सोमवार, 20 मई 2013

आत्ममुग्धता का संसार

-गणेश पाण्डेय

सोचा है नत हो बार-बार -
‘‘ यह हिंदी का स्नेहोपहार
है नहीं हार मेरी, भास्वर
यह रत्नहार लोकोत्तर वर’’ -
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य कला-कौशल प्रबुद्ध
हैं दिये हुए मेरे प्रमाण
कुछ नहीं, प्राप्ति को समाधान
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त।
    ‘सरोज-स्मृति’ का यह अंश पता नहीं क्यों मेरे भीतर उमड़-घुमड़ रहा है। निराला  क्यों कहते हैं कि मेरे समय के दिग्गजों का काम मेरे काम से मिला कर देख लो। गद्य और पद्य दोनों में। निराला अपनी बेटी के महाशोक में आखिर झूठ क्यों बोलेंगे कि उनका काम अच्छा है, मिलाकर देख लो। यह एक ईमानदार लेखक का सच है या अहंकार या आत्ममुग्धता या आत्मप्रचार या आत्मप्रशंसा या नासमझी ? आखिर एक बड़ा लेखक अपने बारे में क्यों कुछ कह रहा है ? क्यों नहीं अपने समय के साहित्य के प्रभुओं या आलोचक के पैर पकड़कर विनती कर रहा है कि आप कुछ कह दीजिए ? 
  असल में इधर कुछ लेखक या लेखकनुमा लोग किसी लेखक द्वारा अपनी पत्रिका में या अपने ब्लॉग पर या किसी लेखक द्वारा कहीं भी अपनी रचना देने या खुद के लेख में खुद का उदाहरण देने पर उसके लिए आत्ममुग्धता या आत्मप्रचार जैसे पदों का प्रयोग करते हैं। यह बुरा नहीं। जरूर कहिए, एकबार नहीं, मैं तो कहूँगा कि हजार बार कहिए, लेकिन निवेदन सिर्फ यह करना चाहता हूँ कि किसी को भी ऐसा कहते वक्त अपनी आँखें खुली रखिए, बस। बंद आँखों से ऐसा कुछ करेंगे तो दुर्घटना हो सकती है। आप लेखक लोग हैं चाहे संपादक लोग हैं तो भी भाई अपनी आँख तो खुली की खुली ही रखिए। असल में एक बड़े संपादक जी आभासी दुनिया के दैनिक बल्कि कहिए कि क्षण-प्रतिक्षण के अखबार पर भी पहले पेज से लेकर अखीर तक के पन्नों पर इतना फैल गए हैं कि पूछिए मत। उनकी देखादेखी कई लेखक और लेखकनुमा लोग भी पसर गए हैं। जहाँ हैं वहीं से हुक्का गुड़गुड़ाते हुए और बात-बात पर उन्हीं की तरह कुछ न कुछ छोड़ते हुए आत्ममुग्धता या आत्मप्रचार जैसे मीठे-मीठे पद भी छोड़ रहे हैं। कभी-कभी वे भले मित्र भी इस पद के शिकार हो जा रहे हैं, जो दुर्भावना में इस पद का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। ऐसे भले मित्रो से ही संवाद करता हूँ।    
    तो मित्रो, बेचैनी यह कि वे लेखक क्या करें, जिन्हें आलोचकों या संपादकों के दरबार में मत्था टेकना नहीं आता ? वे लिखना छोड़ दें ? अपने समय की बेईमानियों के खिलाफ कुछ कहना छोड़ दें ? साहित्य के भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज हमेशा के लिए बंद कर दें। कविता या आलोचना का अफसर बन जाएँ या उनके अनुयायी बन जाएँ या जेएनयू के उस्ताद के गैंग में शामिल हो जाएँ ? किसी संगठन या गिरोह में चले जाएँ ? साहित्य की सत्ता के पीछे रहने वाले किसी संपादक के पीछे लग जाएँ ? जो कहीं नहीं जाना चाहते, सिर्फ अपना काम करना चाहते हैं, आखिर ऐसे लेखक क्या करें ? कहाँ जाएँ ? आप लोग गुणीजन हैं, बताएँ ? ऐसे लेखक जिंदा न रहें ? मर जाएँ ? क्या करें ?       
