचायेंगे हाथी से
शर्तिया बचायेंगे माई
इस भगोड़े जापानी बुखार से
सूअर से बचायेंगे
बचायेंगे मच्छर से
सबसे बचायेंगे
माई ।
(जापानी बुखार से)



                                                          



सोमवार, 5 जनवरी 2015

स्वर एकादश के कवि

- गणेश पाण्डेय

बोधि प्रकाशन के ‘स्वर एकादश’ संकलन की वजह से कई कवियों ने खासतौर से ध्यान खींचा है। संकलन में संकलित कवियों के स्वर की विविधता ने ही नहीं, बल्कि तीव्रता ने भी चौंकाया है। इनमें कई ऐसे कवि हैं जो काफी समय से लिख रहे हैं। अलग-अलग अवसरों पर उनकी कविताओं ने पहले भी ध्यान खींचा है। पर यहाँ ठहर कर और एक साथ कई कवियों की रोशनी के बीच देखने पर इनका महत्व बढ़ जाता है। भूमिका में ठीक ही कहा गया है कि इनके स्वर अलग-अलग हैं। हर कवि के स्वर की निजता कविकर्म की बुनियाद है। जो कवि अपने कविता-संसार में अपनी निजता की रक्षा नहीं कर पाते हैं, वे अपनी कविता को नकली कविता की जमात में पहुँचा देते हैं। अच्छे कवि विचारधारा के आग्रह के बावजूद कविताई में अपनी छाप रखते हैं। विचारधारा ही नहीं, संवेदना के स्तर पर भी हर मजबूत कवि अपनी निजता को बचाये रखता है। तभी उसकी कविता नकल होने से बचती है। इस संग्रह की कविताओं में अपने परिवेश के प्रति जो लगाव है, दरअसल वह कवि जीवन का कविता के प्रति स्वाभाविक व्यवहार है। प्रकृति, समाज, रिश्ते, प्रेम इत्यादि से इस संकलन के कवियों की कविता का परिसर बनता है। एक खास बात, अपनी धरती से जुड़ाव की है। इस संकलन के कुछ कवियों में तो लोक संवेदना और काव्य संवेदना के बीच एक झीना-सा आवरण रहता है। कई बार लगता है कि यही कविता की असली दुनिया है। पर दरअसल यह सिर्फ लोक की ताकत नहीं है, लोक को कवि जीवन में जीने की ताकत है। शहरी जीवन पर लिखी तमाम कविताएँ कवि के जीवनानुभव की विपन्नता की वजह से इसीलिए सिर्फ एक काव्य प्रवृत्ति बन कर रह जाती हैं। अपना प्रभाव खो देती हैं। जिन कविताओं में जीवनानुभव की तीव्रता को काव्यानुभव मे बदलने की ईमानदार कोशिश होती है, वे चाहे लोक संवेदना की कविताएँ हों या कस्बाई या शहरी जमीन की, अपनी शक्ति और सौंदर्य का अनुभव कराती हैं। इन कवियों में कई कवि पचास पार के हैं, इसलिए कम से कम मैं उन्हें युवा कवि नहीं कह सकता। उनकी कविताएँ भी कविताई की दृष्टि से युवा कविता से भिन्न हैं। अपनी कविता की बनावट और बुनावट, दोनों स्तरो पर ये प्रभावित करते हैं। मुखातिब होते ही अपनी कविता की बाहों में भर लेते हैं। अपने प्रेम और अपने दर्द, अपने एकांत और अपने संघर्ष का साथी बना लेते हैं।
        अग्निशेखर की कविताओं को पहले भी देखने का अवसर मिला है। पर इस बार खास यह कि कोई ग्यारह कवियों की पंक्ति में क्रम ही ऐसा और अच्छा था कि सबसे पहले उन्हें ही देखा। कश्मीर राजनीति में भले ही एक सौदा रहा हो जिसे राजनीति करने वालों ने अपने-अपने नफे-नुकसान के नजरिये से देखा हो, पर साहित्य में कश्मीर को कभी इस नजरिये नहीं देखा गया है। कश्मीर उसी तरह वहाँ के लोगों के लिए जीवन का आधार है जैसे हमारे लिए पूर्वांचल या अवध या दूसरे अंचल। अपनी धरती से लगाव का क्या मतलब है, यह बताने की चीज नहीं है। अपनी धरती से बिछुड़ने का दर्द भी कितना दुख देता है, कहने की बात नहीं। पर जब यह जीवनानुभव  कविता का हिस्सा बनता है तो कविता कैसे हमारे अंतस्तल में रच-बस जाती है, कैसे हमारे विचार-स्फुलिंग जाग जाते हैं, कैसे हम एक गहरी बेचैनी से भर उठते हैं, कैसे हम उस दर्द के पहाड़ पर अपना सिर पटक देना चाहते हैं, कैसे हम देर तक स्तब्ध रहते हैं, यह सब एक अच्छी कविता ‘पुल पर गाय’ से पता चलता है-

