सोमवार, 24 अप्रैल 2017

एक कवि और शेष कवि

- गणेश पाण्डेय

एक कवि
अपने वक्त में
साहित्यनीति के लिए
लड़ रहा था

मठों और किलों से
टकरा-टकरा कर
अपना सिर
लहूलुहान कर रहा था

था एक पागल कवि
साहित्य की दुनिया में
खुदकुशी कर रहा था

शेष कवि
अपनी कमीज की आस्तीन मोड़कर
लिखने की मेज पर
बड़ी अदा से कोहनी टिकाये
राजनीति
और समाजनीति पर
धुआंधार
क्रांतिकारी कविताएं लिख रहे थे

शेष कवि
चीख-चीख कर कहते थे
कि वे किसी भी चुने हुए
तानाशाह और उसकी फौज से नहीं डरते थे
अलबत्ता
अकादमी अध्यक्ष की पिस्तौलछाप धोती से
थर-थर-थर कांपते रहते थे

यह
दो हजार सत्रह का
बहुत बुरा साल था
एक कवि
कविता के लिए अपनी जान दे रहा था

शेष कवि
उत्सवपूर्वक
हजार प्रकार से
गऊ जैसी कविता की जान ले रहे थे।



शनिवार, 8 अप्रैल 2017

जैसा हूं वैसा हूं

- गणेश पाण्डेय

हूं
गुरुद्रोही हूं

नहीं हूं
साहित्यद्रोही नहीं हूं

जो भी हूं
बिल्कुल पारदर्शी हूं

हूं
गरीब प्रेमचंद हूं

नहीं हूं
अमीर इनामचंद नहीं हूं

जैसा हूं वैसा हूं
हिन्दी के हरामजादों जैसा नहीं हूं

हूं
बहुत से बहुत ज्यादा पागल हूं।