                                                                        (2)
    यह समय साहित्य की राजनीति करने के लिए सबसे उपयुक्त है और रचना या आलोचना में काम करने के लिए सबसे मुश्किल। उस्ताद लोग किस दौर में नहीं होते हैं, इस दौर में भी हैं। रचना और आलोचना का कारखाना चालू है। किसी उत्पाद की तरह रचना भी और आलोचना भी। कुछ तो हर दौर में ऐसे होते ही हैं जो रचना और आलोचना का काम अपने ढ़ंग से करते हैं। अपनी हथेली की छाप लगाते हैं। अपने खून और पसीने से उसे रंगते हैं, पर ऐसे सिरफिरे बहुम कम होते हैं। यह कोई जरूरी नहीं कि ये कोई बड़ा थान बुन सकें, एक रूमाल ही सही, बुनते हैं तो अपनी तबीयत से। सच तो यह कि ऐसे लोग अपने समय में अक्सर अदेख रहते हैं। अक्सर देखने की आँख सत्ता के पास होती है। देखने के काम में लगाए गए लोग सत्ता के गुलाम होते हैं। वे सिर्फ उतना ही देखते हैं जितना देखने के लिए सत्ता कहती है। जिस कवि को देखने का हुक्म दिया जाता है तो कभी उसका नाम लेकर तो कभी उसके गले में इनाम की तख्ती डालकर। कभी-कभी कुछ मित्र भी नाम की राजनीति पर ध्यान न देते हुए बड़ी सदिच्छा के साथ कुछ कवियों का नाम लेकर कहते हैं कि ये हमारे समय के बड़े कवि हैं। कई कवि चुपचाप सुनते रहते हैं। कोई-कोई कवि, कोई -कोई क्यों, चंपा पर कविता लिखने वाले कवि ने कहा ही कि प्रगतिशील कवियों की लिस्ट निकली है और उसमें मेरा नाम नहीं है। क्या लिस्ट का विरोध करने वाले कवि आत्ममुग्ध होते हैं ? वे अपने को बड़ा कवि या प्रगतिशील कवि समझते हैं, यह गुनाह है ? मैंने भी हमारे समय की कविता पर धुआँधार लिखने वाले अपने आलोचक मित्र से एकबार पूछा कि अमुक कवि की यादगार कविता कौन-सी है ? मेरे मित्र ने बहुत साधारण कविता को कहा कि बस यही है। मशहूर कवि के बारे में पूछा था। एक लालबत्ती कवि के बारे में पूछा था। दुर्भाग्य से मुझे लालकवि तो पसंद आते हैं, पर लालबत्ती कवि कम पसंद आते हैं। मेरी इच्छा हुई कि मैं अपने दूसरे मित्र से लिस्ट के नामों के बारे में कुछ पूछँू, पर मैंने उनसे पूछना मुनासिब नहीं समझा। इसीलिए गुणीजनों से जानना चाहता हूँ कि आज के प्रतिष्ठित कवियों की ऊँचाई देखने के लिए क्या करना चाहिए ? उनको मिले तमगों को देखना चाहिए या उनकी रचनाओं को ? क्या यह सुविधाजनक नहीं होगा कि कम जानकार लोगों के लिए लालबत्ती कवियों की एक-एक या दो-दो या पाँच-पाँच कविताओं की के नाम चुनौती के रूप में, कम जानकार लोगों के लिए रखें जाएँ और उनसे उनके समय के बाकी कवियों की रचनाओं का मिलान किया जाय ? मेरा ख्याल है कि पाँच की संख्या ठीक रहेगी। दिक्कत यह कि अक्सर लोग प्रगतिशील कवियों की लिस्ट लेकर बात करते हैं, उनकी कविताओं को सामने नहीं रखते हैं। ऐसा करने से आलोचना का भ्रष्टाचार कुछ कम होगा। कुछ कम इसलिए कि कोई अंधा अड़ जाएगा कि यही कविता बहुत अच्छी है तो कोई क्या कर लेगा ? पर अच्छी बात यह कि सब कविता के अंधे नहीं हैं। कुछ हैं जो सच जानते हैं, पर साहित्य के चमकीले झूठ के बाजार में बड़े-बड़े आढ़तियों की वजह से मजबूर हैं।