सब तरफ बर्फ है खामोश
जले हुए हमारे घरों से ऊँचे हैं
निपते पेड़
एक राह-भटकी गाय
पुल से देख रही है
खून की नदी
रंभाकर करती है
आकाश में सुराख
छींकती है जब भी मेरी माँ
यहाँ विस्थापन में
उसे याद कर रही होती है गाय
इतने बरसों बाद भी
नहीं थमी है खून की नदी
उस पार खड़ी है गाय
इस पार है मेरी माँ
और आकाश में
गहराता जा रहा है
सुराख।

    दो-दो माँएँ हैं इस कविता में। एक गाय, एक माँ। गाय धरती माँ है। कश्मीर है। जिसके दर्द की आवाज से आकाश में सुराख हो रहा है और बढ़ता ही जा रहा है सुराख। अर्थात दर्द की आवाज और तेज होती जा रही है। कविता इससे आगे कहती यह है, इस विडम्बना से साक्षात्कार कराती है कि आसमान से अमन की जगह हिंसा की बारिश जारी है। गाय माँ की भटकती हुई आत्मा भी बन जाती है। गाय एक हिंदू परिवार की आवाज भी बन जाती है। कई अर्थछवियाँ हैं, इस कविता में। यह कवि की खूबी है कि वह अनेक अर्थछवियों को अस्पष्ट होने से बचाता है। अग्निशेखर की और भी कविताएँ इस संकलन में हैं, दिल्ली में पुश्किन,  पीजा, बर्गर और नाजिम हिकमत, बिरसे में गाँव, याद करजा है बच्चा, तेरी डायरियाँ, माली।  इन कविताओं में संवेदना की बारीक बुनावट के भीतर विचार का एक कोड़ा भी है, जो हमारे समय के यथार्थ से मुठभेड़ करता है। जैसे अग्निशेखर कश्मीर की जगह जम्मू में हैं, उसी तरह केशव तिवारी प्रतापगढ़ की जगह बाँदा में हैं। पर यह दर्द उतना बड़ा नहीं है। इसलिए कि केशव बाँउा में रह कर भी एक प्रतापगढ़ बना लेते हैं। कहना चाहिए कि बाँदा में रच-बस जाते हैं। वहाँ के लोक का हिस्सा हो जाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि अपने जनपद में नहीं हैं। जहाँ हैं वही उनका जनपद हो जाता है। केशव की कविता में जन के पद की और जनपद की, दोनों की गूँज है। यही बात केशव में मुझे काफी अच्छी लगती है। कई जनवादियों को इधर हिंदी कविता और आलोचना में विलक्षणतावादी होते इतना देखा है कि लगता है कि वे हैं तो शुद्ध विलक्षणतावादी पर अपनी प्रगतिशीलता की दुकान बचाए रखने के लिए संगठनों में शामिल हो गये हैं। वे जनविरोधी भाषा में जनवादी कविताएँ और आलोचना लिखते हैं। कविता और आलोचना के इस अकाल में इधर के कवियों में केशव अच्छे लगते हैं। इसलिए कि जो लिखते हैं, वह जीते हैं। जीवनानुभव के धनी कवि केशव की कुछ कविताओं पर एक छोटे-से नोट पहले भी कह चुका हूँ कि कुछ नये कवि शोर बहुत करते हैं और काम कम। कुछ कवि चुपचाप अपना काम करते हैं। शयद ऐसे ही कवि हैं केशव तिवारी। केशव की कविताओं से मिलकर बहुत अच्छा लगा। हमारे समय और जीवन और खासतौर से लोकजीवन की भूमि पर रची साफ-सुथरी कविताएँ भला किसे अच्छी नहीं लगेंगी। केशव की कविताएँ इसलिए भी अच्छी लगती हैं कि इनमें जीवन की सहजता और लय की तरह कविता का जीवन भी बहुत सहज और आत्मीय है। केशव के लोक की एक बड़ी विशेषता है कि केशव का लोक अपने परिसर का विस्तार करता है। अपने अंचल से बाहर जहाँ-जहाँ लोक है, लोक के जन हैं सब केशव की कविता में रच-बस जाते हैं। जीवन जहाँ भी है, सुख-दुख की डोर के बीच तना है। ‘कल रात’ का छत्तीसगढ़िया मजदूर भी केशव की कविता की आत्मा का सहचर बन जाता है-

