गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

नई सदी की काव्यालोचना की मुश्किलें

- गणेश पाण्डेय -

मित्रो! आप सब हमारे समय की काव्यालोचना की मुश्किलों के बारे में मुझसे बेहतर जानते होंगे। इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है। संदेह तो मुझे कहीं भी नहीं है, आप पर भी नहीं है, आप को कहीं हो तो मैं कह नहीं सकता। अपने समय की काव्यालोचना के बारे में मुझे कोई संदेह नहीं है, मैं सिर्फ यह कह सकता हूँ और कहने की कोशिश कर रहा हूँ। हमारे समय की काव्यालोचना दरअसल काव्यालोचना है ही नहीं, बल्कि कुछ और है। यह जो कुछ और है, इसके बारे में मुझे कोई संदेह नहीं है। यह बात मैं फिर से कह देना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि अब आप मुझसे कहना चाह रहे हैं कि मैं फिर अपनी उस बात को कहने में इतनी देर क्यों लगा रहा हूँ जो संदेह से परे है। असल में मित्रो, संदेह मुझे नहीं है पर उन्हें तो है। उन्हें जो संदेहवादी कवि या संदेहवादी क्रांतिकारी कवि हैं। उन्हें संदेह है कि जब तक कोई अच्छा या बुरा या धंधेबाज या महाखराब आलोचक उनकी कविता पर उनके जीवित रहते उन्हें प्रमोट करने के लिए दो शब्द कह नहीं देता, तब तक उनकी कविता और वे अमरता की सीढ़ी पर चढ़ नहीं सकते। मैं नहीं जानता, पर क्या पता संदेहवादी कवियों और संदेहवादी क्रांतिकारी कवियों को पता हो कि कबीर, सूर, तुलसी, जायसी वगैरह बहुत से कवियों को प्रमोट करने के लिए अनेक नामी-गिरामी आलोचक भक्तिकाल मेे भी रहे होंगे, शायद उन्हें यह भी पता हो कि निराला और मुक्तिबोध को भी इन्हीं या किन्हीं आलोचकों ने प्रमोट किया होगा, अन्यथा वे भी हिंदी के हजारों कवियों की तरह गुप्तकवि बन कर रह गये होते और कोई उन्हें जानने वाला नहीं होता। इसीलिए संदेहवादी मित्रकवि चाहते होगे कि जीवनकाल में ही प्रमोट हो लिया जाय नहीं तो बाद में गुप्तकवि या महागुप्तकवि बनने का खतरा बना रहेगा। असल में मित्रों हमारे समय के हिंदी के ये मित्रकवि पैदा ही अमर होने के लिए हुए हैं, कोई और बड़ा-छोटा काम करने के लिए नहीं। ये जनमुक्ति के गीत के बीच-बीच में अपनी अमरता की टेक सुनाने के लिए पैदा हुए हैं। ये अपने समय के उपेक्षित और पीड़ित जन और प्राणियों के जीवन की रक्षा के लिए नहीं बल्कि कविता की दुनिया में अपनी अक्षुण्ण यशाकांक्षा के लिए पैदा हुए हैं। ये यह भी नहीं जानते कि यशाकांक्षा कविता का प्रयोजन उनके लिए है जिनके लिए कविता प्रतिपक्ष की आवाज नहीं है, जिनके लिए कविता प्रतिरोध का पर्याय नहीं है, जिनके लिए कविता स्वाधीनता और मुक्ति का वाहक नहीं है, बल्कि जिनके लिए कविता सिर्फ और सिर्फ मौज-मस्ती की चीज है। किसी बड़े संपादक या आलोचक की महफिल में कवि या कवयित्री के अश्लील नाच-गाने के बाद संपादक और आलोचक के मुँह या आँखों या देह के किसी भी हिस्से से निकलने वाली वाह-वाह नहीं है कविता। कविता क्या है और कविता क्या नहीं है, इस पर अन्यत्र कह चुका हूँ। यहाँ तो कहना