  मैंने अपने स्थानीय आलोचक मित्र से कई बार कहा कि समय आ गया है जब हमें कवियों की माला की जगह कविताओं के गुलदस्ते को हाथ में लेना चाहिए। गुणीजनों से भी कह रहा हूँ। यों कवियों के नाम से समस्या नहीं है, समस्या गलत नाम से है। जब आप काम देखने के बाद मजदूरी देते हैं तो रचना का काम देखकर मजदूरी क्यों नहीं ? अच्छा काम करने वाले को उचित मजदूरी क्यों नहीं ? कविता देखने का काम कोई मनरेगा है कि आलोचक जी लोग बिना काम के मजदूरी का बंदरबाँट करेंगे ? यही हाल तो आलोचना का भी है। वहाँ भी एक छोटी लालबत्ती बँटने लगी है। नये आलोचक पुरानी लीक पर चलने का इनाम पा रहे हैं।
                                                                        (3)   
   कुछ ऐसा ही समय तब रहा होगा जब आधुनिक कविता के शीर्षस्थ कवि द्वारा कहा गया कि गेरा गद्य और पद्य हमारे समय के लोगों से मिलाकर देख लीजिए। खैर तब कहने वाले सचमुच बड़े लोग थे। आज कोई कहता है तो उसकी बेवकूफी है, क्यों ? बताइए गुणीजन, बेवकूफी है न ? आप चाहें तो बेवकूफी को बेवकूफी न कह कर आत्ममुग्धता कह सकते हैं। कह क्या सकते हैं, आप तो कहते ही हैं। मुझे भी कुछ लोगों ने उचित ही कहा कि मैं आत्ममुग्ध हूँ। यह तब की बात है जब यात्रा का पहला अंक निकाला और उसमें अपनी पाँच लंबी कविताएँ दीं। सामने तो खैर कोई क्या हँसेगा पर पीठ पीछे कुछ लोगों ने कहा होगा। बात मेरे कानों तक आयी तो मैंने अगले अंक में संपादकीय में लिखा कि इन-इन लंबी कविताओं के साथ इन-इन संपादकों ने यह-यह सलूक किया है। यह सवाल उठाया कि ऐसा क्यों कि अच्छी कविता भी लिखिए और आलोचकों और संपादकों के दरबार में शीश भी झुकाइए ? यह भी कहा कि भारतेंदु ने अपनी पत्रिका नाम ही अपने नाम पर रख लिया था भाई, मैंने तो ऐसा कुछ नहीं किया। काश, पूरा लेख यहाँ दे पाता। बहरहाल, फिर कभी। इस वक्त यह कि अपनी पत्रिका में अपनी रचना या लेख देना क्यों आत्ममुग्धता नहीं है ? मैं कुछ न भी कहूँ तो भी गुणीजनों पर भरोसा है। आलोचना की पत्रिका हो या कविता की, किसने अपना लेख या कविता नहीं दी है ? इसमें बुरा नहीं। अच्छी रचनाओं को सबके सामने नहीं आना चाहिए ? अच्छी रचनाओं पर सुधी पाठकों का ध्यान नहीं जाना चाहिए ? भ्रष्ट आलोचकों और संपादकों के मुँह पर अच्छी रचनाएँ फेंक कर नहीं मारना चाहिए ? हाल में मैंने एक मित्र से कहा कि मैंने अपने लेखों में कई जगह अपनी कविताओं का जिक्र किया है। मेरे ब्लॉग में हैं। कईबार तो साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया है। छोटी से छोटी लड़ाई में भी कईबार कुछ चीजों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करना पड़ता है। अन्यथा न लें तो कहना चाहूँगा कि मैंने अपनी उम्र के लोगों के मुकाबले महत्वपूर्ण भले न रचा हो पर एक बहुत छोटी-सी लड़ाई जरूर की है। आत्ममुग्धता के बारे में एक निवेदन जरूर है। आज की तारीख में आत्ममुग्ध कवि साहित्य की जमीनी लड़ाई की बात नहीं करते हैं। वे साहित्य में पीछे के दरवाजे से आते-जाते हैं। वे अपनी कविता पर कम और अपनी आत्मा का सौदा करके पाए पुरस्कारों और चर्चा पर मुग्ध रहते हैं। साहित्य के एक बहुत छोटे से कार्यकर्ता के रूप में आत्ममुग्ध तो नहीं पर स्वीकार करता हूँ कि मेरे पास ‘रत्तीभर आत्मसंघर्ष’ जरूर है और दुर्भाग्यवश साहित्य में हमेशा जमीनी लड़ाई की बात की है। मित्रो, मैं यहाँ अपने बारे में कुछ भी नहीं कहना चाहता था, पर दूसरों के लिए कभी-कभी अपनी बात भी नजीर के रूप में रखना जरूरी हो जाता है। 
    आत्ममुग्धता या आत्मप्रचार के बारे में सिर्फ मेरा ही पक्ष अंतिम नहीं है। कुछ ऐसे भी होंगे जो सिर्फ अपने को कवि के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए अपनी कविता का हजार बार पाठ करते होंगे। मैं इस शहर के कई बुजुर्ग कवियों पर पचास बार एकल काव्यपाठ करते देख चुका हूँ। कुछ नाम तो ऐसे हैं, जिनका सम्मान आप लोगों में से कुछ लोग या संपादकजी लोग भी करते होंगे। यह कहने का आशय यह कि आत्ममुग्धता का एक प्रकार यह भी है। यहीं बड़ी विनम्रता से और हाथजोड़ कर बहुत डरते-डरते कह रहा हूँ कि मैं खुद साठ के आसपास हूँ और यहाँ अब तक अपना एकबार भी एकल काव्यपाठ नहीं कराया है। कई बार कहा गया पर विनम्रतापूर्वक मना करता रहा। यह प्रसंग सिर्फ यह बताने के लिए कि यह आत्ममुग्धता नहीं है, बल्कि एक साधारण कवि का स्वाभाविक संकोच है कि अरे मैं क्या ? आत्ममुग्धता जैसी चीज रही होती तो पचास बार मैं भी यहाँ एकल काव्यपाठ कर चुका होता। असल में मेरे सामने सिर्फ अपना काम होता था और है। मैंने इस शहर में ही एक अति विनम्र और अति संकोची कवि को देखा था। जिनका नाम देवेंद्र कुमार है। देवेंद्र कुमार के बारे में एक कविता में मैंने लिखा है कि ‘‘ देवेंद्र कुमार को यहीं देखा/अपनी हीर कविता के लिए राँझा बनते।’’ यह कहने का आशय यह कि आत्ममुग्धता को एक तो गाली के रूप में न इस्तेमाल किया जाय, दूसरे हर किसी के लिए इस पद का इस्तेमाल न किया जाय। अपने को व्यक्त करना बुरा नहीं है। अपने को व्यक्त करने के लिए नाचने लगना बुरा है। यही आत्ममुग्धता है। आत्ममुग्धता के भी कई रंग हैं। क्या जीवन का एक ही रंग होता है ? क्या कविता का एक ही रंग होता है ? क्या एक ही रंग श्रेष्ठ है ? बाकी रंगों का कोई वुजूद नहीं है ? उसी तरह छोटी-बड़ी, खराब-बहुत खराब आत्ममुग्धता देख सकते हैं। यह कोई जरूरी नहीं कि हर कवि अपनी कविता को साक्ष्य के रूप में पेश करे कि लो देख लो, मिलान कर लो। हर कवि का उद्देश्य साहित्य के भ्रष्टाचार का विरोध करना हो, यह कोई जरूरी नहीं।