‘सोचता हूँ जैसे मैं अवध
और बुदेलखण्ड को चाहता हूँ
मेवाती मेवात को
भेजपुरिया भोजपुर को चाहता होगा
क्ल रात बतिया रहा था
दोस्त के ईंट-भट्ठे पर
सपरिवार काम करने आये एक छत्तीसगढ़िया मजदूर से
वह शराब में डूबा बता रहा था अपने लोगों की बदमाशी
कैसे अपने ही लोगों ने लिखाया झूठा मुकदमा
सयानी होती बिटिया पर कसे छींटे
कई-कई बार बोला वह
एक रोटी खाकर भी न छोड़ता देश
रोटी ही नहीं ये वजहें भी थीं सब छोड़ने की
बोला सालों से नहीं गया दुर्ग और न जाना चाहता है
चलते-चलते मैंने कहा-
कल में जा रहा हूँ दुर्ग
तुम भी तो पाटन के लिए उतरते होगे वहीं
जाने क्या छुपा था उसकी
नाराज आँखों के बीच
कि अचानक छलकने लगा बाहर
शराब के नशे में शिथिल
उदास आखों को इस तरह रोते मैंने
देखा पहली बार।’

    इस कविता में एक लोकमन को ही नहीं, कवि की आत्मा के साथ अपनी आत्मा को भी रोते हुए देख रहा हूँ। मजदूर तो कविता के भीतर रो रहा है। हम बाहर। यह कविता की ताकत है। कश्मीर कहाँ नहीं हैं। जुल्म ढ़ाने वाले कहाँ नहीं हैं। कभी रोटी की वजह से तो कभी बेदखल करने की वजह से, विस्थापन कर क्रम चलता रहता है। जीवन का यह क्रम हर जगह है। लेकिन सच्चाई यह कि हम जहाँ जाते हैं और जिन्दगी के बीस-तीस साल गुजारते हैं, वह जगह हमारी भी हो जाती है। हम उस जगह के हो जाते हैं। स्वर एकादश में केशव की कुछ और अच्छी कविताएँ हैं-दिल्ली में एक दिल्ली यह भी, रातों में कभी-कभी रोती थी मरचिरैया, बिसेसर। सभी कविताएँ अच्छी हैं। सब के बारे में कहने का न तो अवकाश नहीं हैं। अग्निशेखर और केशव तिवारी के बाद बाकी कवियों में जिन कवियों ने ध्यान खींचा है, बिना क्रम के मैं उनके नाम लेना चाहूँगा। कवि की उम्र का कविता के अच्छे होने या यादगार होने से कोई संबंध नहीं है। मुझे अच्छा यह लगा कि हिंदी की पारंपरिक शिक्षा न लेने वाले कई कवि जिन्होंने इतर विषयों में डिग्री ली है, उनकी कविताएँ पानी की तरह तरल, सहज और सरल हैं। इतनी पारदर्शी और इतनी कोमल कि पूछिए मत। सीधे हृदय को छू जाती है। इन कवियों में सबको एक जैसे महत्व का कह पाना मेरे लिए मुश्किल है। कविताएँ सभी