यह है कि वाह-वाह नहीं है आलोचना। आज की वाह-वाह वादी आलोचना ही नई सदी की आलोचना की सबसे बड़ी मुश्किल है। क्या-क्या नहीं ढ़ूँढ लाते हैं आज के काव्यालोचक। औसत से भी कम कविता के लिए दिल्ली और गोरखपुर के बड़े और छोटे मशहूर आलोचक तारीफों के बीस-बीस किलोमीटर लंबे पुल बाँधते हैं तो दूसरी ओर यूपी और दिल्ली के युवा आलोचक बाहर के नामीगिरामी लेखकों और कवियों के उद्धरणों को ठँूस-ठूँस कर भूसे का बोरा बना देते हैं। आप ही बतलाइए कि आलोचना के नाम पर की जा रही यह कबूतरबाजी और कतरनबाजी ही आलोचना है ? अभी-अभी पैदा हुआ कवि दो मिनट में आलोचक की कृपा से किसी लेख या भाषण में महाकवि बन जाने के लिए सौभाग्यशाली है। उसे कबीर, तुलसी, निराला, मुक्तिबोध की तरह लंबे समय तक किसी तनाव में रहने या आत्मसंघर्ष की जरूरत नहीं है। एक आलोचक के हस्ताक्षर से उसे सारे तनावों से चुटकियों में मुक्ति मिल जाती है। नई सदी की चौखट पर पैर लटका कर बैठे हुए आलोचक कविता के स्वर्ग का टिकट बेचने वाले पोप बने बैठे हैं। कोई मार्टिन लूथर है जो स्वर्ग के टिकटों के गट्ठर को फाड़ कर चिंदी-चिंदी कर सके ? मैं आलोचक नहीं हूँ जो आलोचक हैं वे बेहतर बता सकते हैं कि आचार्य शुक्ल ने कविता के स्वर्ग के कितने टिकट बेचे हैं ? कितने नवजात कवियों को महाकवि बनाया है ? कितने नचनिये-पदनिये कवियों को लोककवि कहा है ? बहरहाल न आचार्य रहे और न काव्यालोचना के वैसे आचार-विचार रहे। अब तो आलोचक साहित्य का पथ निर्माता नहीं, सीधे पी.डब्ल्यू.डी. का माफिया ठेकेदार हो गया है। पथ ही नहीं कविता के देश को लूटना जिसके एजेंडे पर है। कविता बिटिया की लाज लुटती है तो लुट जाये। उसके ही हाथों यह सब होता है तो हो जाये। अच्छी कविता किसी की बेटी होती है, किसी की माँ होती है तो किसी की हीर होती है। अच्छी कविता किसी दुखीजन का बाम होती है। किसी की लाठी होती है। किसी का हाथ होती है। किसी की आँख होती है। और भी न जाने क्या-क्या होती है अच्छी कविता। ऐसे ही अच्छी आलोचना भी किसी की आँख होती है तो किसी का दिल और किसी-किसी के लिए तो पथप्रदर्शक और देवता होती है। पर इन सबसे बड़ी बात यह कि अच्छी आलोचना सच की बेटी होती है, झूठ का दलाल नहीं होती है। सच का रखवाला होता है अच्छा आलोचक। जो आलोचक अपने मित्र और हेली-मेली की कविता की अतिरंजित प्रशंसा करता है वह दरअसल अपने मित्र का ही सबसे बड़ा शत्रु होता है, फिर तो ऐसा आदमी कविता का कितना मित्र होगा ? इधर औसत कविताओं की बाढ़ का समय है। कविता के नाम पर ठस गद्य का अतरल संसार कविता विरोधी तो होता ही है, संवेदना विरोधी भी होता है। ऐसा गद्य इकहरे यथार्थ की नुमाइश लगाता है, कविता का आकाश नहीं रचता है। कविता के देश में हमें ले जाने की सामर्थ्य नहीं रखता है। जब तक हम कविता की नसों में संवेदना की तरलता का संचार नहीं करते, कविता का द्वार नहीं खुलता। कविता का फाटक खोलने के लिए किसी अलीबाबा की जरूरत नहीं होती है, बल्कि जिस चाबी की जरूरत होती है, उसे काव्यविवेक कहते हैं। काव्यविवेक अर्थात काव्य और अकाव्य में भेद करने की रचनात्मक शक्ति। जैसे कविता के फाटक को खोलने के लिए काव्यविवेक की जरूरत होती है, उसी तरह आलोचना की आँखों को धुलने के लिए जिस निर्मल और शीतल जल की जरूरत होती है, उसे आलोचक का ईमान कहते हैं। यह ईमान ही रोशनी है। यह ईमान ही आलोचना का देवता है।