हो सकता कि वे अपनी रचना को अपने समय की आलोवना के खिलाफ एक सबूत के रूप में देने की बात उनके सामने न हो या अपने समय के साहित्य के भ्रष्टाचार का विरोध उनके साहित्य कर्म का उद्देश्य न हो। पत्रिकाओं और प्रकाशन संस्थानों का जैसा दृश्य हमारे सामने है, उसमें सिर्फ अपनी रचना का प्रसार ही उद्देश्य हो तो भी बुरा नहीं है। लेखक का शोषित और पीड़ित चेहरा मुझे परेशान करता है। जब यह खुद बड़े-बड़े प्रकाशन संस्थानों के प्रमुखों और संपादकों द्वारा इतना शोषित और पीड़ित तो जिस जन के गीत गाता है, उसे शोषण और उत्पीड़न से कैसे बचाएगा ? पहले खुद बचेगा तब तो ? साहित्य के पूँजीवाद के विरोध की बात मैं इसी सिलसिले में करता हँू।
                                                                     (4)
    आज मुश्किल यह कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की जिम्मेदारी जिनकी सबसे ज्यादा है, वे पत्रकार या संपादक भी कम से कम साहित्य के मामले में तनिक भी निडर नहीं हैं। अखबार को कभी तोप से बड़ी चीज समझा जाता था। आज साहित्य के प्रभुओं के सामने इनकी हैसियत चूहे से भी कम है। इधर एक संपादक जी शैकिया बहसों के बड़े उस्ताद के रूप में खुद को उभार रहे हैं। शौकिया इसलिए कि इस तरह की बहसों में उनके लिए कोई जोखिम नहीं है, खोना कुछ नहीं है। सिर्फ पाना है। ऐसे संपादकों का काम है सिर्फ लेखक संगठन और एससे जुड़े लेखकों की आँख मूँद कर बुराई करना और हिंदी के सबसे बड़े हितैषी के रूप में अखबारों के पुराने प्रूफरीडर की तरह चश्मा लगाकर वर्तनी दुरुस्त करने का काम करना। एक संपादक सिर्फ वर्तनी के कल्याण का कार्यक्रम चलाएगा तो हिंदी के प्राणवायु के लिए उपक्रम प्रूफरीडर करेगा ? साहित्य का भोंपू बजाने वाले अखबार का संपादक साहित्य के भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं बोलेगा तो आखिर हिंदी के भ्रष्टाचार के खिलाफ खेल या फिल्म की पत्रिका का संपादक बोलेगा ? ऊपर मैंने निडरता की बात की है। जहाँ तक मैं जानता हँू, जहाँ तक मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मैं विश्व साहित्य या विश्व पत्रकारिता का विशेषज्ञ नहीं हूँ, इसलिए अपनी छोटी-सी हिंदी की धरती पर खड़ा होकर यह कह रहा हूँ कि लेखक और पत्रकार दोनों के लिए अपने-अपने कर्म की पहली शर्त निडरता है। यह निडरता भी सुविधाजनक सच कहने के अर्थ में नहीं है। असुविधाजनक सच को फटकार कहना ही मेरी दृष्टि में निडरता है। किसी छोटे से