कवियों की अच्छी हैं, पर मेरे लिए सभी कवियों की सभी कविताओं को उल्लेख के लिए पसंद कर पाना मुश्किल है। संतोष चतुर्वेदी, महेश पुनेठा, भरत प्रसाद, सुरेश सेन निशांत, राज्यवर्द्धन, राजकिशोर राजन और कमल जीत चौधरी की कुछ कविताएँ काफी पसंद आयीं। जबकि काव्यभाषा की दृष्टि से अधिक ध्यान खींचा है संतोष कुमार चतुर्वेदी, राजकिशोर राजन, महेश पुनेठा और कमलजीत चौधरी ने। अधिक उम्र के कवियों की भाषा तो अच्छी है ही। इसलिए उनका नाम नहीं ले रहा हूँ। पर ध्यान देने की बात यह कि काव्यभाषा अच्छी होने के बावजूद किसी कविता के उल्लेखनीय बनने की और भी वजहें होती हैं। विषय का चुनाव और कविता की बनावट और बुनावट और फिर कविता को एक निश्चित परिणति तक ले जाने का हुनर, इन सब कई बातों पर मेरा ध्यान जाता है। संतोष चतुर्वेदी की कविताओं ने इन्हीं खूबियों की वजह से खासतौर से ध्यान खींचा है। सच तो यह कि इधर हिंदी की पारंपरिक पढ़ाई न करने वाले कई कवियों ने अपनी प्रतिभा और कविता के प्रति दीवानगी की वजह से अच्छा काम किया है या अपनी कविताई के प्रति भरोसा पैदा किया है। संतोष, महेश, राज्यवर्द्धन आदि शायद ऐसे ही रचनाकार हैं। संतोष कुमार चतुर्वेदी की ‘पानी का रंग’ कविता को देखकर मैं दंग था। जैसे एक-एक शब्द से छन कर बह रहा है कविता का पानी। संतोष की कविता का पानी, जीवन का पानी है, सार है, अर्थ है-

‘अनोखा रंग है पानी का
सुख में सुख की तरह उल्लसित होते हुए
दुख में दुख के विषाद से गुजरते हुए
कहीं कोई अलगा नहीं पाता पानी से रंग को 
रंग से पानी को कोई छननी छान नहीं पाती
कोई सूप फटक नहीं पाता
और अगर ओसाने की कोशिश की किसी ने
तो खुद ही भीग गया आपादमस्तक.....’                

           महेश चंद्र पुनेठा की अपनी पहली ही कविता ‘प्रार्थना’ से अपनी कविताई और खासतौर से काव्यसंवेदना के प्रति भरोसा पैदा करते हैं-

‘विपत्तियों से घिरे आदमी का
जब नहीं रहा होगा नियंत्रण परिस्थितियों पर
फूटी होगी उनके कंठ से पहली प्रार्थना
विपत्तियों से उसे बचा पायी हों या नहीं प्रार्थना 
पर विपत्तियों ने अवश्य बचा लिया प्रार्थना को।’       