     आज की आलोचना की तीसरी मुश्किल है आलोचना के ईमान के लोचनों का असमय बंद हो जाना। ईमान का बेईमान हो जाना। एक आलोचक का ईमान की दुनिया में सरेआम खुदकुशी कर लेना। एक अच्छा आलोचक अपनी लिखने की मेज पर सिर्फ और सिर्फ काव्यसत्य का मित्र होता है, ठीक उसी तरह जैसे एक न्यायाधीश अपनी न्यायपीठ पर सिर्फ और सिर्फ सच का दोस्त होता है। लेकिन जैसे न्याय मिल पाने में कई बाधाएँ आती हैं, कहीं-कहीं तो न्यायाधीश पर भी सुप्रीमकोर्ट ने टिप्पणियाँ की हैं। उसी तरह आलोचना के न्यायालय में भी आलोचक कुछ ज्यादे ही न्याय के रास्ते की रुकावट बनते हैं। कहना चाहिए कि न्याय को अन्याय से ढ़कने की कोशिश करते हैं। ऐसे बुरे वक्त में आलोचना की आलोचना की बात कितनी खतरनाक है मानस जी, आप मुझसे बेहतर समझ सकते हैं। आलोचना पर उंगली उठाने वाले की उंगली नहीं तोड़ी जाती है मानस जी, सीधे गला उड़ा दिया जाता है। हालाकि किसी गंदे से गंदे आलोचक में यह शक्ति नहीं होती है कि वह किसी अच्छी रचना की हत्या कर सके। वह एक संपादक के रूप में सिर्फ यह कर सकता है कि पूर्वांचल में पचास हजार से भी ज्यादे शिशुओं का जीवन छीन लेने वाली महामारी जापानी बुखार पर लिखी हुई कविता अपनी पत्रिका में न छापे, बल्कि कंडोम पर लिखी हुई कविता छापे। लेकिन कोई आलोचक साहित्य की सत्ता के मद में चाहे जितना पूंछ उठाकर घूम ले लेकिन देखने वाले साफ-साफ देखते हैं कि उसकी कौन-सी चीज खुली रह जाती है। उदय की एक कविता की याद यहाँ आ रही है। दिल्ली हो या गोरखपुर या कोई और शहर, एक नहीं कई उदय हैं जो आलोचकों की नाइंसाफी के शिकार हुए हैं। मैं यहाँ किसी का नाम नहीं लेना चाहता था, उदय से मेरा कोई संबंध भी नहीं है और न कभी कोई मुलाकात है, पर उस कविता की याद आ गयी जिसमें एक सिंह जब अपनी पूँछ उठा कर अकड़ के साथ चलता है तो उसकी कोई चीज खुली रह जाती है। किस्से हजारों हैं आलोचकों की धंधई के। एक ऐसे वक्त में जब आलोचना सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाले साहित्य के नम्बर एक धंधे के रूप में फल-फूल रही हो और कवि और आलोचक दोनों उससे तृप्त हों, तो फिर कुछ भी कहना और साहित्य के पत्थर पर अपना सिर पटकना कितनी समझदारी की बात है ? समझदारी की बात हो या न हो पर जिन्हें ऐसा कुछ कहने और सोचने की आदत है वे कहाँ जायेंगे ? वे तो सच कहने की कोशिश अंत तक करेंगे ही। कोई उनकी बात सुने या न सुने। क्या कोई कही हुई बात सिर्फ अपने समय के लोगों के लिए होती है ? उसे बाद में सुनने के रास्ते बंद हो जाते हैं क्या ? क्या फिर कभी हिंदी साहित्य के सच्चे सपूत पैदा ही नहीं होंगे ?