पौधे से टकरा कर आप बहादुर नहीं हो जाएँगे, बड़ों से टकराइए, साहित्य के उन सत्ताप्रमुखों से टकराइए जो आपको महत्व देना बंद कर सकते हैं। बिना कुछ खास लिखे आपको लेखक मानना बंद कर सकते हैं। जो आपसे पूछ सकते हैं कि भाई जी आपका काम हिंदी आलोचना में है या कथा साहित्य में या कविता में ? इतना फैलने की वजह क्या है ? संपादकजी लोग ही नहीं, नये-नये लेखक भी खूब फैलते हैं। दुनिया भर के साहित्य का हवाला देते हैं। जिस कबीर को आज भी जपते हो, क्यों जपते हो ? वे कपड़ा बुनते हुए कविता लिखते थे या तुम्हारी तरह रसरंजन के समुद्र में दुनिया भर का साहित्य खंगालते हुए ? फिर तो दुनिया की परिक्रमा करने वाले कवियों और आलोचकों को उनसे बड़ा होना चाहिए था ? विश्वकविता के दीवाने कहाँ हैं ? कितने हजार साल बाद बड़ा होंगे ? मैं आज तक नहीं समझ पाया कि भाई विश्वसाहित्य या विश्वकविता वालों को तुम्हारे हिंदी साहित्य या हिंदीकविता की भी उतनी ही जरूरत है, जितनी तुम्हें उनकी ? कब तक तुम्हारी हिंदीकविता, विश्वकविता की चाकरी करेगी ? मैं मना नहीं कर रहा हँू कि आप मेरी तरह कुएँ का मेंढ़क बनिए। गोरखपुर की हिंदी की लंका में सड़ जाइए। बड़े-बड़े शहरों में रहिए। सचमुच का बड़ा बनिए। अपने काम को अच्छा बनाइए। अपने काम पर मुग्ध होइए पर पहले काम तो कीजिए। काम पर मुग्ध होइिए, अपने गिरोह पर या लेखक संगठन या अखबार या पुरस्कार पर नहीं। मैं अकेला कुछ नहीं कर सकता हूँ। मेरे कहने से आपकी कविता खराब नहीं हो जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे किसी बेईमान के कहने से अच्छी नहीं हो जाएगी।
   मित्रो, समय बीत रहा है। हम सब मृत्यु की ओर हैं। हम क्या कर रहे हैं ? न कोई अपना अखबार लेकर यहाँ से जाएगा न कोई अपना पुरस्कार। अखबार और पुरस्कार कोई बाद में पूछेगा नहीं। ऐसे में फिर भारतेंदु याद आते हैं, प्यारे हरिचंद की कहानी रह जाएगी। प्यारे की कहानी रह जाएगी, बुरे की नहीं, हिंदी के खलनायक की नहीं। यह कहानी भी नाम की नहीं, काम की कहानी है। कविताएँ ही बचेंगी, कहानियाँ ही बचेंगी, बाकी तो सब खत्म हो जाएगा। इसलिए हे आत्ममुग्ध लोगो अपनी लालबत्ती उतारिए। हजार-पाँच सौ की चाहे दो-चार लाख की लालबत्ती से खुद को हिंदी कविता का स्टार-सुपरस्टार मत समझिए। आत्ममुग्धता के एवरेस्ट से नीचे आइए। धरती पर विराजिए, कुछ साहित्य का भला कीजिए। साहित्य का भ्रष्टाचार कुछ कम कीजिए। मित्रो मुश्किल यह कि जिनके पास अपना कोई आत्म नहीं है, वे भी आत्ममुग्ध हैं। अपना कोई आत्म होता, कोई आत्मा होती तो उसका कोई अर्थ बनता। यहाँ तो दूसरों की कृपा पर टिका हुआ आत्म है और आत्मा के नाम पर आत्महंता आत्मा है। ऐसे लोग कवि हों, कथाकार हों या आलोचक हों चाहे संपादक हों, इनके होने का कोई अर्थ नहीं है।