      पर महेश की कोई आठ कविताओं में मुझे एक नई दुनिया के निर्माण की तैयारी इसलिए ज्यादा अच्छी लगी कि कवि कविता के नये क्षेत्रों में जाने का साहस है। आटा गूँथती स्त्रियों के बहुत से चित्र कविताओं में मिल जायेंगे। पर तेरह बरस के बेटे को आटा गूँथते हुए देखना और उस पूरे प्रसंग में किसी सपने को पकते हुए देखना, देखते बनता है। कविता में इधर नये चरित्रों की मौजूदगी कम हुई है। लेकिन अभी भी कई कवि स्मृतियों के बहाने ही सही जीवन को भासमान करने वाले चरित्रों को लेकर आ रहे हैं। राजकिशोर राजन अपनी पीढ़ी के कवियों में ध्यान खींचते हैं। इस पीढ़ी के कवि सचमुच अच्छा लिख रहे हैं। राजन की ‘सुनैना चूड़ीहारिन’ एक ऐसी ही उम्दा कविता है। राजन का संग्रह भी देख चुका हूँ। संभावनाशील कवि हैं राजन। नोट की सीमा है, इसलिए राजन की कविता का अंश नहीं दे रहा हूँ। राजन से उम्र में छोटे पर उतने ही संभावनाशील कवि कमलजीत चौधरी की भी कविता का अंश नहीं दे पा रहा हूँ। कमलजीत चौधरी की भाषा ध्यान खींचती है। छोटी-छोटी पंक्ति में टटके बिम्ब हैं। भरत प्रसाद भी अपनी कविता की ताजगी की वजह से ध्यान खींचते हैं। ताजगी सिर्फ नये विषयों की खोज में नहीं होती, कभी-कभी पुराने विषयों की नयी कहन में भी ताजगी दिख जाती है, ‘रेड लाइट एरिया’ एक ऐसी ही कविता है-

‘सब कुछ लुट जाने के बावजूद
उसकी आँखों में अभी कितना पानी शेष है
यकीन नहीं होता कि वह अभी भी
हँस सकती है, रो सकती है, नाच सकती है, खुश हो सकती है
सबसे आश्चर्यजनक यह कि वह अभी भी प्यार कर सकती है
खैर मनाइएआपके आदमी होने से अभी उसका विश्वास नहीं उठा है’            
        
          इन कवियों की सभी कविताओं में कविता होने का भरपूर अहसास भी जिन्दा है। निशांत की ‘गुजरात’ कविता गुजरात को पिछले दिनों की साम्प्रदायिक घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में देखते हुए भी उस धरती में भरोेस के बीज अंकुरण किया है। भले ही बेटे के गुजरात जाने के संदर्भ विशेष की वजह से। पूरी कविता अपनी लंबाई ही नहीं बल्कि गहराई से भी पाठक को बाँधकर रखती है। संपादक राज्यवर्द्धन की यह चिंता स्वाभाविक है कि समकालीन हिंदी कविता में ‘अमूर्तन की प्रवृत्ति बढ़ी है तथा अबूझ बिम्बों की बाढ़ आयी हुई है। कतिवा जो कहना चाहती है, वह पाठकों तक ठीक-ठीक संप्रेषित नहीं हो पा रहा है।’ इस नजरिये से ‘स्वर एकादश ’को देखें तो कहना होगा कि संपादक राज्यवर्द्धन का यह प्रयास अपने उद्देश्य में सफल है। यह तो पक्का है कि इस संकलन में संप्रेषण का सकंट नहीं है। लेकिन मित्रो, जितना जरूरी है किसी कविता को अबूझ बनने से बचाने का उपक्रम उतना ही जरूरी है किसी कविता को अच्छी कविता बनाने की कोशिश। एक पहिए में जरा-सा नुक्स होगा तो दूसरा ठीक से काम नहीं कर पाएगा। अभी इस पर रास्ते पर काफी काम बाकी है। अंत में कवियों से यह कि पसंद करने वालों के भरोसे पर ध्यान देंगे तो आगे अपनी कविता को और बेहतर करेंगे। बेहतर की उम्मीद है।