    नई सदी की आलोचना में ऐसे ही अंत तक चलता रहेगा, मैं नहीं मानता। आलोचक भी बदलेंगे और आलोचना भी। ऐसे ही नहीं चलेगा सब। झूठ और फरेब से चलने वाला आलोचना का नामी-बेनामी कारोबार एक दिन बंद हो जायेगा। क्योंकि कोई मशहूर से मशहूर आलोचक कितना जियेगा, कितना उछल-कूद करेगा आलोचना के नाम पर। एक न एक दिन आलोचना की जी.टी.रोड की बुरी स्त्री मरेगी और कोई सती उठ खड़ी होगी उसी राख से आलोचना को बचाने के लिए। मैं जाहिर है कि सारी चिंता काव्यालोचना को लेकर व्यक्त कर रहा हूँ। खासतौर से सिर्फ और सिर्फ अपने समय की आलोचना को ध्यान में रख कर अपनी बात कह रहा हूँ। नई सदी के दूसरे दशक में हम जिस आलोचना को देख रहे हैं, वह पाठकों और सीधे-सादे लेखकों का भरोसा खो चुकी है। विश्वसनीयता का संकट ही आज की आलोचना का चौथा सबसे बड़ा संकट है। आज पाठक रचना तो पढ़ता नहीं फिर आलोचना क्या खाक पढ़ेगा ? आज की कविताएँ कितने बड़े पाठक समुदाय के बीच जाती है ? आज कितने पाठक हैं नई सदी की कविता के ? नई सदी में कविताएँ वही पढ़ते हैं जो कविताएँ लिखते हैं। उसमें भी कुछ पाठक तो ऐसे भी हैं कि ऊपर-ऊपर से देख कर लिफाफा देख कर खत का मजमून भांप लेते हैं की तर्ज पर जान लेते हैं कि अन्दर क्या है और छोड़ देते हैं। अच्छी आलोचना का काम क्या पाठकों की अभिरुचि का परिष्कार करना नहीं होता है ? जब आलोचना अपने दायित्व से च्युत हो जाती है तो वह आलोचना तो बहुत दूर की चीज है, आलू-चना जैसा मूल्य भी नहीं पाती है। आलोचना जब खराब कविता को प्रमोट करती है तो कविता से पाठकों में विरक्ति का भाव पैदा होता है। कवि को देख कर उबकाई आती है। अच्छी आलोचना तब अच्छी आलोचना कहलाती है, जब वह अच्छी कविता को प्रमोट करती है। अच्छी कविता को प्रमोट करने वाली आलोचना और आलोचक ही समादृत होता है। तभी एक आलोचना मूल्यवान होती है और एक आलोचक पाठकों का भरोसा जीतता है। आचार्य शुक्ल ने खराब कवियों को प्रमोट किया होता तो उन्हें आज सम्मानपूर्वक याद नहीं किया जाता। आज के नामी-गिरामी बहुत ज्यादे मशहूर आलोचक की तरह सचमुच की लेंड़ी की तरह लेंड़ी भर कवियों को प्रमोट किया होता तो भी आज उन्हें कोई नहीं पूछता। ये लेंड़ियों वाले आलोचक भी बाद में याद नहीं किये जायेंगे। कह सकते हैं कि एक भी लेंड़ी इन्हें पूछेगी नहीं।
       नई सदी के आलोचक भी लेंड़ियों की तरह ही हैं। जब आलोचना कुछ का कुछ कहने लगेगी। आम को इमली और औरत को मर्द बताने लगेगी तो आलोचक कितना छोटा हो जायेगा, कहने की बात नहीं। आप सब अच्दी तरह जानते होंगे ऐसे आलोचकों की कारस्तानी। काव्यालोचना के संकुचन की कुछ अन्दरूनी वजहें हैं, जिन्हें बता देने का वक्त आ गया है। ये अन्दरूरी वजहें नई सदी की आलोचना की पाँचवीं बड़ी वजह है। आज के युवा आलोचक उस कवि को देखते ही घूँघट काढ़ लेते हैं जो किसी विश्वविद्यालय में ऐसे क्रम में होता है जो विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर न बैठ सके और जिसकी अपने विभाग के हिंदी के शत्रुओं से बीसियों वर्षाें से ठनी हो, जो अपने अध्यक्षों को उनकी साहित्यिक हैसियत बताता चलता हो या कुछ न कह कर भी स्वाभिमान पूर्वक रहता हो। युवा आलोचक ऐसे खतरनाक कवि से इसलिए दूर रहना पसंद करते हैं कि उस विभाग के दिग्गज कहीं नाराज हो गये तो उस विभाग में प्रोफेसर बनने की संभावनाएँ खत्म हो जायेंगी। इतना ही नहीं अनेक आलोचक ऐसे हैं जो चयन समितियों भी रहते हैं, इसलिए युवा आलोचक उनके सामने कुछ भी डटकर बोलने में डरते हैं। आशय यह कि कैरियरवाद ने हिंदी आलोचना का काम तमाम करने की कोशिश की है। मुझे बीस-बाइस साल पहले बस्ती में अपने सरकारी आवास में शिवमूर्ति की कही बात आज शिद्दत से याद आती है कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग लेखकों के लिए कत्लगाह हैं। नई सदी के हिंदी विभागों की दशा आज तब से बहुत ज्यादे खराब है। आज तो लेखकों का ही नहीं बल्कि बाकायदा साहित्य का कसाईबाड़ा है। आलोचना जाहिर है कि विश्वविद्यालयों के आचार्यों की आत्मजा भी है और परिणीता भी। इसलिए कह सकते हैं कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग आलोचना का मायका और ससुराल दोनों हैं। जैसे कभी-कभी जीवन में ऐसा होता है कि मायके और ससुराल में कोई बड़ा-बुजुर्ग जिंदा नहीं रहता है तो सब बड़ा सूना-सूना -सा लगता है। नई सदी की आलोचना का परिसर बड़ा सूना-सूना -सा लग रहा है। यह सूनापन जितना हिंदी विभागों के परिसर में है उतना ही उससे बाहर के परिसर में भी। युवा आलोचकों की एक जमात हिंदी विभागों से बाहर भी है। कोई आकाशवाणी में है, कोई दूरसंचार विभाग में तो कोई बैंक या रेल या किसी और विभाग में। पर एक बात इनमें जो सामान्य रूप से एक है, वह यह कि ये विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में न होने के बावजूद निडरता के मामले में एक जैसे कमजोर हैं। एक आलोचक में मर्मग्राहिणी प्रज्ञा, तीक्ष्ण अन्वीक्षण बुद्धि और विस्तृत अध्ययन का होना लाजिमी तो माना गया, पर पहले के बड़े आलोचकों ने सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि एक दिन आलोचक ईमान की पीठ पर बैठ कर आलोचना लिखेगा, नहीं तो वे यह भी जोड़ते कि एक आलोचक में इन तीनों के साथ चौथी और सबसे जरूरी चीज जिसे होना चाहिए वह है सच कहने का साहस। दुर्भाग्य यह कि सचमुच के बड़े आलोचक चले गये। आज के झूठमूठ के बड़े आलोचकों ने युवा आलोचकों से कहा ही नहीं कि निडरता अच्छी आलोचना की पहली शर्त है। आलोचना की मेज पर बैठो तो भूल जाओ कि किसने क्या फतवा जारी किया है। किसने किस लेखक को प्रमोट किया है और किसका नाम नहीं लिया है। सब दूसरों का कहा ही करोगे तो तुम्हारी बुद्धि क्या सिर्फ घास चरने के काम आयेगी ? क्या होगा तुम्हारी मर्मग्राहिणी प्रज्ञा क्या ? तुम्हारी तीक्ष्ण अन्वीक्षण बुद्धि शर्मिन्दा नहीं होगी ? तुम्हारा विस्तृत अध्ययन किस काम आयेगा, तुम्हारे अज्ञान को प्रकट करने के काम आयेगा ? क्यों नहीं तुम आलोचना के उस भ्रष्टाचार का भांडा फोड़ते, जिसके लिए तुम्हें साहित्य का देश टकटकी लगाये देख रहा है ? वक्त तुम्हारा फोटो खींच रहा है। कहाँ खड़े हो तुम ? किस महाबली के चरणों में अपनी मुक्ति की तलाश कर रहे हो ? कहीं तुम आलोचना के साथ-साथ अपनी भाषा, अपने देश के साहित्य और अपने लोगों के साथ छल तो नहीं कर रहे हो ? आज की तारीख में यह सवाल नश्तर की तरह चुभता है कि क्या नई सदी में हिंदी की आलोचना एक खूबसूरत छल है ? जिसके जाल में सबको फंसना है। नहीं, यह बात एक हद तक तो सच है लेकिन सौफीसदी सच नहीं है। क्यों कि ऐसा होता तो आलोचना के छल के इस जाल को तोड़ने की कोशिशें इस तरह तीव्र नहीं होतीं। यह जरूर है कि हमारे सामने आलोचकों की जो जमात है, उसमें जो हैं होकर भी नहीं हैं। जो नहीं हैं उनकी जरूरत है। साहित्य में नये की निरंतरता अबाध है। उसे कोई रोक नहीं सकता। कोई महाबली कोई मुंशी कोई मीडियाकर। एक न एक दिन नये पत्ते आते हैं और छा जाते हैं। नये पत्ते आयेंगे और छा जायेंगे। एक दिन नई सदी में आलोचना की नई आमद की किलकारियों से आलोचना का घर फिर से भासमान होगा और काव्यालोचना की मुश्किलों के अंत की जोरदार शुरुआत देख कर यहाँ से जाने का सुयोग हमें जरूर मिलेगा। मित्रो ! यह सुयोग ही हमारी साहित्यिक मुक्ति होगी।
                                                                                                                        




                                                                                   
                                                                             गणेश पाण्डेय  Ganesh Pandey